समीरा आबरू पुराना लखनऊ उस शाम कुछ और ही रौनक में डूबा हुआ था। चौक की हवेली, जिसकी मेहराबों में अब भी पुराने ज़माने की नवाबी झलकती थी, आज रोशनियों से नहा रही थी। झूमरों की सुनहरी चमक, दीवारों पर लटकते रंग-बिरंगे पर्दे और आँगन में बिछे मोटे क़ालीन, सब मिलकर माहौल को एक अदबी जन्नत बना रहे थे। पान और इत्र की ख़ुशबू हवाओं में घुली थी, और शेर-ओ-शायरी के शौक़ीन लोग धीरे-धीरे महफ़िल में अपनी जगह तलाश कर रहे थे। शेरों की दबी-दबी गुनगुनाहट, मुस्कुराहटों और आदाब के सिलसिले ने महफ़िल को पहले ही गर्म कर दिया था।…
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ऋषभ शर्मा १ दिल्ली के उत्तरी हिस्से में एक ऐसा इलाका है जिसे लोग अब बस “पुराना औद्योगिक क्षेत्र” कहकर पुकारते हैं। कभी यहाँ कारख़ानों की कतारें थीं, मशीनों की आवाज़ और मजदूरों की भीड़ से गली-गली गूंजती रहती थी, लेकिन अब सब कुछ खंडहर में बदल चुका है। टूटे हुए शटर, जंग लगे बोर्ड, काई से ढकी दीवारें और जगह-जगह पड़े लोहे के टुकड़े इस क्षेत्र को एक अजीब वीरानी का चेहरा देते हैं। सबसे भयावह है उस लंबे, टेढ़े-मेढ़े रास्ते के बीचों-बीच खड़ा एक पुराना, काला लैम्पपोस्ट। उसकी पीली रोशनी धुंधली और कांपती-सी लगती है, जैसे खुद उस…
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सौरभ पांडेय भाग 1 – बनारस की रात बनारस स्टेशन की पुरानी घड़ी रात के ग्यारह बजकर पैंतीस मिनट दिखा रही थी और प्लेटफ़ॉर्म पर गाड़ियों की आवाजाही थम-सी गई थी, आख़िरी ट्रेन के इंतज़ार में कुछ बचे-खुचे यात्री धीरे-धीरे अपनी चादरें समेट रहे थे, कोई थैले से समोसा निकालकर खा रहा था, तो कोई चाय वाले की स्टील के गिलास से धुआँ उड़ाते हुए अपने थके चेहरे को राहत दे रहा था, और इसी भीड़ में कबीर हाथ में पुराना बैग थामे बेचैन नज़रों से ट्रैक की ओर देख रहा था क्योंकि उसे किसी भी हालत में ये आख़िरी…
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अनुराग मिश्रा हवेली की घंटी पुराना दिल्ली दरवाज़ा रात के बादलों में घुलकर एक फीकी आकृति बन गया था, और उसके पीछे से चलती संकरी गलियाँ अपने-अपने नाम भूलकर बस एक ही लय में सांस ले रही थीं—धीमी, टुकड़ों में टूटी, जैसे बहुत पुरानी घड़ी की टिक-टिक; उन्हीं गलियों में उस रात मुकुल चला आ रहा था, बैग में छोटा रिकॉर्डर, जैकेट की जेब में नोटबुक, और फ़ोन की स्क्रीन पर चमकती एक अजीब-सी सूचना: “12:17. सुनोगे तो समझोगे.” यह मैसेज उसे एक अनजान हैंडल से रोज़ाना पिछले तीन दिनों से मिल रहा था—घंटी की इमोजी के साथ—और आज उसने…
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सत्यजीत भारद्वाज १ वाराणसी की सुबह उस दिन हमेशा की तरह गंगा की धुंधली लहरों से जागी थी, लेकिन डेविड मिलर के लिए यह क्षण किसी सपने की तरह था। रातभर की रेलयात्रा और थकान के बावजूद जैसे ही उसने स्टेशन से बाहर कदम रखा, उसके चारों ओर की हलचल ने उसकी थकान को कहीं पीछे छोड़ दिया। रिक्शों की आवाजें, मंदिर की घंटियों की टुन-टुन और हवा में घुली अगरबत्ती की महक उसके भीतर एक अजीब सा कंपन पैदा कर रही थी। उसके पैरों में अब तक पश्चिमी शहरों की ठंडी, व्यवस्थित सड़कों की आदत थी, मगर यहाँ ज़मीन…
