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    पिंकी की साइकिल

    संदीप मिश्रा सुबह की हल्की धूप मोहल्ले की पतली गली में सुनहरी चादर बिछा रही थी। अमरुद के पेड़ों पर बैठी चिड़ियाँ अपनी चहचहाहट से जैसे कोई संदेश दे रही थीं। हवा में सुबह-सुबह खिले गेंदा और गुलाब के फूलों की खुशबू घुली हुई थी। पर आज मोहल्ले में रोज की तरह सुस्ताता सन्नाटा नहीं था। आज हर किसी की नजर एक ही घर की ओर थी — पिंकी के घर की ओर। पिंकी आठ साल की नटखट, जिद्दी और शरारती बच्ची थी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में हमेशा कोई नई शरारत चमकती रहती थी। उसके छोटे से घर का आँगन…

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    कांता बुआ का मोबाइल मिशन”

    सुनील शर्मा कांता बुआ को मोहल्ले में कौन नहीं जानता था? उम्र साठ के पार, लेकिन जुबान इतनी तेज़ कि मोहल्ले की दीवारें भी डर के मारे कांप जाएँ। सफेद बाल, माथे पर बड़ी सी बिंदी, और पल्लू हमेशा सिर पर — कांता बुआ का लुक देखकर कोई भी उन्हें सीधा-सादा समझ लेता, लेकिन असली गड़बड़ वहीं से शुरू होती थी। “अरे सुन री विमला! तूने सुना, सामने वाली पुष्पा की बहू रोज़ छत पर फोन पर बात करती है, लगता है कोई चक्कर-वक्कर है!” बुआ ने नाश्ते के समय विमला चाची को बताया, जो खुद मोहल्ले की “डेली न्यूज़…

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    घड़ी गई तो गड़बड़ शुरू

    सौरभ मिश्रा भाग 1 लक्ष्मी नगर की गली नंबर सात में एक बड़ा ही विचित्र मामला हुआ। बाबूलाल जी की घड़ी चोरी हो गई। अब आप सोचेंगे, इसमें क्या बड़ी बात है? लेकिन जनाब, ये कोई मामूली घड़ी नहीं थी। ये वही ‘ओमेगा’ घड़ी थी जो बाबूलाल जी ने अपने रिटायरमेंट के समय खुद को गिफ्ट दी थी—पेंशन के पैसों से। और पूरे मोहल्ले में उन्होंने इसे ऐसे दिखाया था जैसे वो NASA के सैटेलाइट का कंट्रोल रूम हो। घड़ी में अलार्म, रेडियो, तापमान, चाँद की स्थिति, और ना जाने क्या-क्या सुविधाएँ थीं। सबसे बड़ी बात, घड़ी ‘ब्लू टूथ’ से…

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    बड़े बाबू का चश्मा

    शरद ठाकुर लखनऊ के पुराने चौक मोहल्ले में एक लाल-ईंटों की हवेली है, जिसकी दीवारों पर वक़्त ने अपनी रेखाएँ खींच दी हैं। उसी हवेली के आँगन में, आम के पुराने पेड़ के नीचे रखी एक बेंत की कुर्सी पर हर सुबह विराजमान होते हैं—श्री बृजमोहन तिवारी, उर्फ़ बड़े बाबू। उम्र लगभग सत्तर पार, लेकिन चाल-ढाल में आज भी वह ‘पोस्ट ऑफिस के हेड क्लर्क’ की गरिमा बरकरार रखे हुए हैं। सुबह होते ही, जब मुहल्ले में दूधवाले की साइकिल की घंटी बजती है और नल से पानी टपकने लगता है, बड़े बाबू की नींद खुल जाती है। एक हाथ…

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    अंधेरे में हँसी

    अमूलिक त्रिपाठी भाग 1 रतनलाल मिश्र को रिटायर हुए दो साल हो चुके थे, लेकिन मोहल्ले में अब भी लोग उन्हें ‘मिश्र जी पोस्टमैन’ कहकर बुलाते थे। असली नाम से कोई कुछ नहीं पुकारता, जैसे आदमी नहीं, उसकी पुरानी नौकरी ही उसकी पहचान हो। रतनलाल को इससे कोई आपत्ति नहीं थी। अब तक तो आदत पड़ गई थी — पहचान की, अकेले चाय पीने की, और उस दीवार घड़ी की जो हमेशा पाँच मिनट आगे चलती थी, शायद ताकि ज़िंदगी की उदासी को थोड़ी जल्दी दिखाया जा सके। पत्नी गुजर गई थी, बेटा दुबई में था, बहू को हिंदी समझ…