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    रात का दूसरा किनारा

    आर्या मेहता पुराने शहर की गलियों में नवंबर की धुंध ऐसे उतरती थी, जैसे कोई धीमी धुन दीवारों पर टिक-टिक करती हो। शाम के पाँच बजते ही सफ़ेद रोशनी वाले बल्बों के चारों ओर पतंगों की नन्ही परिक्रमा शुरू हो जाती, और मिट्टी से आती सोंधी गंध लोगों के चेहरों पर अनजाने-से भाव रच देती। उसी धुंध में, चौक की मोड़ पर, “गुलमोहर लाइब्रेरी” अपनी लकड़ी की खिड़कियों के पीछे शांति की एक अलग दुनिया समेटे बैठी रहती—पुराने पन्नों की महक, फुसफुसाहट-सी आवाज़ें, और गिरे हुए पत्तों की ख़ामोशी। अदिति ने दरवाज़ा धकेला तो घंटी की एक पतली-सी ‘टिन’ बजकर…

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    रात की रौशनी में तुम

    तृषा तनेजा १ धुंध से भरी उस सुबह में, पहाड़ों का रंग नीला नहीं था—वह कुछ धुंधला, कुछ राखी था, जैसे नींद से आधे जागे किसी ख्वाब के किनारे खड़े हों। चित्रधारा नामक इस छोटे से पहाड़ी कस्बे में पहली बार कदम रखते ही दक्ष सहगल को लगा मानो किसी भूली हुई याद की गलियों में लौट आया हो। स्टेशन से लेकर गांव के ऊपरी छोर तक पहुँचने वाली पतली पगडंडी के दोनों ओर देवदार के ऊँचे वृक्ष उसकी यात्रा के साथी बने हुए थे। उसके ट्रैवल बैग से लटकता कैमरा हर छाया को पकड़ने को उतावला था, पर उसके…

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    ख्वाबों के उस पार

    अदिति राठी भाग 1: मुलाक़ात पन्ना की सर्दी में धूप एक वरदान जैसी लगती थी। स्कूल की छत पर बिछी टाट की चटाइयों पर बच्चे बैठकर चित्र बना रहे थे—सूरज, पेड़, झोपड़ी, और किसी कोने में एक मंदिर की घंटियां। रेवती चौहान बीच में खड़ी, बच्चों की तस्वीरों पर झुकती, तारीफ़ करती और कभी-कभी पेंसिल हाथ में लेकर कोई रेखा ठीक कर देती। उसकी चुन्नी कंधे से खिसकती रहती थी, और वो बार-बार उसे एक ही अंदाज़ में पीछे सरका देती थी। जैसे उसकी ज़िंदगी में सब कुछ इसी दोहराव के भीतर समाहित था—शांत, व्यवस्थित, और बंधा हुआ। उसी दोपहर,…

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    एक रूम, दो दिल

    दिव्या कपूर १ बैंगलोर की हल्की बारिश वाली उस सुबह रीमा सेन ने एक हाथ में छाता और दूसरे हाथ में एक भारी बैग थामे ऑटो से उतरते ही चैन की सांस ली। कोलकाता से आए हुए उसे कुछ ही दिन हुए थे, लेकिन इस शहर की सड़कों और ट्रैफिक ने पहले ही उसे बता दिया था कि यहां की ज़िंदगी कितनी तेज़ है। वो एक नई नौकरी की शुरुआत करने जा रही थी – एक ग्राफिक डिज़ाइन स्टार्टअप में, जहाँ उसकी क्रिएटिविटी को पहली बार सही मायने में पहचान मिलने वाली थी। लेकिन सबसे बड़ी चिंता थी – रहने…

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    बारिश की वो बात

    आरोही वर्मा वो जुलाई की पहली बारिश थी। दिल्ली की सड़कों पर धूल धुल रही थी और आसमान के हर कोने से बूंदें टपक रही थीं। ऑफिस से लौटते वक़्त सारा कुछ भीग गया था—कपड़े, बाल, मन। लेकिन अदिति को बारिश से कभी शिकायत नहीं थी। बारिश उसके लिए हमेशा एक नया पन्ना खोलती थी—नमी से भरा, स्याही से गीला, यादों से लिपटा हुआ। उसे बारिश में चलना पसंद था, बिना छाते के। लेकिन आज पहली बार किसी ने उसके हाथ में छाता थमाया था। “इतनी भीग क्यों रही हो? बीमार पड़ोगी।” वो आवाज़ जैसे बादलों के बीच से आई…

