Hindi - यात्रा-वृत्तांत

देव दीपावली बनारस

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राकेश त्रिपाठी


भाग 1 – अस्सी घाट की पहली सुबह

सुबह के पाँच बज रहे थे। नवंबर की हल्की ठंडी हवा में वाराणसी शहर अभी नींद से पूरी तरह जागा नहीं था, लेकिन अस्सी घाट पर चहल-पहल शुरू हो चुकी थी। मैंने अपने बैग को कंधे पर टाँगा और होटल से बाहर निकलते ही महसूस किया कि यह यात्रा बाकी यात्राओं से अलग होने वाली है। सड़कें अभी तक खाली थीं, पर जैसे-जैसे मैं घाट की ओर बढ़ा, गली-कूचों में चाय की दुकानों से उठती भाप, समोसे तले जाने की खुशबू और पुकारते हुए ठेलेवाले धीरे-धीरे जीवन का संगीत छेड़ रहे थे।

अस्सी घाट पहुँचते ही गंगा की ठंडी हवा ने चेहरे को छुआ। सामने गंगा का अथाह विस्तार, धुंध की पतली परत और बीच-बीच में बजते शंख और घंटियों की आवाज़ ने वातावरण को एक रहस्यमय आभा दे दी। लोग स्नान कर रहे थे—कहीं कोई वृद्ध साधु ध्यानमग्न बैठा था, तो कहीं कोई छात्रा अपने दोस्तों संग हँसी-ठिठोली करती गंगाजल छिड़क रही थी। हर चेहरा अपने आप में अलग कहानी कह रहा था।

घाट की सीढ़ियों पर बैठा एक पंडित संस्कृत के श्लोक गा रहा था। मैंने पास जाकर देखा, उसके सामने छोटे-छोटे दीये रखे थे, जिन्हें वह शाम की आरती के लिए तैयार कर रहा था। उसने मुस्कुराकर कहा—“आज की रात अलग होगी, देव दीपावली है। देखना, पूरा शहर सितारों से भी ज़्यादा चमकेगा।” उसकी आँखों में अजीब-सी चमक थी। मैं उसकी बात सुनते ही रोमांचित हो उठा।

पास ही कुछ विदेशी पर्यटक अपने कैमरे से हर दृश्य को कैद करने में लगे थे। कोई योगासन कर रहा था, तो कोई गंगा में नाव लेकर तैर रहा था। नावों पर ‘काशी विश्वनाथ की जय’ लिखे झंडे हवा में लहरा रहे थे। गंगा की लहरों पर जब नाव के चप्पू चलते, तो पानी की ध्वनि मानो प्राचीन मंत्रों की गूँज जैसी लगती।

मैं सीढ़ियों पर बैठ गया। गंगा किनारे की यह सुबह किसी भी शहर की सुबह से अलग थी। यहाँ केवल सूरज नहीं उगता, बल्कि लगता है कि आत्मा भी नई ऊर्जा से भर जाती है। घाट पर बच्चों का समूह पतंग उड़ाने की तैयारी कर रहा था। उनमें से एक बच्चा चिल्लाया—“आज रात को देखना, गंगा माँ पर कितने दीप तैरेंगे!” उसकी मासूम आँखों में उत्सव का उत्साह चमक रहा था।

चायवाले ने मेरे हाथ में कुल्हड़ पकड़ाया। मिट्टी की सुगंध के साथ गरमा-गरम अदरक वाली चाय का स्वाद उस क्षण को और गहरा कर गया। चाय पीते-पीते मैं देख रहा था कि घाट पर आने वाले हर व्यक्ति का मकसद अलग है—किसी का स्नान, किसी का ध्यान, किसी का पूजा-पाठ, और किसी का सिर्फ़ घूमना। लेकिन सभी के भीतर एक समान धड़कन थी—गंगा और बनारस का अनोखा आकर्षण।

धीरे-धीरे सूरज की किरणें धुंध को चीरते हुए सामने से निकलीं। गंगा की लहरों पर सुनहरी चमक फैल गई। ऐसा लगा जैसे किसी ने नदी के जल पर सोना बिखेर दिया हो। हर कोई उस दृश्य को देख कर मंत्रमुग्ध था। मेरे पास खड़े एक बुज़ुर्ग बोले—“बाबूजी, यहाँ सूरज रोज़ उगता है, पर हर दिन नया लगता है। यही काशी की लीला है।” उनकी आवाज़ में जीवन का अनुभव झलक रहा था।

मैंने घाट की सीढ़ियों से नीचे उतरकर गंगा का जल हाथों में लिया। ठंडे जल की स्पर्श ने मन को शांति दी। मैं सोच रहा था कि जब सुबह इतनी सुंदर है, तो आज की रात, देव दीपावली की रात कैसी होगी?

पास ही कुछ साधु लोग अग्नि जलाकर बैठे थे। उनमें से एक ने भस्म लगाई हुई थी और हाथ में डमरू बजा रहा था। उसने मुझे देखकर कहा—“पर्यटक हो? आज तुम्हारा भाग्य है कि देव दीपावली देखोगे। यहाँ देवता भी उतरते हैं।” मैं मुस्कुरा दिया, लेकिन भीतर कहीं उसकी बात सुनकर मन में श्रद्धा का भाव उमड़ आया।

सुबह धीरे-धीरे दिन में बदलने लगी। घाट पर आने वाले लोगों की भीड़ बढ़ रही थी। गंगा किनारे की दुकानों पर फूलमालाएँ, अगरबत्तियाँ और दीप बिकने लगे। हर कोई शाम की तैयारी में था। नाविक अपने-अपने नाव सजाने में जुट गए। उनकी नावों पर केले के पत्ते और गेंदे के फूल की झालरें लगाई जा रही थीं।

मैंने महसूस किया कि यह यात्रा केवल एक पर्यटक की यात्रा नहीं रहने वाली है। यह भीतर कहीं एक आध्यात्मिक यात्रा में बदल रही थी।

अस्सी घाट की उस पहली सुबह ने मेरे मन में उत्सुकता और श्रद्धा दोनों भर दीं। मैं जान गया था कि आज की रात मेरे जीवन की सबसे यादगार रात होने वाली है।

भाग 2 – दशाश्वमेध घाट की गूँज

दोपहर धीरे-धीरे बीत रही थी। अस्सी घाट की उस पहली सुबह के बाद मैं शहर की गलियों से गुज़रता हुआ दशाश्वमेध घाट की ओर निकल पड़ा। वाराणसी की गलियाँ मानो किसी भूल-भुलैया जैसी हैं—संकरी, टेढ़ी-मेढ़ी, और जीवन से भरी हुई। हर मोड़ पर नई कहानी। कहीं गायें悠闲 चल रही थीं, कहीं कोई दुकानदार ठंडी लस्सी और गरमा-गरम कचौरी परोस रहा था। हवा में तिलकुट, जलेबी और अगरबत्ती की मिली-जुली सुगंध तैर रही थी।

