Hindi - सामाजिक कहानियाँ

गली-गली बनारस

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आरव मिश्र


पर्‍व 1: घाटों का सवेरा

बनारस की सुबह का कोई मुकाबला नहीं। यह शहर जिस तरह हर दिन की शुरुआत करता है, वैसा और कहीं नहीं होता। जैसे ही पहली किरण गंगा पर गिरती है, शहर की गलियाँ धीरे-धीरे जागने लगती हैं। रात की निस्तब्धता टूटकर धीरे-धीरे जीवन की चहचहाहट में बदल जाती है।

अस्सी घाट की ओर जाती तंग गलियों में दूधवालों की आवाज़ गूँजने लगती है—“दूध ले लो, ताज़ा दूध…”। कहीं कोई दरवाज़ा खुलता है, कोई आँगन से झाड़ू लगाता है। गलियों की दीवारें, जिन पर कभी रंग-बिरंगे पोस्टर चिपके थे, अब धुँधली छायाओं की तरह सुबह की रोशनी में चमक उठती हैं।

चाय की दुकानों पर उबलते पानी की भाप, उसमें पत्तियों की खुशबू और अदरक की चुभन—यह सब मिलकर सुबह की हवा में एक खास सुगंध घोल देती है। चायवाले रामबाबू हर दिन की तरह अपनी कड़क बनारसी चाय बना रहे हैं। उनके पास बैठे दो बूढ़े ठेठ बनारसी अंदाज़ में राजनीति पर चर्चा कर रहे हैं।
“अरे का बताईं पंडित जी, चुनाव आवे वाला है, ई बार कौन जीतिहें?”
पंडित जी हँसकर जवाब देते हैं—“भइया, बनारस की गली सब राजनीति से ज़्यादा, किस्सों से भरी है। जौन जीतिहें, गली तो आपन मिज़ाज में ही रहिहें।”

इधर से गुजरते विद्यार्थी अपनी किताबें बगल में दबाए, तेज़ क़दमों से घाट की ओर बढ़ते हैं। उनके चेहरे पर एक अजीब-सी ऊर्जा है। शायद इसीलिए काशी को ज्ञान की नगरी कहा जाता है—यहाँ की गलियाँ खुद शिक्षा की राह दिखाती हैं।

एक मोड़ पर पान की दुकान खुल चुकी है। दुकान का मालिक पन्नालाल बड़े गर्व से कहते हैं—“हमरा पान बिना बनारस अधूरा है।” लाल गुलाबी कत्थे की परत, ऊपर से मीठा सुपारी, और उस पर चाँदी का वर्क—जैसे गली का हर रहस्य किसी पान की गिलौरी में समा गया हो। लोग कहते हैं कि बनारस का पान सिर्फ़ स्वाद नहीं, बल्कि किस्सा है—हर गली का, हर मोहल्ले का।

गली से गुजरते हुए अचानक मंदिर की घंटी बजती है। कहीं कोई पुजारी आरती कर रहा है, कहीं कोई बुज़ुर्ग रामचरितमानस का पाठ गुनगुना रहा है। एक छोटी-सी लड़की फूलों की टोकरी लेकर मंदिर की ओर भाग रही है। उसके पैरों की पायल की झंकार गली की खामोशी में संगीत भर देती है।

और तभी गली के एक पुराने मकान की चौखट पर बैठे बुज़ुर्ग बोल पड़ते हैं—
“बिटिया, जल्दी कर, सूरज ऊपर चढ़ गया है। भगवान को देरी नहीं होनी चाहिए।”
लड़की मुस्कराकर जवाब देती है—“हाँ दादाजी, अभी पहुँचाती हूँ।”

गलियों में हर कदम पर कोई न कोई कहानी बसी है। एक घर की दीवार पर लिखा है काशी विश्वनाथ सबका है”, वहीं बगल वाली दीवार पर किसी कवि ने अपने मन की पंक्तियाँ लिख दी हैं—
“गली-गली में गूँजता है राग,
हर मोड़ पर छुपा है भाग।”

घाट की ओर बढ़ते ही आवाज़ें और तेज़ हो जाती हैं। कोई स्नान कर रहा है, कोई सूरज को जल अर्पित कर रहा है। साधुओं का दल अपने भजन गा रहा है, और गंगा की लहरें जैसे उनके सुरों पर थिरक रही हैं। सुबह की धूप पानी पर पड़ते ही सुनहरे बिंदुओं की तरह चमकती है।

गली से घाट तक का यह सफ़र बनारस की आत्मा का परिचय है। यहाँ न अमीरी-गरीबी की दीवारें हैं, न उम्र का बंधन। सब एक ही लय में चलते हैं। गली की दीवारों पर चिपके पोस्टर भले पुराने हो चुके हों, पर उनमें अब भी शहर की नब्ज़ धड़कती है।

और इस सबके बीच, गली के कोने में बैठे बूढ़े पंडित जी अख़बार पढ़ रहे हैं। उनके पास खड़ा एक छोटा बच्चा उनसे पूछता है—
“पंडित जी, यह गली कितनी पुरानी है?”
पंडित जी अख़बार से नज़र उठाकर मुस्कराते हैं—
“बेटा, यह गली उतनी ही पुरानी है जितना गंगा का पानी। यहाँ से कितने लोग आए और गए, पर गली की साँसें अब भी वैसी ही हैं। हर ईंट, हर मोड़, हर दरवाज़ा—सबकी अपनी कहानी है।”

बच्चा हैरानी से गली की ओर देखता है। उसके मासूम चेहरे पर यह सवाल है कि अगर गली बोल पाती, तो कितनी कहानियाँ सुनाती।

धीरे-धीरे सूरज ऊपर उठता है। गली का हर कोना उजाले से भर जाता है। जीवन की रफ़्तार तेज़ हो जाती है। दुकानों में खरीदार आने लगते हैं, बच्चे स्कूल की ओर भागते हैं, और गली का हर पत्थर किसी नए क़दम की आहट पहचान लेता है।

पर इस गली की सबसे बड़ी पहचान है उसका मिज़ाज—धीमा, शांत, और आत्मीय। यहाँ समय ठहरता नहीं, लेकिन भागता भी नहीं। बस यूँ लगता है कि हर क्षण एक शाश्वत संगीत में ढल गया है।

और यही है बनारस की सुबह—घाट की आरती, गलियों का शोर, चाय की खुशबू, और कहानियों की अनंत धारा।

इस पहले पर्‍व का अंत यहीं होता है, लेकिन सफ़र अब शुरू हुआ है। अगली गली, अगला मोड़, और अगली कहानी हमारे इंतज़ार में है।

