अर्पण शुक्ला अध्याय की शुरुआत गर्म, सुनहरे रेगिस्तान की छवि से होती है, जहाँ सूरज की तेज़ किरणें रेत की लहरों पर चमकती हैं। आर्यन, सायली, करण और निधि, चार कॉलेज के दोस्त, अपनी बैकपैक में जरूरी सामान पैक कर, राजस्थान की असीमित रेगिस्तानी भूमि की ओर निकलते हैं। हर कोई इस यात्रा को लेकर उत्साहित और थोड़ा नर्वस महसूस कर रहा था, क्योंकि उनकी योजना सिर्फ पर्यटन या तस्वीरें लेने तक सीमित नहीं थी; उनका उद्देश्य प्राचीन स्थलों, भूतपूर्व किलों, और लोककथाओं में गहराई से उतरना था। कार की खिड़की से बहती हवा उनके चेहरे को छू रही थी,…
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अभिनव सेठ १ गंगा किनारे बसे उस कस्बे की सुबह हमेशा शांति और प्रार्थना से शुरू होती थी। मंदिर की घंटियों की ध्वनि, घाट पर उठता धुआँ, और पानी में उतरती नावों की आवाज़ें मानो जीवन का हिस्सा थीं। लेकिन उस दिन सूरज की पहली किरणें अभी पूरी तरह फैली भी नहीं थीं कि घाट पर मछली पकड़ने गया मन्नू नाविक चीख पड़ा। उसकी आँखें भय से फटी हुई थीं—पानी के बहाव में एक शव तैर रहा था। लोग दौड़कर जमा हो गए, और कस्बे में हड़कंप मच गया। शव को किनारे लाया गया तो पता चला कि वह कोई…
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१ ठाकुर अजय प्रताप सिंह अपने इलाके के सबसे चर्चित और सम्मानित जमींदार थे। जीवन की ढलती उम्र में भी उनकी आवाज़ और व्यक्तित्व में वही रौब था जो युवावस्था में दिखता था। विशाल हवेली, लंबा-चौड़ा बगीचा, दर्जनों नौकर और जमीन-जायदाद के अनगिनत कागजात—सब कुछ मानो उनकी शख्सियत का विस्तार थे। लेकिन उस रात हवेली के अंदर का माहौल कुछ अलग था। हवेली की घड़ी ने रात के ग्यारह बजाए ही थे कि अचानक नौकरों की ओर से हलचल मच गई। ठाकुर अपने निजी कमरे में बैठे थे, मेज पर रखी डायरी और पास में रखी एक फाउंटेन पेन के…
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कुणाल राठौर एपिसोड 1 : तहखाने की खिड़की रात ढाई बजे दिल्ली की हवा भारी थी। डिफेंस कॉलोनी की पुरानी कोठी—डी-17—के बाहर पुलिस की पीली पट्टी लगी थी। भीतर कदम रखते ही रिपोर्टर नैना त्रिपाठी को महसूस हुआ मानो दीवारें खुद साँस ले रही हों। बरामदे में एक परिचित चेहरा दिखा—राघव मेहरा, क्राइम ब्रांच के रिटायर्ड अफ़सर। हाथ में टॉर्च, आँखों में वही पुराना धैर्य। “आप यहाँ?” नैना ने पूछा। “आवाज़ सुनकर आया। और यह केस मुझे पुकार रहा था।” स्ट्रेचर पर लेटा मृतक था—आईएएस अफ़सर अरविंद कश्यप। चेहरे पर नीली झलक और कमरे में हल्की बादाम जैसी गंध। नैना…
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ऋषभ शर्मा १ दिल्ली के उत्तरी हिस्से में एक ऐसा इलाका है जिसे लोग अब बस “पुराना औद्योगिक क्षेत्र” कहकर पुकारते हैं। कभी यहाँ कारख़ानों की कतारें थीं, मशीनों की आवाज़ और मजदूरों की भीड़ से गली-गली गूंजती रहती थी, लेकिन अब सब कुछ खंडहर में बदल चुका है। टूटे हुए शटर, जंग लगे बोर्ड, काई से ढकी दीवारें और जगह-जगह पड़े लोहे के टुकड़े इस क्षेत्र को एक अजीब वीरानी का चेहरा देते हैं। सबसे भयावह है उस लंबे, टेढ़े-मेढ़े रास्ते के बीचों-बीच खड़ा एक पुराना, काला लैम्पपोस्ट। उसकी पीली रोशनी धुंधली और कांपती-सी लगती है, जैसे खुद उस…