जैसे-जैसे मैं दशाश्वमेध घाट के करीब पहुँचा, भीड़ घनी होने लगी। लोग दूर-दूर से आए थे—साधु, गृहस्थ, बच्चे, बुज़ुर्ग, विदेशी यात्री। हर कोई उस शाम की आरती का साक्षी बनने आया था।

घाट की सीढ़ियाँ विशाल समुद्र जैसी भीड़ से भर चुकी थीं। मैंने किसी तरह जगह बनाते हुए सामने का दृश्य देखा—एक पंक्ति में खड़े कई युवा पुजारी, जिनके हाथों में बड़े-बड़े पीतल के दीपदान थे। उनके वस्त्र चमकदार पीले और लाल रंग के थे। उनके माथे पर तिलक, गले में रुद्राक्ष की माला, और उनकी आँखों में अजीब-सी निष्ठा।

जैसे ही सूरज पश्चिम की ओर ढलने लगा, गंगा की लहरों पर सुनहरी आभा फैल गई। उस क्षण शंखनाद हुआ। पूरी भीड़ एकदम मौन हो गई, और फिर गूँज उठी—“हर हर महादेव!”

आरती का आरंभ हुआ। पुजारियों ने एक साथ बड़े-बड़े दीपदान घुमाना शुरू किया। हवा में अगरबत्ती और घी के दीप की सुगंध घुल गई। गंगा के जल पर दीपों की रोशनी झिलमिलाने लगी। लहरों पर वह प्रतिबिंब ऐसा लग रहा था जैसे गंगा स्वयं दीप धारण कर रही हो।

भीड़ में से कोई मंत्र पढ़ रहा था, कोई हाथ जोड़कर नम आँखों से प्रार्थना कर रहा था। एक विदेशी महिला अपने कैमरे से तस्वीरें ले रही थी, लेकिन कुछ क्षण बाद उसने कैमरा नीचे रख दिया और आँखें बंद कर लीं—मानो उस अनोखे अनुभव को भीतर समेटना चाहती हो।

आरती की धुन गंगा की लहरों से टकराकर और गहरी हो गई। ढोल-नगाड़ों की आवाज़, शंखनाद, घंटियों की झंकार और हजारों लोगों की सामूहिक आवाज़ ने वातावरण को विद्युत-सा बना दिया। ऐसा लग रहा था कि पूरी धरती एक साथ स्पंदित हो रही है।

मेरे पास खड़े एक बुज़ुर्ग काशीवासी ने धीमे स्वर में कहा—“बाबूजी, यह दशाश्वमेध घाट है। कहते हैं यहाँ भगवान ब्रह्मा ने दश अश्वमेध यज्ञ किए थे। तभी से इसका नाम पड़ा दशाश्वमेध। और आज देव दीपावली पर यहाँ जो आरती होती है, वह देवताओं को भी आकर्षित करती है।”

उनकी बात सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। सचमुच, वातावरण कुछ ऐसा ही था—अलौकिक, दिव्य, मानो आकाश से देवता उतरकर इस आरती को देखने आए हों।

भीड़ में बच्चे दीप लिए खड़े थे। उनके चेहरे पर मासूम चमक थी। कुछ परिवार अपने-अपने दीप गंगा में प्रवाहित कर रहे थे। जब सैकड़ों दीप एक साथ जलकर लहरों पर तैरने लगे, तो लगा मानो आकाश के सितारे धरती पर उतर आए हों।

आरती समाप्त होने के बाद लोग मंत्रोच्चार करते हुए दीये प्रवाहित करने लगे। मैं भी भीड़ के साथ सीढ़ियों तक गया और अपने हाथ में एक छोटा-सा दिया लिया। गंगा की ठंडी लहरों पर जब मैंने वह दीप छोड़ा, तो लगा मानो मेरी सारी इच्छाएँ, सारी प्रार्थनाएँ जल की धारा के साथ बह रही हों।

उस क्षण मैंने अपने भीतर गहरी शांति महसूस की। चारों ओर भीड़ थी, शोर था, लेकिन भीतर केवल मौन था—आध्यात्मिक, शांत, संतुष्ट।

आरती समाप्त होने के बाद भीड़ धीरे-धीरे गलियों की ओर बढ़ने लगी, लेकिन घाट पर अभी भी रौनक बनी हुई थी। संगीत, भजन, लोकगीत गूँज रहे थे। दुकानदार आवाज़ लगाकर चाट, समोसे, ठंडाई बेच रहे थे। हवा में भक्ति और उत्सव का अनोखा संगम था।

मैं सीढ़ियों पर बैठकर देर तक गंगा की लहरों को निहारता रहा। मुझे लगा कि दशाश्वमेध घाट पर यह अनुभव जीवन की स्मृतियों में हमेशा रहेगा।

भाग 3 – नाव की यात्रा

दशाश्वमेध घाट की आरती समाप्त होने के बाद भीड़ गलियों की ओर लौट रही थी, लेकिन गंगा के किनारे अब एक और उत्सव शुरू हो चुका था—नाव की यात्रा। घाट पर खड़े नाविक आवाज़ लगा रहे थे—“आइए बाबूजी, देव दीपावली की रात है, नाव से गंगा का नज़ारा कीजिए।”

मैं भी आगे बढ़ा और एक सजाई हुई नाव पर चढ़ गया। नाव की देह लकड़ी की थी, लेकिन उस पर केले के पत्तों और गेंदे की माला की सजावट उसे किसी दुल्हन-सी भव्यता दे रही थी। नाव पर पहले से कुछ यात्री बैठे थे—एक परिवार, दो-तीन छात्र, और कुछ विदेशी पर्यटक। सबके चेहरे पर उत्साह झलक रहा था।

जैसे ही नाव ने किनारा छोड़ा और गंगा के बीच पहुँची, दृश्य बिल्कुल बदल गया। घाटों की लड़ी-सी जलती हुई दीपों की कतारें गंगा के दोनों ओर फैली थीं। हर घाट अपनी अलग पहचान लिए हुए था। कहीं आरती चल रही थी, कहीं लोकगीत गाए जा रहे थे, कहीं बच्चे आतिशबाज़ी कर रहे थे।