पर्‍व 2: गलियों में छुपी परछाइयाँ

बनारस की गलियाँ जितनी चहकती हैं, उतनी ही रहस्यमयी भी हैं। दिन में वे जैसे खुली किताब होती हैं—धूप, आवाज़ें, बच्चों की खिलखिलाहट, ठेलों की खटर-पटर—सब कुछ साफ़ दिखाई देता है। लेकिन जैसे ही सूरज ढलने लगता है, वही गलियाँ अचानक बदल जाती हैं। उनमें एक अनकहा सन्नाटा उतर आता है। छायाएँ लंबी होकर दीवारों पर फैल जाती हैं और हर मोड़ पर लगता है जैसे कोई अनदेखी निगाह पीछा कर रही हो।

पंडित जी की बताई हुई वह बात—“हर ईंट, हर मोड़, हर दरवाज़ा—सबकी अपनी कहानी है”—बच्चे के मन में घर कर चुकी थी। वह शाम को फिर उसी गली में आया। सूरज ढल चुका था। दीवारों पर पीली-लाल रोशनी फिसल रही थी। दुकानों के शटर गिर रहे थे और कुछ दुकानों में दीये जल उठे थे।

गली के बीचोंबीच एक पुराना मकान था, जिसके दरवाज़े पर ज़ंग लगा था। कहते हैं कि यह हवेली कभी किसी अमीर व्यापारी की थी। लेकिन अब वहाँ कोई नहीं रहता। बच्चे ने उत्सुकता से दरवाज़े की ओर देखा। अंदर अंधेरा था, पर जैसे किसी की आँखें चमक रही हों। उसने हिम्मत जुटाकर पंडित जी से पूछा—
“पंडित जी, इस हवेली में कोई क्यों नहीं रहता?”
पंडित जी अख़बार मोड़कर गहरी साँस लेते हुए बोले—
“बेटा, यहाँ कभी रमेशचंद्र जी रहते थे। उनकी दुकान घाट पर थी। कहते हैं, एक रात अचानक उनका परिवार लापता हो गया। उसके बाद यह हवेली खाली रह गई। लोग कहते हैं कि वहाँ से अजीब-अजीब आवाज़ें आती हैं—कभी बर्तन खटकने की, कभी रोने की।”

बच्चे की आँखें चौड़ी हो गईं।
“तो क्या भूत है वहाँ?”
पंडित जी मुस्करा दिए—“गली में भूत नहीं, कहानियाँ रहती हैं। लेकिन कहानियाँ कभी-कभी भूत से भी ज़्यादा डरावनी होती हैं।”

बच्चा सोच में डूब गया। उसने देखा कि शाम की परछाइयाँ धीरे-धीरे गली की दीवारों पर फैल रही थीं। एक ओर से ढोलक की आवाज़ आ रही थी—किसी घर में शादी की तैयारी थी। दूसरी ओर से किसी के रोने की धीमी सिसकियाँ। यही तो था बनारस—खुशी और ग़म एक ही गली में, एक ही समय पर।

गली की तंग दीवारों के बीच से हवा गुज़रती तो अजीब-सी सीटी बजाती। खिड़कियों से झांकती परछाइयाँ जैसे कहानियाँ सुनाना चाहतीं। बच्चे ने गौर किया कि उस पुरानी हवेली की खिड़की पर एक औरत का चेहरा उभरा और फिर गायब हो गया। वह सहम गया, लेकिन उसके अंदर रोमांच भी था।

उसी वक़्त, पानवाले पन्नालाल दुकान समेट रहे थे। बच्चे ने उनसे भी पूछ लिया—
“पन्नालाल काका, इस हवेली में कोई दिखता है क्या?”
पन्नालाल ने आँखें घुमाकर फुसफुसाया—
“अरे चुप्प, रात में उसका ज़िक्र मत कर। सब कहते हैं कि रमेशचंद्र जी की पत्नी की आत्मा अब भी खिड़की से झाँकती है। जो भी उससे आँख मिला लेता है, उसे अगले दिन बुखार चढ़ जाता है।”

बच्चे की रीढ़ में सिहरन दौड़ गई। पर तभी पास ही किसी ने ज़ोर से ठहाका लगाया। यह ठहाका था टोले की अम्मा का, जो अपनी कहानियों के लिए मशहूर थीं।
“अरे पन्नालाल! तुम तो बस डराना जानते हो। भूत-भूत कुछ नहीं होता। यह गली ही है जो अपने में सबको समेट लेती है। कभी हँसी, कभी आँसू, कभी परछाई—सब इस गली का हिस्सा हैं।”

बच्चे ने पहली बार गौर से टोले की अम्मा को देखा। उनका झुर्रियों भरा चेहरा किसी किताब जैसा था। शायद उनमें पूरी गली की कहानी छुपी थी।

गली में अंधेरा गहराने लगा था। दीपक और बिजली की लाइटें टिमटिमाने लगीं। अचानक हवेली के दरवाज़े के पीछे से खरखराहट की आवाज़ आई। बच्चा चौंक गया।
“यह क्या था?”
टोले की अम्मा हँसी—“अरे, यह गली है। जब यह साँस लेती है तो ऐसी ही आवाज़ें करती है।”

लेकिन बच्चा अब भी सोच में था। उसे लगा, गली की परछाइयाँ सचमुच कुछ कहना चाहती हैं।

शाम से रात में बदलते ही बनारस की गलियों का मिज़ाज और बदल जाता है। दुकानों पर बैठे लोग ताश खेलते हैं, किसी गली से ठुमरी की धुन आती है, कहीं किसी घर में बच्चे रो रहे होते हैं। पर हवेली के पास वही रहस्यमयी सन्नाटा बना रहता है।

पंडित जी ने बच्चे से कहा—
“बेटा, अगर इन गलियों को समझना है तो पहले इनके डर को समझना होगा। जो गली के अंधेरे को पहचान लेता है, वही बनारस की रोशनी को भी महसूस कर सकता है।”

बच्चे ने धीरे-धीरे इस सच्चाई को स्वीकार करना शुरू किया कि गली सिर्फ़ ईंट और पत्थर नहीं है, वह एक जीव है। उसका दिन अलग है, रात अलग। उसका उजाला अलग है, और परछाई अलग।

और यही परछाइयाँ, यही रहस्य, यही फुसफुसाहटें बनारस की पहचान हैं।

रात गहराती गई। आसमान में चाँद निकला और गली के मोड़ों पर चाँदनी बिखर गई। हवेली की खिड़की अब पूरी तरह अंधेरे में डूबी थी, पर बच्चे को अब भी लगा जैसे कोई उसे देख रहा हो।

उसने मन ही मन सोचा—
“कल फिर आऊँगा। इस गली की परछाइयों में छुपे राज़ को समझना ही होगा।”

पर्‍व 3: पान की दुकान की दास्तान

बनारस की पहचान जितनी उसके घाटों और मंदिरों से है, उतनी ही उसके पान से भी है। यहाँ पान खाना सिर्फ़ आदत नहीं, बल्कि परंपरा है—एक रस्म, एक रिवाज़। कहते हैं कि बिना पान के बातचीत अधूरी है, दोस्ती अधूरी है, और बनारस तो बिल्कुल अधूरा है।

