विवेक मिश्रा शाम के साढ़े पांच बजे का वक्त था। आसमान धीरे-धीरे नारंगी से जामुनी होता जा रहा था। धूप की आखिरी किरणें गांव के पुराने पीपल के पेड़ों से छनकर मिट्टी पर पड़ रही थीं, और कहीं-कहीं से झींगुरों की आवाज़ें हवा में घुलने लगी थीं। यही वो वक़्त था जब रवि अपनी मोटरसाइकिल लेकर शांतिनगर की ओर बढ़ रहा था। सड़क सुनसान थी, पक्की नहीं — कच्ची मिट्टी से भरी हुई, और हर थोड़ी दूर पर गड्ढे। लेकिन रवि की आँखों में एक अलग ही चमक थी — वो एक पत्रकार था, जो ‘रहस्य’ की तलाश में गांव-गांव…
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अनिरुद्ध त्रिपाठी जनवरी की ठंडी सुबह थी। कुंभ मेले का शोर हर दिशा में गूंज रहा था — गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम तट पर आस्था और भक्ति की एक अलग ही दुनिया बसी थी। साधु-संतों की आवाज़ें, ढोल-नगाड़ों की थाप, मंत्रों की गूंज और दूर-दूर से आए श्रद्धालुओं का उत्साह — सबकुछ मानो किसी दैवी रंगमंच का हिस्सा हो। आठ साल का आरव अपने माता-पिता और बड़ी बहन समीरा के साथ पहली बार कुंभ मेले में आया था। छोटे शहर के इस मध्यमवर्गीय परिवार के लिए यह यात्रा एक धार्मिक कर्तव्य से बढ़कर एक पारिवारिक उत्सव थी। “माँ,…
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अध्याय 1: आगमन वाराणसी, प्राचीनता की जीवित परिभाषा। गंगा की गोद में बसी यह नगरी, समय के प्रवाह में भी स्थिर जान पड़ती है — जैसे हर पत्थर, हर मोड़, हर गली ने सदियों की कहानियाँ अपने भीतर समेट रखी हों। सुबह की आरती, शाम की गूंजती घंटियाँ, घाटों पर बैठे साधु, और तंग गलियों में झूलती रंग-बिरंगी साड़ियाँ — सब मिलकर एक ऐसा माहौल रचते हैं, जो किसी की आत्मा को झकझोर सकता है। और इसी शहर की एक पुरानी गली में, एक टूटी-फूटी टैक्सी रुकती है। दरवाज़ा खुलता है। एक लम्बा, दुबला-पतला युवक बाहर निकलता है — कंधे…