नाविक चप्पू चलाते-चलाते कहने लगा—“बाबूजी, आप भाग्यशाली हैं। आज की रात काशी का हर घाट जगमग करेगा। ऐसा दृश्य केवल देव दीपावली पर ही देखने को मिलता है। कहते हैं देवता भी आज गंगा में स्नान करने आते हैं।” उसकी आवाज़ में गर्व था, और आँखों में बनारस की अडिग श्रद्धा।

नाव धीरे-धीरे अस्सी से पंचगंगा घाट की ओर बढ़ रही थी। हर घाट पर हज़ारों दीप ऐसे सजे थे जैसे सितारों का समुद्र उतर आया हो। गंगा की लहरों पर दीप तैरते हुए दूर-दूर तक फैल गए थे। जब नाव उन दीपों के बीच से गुजरती, तो लगता मानो हम किसी स्वप्नलोक में प्रवेश कर गए हों।

नाव पर बैठे एक बुज़ुर्ग पर्यटक ने धीमी आवाज़ में कहा—“इतनी रोशनी मैंने कभी नहीं देखी। यह केवल पर्व नहीं, यह तो आत्मा को रोशन कर देने वाला अनुभव है।” उनकी आँखों में आँसू थे।

पास बैठे छात्र गा रहे थे—“गंगा मैया तोहरे पै अरपइले चिरैया…” उनकी आवाज़ गंगा की लहरों में घुलकर और मधुर हो गई। नाविक भी चप्पू चलाते-चलाते गीत में शामिल हो गया। उस पल ऐसा लगा जैसे पूरी नाव संगीत की धुन पर तैर रही हो।

विदेशी यात्री तस्वीरें खींच रहे थे, लेकिन थोड़ी देर बाद उन्होंने भी कैमरा रख दिया और दीपों को बस निहारते रहे। उस दृश्य को कोई भी शब्द, कोई भी कैमरा पूरी तरह कैद नहीं कर सकता था।

नाव जैसे ही पंचगंगा घाट के पास पहुँची, वहाँ का दृश्य अद्भुत था। पाँच नदियों के संगम का प्रतीक यह घाट हजारों दीपों से सजाया गया था। आरती की गूँज, ढोल-नगाड़े, और मंत्रोच्चार ने वातावरण को और भी दिव्य बना दिया था।

गंगा के बीच से जब मैंने बनारस की ओर देखा, तो लगा मानो पूरा शहर दीपमालिका बन गया हो। हर घर, हर मंदिर, हर गली में दीप जल रहे थे। ऊपर आसमान में चाँद और तारे थे, और नीचे गंगा में तैरते दीप। ऐसा लग रहा था मानो धरती और आकाश एक-दूसरे का प्रतिबिंब बन गए हों।

नाविक ने कहा—“बाबूजी, काशी में देव दीपावली की यह परंपरा बहुत पुरानी है। कहते हैं त्रिपुरासुर का वध इसी दिन भगवान शिव ने किया था। तब देवताओं ने दीप जलाकर काशी का धन्यवाद किया। तभी से इस पर्व का नाम पड़ा—देव दीपावली।”

उसकी बात सुनकर लगा कि इस रोशनी के पीछे केवल उत्सव नहीं, बल्कि शाश्वत इतिहास और आस्था छिपी है।

नाव धीरे-धीरे वापस घाट की ओर लौट रही थी। लेकिन मेरे भीतर यात्रा अभी शुरू ही हुई थी। गंगा की ठंडी हवा, दीपों की झिलमिलाहट, संगीत की ध्वनि और काशी का अद्भुत वैभव—सब मिलकर मेरे हृदय में गहराई से उतर रहे थे।

नाव के किनारे बैठा मैं सोच रहा था—“शहर अगर आत्मा होता है, तो बनारस आत्मा की रोशनी है। और देव दीपावली उसकी सबसे उजली साँस।”

जब नाव फिर से दशाश्वमेध घाट पर पहुँची, तो ऐसा लगा जैसे मैं किसी दूसरे लोक से लौटकर आया हूँ।

भाग 4 – काशी की गलियाँ

नाव की वह अद्भुत यात्रा खत्म होने के बाद मैं फिर से घाट की सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आया। बाहर आते ही लगा जैसे एक और शहर इंतज़ार कर रहा है—गंगा किनारे का नहीं, बल्कि गलियों का शहर। बनारस की पहचान केवल घाट और गंगा ही नहीं, बल्कि उसकी अनगिनत संकरी गलियाँ भी हैं, जो हर मोड़ पर जीवन की नई तस्वीर खोलती हैं।

दशाश्वमेध से विश्वनाथ मंदिर की ओर जाते हुए गली-गली का दृश्य मानो किसी चित्रकार की पेंटिंग हो। दीवारों पर चूने की झिलमिलाहट, कहीं लाल-कहीं पीली झंडियाँ, दरवाज़ों पर आम की पत्तियों और गेंदे के फूल की तोरणें लटक रही थीं। दुकानों के सामने दीपक जल रहे थे। ऐसा लग रहा था कि पूरी काशी अपने हर कोने को जगमगाने पर तुली है।

गली की शुरुआत ही चाट और मिठाई की दुकानों से होती है। कहीं आलू टिक्की तली जा रही है, कहीं टमाटर चाट पर मसाले डाले जा रहे हैं। धुएँ और मसाले की गंध हवा में घुली हुई है। मैंने भी एक दुकान पर रुककर काशी की मशहूर टमाटर चाट का स्वाद लिया। गरमा-गरम, तीखा-मीठा मिश्रण ज़ुबान पर पड़ा और लगा जैसे पूरे बनारस का स्वाद उसी एक कुल्हड़ में सिमट आया हो।

आगे बढ़ते ही लस्सी की दुकानें नज़र आईं। मिट्टी के बड़े मटकों में दही जमा था और दुकानदार उसे निकालकर मलाई की मोटी तह के साथ कुल्हड़ में परोस रहा था। ऊपर से गुलाबजल और इलायची का स्वाद। मैंने एक कुल्हड़ उठाया और पहले ही घूंट में महसूस किया—यह सिर्फ़ लस्सी नहीं, बल्कि काशी का मखमली रस है।

गलियाँ संकरी थीं, लेकिन जीवन से भरी हुई। कोई साइकिल लेकर जा रहा है, कोई ठेला धकेल रहा है, कोई साधु भीड़ को चीरते हुए धीरे-धीरे बढ़ रहा है। बीच-बीच में गायें आराम से खड़ी थीं, मानो पूरी गली उन्हीं की हो।