गली के बीचोंबीच पन्नालाल की पान की दुकान इसी परंपरा का जीता-जागता सबूत है। उनकी छोटी-सी दुकान पर सुबह से रात तक भीड़ लगी रहती है। लाल-हरे कत्थे से सनी सुपारियों की चमक, गुलकंद की मिठास और चाँदी के वर्क की झिलमिल—सब मिलकर दुकान को किसी उत्सव जैसा बना देते हैं।

पन्नालाल खुद बड़े दिलचस्प किस्सागो हैं। पान बनाने के दौरान वे अक्सर अपने ग्राहकों से बातें करते रहते हैं। कोई घाट की राजनीति पर बहस कर रहा होता है, कोई काशी विश्वनाथ के दर्शन की चर्चा करता है, तो कोई बस पन्नालाल से कोई पुराना किस्सा सुनने आता है।

उस दिन बच्चा भी वहीं आकर बैठ गया। उसने पिछली रात हवेली की परछाइयों को देखा था और अब उसके मन में ढेरों सवाल थे। उसने पन्नालाल से पूछा—
“काका, आपने कहा था हवेली में भूत है। सचमुच कुछ देखा है आपने?”

पन्नालाल ने सुपारी कतरते हुए मुस्कराकर जवाब दिया—
“बिटवा, हमार आँख से तो कबहूँ न देखाय, लेकिन सुने बहुत हैं। पर गली की असली कहानियाँ हवेली में नहीं, इस पान की दुकान पर बनती हैं। देख न, इहाँ रोज़ सौ लोग आयें अउर सौ किस्सा छोड़ जात हैं।”

इतना कहते ही उनके पास बैठा एक अधेड़ उम्र का आदमी बोल पड़ा—
“सही कहत हो पन्नालाल। याद है वो दिन, जब गिरजा बाबू अपनी प्रेमिका को यहीं पान खिलाने लाए थे?”
सब लोग ठहाका मारकर हँस पड़े।

बच्चे ने उत्सुक होकर पूछा—“कौन गिरजा बाबू?”
पन्नालाल ने आँख दबाकर जवाब दिया—
“अरे, वही कपड़ेवाले। शादीशुदा थे, लेकिन दिल किसी और पे आ गया। गली की दीवारें सब देखती हैं, बेटा। जो लोग सोचते हैं कि यहाँ कोई नहीं जानता, वे भूल जाते हैं कि गली की आँखें हर जगह हैं।”

दुकान पर खड़े विद्यार्थी भी बीच में बोल पड़े—
“हाँ हाँ, और याद है वो वक़्त जब चुनाव के समय नेता जी यहाँ पान खाने आए थे? पूरा मोहल्ला जुट गया था, सिर्फ़ ये देखने कि वे कत्था लगाकर बोलेंगे कैसे।”

सब हँसने लगे। बच्चा सोच में डूब गया। उसे लगने लगा कि गली की कहानियाँ भूत-प्रेत से ज़्यादा इंसानी रिश्तों में छुपी हैं।

इसी बीच एक बुज़ुर्ग आये। उनके चेहरे पर थकान थी, आँखों में धुंध। उन्होंने पन्नालाल से कहा—
“भइया, एक मीठा बनाना। आज बहुत दिनों बाद दिल कर रहा है।”
पन्नालाल ने बड़े प्यार से उनके लिए गुलकंद वाला पान बनाया। उन्होंने पान लिया, होंठों पर रखा और धीरे-धीरे चबाने लगे। उनकी आँखों में आँसू भर आए।
“पन्ना, तेरा पान मुझे मेरी पत्नी की याद दिला देता है। वह हर रोज़ मेरे साथ यही पान खाती थी। अब तो बस यादें ही रह गईं।”

पूरा माहौल एकदम शांत हो गया। कुछ देर पहले जो हँसी-ठिठोली चल रही थी, उसकी जगह गहरी खामोशी ने ले ली। बच्चा पहली बार समझ पाया कि पान सिर्फ़ स्वाद नहीं, बल्कि यादों का ज़रिया है।

पन्नालाल ने धीरे से कहा—
“गली में हर पान एक कहानी है। किसी के लिए प्रेम, किसी के लिए राजनीति, किसी के लिए यादें। यहाँ आने वाला हर आदमी अपना अंश छोड़ जाता है। यही इस दुकान की दास्तान है।”

रात धीरे-धीरे गहराने लगी। दुकान के बाहर लैंपपोस्ट की रोशनी तिरछी पड़ रही थी। गली में लोग आते-जाते रहे। कोई हँसी की गूँज छोड़ गया, कोई चुपचाप पान खाकर आगे बढ़ गया। बच्चे ने महसूस किया कि यह दुकान गली का दिल है। यहाँ न धूप-छाँव का फर्क है, न उम्र का। सब बराबर हैं, सब अपनी कहानी सुनाने और सुनने आते हैं।

उसने पन्नालाल से आख़िरी सवाल किया—
“काका, आपकी दुकान में कितनी कहानियाँ होंगी?”
पन्नालाल ने हँसते हुए कहा—
“बेटा, अगर हम सब किस्से लिखने बैठ जाएँ, तो पूरा बनारस एक किताब बन जाए। और वो किताब कभी ख़त्म न हो।”

बच्चे ने उस रात जाना कि गली की सबसे बड़ी ताक़त उसकी बातें हैं। यहाँ जो बोला जाता है, वह सिर्फ़ हवा में नहीं उड़ता, बल्कि दीवारों में समा जाता है।

और इस तरह पान की दुकान ने उसे सिखा दिया कि बनारस की गलियाँ सिर्फ़ ईंट-पत्थर की नहीं, बल्कि यादों और किस्सों की भी होती हैं।

पर्‍व 4: टोले की अम्मा और उनकी कहानियाँ

हर गली में कोई न कोई ऐसा शख़्स ज़रूर होता है, जो उस गली का इतिहास भी होता है और उसका भविष्य भी। बनारस की इस गली में वह शख़्स थीं—टोले की अम्मा। उनका असली नाम कम लोग जानते थे। सब उन्हें बस “अम्मा” कहकर पुकारते थे।

अम्मा की उम्र अस्सी पार कर चुकी थी, लेकिन आवाज़ अब भी इतनी तेज़ कि आधी गली सुन ले। उनका घर गली के मोड़ पर था, जिसकी चौखट पर हमेशा एक चारपाई बिछी रहती थी। वहीं बैठकर अम्मा अपना साम्राज्य चलातीं। सुबह से शाम तक लोग आते-जाते और अम्मा से आशीर्वाद लेते, डाँट खाते या फिर कोई पुराना किस्सा सुनते।

बच्चे ने पहली बार अम्मा को तब देखा था, जब वह हवेली के रहस्य पर पन्नालाल से बात कर रहा था। अम्मा ने वहीं से ठहाका लगाया था। अब वह उनके पास बैठा था।