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अन्वी शर्मा १ लखनऊ मेडिकल कॉलेज की सुबह हमेशा अलग होती थी—कभी नीले आसमान में सूरज की तेज़ धूप सीधी इमारतों की सफ़ेद दीवारों पर पड़कर चमक उठती, तो कभी बरामदों में टंगे नीले-हरे कोट और सफ़ेद लैब कोट हवा में झूलते रहते। उस सुबह कैंपस में एक अलग ही हलचल थी, क्योंकि नए बैच की कक्षाएँ शुरू हो रही थीं। हॉस्टल से निकलती लड़कियों के समूहों में हंसी-ठिठोली और लड़कों के बीच किताबें और नोट्स के बोझ तले दबे चेहरे—हर जगह एक ताजगी का माहौल था। इन्हीं चेहरों के बीच नायरा खान थी—दूसरे साल की मेडिकल स्टूडेंट, लेकिन नई…
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आरव मेहरा भाग 1 — अनजान आवाज़ उस रात दिल्ली की हवा में नमी थी और मेरी खिड़की पर महीन बारिश टपक रही थी। मैं लैपटॉप बंद करके बिस्तर पर गिरा ही था कि फोन बज उठा—एक नंबर जो पहले कभी नहीं देखा। मैंने उठाया, “हेलो?” दूसरी तरफ एक गहरी साँस, फिर धीमी आवाज़, “सॉरी… गलती से डायल हो गया।” उस स्वर में बारिश की-सी झनझनाहट थी। मैंने “कोई बात नहीं” कहा और कॉल कट गई। पाँच मिनट बाद वही नंबर फिर। “इस बार भी गलती?” मैंने मुस्कुराकर पूछा। वह बोली, “मत काटिए… बस पूछना था—क्या आपके यहाँ भी यह…
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दीपक मेहता भाग १ : नोटिस की दीवार सुबह का सूरज अभी ठीक से निकला भी नहीं था कि झुग्गी बस्ती की गलियों में हलचल मच गई। बच्चे स्कूल जाने की तैयारी में थे, औरतें चूल्हे पर चाय रख रही थीं, और आदमी अपने-अपने काम पर निकलने की सोच रहे थे। तभी किसी ने चिल्लाकर कहा— “अरे! देखो… हमारी बस्ती की दीवार पर कुछ चिपकाया गया है!” सभी लोग दौड़कर वहाँ पहुँचे। दीवार पर पीला-सा कागज़ चिपका था, जिस पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था— “सूचना : यह भूमि सरकारी है। यहाँ अवैध झुग्गियाँ बनाई गई हैं। पन्द्रह दिनों के…
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समीरा चतुर्वेदी १ काव्या के लिए किताबों की दुकान किसी मंदिर से कम नहीं थी। हर शनिवार दोपहर वह अपने बैग में एक नोटबुक और पेन रखकर मेट्रो से सीधे कनॉट प्लेस की उस संकरी गली में उतरती, जहाँ लकड़ी की अलमारियों और पुराने काग़ज़ की गंध से भरी वह छोटी-सी दुकान थी। बाहर से देखने पर वह दुकान किसी पुराने ज़माने की विरासत लगती—फीकी होती हुई नीली पेंट की दीवारें, दरवाज़े पर लटकता हुआ घंटी वाला परदा और अंदर जाते ही धूल और इतिहास की मिली-जुली खुशबू। काव्या को हमेशा लगता कि इस जगह पर किताबें सिर्फ़ पढ़ने के…
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पवन कुमार शाह इलाहाबाद शहर की तंग गलियों के बीचोंबीच बसा हुआ वह पुराना डाकघर बरसों से अपनी जगह पर वैसे ही खड़ा था जैसे समय ने उसे भुला दिया हो। चारों ओर से छिल चुकी पपड़ी वाली दीवारें, जंग खाए लोहे के गेट और मकड़ी के जालों से भरे छज्जे इस इमारत की थकान का प्रमाण थे। सर्दियों की उस धुंधली सुबह में डाकघर की हवा भी किसी अजनबी बेचैनी से भरी हुई लग रही थी। पोस्टमास्टर हरीश चतुर्वेदी अपनी रोज़मर्रा की दिनचर्या में डूबे हुए थे—कभी पुराने रजिस्टर पर झुकी आंखें, कभी डाकियों को निर्देश देने का स्वर,…