दिल्ली के शाहपुर जाट इलाके की पतली गलियों में, एक पुरानी इमारत की तीसरी मंज़िल पर अवनि शर्मा ने हाल ही में किराए पर एक फ्लैट लिया था। मकान मालिक ने कहा था, “थोड़ा पुराना है, मगर शांत इलाका है।” अवनि को यही चाहिए था—शांति। एकाकी ज़िंदगी, कॉफी मग में भाप लेती शामें, लैपटॉप पर काम और दीवार पर टँगी किताबों की अलमारियाँ। वह एक डिजिटल मीडिया एडिटर थी और ज़्यादातर वक़्त घर से ही काम करती थी। फ्लैट छोटा था लेकिन खुला-खुला, जिसकी बालकनी से हौज खास के पुराने गुंबद दिखाई देते थे। मगर पहले ही दिन जब वह…
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विराज जोशी १ ऋत्विक घोषाल एक ऐसे लेखक थे जिनकी आँखों में नींद नहीं, बल्कि पुराने समय की छवियाँ तैरती थीं। दिल्ली के करोल बाग के एक पुराने अपार्टमेंट की चौथी मंज़िल पर उनका छोटा सा कमरा था—दीवारें जर्जर, खिड़की से झांकती धूल, और हर कोने में बिखरे किताबों के ढेर जिनमें से ज़्यादातर रेडियो ड्रामा, पुरानी कहानियाँ और भारतीय ऑडियो आर्काइव्स पर केंद्रित थे। पिछले छह महीने से वह एक किताब पर काम कर रहे थे, जिसका विषय था: “बुलंद आवाज़ें – भारतीय रेडियो नाटकों का इतिहास”, लेकिन लेखन अब थकान बन चुका था। उसी थकान से उबरने के…
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शैलेश पटनायक १ बिहार के सुपौल जिले के पूर्वी छोर पर बसा था कंचनपुर गांव — खेतों और तालाबों के बीच झूमता हुआ एक शांत पर रहस्यमय संसार। दोपहर की गर्मी ढल रही थी जब नीलोत्पल मिश्रा और उसकी नवविवाहिता पत्नी संध्या, गांव की कच्ची सड़कों से गुजरते हुए अपने पुश्तैनी मकान के सामने पहुंचे। पुराने समय की लाली पुती दीवारें, टीन की छत और आंगन में खड़े आम और नीम के पेड़ गांव के परिवेश की आत्मा को जीवंत बनाए हुए थे। संध्या ने पहली बार इस मिट्टी की गंध को महसूस किया — नम, सोंधी, और किसी अनजाने…
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संजीव रावत १ गढ़वाल की घाटियों में शाम जल्दी उतरती है। सूरज के ढलते ही पहाड़ियों की परछाइयाँ लंबी होकर पूरी घाटी को निगल जाती हैं। नीरज रावत, अपने कंधों पर भारी बैकपैक लटकाए, एक संकरी बर्फ़ीली पगडंडी पर बढ़ रहा था। उसका मफलर बर्फ की सफ़ेद चादर में भीग चुका था और सांसें अब स्टीम की तरह बाहर निकल रही थीं। GPS सिग्नल कब का गायब हो चुका था और मोबाइल अब केवल टाइम दिखाने की मशीन बनकर रह गया था। वह अपने कैमरे से कुछ तस्वीरें लेने की कोशिश कर रहा था, लेकिन हाथ सुन्न पड़ने लगे थे।…
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सौरभ ठाकुर १ छत्तीसगढ़ की पहाड़ियों और जंगलों के बीच बसे अनछुए रास्तों पर अनिरुद्ध घोष की जीप धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। मौसम अजीब रूप से ठहरा हुआ था — न हवा, न चिड़ियों की चहचहाहट, बस पेड़ों की लंबी छायाएँ और कभी-कभी टायरों के नीचे कुचले पत्तों की आवाज़। अनिरुद्ध, जो कोलकाता का एक खोजी पत्रकार था, ऐसे ही अनजाने, लगभग भूले-बिसरे गाँवों की लोककथाओं और अंधविश्वासों पर रिपोर्टिंग करता था। इस बार उसे एक गुमनाम ईमेल के ज़रिए पैतालगाँव के बारे में पता चला था — “हर तीसरी रात, यहाँ कोई न कोई गायब हो जाता है……