“अम्मा, आप इतनी कहानियाँ कैसे जानती हैं?” बच्चे ने मासूमियत से पूछा।

अम्मा ने अपनी आँखों पर पड़ी मोटी ऐनक सीधी की और बोलीं—
“बबुआ, गली खुद कहानी है। जिसने इसे जी लिया, उसने सब जान लिया। हम जब जवान थीं, तो इसी गली में ब्याह होकर आई थीं। तब यहाँ सब कुछ अलग था। लोग कम थे, लेकिन मोहब्बत ज़्यादा थी। हर घर में एक दरवाज़ा ऐसा होता था, जो हमेशा खुला रहता था।”

बच्चा ध्यान से सुन रहा था। अम्मा ने अपने बचपन और जवानी के किस्से सुनाने शुरू किए।

“जानते हो, जब गली में पहली बार बिजली आई थी, तो लोग डर गए थे। सोचते थे, ये चमकती लाइट भूत-प्रेत का खेल है। तब हमने ही समझाया था कि यह तो नए ज़माने की रोशनी है।”

अम्मा के चेहरे पर एक गर्व की झलक थी। वह सचमुच इस गली की जीती-जागती याद थीं।

उनकी कहानियाँ सिर्फ़ अतीत तक सीमित नहीं थीं। वे हर रोज़ की छोटी-बड़ी घटनाओं को भी कहानी बना देतीं।
“कल ही की बात है,” अम्मा बोलीं, “पन्नालाल की दुकान पर दो लड़के झगड़ रहे थे। एक बोला कि पान में कत्था ज़्यादा है, दूसरा बोला मीठा कम है। मैंने जाकर कहा—अरे, लड़ो मत, ज़िंदगी भी तो पान जैसी है। किसी को मीठा चाहिए, किसी को तीखा। पर चबाओ तो सब बराबर लगने लगता है।”

सुनकर बच्चा हँस पड़ा।

गली के लोग अम्मा को बेहद मानते थे। कोई बीमार होता तो अम्मा सबसे पहले पहुँच जातीं, कोई शादी-ब्याह होता तो आशीर्वाद देने से पीछे न हटतीं। उनका एक ही नियम था—“गली का बच्चा मेरा बच्चा, गली की बेटी मेरी बेटी।”

लेकिन अम्मा की कहानियों में सिर्फ़ मिठास नहीं थी। कभी-कभी वे ऐसे राज़ भी खोल देतीं, जो सुनने वालों को सन्न कर देते।
“तुमने हवेली की परछाइयाँ देखी हैं न?” अम्मा ने बच्चे की आँखों में देखते हुए कहा।
बच्चा चौंक गया—“हाँ, पर आपको कैसे पता?”
अम्मा मुस्कराईं—“बबुआ, इस गली में पत्ता भी हिले तो हमें खबर हो जाती है। हवेली में क्या है, यह तो कोई नहीं जानता। लेकिन इतना ज़रूर है कि उस हवेली ने कई ज़िंदगियाँ निगली हैं। कभी किसी ने वहाँ रहने की कोशिश की, पर टिक नहीं पाया।”

बच्चे के मन में फिर डर की लहर दौड़ी। उसने सोचा, अम्मा सब जानती हैं, पर शायद सब नहीं बतातीं।

अम्मा का जीवन भी किसी कहानी से कम नहीं था। उनके पति साधारण दुकानदार थे, पर जल्दी गुजर गए। अम्मा ने अकेले ही बच्चों को पाला, और गली ने हमेशा उन्हें सहारा दिया। अब उनके बच्चे दूर-दराज़ शहरों में रहते थे, लेकिन अम्मा ने कभी गली छोड़ी नहीं।
“हम सोचते हैं,” अम्मा बोलीं, “अगर यह गली छोड़ देंगे तो साँस भी छूट जाएगी। यहाँ की मिट्टी, यहाँ की हवा, सब हमारी रगों में दौड़ती है।”

गली के कोने में खड़े पंडित जी ने भी हामी भरी—
“सही कह रही हैं अम्मा। जब तक अम्मा हैं, गली ज़िंदा है। यह गली अगर मंदिर है, तो अम्मा उसकी देवी हैं।”

बच्चे ने देखा कि शाम ढल रही है। लोग घर लौट रहे हैं, और अम्मा की चौखट पर भीड़ बढ़ रही है। कोई उनके पाँव छू रहा है, कोई दवा पूछ रहा है, कोई बस उनके पास बैठने आ रहा है।

अम्मा ने सबको आशीर्वाद दिया और फिर बच्चे से बोलीं—
“याद रखना बबुआ, गली की कहानियाँ कभी ख़त्म नहीं होतीं। बस सुनने वाला चाहिए। और जो सुन ले, वही इस गली का असली वारिस है।”

बच्चा चुपचाप उनकी बात सोचने लगा। उसे लगा कि गली का इतिहास, गली की परछाइयाँ और पान की दुकान—सब एक सूत्र में अम्मा से जुड़ते हैं।

उसने मन ही मन ठान लिया कि वह इन कहानियों को सुनेगा और समझेगा। शायद यही बनारस का असली ज्ञान है।

रात गहराने लगी थी। अम्मा ने चौखट पर दीया जलाया। उसकी लौ में बच्चे को लगा कि पूरी गली चमक उठी है।

और सचमुच, उस रात उसने महसूस किया कि गली की सबसे बड़ी ताक़त कोई हवेली का रहस्य नहीं, न पान की दुकान का शोर—बल्कि अम्मा की कहानियाँ हैं, जो हर दिल को जोड़ देती हैं।

पर्‍व 5: काशी की रूह और संगीत

बनारस को लोग सिर्फ़ मंदिरों, घाटों और गलियों से नहीं पहचानते—इसे उसकी धुनों से भी पहचाना जाता है। कहते हैं कि यहाँ हर सुबह राग भैरव में साँस लेती है और हर रात ठुमरी में ढल जाती है। गली के मोड़ों से लेकर घाट की सीढ़ियों तक, हर जगह कोई न कोई स्वर गूंजता है। यही संगीत इस शहर की रूह है।

बच्चा, जिसने अब तक हवेली की परछाइयाँ देखी थीं, पान की दुकान की कहानियाँ सुनी थीं और अम्मा की नसीहतें पाई थीं, अब एक नए सफ़र पर था। उसे महसूस हो रहा था कि अगर बनारस को समझना है, तो उसके संगीत को समझना ज़रूरी है।

सुबह की पहली किरण में ही गलियों से मंदिर की घंटियों की आवाज़ आती। साथ ही दूर कहीं से शंखध्वनि गूँजती। यह आवाज़ इतनी गहरी होती कि लगता जैसे गंगा खुद कोई राग छेड़ रही हो। बच्चे ने देखा कि गली के मोड़ पर एक बूढ़ा आदमी बैठा है, हाथ में सारंगी। उसके उँगलियाँ तारों पर फिसल रही थीं और हवा में करुणा घुल रही थी।