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    गुलाबी दुपट्टा

    ईशा पांडेय १ दिल्ली की एक उमस भरी दोपहर थी। चारों ओर ट्रैफिक का शोर, कारों के हॉर्न और मोबाइल फोन की लगातार बजती घंटियाँ करण वर्मा की चेतना को कुंद कर रही थीं। अपने ऑफिस के कांच लगे स्टूडियो में बैठा वह बार-बार कैमरे की लेंस से बाहर झांक रहा था — जैसे कोई रास्ता खोज रहा हो भाग जाने का। करण एक प्रसिद्ध फ़ोटोग्राफर था, जिसे शहरी जीवन, फैशन शोज़, विज्ञापन और मॉडलों की ज़िंदगी को लेंस में उतारने में महारत हासिल थी। पर अब वह इस चकाचौंध से थक गया था। हाल ही में एक डॉक्यूमेंट्री शूट…

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    विवाह से पहले

    विवेक शर्मा जयपुर की सर्दियों में जब गुलाबी हवाएं हवेली की पुरानी खिड़कियों से टकराती थीं, उस समय गोयल परिवार के आँगन में गहमागहमी थी। हल्के गुनगुने धूप में बैठे बुज़ुर्ग चाय पीते हुए किसी बड़े फैसले की चर्चा कर रहे थे, और रसोई से आती मसालों की खुशबू माहौल को और आत्मीय बना रही थी। अंशिका अपने कमरे की बालकनी में खड़ी सब देख रही थी, जैसे वह दृश्य का हिस्सा होते हुए भी अलग थी। उसकी माँ, विनीता गोयल, बार-बार नीचे से उसे बुला रही थीं लेकिन अंशिका की नजरें आसमान में उड़ते कबूतरों में उलझी थीं। पिछले…

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    पल दो पल की बात नहीं थी

    श्रेयांशी वर्मा फिर से देखना वाराणसी की वो दोपहर वैसी ही थी जैसी होती है—धूल भरी, हल्की धूप से चकाचौंध, और गंगा की तरफ बहते हवा के छोटे-छोटे झोंकों के साथ एक ठहराव लिए। घाटों के पास बैठा आरव त्रिपाठी, अपनी डायरी की खाली पन्नियों को ताक रहा था, मानो शब्द कहीं खो गए थे। एक दशक से भी ज़्यादा समय हो गया, लेकिन उस शहर की गंध, वो पुराने पत्थर की दीवारें, वो किताबों की दुकानें—सब अभी भी वैसा ही था। बस एक चीज़ बदल गई थी—वो। संजना मिश्रा। वो अब भी उसी शहर में थी। वही गलियाँ, वही…

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    उस रात जंतर मंतर पर

    विराज देशमुख अध्याय १ दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैंपस की सड़कें अगस्त की हल्की बारिश से चमक रही थीं। पेड़ों की पत्तियाँ भीग चुकी थीं, और हॉस्टल के गलियारों में एक नई उमंग घुली हुई थी—नए सेमेस्टर की, नई क्लासेस की, और हाँ, नए चेहरों की भी। आर्ट्स फैकल्टी के बाहर एक छोटा-सा जमावड़ा था, हाथों में पोस्टर, गले में स्लोगन, और आँखों में जुनून। काव्या, अपने कुर्ते के नीचे एक पुराने से झोले में नोटबुक और पेन लिए, उस भीड़ के बीच खड़ी थी—ना पीछे, ना आगे—बस ठीक वहीं जहाँ सबसे ज्यादा आवाज़ गूंजती थी। “आज की नारी सब…

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    कुमाऊँ की हवाएँ

    सान्या जोशी अदिति कपूर की ज़िन्दगी एक दौड़ बन चुकी थी। दिल्ली की व्यस्त सड़कों पर उसके कदम तेज़ थे, और उसकी आँखें हमेशा किसी न किसी लक्ष्य की ओर दौड़ती रहती थीं। एक सफल कॉर्पोरेट पेशेवर, 28 वर्षीय अदिति ने शहर की तेज़-तर्रार दुनिया में अपने कदम जमा लिए थे। मगर, अब यह सब उसे बोझ लगने लगा था। हर दिन की भागदौड़, मीटिंग्स, डेडलाइन्स और संघर्ष ने उसे थका दिया था। वह अपने जीवन में एक स्थिरता की तलाश में थी, लेकिन यहाँ, दिल्ली में, ऐसा कुछ भी नहीं था। उसके पास सब कुछ था—उच्च वेतन, एक भरा-पूरा…