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प्रताप श्रीवास्तव १ लखनऊ विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी की सबसे ऊपरी मंज़िल पर, जहाँ किताबों पर धूल की मोटी परत जम चुकी थी, वहीं एक कोने में बैठा था इतिहास विभाग का शोधार्थी विवेक मिश्रा। बाहर बारिश की बूँदें खिड़की की काँच पर थपकी दे रही थीं, लेकिन विवेक की आंखें जमी थीं उस पुराने नक्शे पर जिसे वह पिछले दो घंटे से उलट-पलट कर रहा था। नक्शा 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय का था—लखनऊ की गलियाँ, कोठियाँ, और हवेलियाँ उसमें चिन्हित थीं। अचानक उसकी नज़र एक धुँधले से नाम पर पड़ी—”रौशन मंज़िल”। ना किसी इतिहास की किताब में इसका…
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तृषा मिश्रा १ दिल्ली की भीड़भाड़ और धूल-धक्कड़ भरी गलियों से निकलकर जब डॉ. वेदिका माथुर उत्तर प्रदेश के उस सुदूर गाँव ‘बड़ागाँव’ पहुँची, तो सुबह के आठ बजे थे। बस स्टैंड पर बस ने झटके से ब्रेक लगाया था और साथ बैठे ग्रामीणों की बातचीत एक पल को थम गई थी। हाथ में जंग खाया लोहे का सूटकेस और कंधे पर लैपटॉप बैग लटकाए वेदिका जब उतरी, तो गाँव की गलियों ने उसका स्वागत सन्नाटे से किया। उसका उद्देश्य सीधा था—इस गाँव के मंदिर के पास रखे लोहे के एक रहस्यमयी पिंजरे के बारे में जानना, जिसके बारे में…
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आलोक पाण्डेय १ राजस्थान की तपती हुई धरती पर फैला हुआ था कर्णपुरा गाँव—एक ऐसा स्थान जहाँ गर्म हवाएँ दिन में साँय-साँय करती थीं और रात होते ही सब कुछ जैसे ठहर जाता था। चारों ओर बंजर ज़मीन, सूखे पेड़ों की छाँह, और रेत में गहराती चुप्पी। जुलाई की उस दोपहर में, जब सूरज अपनी पूरी प्रखरता से चमक रहा था, दिल्ली विश्वविद्यालय से रिसर्च स्कॉलर अन्वेषा शर्मा ने पहली बार इस गाँव की मिट्टी को छुआ। हाथ में डायरी, बैग में रिकॉर्डिंग डिवाइस और मन में ढेर सारे सवाल लेकर वह एक पुरानी जीप से उतरी, जो उसे शहर…
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मानव वर्धन १ मध्य प्रदेश के भीतरी हिस्सों में बसा था एक पुराना, लगभग भुला दिया गया गाँव — बेरोज़ा। इस गाँव का नाम तक मानचित्रों में साफ़ नहीं दिखता था, लेकिन उसकी कहानियाँ लोकगीतों और बुज़ुर्गों की फुसफुसाहटों में अब भी ज़िंदा थीं। किसी जमाने में यह इलाका राजा वीरप्रताप सिंह के अधीन था, जिनकी विशाल हवेली अब वीरान पड़ी थी। हवेली की जर्जर दीवारें, छत पर उगी काई, टूटी खिड़कियाँ और सामने की परछाइयाँ — सब मिलकर उस जगह को किसी शापित चित्र की तरह बनाते थे। पत्रकार शौर्य वर्मा और उसकी कैमरा ऑपरेटर मित्र दीपिका उस दिन…
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निखिल देसाई १ कच्छ के सफेद रेगिस्तान में जब सूर्य ढलता है, तो आकाश किसी सूती कपड़े पर फैले सिंदूरी रंग-सा लगता है। ध्रुव पटेल ने कैमरे की लेंस से उस दृश्य को कैद करते हुए गहरी साँस ली। “WanderSoul.in” पर पोस्ट होने वाली यह उसकी अगली कहानी थी, और वह चाहता था कि यह कुछ अलग हो—कुछ ऐसा जो पाठकों को रेगिस्तान की गंध, उसके रंग और उसकी नीरवता तक पहुँचा दे। अहमदाबाद से आए हुए उसे तीन दिन हो चुके थे और रण उत्सव की भीड़-भाड़ से दूर वह भुज से लगभग सत्तर किलोमीटर दूर एक गांव, खुदर…