“यह कौन हैं?” बच्चे ने पास खड़े पंडित जी से पूछा।
“अरे, इन्हें कोई ‘बाबा’ कहता है, कोई ‘गुरुजी’। असल नाम कौन जाने। पर ये पिछले चालीस साल से यहीं बैठकर सारंगी बजाते हैं। कहते हैं, जब इनके सुर गूंजते हैं तो गली की दीवारें भी गुनगुनाती हैं।”

बच्चा मंत्रमुग्ध होकर सुनता रहा। सारंगी की आवाज़ कभी धीमी होकर आँसू बन जाती, कभी तेज़ होकर हँसी। जैसे इंसानी ज़िंदगी का पूरा नाटक इन सुरों में छिपा हो।

इसी बीच गली के दूसरे छोर से ढोलक और तबले की ताल आने लगी। वहाँ एक छोटा-सा अखाड़ा था, जहाँ बच्चे हर शाम नृत्य और संगीत सीखते थे। उनकी हँसी और शोर गलियों को जीवंत बना देता।

टोले की अम्मा मुस्कराकर बोलीं—
“बबुआ, यह काशी है। यहाँ बच्चे खेलते-खेलते भी राग सीख जाते हैं। जब कोई बच्चा रोता है, तो माँ उसे लोरी नहीं, कोई ठुमरी गाकर सुलाती है। जब शादी होती है, तो दूल्हा-दुल्हन सिर्फ़ फेरे नहीं लेते, गाना-बजाना भी साथ चलता है। यहाँ मौत में भी गाना है और जन्म में भी।”

बच्चा सोच में पड़ गया। सचमुच, यह शहर अलग था। यहाँ गाना और संगीत सिर्फ़ कला नहीं, बल्कि ज़िंदगी का हिस्सा था।

रात को जब घाटों पर आरती होती, तब पूरा वातावरण संगीत में डूब जाता। सौ दीयों की रोशनी और सौ घंटियों की गूँज—यह दृश्य देखकर लगता कि आसमान भी झुककर सुन रहा है। बच्चा आरती में शामिल हुआ और उसने महसूस किया कि उसके दिल की धड़कन भी आरती की ताल पर चल रही है।

आरती ख़त्म होने के बाद गली में लौटते समय उसने देखा कि एक बुज़ुर्ग महिला खिड़की पर बैठकर भजन गा रही थीं। उनकी आवाज़ टूटी हुई थी, पर उसमें इतनी सच्चाई थी कि बच्चे की आँखें भर आईं।

पन्नालाल, जो पास ही दुकान समेट रहे थे, बोले—
“बबुआ, यह वही तारा देवी हैं। कभी बड़े-बड़े समारोह में गाती थीं। अब आवाज़ साथ नहीं देती, पर वे मानती हैं कि जब तक गाएँगी नहीं, गली में साँस नहीं ले पाएँगी।”

बच्चे ने सोचा कि यह शहर शायद गाना गाने के लिए ही बना है। हर दीवार, हर चौखट, हर मंदिर, हर घाट—सब मिलकर एक अनोखी सरगम रचते हैं।

अगले दिन सुबह, जब वह फिर गली में निकला, तो उसने सुना—कहीं कोई राग दरबारी का अभ्यास कर रहा है। कहीं कोई बाँसुरी बजा रहा है। और कहीं दूर से नौका-विहार करते मल्लाहों की टेर सुनाई दे रही है—
“गंगा मइया तोहरे पियरी चढ़इबो…”

वह टेर इतनी भावुक थी कि लगा जैसे गंगा खुद जवाब दे रही हो।

टोले की अम्मा ने बच्चे से कहा—
“बबुआ, काशी की रूह संगीत में बसती है। यह गली चाहे कितनी भी तंग हो, लेकिन जब कोई गाता है तो आसमान तक खुल जाता है। और याद रखना, जिस दिन यहाँ के सुर थम जाएँगे, उसी दिन काशी मरी समझना।”

बच्चे ने उस रात तय किया कि वह भी कोई वाद्य सीखेगा। उसने बाबा से जाकर कहा—
“क्या आप मुझे सारंगी सिखाएँगे?”
बाबा की आँखें चमक उठीं।
“क्यों नहीं बेटा। अगर गली ने तुम्हें चुना है, तो इसका संगीत भी तुम्हें ज़रूर अपनाएगा।”

और इस तरह बच्चे की ज़िंदगी का एक नया अध्याय शुरू हुआ—गली के सुरों और काशी की रूह को अपने भीतर महसूस करने का।

उसने समझा कि हवेली की परछाइयाँ डराती हैं, पान की दुकान जोड़ती है, अम्मा की कहानियाँ सिखाती हैं, लेकिन असली बनारस तो इन सुरों में है, जो हर गली में बहते हैं और हर आत्मा को छू जाते हैं।

पर्‍व 6: तंग गली का रहस्य

बनारस की गलियाँ वैसे तो सब तंग हैं, लेकिन कुछ गलियाँ इतनी सँकरी होती हैं कि दो लोग आमने-सामने खड़े हो जाएँ तो उन्हें कंधा झुकाकर निकलना पड़ता है। इन गलियों को लोग मज़ाक में दोस्ती वाली गली” कहते हैं—क्योंकि यहाँ से गुजरने वाला हर इंसान दूसरे से टकराकर ही आगे बढ़ पाता है।

बच्चे को ऐसी ही एक गली के बारे में सुनने को मिला। कहते थे कि यह गली दिन में तो सामान्य लगती है, लेकिन रात होते ही इसका रंग बदल जाता है। लोग मानते थे कि इसमें कोई रहस्य छिपा है।

एक शाम, जब सूरज ढल रहा था और आकाश में सुनहरी रोशनी बिखरी थी, बच्चा उस गली की ओर निकल पड़ा। जैसे ही उसने पहला क़दम रखा, उसे लगा कि हवा यहाँ अलग है—घनी, भारी और रहस्यमयी। दीवारों पर काई जमी थी, और दरारों से सीलन की गंध आती थी। ऊपर से झुकी हुई बालकनियों और परछाइयों ने गली को और भी संकरा बना दिया था।

पन्नालाल ने पहले ही चेताया था—
“बबुआ, उस गली में बेवजह मत जाना। कई लोग कसम खाते हैं कि रात में वहाँ से फुसफुसाहट सुनाई देती है। कोई कहता है कि वह पुराना कवि रघुनाथ की आत्मा है, जिसकी कविताएँ कभी पूरी न हो पाईं। कोई कहता है कि यह गली हर उस आदमी की आवाज़ संजोकर रखती है, जो इसमें से गुज़रता है।”