हर मोड़ पर मंदिर। छोटे-छोटे शिवलिंग, हनुमान की प्रतिमा, तुलसी के चौरा। भक्त रुककर दीप जलाते, फूल चढ़ाते और फिर आगे बढ़ जाते। ऐसा लग रहा था कि इन गलियों की हर ईंट में भक्ति रची-बसी है।

कहीं से ढोल-नगाड़े की आवाज़ आ रही थी। शायद कोई बारात निकल रही थी। रोशनी से सजी घोड़ी पर दूल्हा, और साथ में नाचते-गाते लोग। एक ओर देव दीपावली की भक्ति, दूसरी ओर शादी का उल्लास—काशी में दोनों एक साथ सहज रूप से बहते हैं। यही इसकी विशेषता है।

एक मोड़ पर पहुँचकर मैंने देखा—लकड़ी की अलमारियों में किताबें सजी थीं। धर्मग्रंथ, पुराण, और इतिहास की किताबें। दुकानदार ने कहा—“बाबूजी, काशी केवल भोग का नहीं, ज्ञान का भी शहर है। यहाँ कबीर से लेकर तुलसीदास तक सबकी गूँज है।” उसकी बातें सुनकर लगा कि सचमुच काशी गलियों के भीतर भी उतनी ही विशाल है जितनी घाटों पर।

गलियों में चलते-चलते मैं एक छोटे-से अन्नपूर्णा मंदिर के पास पहुँचा। वहाँ महिलाएँ भजन गा रही थीं—“अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकरप्राणवल्लभे।” भक्ति की उस ध्वनि में एक घरेलापन था, जैसे माँ की पुकार। मंदिर के सामने खड़े बच्चों ने हाथ में पटाखे लिए थे, लेकिन कोई उन्हें जलाने की जल्दी में नहीं था। सब जानते थे कि आज की रात का मुख्य आकर्षण गंगा के किनारे दीपमालिका ही है।

मैंने सोचा कि ये गलियाँ केवल रास्ते नहीं हैं, ये अनुभवों की सुरंगें हैं। हर मोड़ एक नया स्वाद, हर दीवार एक नई कथा, हर मंदिर एक नई श्रद्धा।

थोड़ी दूर आगे बढ़कर एक बुज़ुर्ग पानवाले की दुकान पर पहुँचा। उसने बनारसी पान सजाकर मेरी ओर बढ़ाया और बोला—“बाबूजी, बिना पान के बनारस की यात्रा अधूरी है।” मैंने पान लिया और जैसे ही उसका स्वाद मुंह में घुला, लगा जैसे बनारस ने अपनी आत्मा का एक टुकड़ा मुझे सौंप दिया हो।

संकरी गलियों के ऊपर बिजली के बल्बों की झालरें लगी थीं। लाल, हरे, नीले रंग की रोशनी टिमटिमा रही थी। भीड़ के बीच से चलते हुए अचानक मुझे लगा कि मैं किसी उत्सव का हिस्सा नहीं, बल्कि स्वयं उत्सव का केंद्र बन गया हूँ।

काशी की गलियाँ देव दीपावली की तैयारी में अपनी अलग ही भव्यता लिए खड़ी थीं। कहीं दीप सजाए जा रहे थे, कहीं मंच पर संगीत की तैयारी थी, कहीं साधु प्रवचन दे रहे थे। यह सब मिलकर शहर को एक विशाल रंगमंच बना रहे थे, और हर व्यक्ति, हर आगंतुक उस रंगमंच का अभिनेता।

उस दिन मैंने महसूस किया कि गंगा के घाटों की जितनी महिमा है, उतनी ही काशी की गलियों की भी है। अगर घाट आस्था का चेहरा हैं, तो गलियाँ उसका दिल।

भाग 5 – मानसरोवर से काशी विश्वनाथ

गलियों की उस यात्रा के बाद मेरे मन में एक ही ख्वाहिश थी—काशी विश्वनाथ का दर्शन। देव दीपावली का पर्व केवल गंगा की रोशनी तक सीमित नहीं, यह तो शिवनगरी की आत्मा से जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि गंगा यहाँ शिव की जटाओं से निकली हैं और विश्वनाथ स्वयं इस नगरी के रक्षक हैं।

मैं अन्नपूर्णा मंदिर से आगे बढ़ा। रास्ता संकरा था, लेकिन दोनों ओर दुकानें जगमगा रही थीं। कहीं पीतल के बर्तन, कहीं रुद्राक्ष की मालाएँ, कहीं चाँदी के छोटे-छोटे शिवलिंग बिक रहे थे। भीड़ इतनी घनी थी कि कदम दर कदम आगे बढ़ना पड़ रहा था। लेकिन भीड़ के बावजूद हर चेहरा संतुष्ट दिखता था। शायद यही काशी की विशेषता है—यहाँ भीड़ भी पूजा बन जाती है।

थोड़ी दूर चलने के बाद मैं मानसरोवर तालाब के पास पहुँचा। कहते हैं कि यहाँ स्नान करके काशी विश्वनाथ के दर्शन करने से पुण्य अनेक गुना बढ़ जाता है। तालाब के किनारे दीप सजाए गए थे और पानी में झिलमिलाते उनके प्रतिबिंब ऐसे लग रहे थे मानो आकाश के तारे धरती पर उतर आए हों। श्रद्धालु जल लेकर अपने माथे पर छिड़क रहे थे और आगे मंदिर की ओर बढ़ रहे थे।

मैं भीड़ के साथ विश्वनाथ गली की ओर बढ़ा। गली के दोनों ओर रोशनी की झालरें लटक रही थीं। दुकानदार हर श्रद्धालु का स्वागत कर रहे थे। कोई चाय दे रहा था, कोई प्रसाद। बीच-बीच में “हर हर महादेव” की गूँज गलियों की दीवारों को हिला रही थी।

विश्वनाथ मंदिर का प्रवेशद्वार सामने था। सुरक्षा के कड़े इंतज़ाम थे, लेकिन उस भीड़ में कोई बेचैनी नहीं थी। हर कोई धैर्य से अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था। मैं जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा था, वैसे-वैसे भीतर एक अदृश्य ऊर्जा महसूस कर रहा था।

अंततः वह क्षण आया। मैंने गर्भगृह में प्रवेश किया। सामने ज्योतिर्लिंग पर चढ़े फूल, बेलपत्र और जल की धारा। पुजारियों की मंत्रोच्चार की आवाज़, घंटियों की गूँज और भीड़ का सामूहिक “महादेव”।

मैंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और क्षणभर के लिए आँखें बंद कर लीं। ऐसा लगा जैसे समय ठहर गया हो। भीतर केवल गहरी शांति और बाहर केवल महादेव की उपस्थिति। श्रद्धा और अनुभूति का वह पल शब्दों से परे था।

भीड़ धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी, लेकिन मेरे लिए वह कुछ क्षण अनंत बन गए। मैंने महसूस किया कि काशी केवल शहर नहीं, बल्कि एक चेतना है—जो हर भक्त के भीतर उतरती है।

मंदिर से बाहर निकलते ही चारों ओर रोशनी का महासागर था। गलियों में दीपक ऐसे सजे थे कि हर मोड़, हर दरवाज़ा, हर मंदिर जगमगा रहा था। दुकानों पर प्रसाद की थालियाँ, रुद्राक्ष की माला, और छोटे-छोटे दीप बिक रहे थे।

मंदिर के बाहर कुछ साधु भजन गा रहे थे—
“महादेव शंभो, काशी विश्वनाथ गंगे…”
उनकी आवाज़ गहरी थी, और उसमें ऐसा कंपन था मानो स्वयं गंगा की धारा गा रही हो।

मैंने प्रसाद लिया और बाहर की सीढ़ियों पर बैठकर पूरे दृश्य को देर तक निहारा। गली में आती-जाती भीड़, दीपों की जगमगाहट, और मंदिर के शिखर पर पड़ती चाँदनी। लगा मानो पूरा बनारस महादेव की आराधना में डूब गया हो।

उस क्षण मेरे मन में एक विचार आया—देव दीपावली केवल रोशनी का उत्सव नहीं, यह आत्मा का उत्सव है। यह वह क्षण है जब काशी अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ जाग उठती है और हर आगंतुक को अपने भीतर समेट लेती है।

भाग 6 – देव दीपावली की रात

शाम ढल चुकी थी। सूरज गंगा की लहरों में अपना अंतिम आभास छोड़कर पश्चिम की ओर उतर गया था। आकाश में हल्की-सी लालिमा और नीली परछाइयाँ घुल रही थीं। मैं दशाश्वमेध घाट की सीढ़ियों पर बैठा था, लेकिन मेरे चारों ओर अब भीड़ का सैलाब उमड़ रहा था। हर कोई इंतज़ार कर रहा था—उस क्षण का, जब देव दीपावली का असली दृश्य प्रकट होगा।

धीरे-धीरे अँधेरा बढ़ने लगा। बिजली की झालरों की रोशनी चमक उठी, पर उनके सामने दीपों का आकर्षण कहीं और था। घाटों पर हजारों-लाखों छोटे-छोटे दीप सजाए जा चुके थे। हर सीढ़ी, हर कोना, हर पत्थर पर दीप रखे हुए थे। कोई महिला अपने हाथों से दीप जला रही थी, तो कोई बच्चा उत्साह में दौड़-दौड़कर उन्हें सीढ़ियों पर सजा रहा था।

और फिर, अचानक सब कुछ एक साथ जगमगा उठा। जैसे ही पहला दीप प्रज्वलित हुआ, उसी क्षण हज़ारों दीप जल उठे। घाट सोने की परत से ढक गया। गंगा के जल में जब इन दीपों का प्रतिबिंब पड़ा, तो लगा जैसे पूरी नदी आग की लपटों से जल रही हो, पर वह आग ठंडी थी, सुखद थी, पवित्र थी।

भीड़ से एक स्वर उठा—“हर हर महादेव!” और फिर शंखनाद गूँज उठा। उस गूँज ने वातावरण को ऐसा बना दिया मानो देवता स्वयं उतर आए हों।

गंगा के बीच नावें सज-धज कर खड़ी थीं। हर नाव पर दीये रखे थे। कुछ नावों पर संगीत बज रहा था, कुछ पर भजन गाए जा रहे थे। नावें जब लहरों पर धीरे-धीरे हिलतीं, तो दीपों का समुद्र लहराने लगता।

मैंने देखा कि गंगा पर दीप प्रवाहित करने के लिए श्रद्धालुओं की कतार लगी है। हर कोई अपने छोटे-से दिये में फूल और धूप रखकर गंगा में छोड़ रहा था। जब सैकड़ों दीप एक साथ बहने लगे, तो लगा जैसे आकाश के सितारे धरती पर उतरकर गंगा की धारा में तैर रहे हों।

मेरे बगल में बैठे एक बुज़ुर्ग बोले—“बाबूजी, यह दृश्य केवल काशी में मिलता है। आज देवता भी गंगा में स्नान करते हैं। यह केवल उत्सव नहीं, यह साक्षात दर्शन है।” उनकी आँखों में श्रद्धा की नमी थी।

मैंने भी एक दीप लिया। उसमें फूल और अगरबत्ती रखी और गंगा की लहरों में धीरे से छोड़ दिया। दीप धीरे-धीरे बहने लगा। उसके साथ मेरी प्रार्थनाएँ भी गंगा की धारा में समा गईं। उस क्षण मेरे भीतर एक अनोखी शांति उतरी।

आरती का समय हो चला था। घाट पर खड़े पुजारी बड़े-बड़े दीपदान लेकर आरती शुरू करने लगे। सैकड़ों दीपदानों की लौ हवा में एक लय के साथ उठती और गिरती। ढोल-नगाड़ों की गूँज, शंख की ध्वनि और हजारों लोगों की सामूहिक आवाज़—सब मिलकर ऐसा माहौल बना रहे थे कि भीतर से केवल रोंगटे खड़े हो रहे थे।

आरती की लौ गंगा की लहरों में प्रतिबिंबित हो रही थी। दीपों की कतारें सीढ़ियों से उतरकर मानो जल तक पहुँच रही थीं। पूरा दृश्य ऐसा था जैसे धरती और आकाश मिलकर एक साथ रोशनी की आराधना कर रहे हों।

विदेशी यात्री मंत्रमुग्ध खड़े थे। कुछ ने कैमरे से कैद किया, लेकिन बहुतों ने कैमरा नीचे रख दिया और आँखें बंद कर लीं। शायद वे भी उस अनुभव को आत्मा में समेटना चाहते थे।

गंगा किनारे अब केवल रोशनी थी। न अँधेरा, न छाया—बस दीपमालिका। मंदिरों के शिखर भी दीपों से जगमगा रहे थे। गलियों से आती रोशनी और घाट की लहराती लौ, दोनों मिलकर काशी को किसी दिव्य लोक में बदल चुकी थीं।

मुझे लगा कि इस क्षण को शब्दों में बाँधना असंभव है। यह केवल देखा नहीं जा सकता, यह महसूस किया जाता है।