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अनुराग मिश्रा हवेली की घंटी पुराना दिल्ली दरवाज़ा रात के बादलों में घुलकर एक फीकी आकृति बन गया था, और उसके पीछे से चलती संकरी गलियाँ अपने-अपने नाम भूलकर बस एक ही लय में सांस ले रही थीं—धीमी, टुकड़ों में टूटी, जैसे बहुत पुरानी घड़ी की टिक-टिक; उन्हीं गलियों में उस रात मुकुल चला आ रहा था, बैग में छोटा रिकॉर्डर, जैकेट की जेब में नोटबुक, और फ़ोन की स्क्रीन पर चमकती एक अजीब-सी सूचना: “12:17. सुनोगे तो समझोगे.” यह मैसेज उसे एक अनजान हैंडल से रोज़ाना पिछले तीन दिनों से मिल रहा था—घंटी की इमोजी के साथ—और आज उसने…
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कृष्णा तामसी १ चारों तरफ बर्फ की सफेद चादरें बिछी थीं और हरे देवदार के पेड़ जैसे किसी पुराने रहस्य को छिपाए खड़े थे। आरव मल्होत्रा की जीप धीरे-धीरे घने कोहरे को चीरती हुई हिमाचल के दुर्गम पहाड़ी रास्तों से गुजर रही थी। मोबाइल नेटवर्क कब का गायब हो चुका था और जीपीएस भी मानो बर्फ में जम चुका था। ड्राइवर संजय, जो गांव का ही था, बिना कुछ कहे बस गाड़ी चलाता जा रहा था। आरव अपने कैमरे से बर्फबारी की फुटेज लेने में मग्न था, जब उसने अचानक पूछा, “संजय भाई, कितनी दूर है वो गेस्ट हाउस?” संजय…
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संजीव रावत १ गढ़वाल की घाटियों में शाम जल्दी उतरती है। सूरज के ढलते ही पहाड़ियों की परछाइयाँ लंबी होकर पूरी घाटी को निगल जाती हैं। नीरज रावत, अपने कंधों पर भारी बैकपैक लटकाए, एक संकरी बर्फ़ीली पगडंडी पर बढ़ रहा था। उसका मफलर बर्फ की सफ़ेद चादर में भीग चुका था और सांसें अब स्टीम की तरह बाहर निकल रही थीं। GPS सिग्नल कब का गायब हो चुका था और मोबाइल अब केवल टाइम दिखाने की मशीन बनकर रह गया था। वह अपने कैमरे से कुछ तस्वीरें लेने की कोशिश कर रहा था, लेकिन हाथ सुन्न पड़ने लगे थे।…
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प्रताप श्रीवास्तव १ लखनऊ विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी की सबसे ऊपरी मंज़िल पर, जहाँ किताबों पर धूल की मोटी परत जम चुकी थी, वहीं एक कोने में बैठा था इतिहास विभाग का शोधार्थी विवेक मिश्रा। बाहर बारिश की बूँदें खिड़की की काँच पर थपकी दे रही थीं, लेकिन विवेक की आंखें जमी थीं उस पुराने नक्शे पर जिसे वह पिछले दो घंटे से उलट-पलट कर रहा था। नक्शा 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय का था—लखनऊ की गलियाँ, कोठियाँ, और हवेलियाँ उसमें चिन्हित थीं। अचानक उसकी नज़र एक धुँधले से नाम पर पड़ी—”रौशन मंज़िल”। ना किसी इतिहास की किताब में इसका…
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हिमाचल की घाटियों में दिसंबर की रातें कुछ अलग ही किस्म की सन्नाटे से भरी होती हैं। हवा में बर्फ़ की गंध, पेड़ों पर जमीं सफेद चादर, और दूर कहीं से आती घंटियों की हल्की गूंज जैसे समय को रोक देती है। उन्हीं घाटियों में, देवदार के पेड़ों से घिरे एक पहाड़ी ढलान पर खड़ा है सेंट जोसेफ चर्च — एक पुराना, पत्थर का बना हुआ गिरिजाघर, जिसकी दीवारों में वक्त की सीलन और रहस्य दोनों बसे हैं। क्रिसमस के एक सप्ताह पहले की सुबह, जब गांव के लोग अपने घरों में लकड़ी जलाकर खुद को गर्म रखने में लगे…