लेकिन बच्चे की जिज्ञासा डर से बड़ी थी। उसने धीमे क़दमों से आगे बढ़ना शुरू किया। अचानक उसे लगा कि पीछे से किसी ने नाम पुकारा—“अरे सुनो!”
उसने मुड़कर देखा, पर वहाँ कोई नहीं था।

गली में और गहराई तक जाते ही उसने देखा कि एक दीवार पर अधूरी पंक्तियाँ लिखी थीं—
“गली में छुपा है एक राज़,
हर मोड़ पे बदलता है साज़।”

उसने उँगली से उन शब्दों को छूआ। तभी कानों में एक धीमी-सी आवाज़ गूँजी, जैसे कोई बहुत पास से गा रहा हो। बच्चा डर से काँप गया।

तभी टोले की अम्मा अचानक पीछे से आ पहुँचीं।
“बबुआ, क्या कर रहे हो यहाँ?”
बच्चा घबरा गया—“अम्मा, ये गली… इसमें कोई बोल रहा था।”
अम्मा ने गहरी साँस ली और बोलीं—
“ये गली पुरानी है। यहाँ कभी कवि रघुनाथ रहते थे। कहते हैं, उनकी कविताएँ इस गली में अब भी गूँजती हैं। कोई डरने वाली बात नहीं, बस यह गली अपने इतिहास को कभी छोड़ती नहीं।”

अम्मा की बात सुनकर बच्चे का डर कुछ कम हुआ, लेकिन उसकी जिज्ञासा और बढ़ गई।

उसी रात उसने तय किया कि वह अकेले इस गली से गुज़रेगा। जब सारी दुकानें बंद हो गईं और चाँदनी गलियों पर उतर आई, बच्चा फिर वहाँ आया। गली में सन्नाटा था। सिर्फ़ हवा और उसकी साँसें सुनाई दे रही थीं।

अचानक दीवारों से आवाज़ें गूँजने लगीं—कभी कविताओं की, कभी हँसी की, कभी रोने की।
“यह कौन है?” बच्चे ने ज़ोर से पूछा।
कोई जवाब नहीं आया, लेकिन आवाज़ें और गहरी हो गईं।

उसी वक़्त, पंडित जी वहाँ पहुँचे। उन्होंने बच्चे को डाँटते हुए कहा—
“अरे पगले! रात में यहाँ भटकते हो? यह गली ज़िंदा है। इसमें हर वो बात दर्ज है, जो कभी कही गई। जब तुम चुपचाप सुनो, तो यह सब उगल देती है। लेकिन याद रखना, जो सुन लेता है, उसे ज़िंदगी भर भूलता नहीं।”

बच्चे ने काँपते हुए कहा—“तो ये गली मुझे सब दिखा रही थी?”
पंडित जी ने सिर हिलाया—“हाँ, बेटा। यह गली आईना है। इसमें जो भी जाता है, उसे अपना सच दिखता है।”

बच्चा सोच में डूब गया। उसे लगा कि यह गली किसी किताब की तरह है—हर मोड़ पर नया पन्ना खुलता है। और जो इसमें घुस जाए, वह अपना हिस्सा छोड़कर ही निकलता है।

उस रात जब वह अपने घर लौटा, तो उसके मन में सिर्फ़ एक विचार था—
“बनारस की गलियाँ सिर्फ़ रास्ते नहीं, रहस्य भी हैं। हर गली के पास अपनी आवाज़ है। और जो सुन ले, वही असली बनारसी बनता है।”

पर्‍व 7: काफ़ी हाउस की बहसें

बनारस की गलियाँ जितनी धार्मिक और रहस्यमयी हैं, उतनी ही बौद्धिक भी। यहाँ के चौराहों पर बैठकर राजनीति पर बहस करना, कविताएँ सुनाना या दर्शन पर चर्चा करना रोज़ का हिस्सा है। और इन बहसों का सबसे बड़ा ठिकाना है काफ़ी हाउस

गली से निकलकर गोदौलिया की ओर बढ़ो तो एक पुरानी-सी इमारत मिलती है, जिसके भीतर लकड़ी की कुर्सियाँ और लंबे मेज़ लगे हैं। छत पर पुराने पंखे घूमते रहते हैं, दीवारों पर धुँधली तस्वीरें टँगी हैं—कुछ पुराने कवियों की, कुछ राजनेताओं की। यहीं बैठकर पीढ़ियों ने काशी की आवाज़ गढ़ी है।

बच्चे ने पहली बार जब काफ़ी हाउस में क़दम रखा तो उसे लगा जैसे वह किसी दूसरी दुनिया में आ गया हो। वहाँ की हवा में चाय और सिगरेट की गंध थी, और साथ ही शब्दों का शोर। हर मेज़ पर कोई न कोई बहस चल रही थी।

एक मेज़ पर छात्र राजनीति पर तर्क कर रहे थे—
“देश बदलने का काम सबसे पहले विश्वविद्यालयों से शुरू होता है!”
दूसरी मेज़ पर कवि अपनी नई कविता सुना रहा था—
“गली के मोड़ पर जो दीपक जला है,
वह मेरे दिल का भी रास्ता दिखा है।”

पन्नालाल भी कभी-कभी अपनी दुकान से छुट्टी लेकर यहीं आ जाते थे। उन्होंने बच्चे को देखकर हँसते हुए कहा—
“अरे बबुआ! अब तो तू असली बनारसी बन गया। जब तक काफ़ी हाउस की बहसें न सुनीं, तब तक गली अधूरी है।”

बच्चा एक कोने में बैठकर सब सुनने लगा। एक बूढ़े प्रोफ़ेसर, जिनके चेहरे पर झुर्रियाँ थीं पर आँखों में चमक, धीरे-धीरे बोले—
“काशी सिर्फ़ मंदिरों की नगरी नहीं, यह विचारों की नगरी है। यहाँ कबीर ने सत्य कहा, तुलसी ने भक्ति गाई, और अब ये युवा अपने सवाल पूछ रहे हैं। यही तो असली काशी है—जहाँ बहस कभी ख़त्म नहीं होती।”

उनकी बात सुनकर बच्चा मंत्रमुग्ध हो गया। उसे लगा कि गली की कहानियाँ सिर्फ़ दीवारों पर नहीं लिखी, बल्कि लोगों की ज़बान पर भी हैं।

इसी बीच, एक गरमा-गरम बहस छिड़ गई। दो युवक झगड़ रहे थे—
“देश की हालत सुधारने के लिए क्रांति चाहिए।”
“नहीं, क्रांति नहीं, हमें कविता चाहिए। कविता ही दिल बदलती है।”

पूरा हॉल उनकी बहस सुनकर हँस पड़ा, लेकिन बच्चे को लगा कि दोनों सही हैं। शायद बनारस की ताक़त ही यही है कि यहाँ तलवार नहीं, शब्द चलते हैं।