भीड़ में खड़े एक छोटे से बच्चे ने अपनी माँ से कहा—“माँ, देखो! गंगा माँ के आँगन में आज सितारे तैर रहे हैं।” उसकी मासूम आवाज़ ने पूरे दृश्य का सार कह दिया।

रात गहराने लगी, लेकिन काशी की रोशनी कम होने के बजाय और बढ़ रही थी। हर क्षण और दीप जलते जा रहे थे। घाटों पर भजन-मंडली गा रही थी—
“गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती…”
उनकी आवाज़ दीपों की लपटों के साथ मिलकर वातावरण को और पवित्र बना रही थी।

मैं सीढ़ियों पर बैठा देर तक उस दृश्य को निहारता रहा। भीतर से आवाज़ आई—यह देव दीपावली केवल बनारस की नहीं, यह पूरी मानवता की रोशनी है।

भाग 7 – श्रद्धा और उत्सव

देव दीपावली की उस रोशन रात में घाट केवल रोशनी से नहीं, श्रद्धा से भी भर चुके थे। गंगा किनारे दीपों की झिलमिलाहट के बीच हर चेहरा अपनी अलग कहानी कह रहा था। मैंने महसूस किया कि इस पर्व में केवल सुंदरता ही नहीं, बल्कि आस्था, लोक-जीवन और भावनाओं का महासंगम है।

घाट की सीढ़ियों पर भीड़ इतनी घनी थी कि कदम रखने की जगह मुश्किल से मिल रही थी। लेकिन किसी के चेहरे पर खीज नहीं थी। सबके मन में एक ही उत्साह था—गंगा माँ को दीप अर्पित करने का।

मेरे पास एक परिवार बैठा था। दादी अपने छोटे पोते को समझा रही थीं—“देख बेटा, यह दीप जलाकर गंगा जी में छोड़ देंगे, तो हमारी मनोकामना पूरी होगी। यह दीप केवल रोशनी नहीं, यह हमारी प्रार्थना है।” बच्चा मासूम आँखों से दीप को देख रहा था और बार-बार पूछ रहा था—“क्या माँ गंगा सचमुच इसे ले जाएँगी?” दादी मुस्कुराकर बोलीं—“हाँ बेटा, गंगा माँ सब सुनती हैं।” उस दृश्य ने मेरे मन को गहराई से छू लिया।

थोड़ी दूरी पर एक साधु बैठे थे। उनके सामने मिट्टी के सैकड़ों दीप रखे थे। वे एक-एक कर दीप जला रहे थे और मंत्रोच्चार कर रहे थे। उनके आसपास लोग बैठते, दीप लेते और गंगा में प्रवाहित करते। साधु की आँखें बंद थीं, और उनके चेहरे पर अद्भुत शांति थी।

भीड़ में मैंने कुछ विदेशी पर्यटकों को देखा। वे भी छोटे-छोटे दीये लेकर सीढ़ियों से नीचे जा रहे थे। उनमें से एक ने मुझसे कहा—“We don’t understand the mantra, but we feel the energy.” उनकी बात सुनकर लगा कि यह पर्व भाषा और संस्कृति से परे है। यह केवल आत्मा का अनुभव है।

गंगा के बीच से आती नावों पर लोकगीत गाए जा रहे थे। भोजपुरी के मधुर गीत हवा में तैर रहे थे—
“गंगा मईया तोहरे पै अरपइलें दिया…”
उन गीतों में भक्ति थी, लेकिन साथ ही एक घरेलापन भी। ऐसा लग रहा था जैसे हर नाव, हर घाट एक विशाल परिवार का हिस्सा बन गया हो।

मैंने पास खड़े एक बुज़ुर्ग से पूछा—“आप हर साल आते हैं?”
उन्होंने गर्व से कहा—“हाँ बाबूजी, पचास साल से लगातार। यह पर्व हम छोड़ ही नहीं सकते। जब तक जीवन है, हर साल दीप जलाकर गंगा माँ को अर्पित करेंगे। यही हमारी परंपरा है।” उनकी आँखों में वर्षों की भक्ति का अनुभव चमक रहा था।

कुछ युवा भी दीप जलाकर घाट पर सेल्फी ले रहे थे। उनके चेहरे पर भी उत्सव का उल्लास था। कोई अपने दोस्तों के साथ हँसते हुए दीप छोड़ रहा था, कोई वीडियो बना रहा था। मुझे लगा कि श्रद्धा और आधुनिकता दोनों यहाँ सहज रूप से मिल गए हैं।

भीड़ में बीच-बीच में आतिशबाज़ी भी हो रही थी। आसमान में चमकते पटाखों की रोशनी नीचे गंगा के दीपों से मिलकर आकाश और धरती का संगम बना रही थी।

मैं घाट की सीढ़ियों पर बैठा चारों ओर देख रहा था। हर दीप अपने साथ एक इच्छा, एक प्रार्थना, एक कहानी लिए बह रहा था। कोई संतान की कामना कर रहा था, कोई रोग मुक्ति की, कोई सफलता की, कोई बस शांति की। और गंगा माँ सबको अपने आँचल में समेट रही थीं।

एक साध्वी मेरे पास बैठी थीं। उन्होंने कहा—“बाबूजी, देव दीपावली का महत्व केवल रोशनी में नहीं है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि अंधकार चाहे कितना भी गहरा हो, एक दीप पर्याप्त है उसे दूर करने के लिए।” उनकी बात सुनकर मुझे लगा कि यही तो इस उत्सव का सार है।

जितनी देर रात होती जा रही थी, उतने ही दीप बढ़ते जा रहे थे। घाटों पर लोग अब भी आ-जा रहे थे। गंगा का हर लहराता टुकड़ा दीपों से जगमगा रहा था।

मुझे लगा कि यह केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि विश्वास का उत्सव है। यहाँ हर धर्म, हर देश, हर भाषा का व्यक्ति आकर एक ही बात कह रहा था—अंधकार मिटे, प्रकाश फैले।

और सचमुच, उस रात बनारस ऐसा ही लग रहा था—विश्वास का शहर, प्रकाश का शहर, आस्था का शहर।

भाग 8 – नाव से शहर का दृश्य

गंगा के घाटों पर दीपों का समंदर फैल चुका था। लेकिन कहते हैं कि असली काशी की झलक तभी मिलती है, जब आप उसे गंगा की धारा से देखें। इसलिए मैं और कुछ यात्री फिर से एक नाव में बैठे। नाव धीरे-धीरे किनारे से छूटकर गंगा के बीच जा पहुँची।