टोले की अम्मा भी कभी-कभी किसी को भेजकर काफ़ी हाउस से चाय मँगवाती थीं। उन्होंने बच्चे से कहा था—
“बबुआ, वहाँ से जो चाय आती है, उसमें सिर्फ़ पत्ती का स्वाद नहीं होता। उसमें बहसों की आँच भी घुली होती है।”

काफ़ी हाउस में बैठे कवि, छात्र, बूढ़े प्रोफ़ेसर और साधारण मज़दूर—सब बराबर थे। सबकी बातें सुनी जाती थीं। बच्चा यह देखकर चकित था।

शाम ढल रही थी। खिड़की से आती धूप धीरे-धीरे फीकी हो रही थी। लेकिन बहसें थम नहीं रही थीं। कोई समाजवाद की बात कर रहा था, कोई प्रेम पर कविता पढ़ रहा था, कोई गली के इतिहास को याद कर रहा था।

बच्चे ने महसूस किया कि यह जगह भी एक गली है—लेकिन ईंटों की नहीं, विचारों की। यहाँ हर तर्क, हर कविता, हर हँसी एक-दूसरे से टकराकर नई गूँज पैदा करती है।

जब वह बाहर निकला तो आसमान में तारे चमकने लगे थे। पर उसके कानों में अब भी बहसों की आवाज़ गूँज रही थी। उसने सोचा—
“बनारस की गली सिर्फ़ डराती नहीं, जोड़ती भी नहीं, सिखाती भी नहीं—यह सोचने पर मजबूर करती है। और यही इसकी सबसे बड़ी ताक़त है।”

उस रात उसने सपने में देखा कि पूरी गली काफ़ी हाउस बन गई है। हर घर से तर्क निकल रहे हैं, हर मोड़ पर कविता गाई जा रही है, और हर खिड़की से कोई सवाल झाँक रहा है।

सुबह उठकर उसने तय किया कि वह भी एक दिन अपनी कहानी लिखेगा और उसे काफ़ी हाउस में सुनाएगा। शायद तभी यह गली उसे अपना मान लेगी।

पर्‍व 8: रंगों और रिश्तों का मोहल्ला

बनारस की गली सिर्फ़ आवाज़ों और बहसों से नहीं जीती, वह रंगों और रिश्तों से साँस लेती है। हर गली का अपना मोहल्ला होता है, और हर मोहल्ला किसी छोटे-से परिवार की तरह। यहाँ एक का दुःख सबका दुःख है, एक की खुशी सबकी खुशी।

बच्चा अब तक कई कहानियाँ सुन चुका था—हवेली का रहस्य, पान की दुकान की दास्तान, अम्मा की यादें, काफ़ी हाउस की बहसें। पर अब वह देख रहा था कि गली का सबसे बड़ा सच है—रिश्तों का मोहल्ला

सुबह मोहल्ले की शुरुआत होती थी रंगों से। दूधवाले की सफ़ेद लाठी, सब्ज़ीवाले की हरी टोकरी, हलवाई की केसरिया जलेबियाँ, बच्चों के रंग-बिरंगे बस्ते—सब मिलकर गली को किसी मेले जैसा बना देते।

होली के दिन तो मोहल्ला पूरा इंद्रधनुष बन जाता। बच्चे गलियों में दौड़ते, लाल-गुलाबी गुलाल उड़ाते, और अम्मा की चौखट पर रंगों की छाप छोड़ जाते। अम्मा हँसते-हँसते कहतीं—
“बबुआ, यह रंग सिर्फ़ कपड़ों पर नहीं लगते, यह दिल पर भी छप जाते हैं।”

मोहल्ले की सबसे बड़ी ख़ूबी यह थी कि यहाँ जात-पात, अमीरी-गरीबी सब भूल जाते थे। पन्नालाल का पान हो या प्रोफ़ेसर साहब की कविता, सबको बराबरी से बाँटा जाता। यहाँ तक कि गली की दीवारें भी यह बराबरी दिखातीं—कहीं किसी शादी का तोरण टँगा है, तो कहीं किसी मौत का सफ़ेद झंडा।

एक बार मोहल्ले में झगड़ा हुआ। दो पड़ोसी किसी ज़मीन को लेकर भिड़ गए। गली में तनाव छा गया। लेकिन उसी शाम, जब किसी घर से ढोलक की थाप बजी और शादी की तैयारी शुरू हुई, पूरा मोहल्ला साथ खड़ा हो गया। लड़ने वाले भी नाचने लगे। टोले की अम्मा बोलीं—
“देखा, रिश्ते रंगों की तरह होते हैं। कभी गहरे, कभी फीके। पर जब सब मिलते हैं तो तस्वीर बनती है।”

बच्चे ने देखा कि मोहल्ले में रिश्ते सिर्फ़ खून के नहीं, बल्कि दिल के भी थे। कोई बच्चा भूखा रहता तो पूरा मोहल्ला उसे खाना खिलाता। कोई बीमार पड़ता तो सब उसके घर का काम बाँट लेते।

इसी मोहल्ले में एक बुनकर परिवार रहता था। उनके घर से करघे की ठक-ठक की आवाज़ हर समय आती। रंग-बिरंगे धागे दीवारों पर टँगे रहते। बच्चे ने उनसे पूछा—
“ये धागे इतने रंगीन क्यों होते हैं?”
बुनकर ने मुस्कराकर कहा—
“बेटा, ये मोहल्ले के रिश्तों जैसे हैं। अगर सब रंग अलग-अलग रहें तो कुछ नहीं बनेगा। पर जब ये मिल जाते हैं, तो बनता है बनारसी साड़ी—दुनिया में सबसे सुंदर।”

बच्चा देर तक सोचता रहा। सचमुच, मोहल्ला भी किसी साड़ी की तरह था—हर इंसान एक धागा, और मिलकर बनाते एक खूबसूरत बुनावट।

फिर आया दीपावली का दिन। पूरे मोहल्ले में दीप जले। हर घर से मिठाइयों की खुशबू आने लगी। बच्चे दौड़-दौड़कर सब घरों से लड्डू, बर्फ़ी, खील-बताशे बटोरते। और जब रात को सबने मिलकर गली के मोड़ पर सबसे बड़ा दीपक जलाया, तो ऐसा लगा जैसे पूरा मोहल्ला एक साथ चमक रहा हो।

मोहल्ले में त्योहार ही नहीं, ग़म भी बाँटे जाते थे। किसी घर में मौत होती तो पूरे मोहल्ले की चौखटें उदास हो जातीं। पर लोग कहते—
“गली में आँसू भी मिलकर हल्के हो जाते हैं।”

टोले की अम्मा अक्सर कहतीं—
“रिश्ते बनारस के रंग हैं। कोई लाल, कोई हरा, कोई पीला। और जब सब रंग मिल जाते हैं, तो गली की तस्वीर पूरी होती है।”

बच्चे ने उस दिन समझा कि बनारस की गली सिर्फ़ मंदिरों और संगीत की नहीं, बल्कि रिश्तों की भी नगरी है। यहाँ मोहल्ला ही असली मंदिर है, और लोग ही असली देवता।