जैसे ही नाव आगे बढ़ी, दृश्य सांस रोक देने वाला था। पूरे बनारस का तट मानो एक सुनहरी दीवार बन गया था। हर घाट दीपों की कतारों से सजा था। अस्सी घाट से लेकर पंचगंगा घाट तक, एक भी जगह अंधेरा नहीं था। गंगा की लहरें दीपों के प्रतिबिंब से जगमगा रही थीं। ऐसा लग रहा था जैसे आकाश के सितारे उतरकर नदी में तैर रहे हों।

नाव पर सवार सभी यात्री एकदम खामोश हो गए। किसी ने मोबाइल से तस्वीर लेने की कोशिश की, पर जल्द ही कैमरे नीचे रख दिए। हर किसी को लग रहा था कि यह दृश्य शब्दों और तस्वीरों से परे है। इसे केवल आँखों और आत्मा में कैद किया जा सकता है।

नाविक ने चप्पू चलाते हुए मुस्कुराकर कहा—
“बाबूजी, देखिए काशी की असली शोभा। कहते हैं देवता भी आज की रात गंगा किनारे उतर आते हैं। जो दृश्य आप देख रहे हैं, वही उन्होंने देखा था सदियों पहले।”

नाव धीरे-धीरे दशाश्वमेध घाट के सामने से गुज़री। वहाँ की आरती समाप्त हो चुकी थी, लेकिन दीपदान अब भी जारी था। सैकड़ों लोग गंगा में दिये छोड़ रहे थे। वे दीप धीरे-धीरे लहरों में दूर बहते जाते, और उनका प्रतिबिंब पानी में लहरों के साथ नाचता।

नाव पर बैठे एक बुज़ुर्ग दंपति हाथ जोड़कर गंगा की ओर झुके। उन्होंने कहा—“काशी के दर्शन बिना इस नाव की यात्रा अधूरे हैं। यही असली देव दीपावली है।”

नाव आगे बढ़ी तो हम मणिकर्णिका घाट के पास पहुँचे। यह घाट अपने श्मशान के लिए प्रसिद्ध है, लेकिन उस रात यहाँ भी दीपों की लड़ी सजी थी। मृत्यु और जीवन दोनों एक साथ इस नगर में चमक रहे थे। यह दृश्य किसी गहरी दार्शनिक सच्चाई की तरह था—अंधकार और प्रकाश का मेल।

गंगा के बीच खड़ी नावों पर भी उत्सव चल रहा था। कहीं भजन गाए जा रहे थे, कहीं लोकगीत, कहीं बाँसुरी बज रही थी। एक नाव पर तो पूरा ढोलक-मंजीरे का समूह था, और उनकी ताल से पानी की लहरें भी थिरक रही थीं।

मैं नाव के किनारे बैठा गंगा की ठंडी हवा महसूस कर रहा था। दीपों की रोशनी लहरों के साथ हिलती तो लगता मानो पानी भी जीवित है, वह भी उत्सव मना रहा है।

नाव से पीछे मुड़कर देखा तो पूरा शहर रोशनी में नहाया हुआ था। मंदिरों के शिखर बिजली की झालरों और दीपों से जगमगा रहे थे। गलियों से आती रोशनी घाटों तक फैल रही थी। ऊपर आकाश में आतिशबाज़ी चमक रही थी, और नीचे गंगा में दीप बह रहे थे। धरती और आकाश दोनों मानो एक साथ दीपमालिका में डूब गए थे।

नाविक ने एक रोचक बात बताई—“बाबूजी, यहाँ देव दीपावली की परंपरा बहुत पुरानी है। कहते हैं भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का वध इसी दिन किया था। देवताओं ने दीप जलाकर उनकी आराधना की, तभी से काशी में यह पर्व मनाया जाता है।”

उनकी बात सुनकर मुझे लगा कि यह केवल दृश्य का वैभव नहीं है, बल्कि इसमें इतिहास और पौराणिकता की गहराई भी है।

नाव अब गंगा के बीच ठहर गई। सब लोग खामोश होकर पूरे शहर को निहारने लगे। मैं भी उस क्षण में खो गया। ऐसा लग रहा था मानो काशी कोई नगरी नहीं, बल्कि जीवित आत्मा है, जो दीपों के रूप में अपने अस्तित्व को व्यक्त कर रही है।

धीरे-धीरे नाव वापस घाट की ओर लौटी। लेकिन मेरे भीतर लगा कि यह यात्रा कहीं खत्म नहीं हुई। वह दृश्य, वह अनुभव, वह मौन—सब मेरे भीतर गहराई तक उतर गया था।

भाग 9 – इतिहास और परंपरा

नाव की यात्रा ने भीतर जो शांति और उल्लास भरा था, वह देर तक मन में गूंजता रहा। लेकिन उसी रात, जब मैं मणिकर्णिका और पंचगंगा घाट के बीच टहल रहा था, तो कुछ स्थानीय बुज़ुर्गों और साधुओं से देव दीपावली के इतिहास और परंपरा के बारे में सुनने का अवसर मिला।

एक साधु लकड़ी के चूल्हे के पास बैठे अग्नि ताप रहे थे। उनकी आँखों में अनुभव की गहराई थी। मैंने उनसे पूछा—“बाबा, यह देव दीपावली कब से मनाई जाती है?”
उन्होंने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया—“बाबू, इसकी जड़ें उतनी ही पुरानी हैं जितनी काशी की। पौराणिक कथा है कि त्रिपुरासुर नामक असुर ने तीन लोकों को आतंकित कर रखा था। देवता परेशान होकर शिव शंकर के पास पहुँचे। कार्तिक पूर्णिमा के दिन महादेव ने त्रिपुरासुर का संहार किया। उस विजय को देवताओं ने दीप जलाकर मनाया। तभी से इस पर्व का नाम पड़ा—देव दीपावली।”

उनकी बात सुनते ही मुझे एहसास हुआ कि यह उत्सव केवल रोशनी का नहीं, बल्कि शिव की विजय का स्मरण है। यह अंधकार पर प्रकाश की जीत का प्रतीक है।

पास ही बैठे एक बुज़ुर्ग काशीवासी ने जोड़ते हुए कहा—“बाबूजी, पहले यह पर्व केवल कुछ घाटों पर मनाया जाता था। लेकिन पिछले दशकों में यह पूरे शहर का पर्व बन गया। अब तो अस्सी से राजघाट तक हर घाट, हर मंदिर, हर गली दीपों से भर जाता है। इसमें केवल धर्म नहीं, बल्कि पूरा लोकजीवन शामिल हो गया है।”

उन्होंने याद किया कि कैसे पहले उनके दादा एक-एक दीप जलाकर गंगा में प्रवाहित करते थे। “आजकल हजारों की संख्या में दीप जलाए जाते हैं, बिजली की झालरें सजती हैं, लेकिन उस एक दीप की आस्था भी कम नहीं थी,” उन्होंने कहा।

कुछ युवाओं का समूह भी पास खड़ा था। मैंने उनसे पूछा कि उनके लिए देव दीपावली का क्या महत्व है। उनमें से एक ने कहा—“हमारे लिए यह त्योहार केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक है। यह हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है। इस दिन हम महसूस करते हैं कि हम काशी का हिस्सा हैं और काशी हमारी आत्मा का हिस्सा है।”

उनकी बातें सुनकर लगा कि यह पर्व केवल पुरानी पीढ़ियों का नहीं, नई पीढ़ी का भी उतना ही प्रिय है।

इतिहासकारों के अनुसार, देव दीपावली की परंपरा धीरे-धीरे विस्तृत हुई। पहले इसे केवल काशी विश्वनाथ और पंचगंगा घाट पर मनाया जाता था। लेकिन धीरे-धीरे यह पूरे बनारस का उत्सव बन गया। अब तो पर्यटक भी हजारों की संख्या में आते हैं, और यह पर्व अंतरराष्ट्रीय आकर्षण का केंद्र बन चुका है।

गंगा किनारे बैठे एक वृद्ध ने कहा—“बाबूजी, हमें गर्व है कि हमारी काशी की यह परंपरा अब दुनिया देख रही है। लेकिन असली बात यह है कि यह त्योहार हमें अपने भीतर झाँकना सिखाता है। दीप केवल बाहर नहीं जलते, वे भीतर भी जलते हैं। हर दीप यह कहता है कि अंधकार कितना भी गहरा हो, एक लौ काफी है।”

उनकी बातें सुनते हुए मुझे लगा कि देव दीपावली का इतिहास केवल मिथक और कथा नहीं है, बल्कि जीवन का सत्य है। यह त्योहार हमें याद दिलाता है कि समय चाहे कितना बदल जाए, आस्था अपनी जगह अडिग रहती है।

आसमान में फिर से आतिशबाज़ी चमक उठी। घाट की सीढ़ियों पर लोग अब भी दीप जला रहे थे। और मैं सोच रहा था—यह परंपरा, यह इतिहास, यही तो काशी को अमर बनाता है।

भाग 10 – विदाई की सुबह

रात भर दीपों का उत्सव देखने के बाद भी मेरी आँखों में नींद नहीं थी। काशी की वह रोशनी भीतर तक उतर चुकी थी। जब रात अपने अंतिम पड़ाव पर थी और आकाश में भोर की हल्की लाली दिखने लगी, मैं फिर से घाट की ओर निकल पड़ा।

गंगा के किनारे अब सन्नाटा था। कल रात की भीड़ जैसे अचानक गायब हो गई थी। लेकिन दीप अब भी जले हुए थे—कहीं आधे बुझे, कहीं अब भी टिमटिमाते। उनकी लौ मानो रात की कहानियाँ सुना रही थी। गंगा की लहरों पर तैरते कुछ दीप अब भी दूर तक चमक रहे थे, जैसे सितारे सुबह की पहली रोशनी से विदाई ले रहे हों।

अस्सी घाट की सीढ़ियों पर कुछ साधु ध्यानमग्न बैठे थे। उनकी आँखें बंद थीं और होठों पर धीमे मंत्र बह रहे थे। हवा में अगरबत्ती की हल्की गंध थी। रात का शोर अब गहरी शांति में बदल चुका था।

मैं घाट की सीढ़ियों पर बैठ गया। सामने से सूरज धीरे-धीरे उग रहा था। उसकी पहली किरण गंगा के जल पर पड़ी और पानी सोने-सा चमक उठा। उस दृश्य में उत्सव की भव्यता नहीं थी, लेकिन उसमें गहरी आत्मीयता थी।

पास ही एक वृद्ध महिला अपने हाथ में छोटा-सा दीप लिए गंगा में प्रवाहित कर रही थी। उसने धीमे स्वर में कहा—“हे गंगे, हमें आशीष दो।” उसकी आवाज़ में थकान थी, पर साथ ही विश्वास भी। मैंने सोचा, यही तो इस यात्रा का सार है—आस्था की निरंतरता।

गलियों में भी अब हलचल लौटने लगी थी। दुकानों पर चाय के मटके चढ़ाए जा रहे थे। गरमा-गरम कचौरी तलने की आवाज़ आने लगी। बच्चे स्कूल जाने की तैयारी कर रहे थे। कल की दिव्यता अब रोज़मर्रा की ज़िंदगी में ढल रही थी। काशी अपने मूल रूप में लौट रही थी—साधारण पर असाधारण।

मैंने महसूस किया कि देव दीपावली केवल एक रात का उत्सव नहीं है, बल्कि यह अनुभव है जो पूरे जीवन तक चलता है। दीपों की रोशनी आँखों से तो ओझल हो जाती है, पर भीतर की लौ कभी नहीं बुझती।

सूरज पूरी तरह निकल आया था। गंगा की लहरें अब सुनहरी चमक में डूब चुकी थीं। मैंने आखिरी बार हाथ जोड़कर गंगा को प्रणाम किया। मन ही मन कहा—“धन्यवाद काशी, धन्यवाद गंगे, इस अमिट स्मृति के लिए।”

मैंने अपना बैग उठाया और होटल की ओर चल पड़ा। गलियों से गुजरते हुए लगा जैसे हर ईंट, हर पत्थर, हर मोड़ अब परिचित हो गया है। यह शहर अब केवल देखने की जगह नहीं रहा, यह मेरी स्मृति का हिस्सा बन गया है।

स्टेशन पहुँचने तक मेरे भीतर एक अजीब-सी शांति बनी रही। बाहर की हलचल, यात्रियों का शोर, चायवालों की पुकार—सब सामान्य था, लेकिन मेरे भीतर अब भी दीपों की जगमगाहट गूंज रही थी।

ट्रेन चलने लगी। खिड़की से पीछे छूटते बनारस को देख रहा था। लगा कि यह विदाई नहीं है, बल्कि एक वादा है—कि मैं फिर लौटूँगा। देव दीपावली की उस अलौकिक रात को फिर से जीने, फिर से महसूस करने।

और सच यही है—काशी केवल एक बार की यात्रा नहीं। यह जीवन भर बुलाती है, बार-बार, हर दीप के साथ, हर लहर के साथ, हर स्मृति के साथ।

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