रात को, जब सब अपने-अपने घर लौट गए, बच्चा छत पर खड़ा गली को देख रहा था। दीपक अब भी जल रहे थे, हवा में अब भी मिठाई की खुशबू थी, और कहीं से ढोलक की हल्की थाप आ रही थी। उसने मन ही मन कहा—
“काश, सारी दुनिया बनारस के मोहल्ले जैसी होती। जहाँ रंग और रिश्ते मिलकर ज़िंदगी को खूबसूरत बना देते।”

पर्‍व 9: एक गली, सौ चेहरे

बनारस की गली का सबसे बड़ा आकर्षण है उसके चेहरे। हर सुबह गली नए चेहरों से भर जाती है और हर शाम नए किस्से छोड़ जाती है। एक ही गली में इतने अलग-अलग लोग रहते हैं कि लगता है जैसे कोई जीवित म्यूज़ियम हो।

बच्चे ने अब तक इस गली की परछाइयाँ देखी थीं, पान की दुकान की दास्तान सुनी थी, अम्मा की कहानियाँ समझी थीं और मोहल्ले के रंगों का स्वाद लिया था। लेकिन अब उसकी जिज्ञासा बढ़ रही थी—आख़िर इस गली में कितने चेहरे हैं?

सुबह होते ही उसने चौखट पर खड़े होकर गली को देखना शुरू किया। सबसे पहले नज़र आई दूधवाले रामसजीवन की। उनकी आँखों में हमेशा नींद होती, लेकिन आवाज़ इतनी तेज़ कि पूरी गली जग जाती। उनके पीछे-पीछे उनकी गायें चलतीं और गली की दीवारें दूध की गंध से भर जातीं।

फिर दिखे सब्ज़ीवाले बबलू। उनके गले से हर रोज़ एक ही आवाज़ निकलती—“लौकी ले लो, टमाटर ले लो, धनिया फ्री!” उनकी मुस्कान गली का हिस्सा थी। बच्चा सोचता, अगर एक दिन बबलू न आएं तो गली अधूरी लगेगी।

उधर गली के मोड़ पर बैठी तारा देवी थीं। कभी बड़ी गायिका थीं, अब टूटी आवाज़ में भी गाती रहतीं। उनकी आँखों में बीते दिनों की चमक थी। कोई उनसे गाना सुन ले तो दिनभर गुनगुनाता फिरता।

पन्नालाल की पान की दुकान तो गली की आत्मा ही थी। हर चेहरे का ठिकाना। कोई खुश होकर आता, कोई दुखी होकर, कोई बहस करने, कोई बस पान खाने। पन्नालाल की हँसी में गली की हल्की-फुल्की शरारत झलकती।

टोले की अम्मा गली की सबसे मज़बूत दीवार थीं। उनके चेहरे पर झुर्रियाँ थीं, लेकिन उनमें ही गली का पूरा इतिहास लिखा था। उनकी आँखों में इतनी गहराई थी कि लगता हर चेहरा उनमें उतर चुका है।

गली में बच्चे भी सौ चेहरे बनाते। कभी रोते, कभी हँसते, कभी लड़ते, कभी मिलकर खेलते। उनकी आवाज़ें दीवारों पर गूंजतीं और फिर धीरे-धीरे पुरानी कहानियों का हिस्सा बन जातीं।

बच्चे ने देखा कि गली में साधु-संत भी रोज़ गुजरते हैं। किसी के चेहरे पर तपस्या की झलक, किसी पर भटकाव की। लेकिन हर चेहरे से गली का रंग बदल जाता।

शाम को जब अंधेरा उतरता, तो अलग चेहरे सामने आते। ताश खेलने वाले, गली के नुक्कड़ पर कविता सुनाने वाले, या फिर चुपचाप खिड़की से झाँकने वाले। हर चेहरा कुछ कहता था, हर चेहरा गली की नई परत खोलता था।

बच्चा सोच में पड़ गया—
“एक गली में सौ चेहरे। और हर चेहरा एक कहानी। तो क्या गली खुद इंसान है, जिसमें हज़ारों चेहरे छुपे हैं?”

पंडित जी पास खड़े थे। उन्होंने बच्चे के मन की बात सुन ली। बोले—
“बेटा, यही बनारस है। यहाँ हर गली में सौ चेहरे हैं। और हर चेहरा किसी न किसी मोड़ पर बदल जाता है। यह शहर इंसान को ढालता है, सँवारता है और कभी-कभी तोड़ भी देता है। लेकिन याद रखना—यहाँ कोई चेहरा बेकार नहीं जाता। सब गली की मिट्टी में मिलकर अमर हो जाते हैं।”

रात को जब बच्चा घर लौटा, तो उसके सपनों में वही चेहरे तैरने लगे। दूधवाले, सब्ज़ीवाले, गायक, पन्नालाल, अम्मा, बच्चे, साधु—सब एक साथ। और सबने मिलकर कहा—
“हम ही गली हैं। और गली ही बनारस है।”

बच्चे ने मन ही मन ठान लिया कि वह इन चेहरों को कभी नहीं भूलेगा। क्योंकि यही चेहरे असली काशी की पहचान हैं।

पर्‍व 10: बनारस—गली का अनंत सफ़र

गली की कहानियाँ खत्म नहीं होतीं। जितना तुम इन्हें सुनो, उतना ही नया कुछ सामने आता है। बनारस की गली ऐसे है जैसे कोई अंतहीन नदी—हर मोड़ पर नया घाट, हर मोड़ पर नया चेहरा, और हर मोड़ पर नई स्मृति।

बच्चा अब तक कई दिनों से इन गलियों का हिस्सा बन चुका था। उसने हवेली की परछाइयाँ देखीं, पान की दुकान की हँसी सुनी, अम्मा की कहानियों से जीवन जाना, संगीत की रूह महसूस की, काफ़ी हाउस की बहसों में विचारों की गूंज सुनी और मोहल्ले के रंगों को आँखों में उतारा। अब उसे लग रहा था कि गली उसे अपना बना चुकी है।

सुबह की पहली किरण जब गली पर पड़ी तो उसने देखा कि हर चौखट पर दीपक अब भी जल रहे थे, मानो रात की लम्बी यात्रा के बाद भी गली थकी नहीं। बच्चे ने सोचा—
“क्या यह गली कभी सोती है?”

पंडित जी पास खड़े थे। उन्होंने जवाब दिया—
“गली इंसान की तरह नहीं जीती, बेटा। यह तो सांसों की तरह बहती रहती है। जब तक इसमें लोग चलते रहेंगे, यह अमर रहेगी।”

उसी वक़्त टोले की अम्मा ने अपनी झुर्रियों भरी आवाज़ में पुकारा—
“बबुआ, अब तू गली का बच्चा बन गया है। गली ने तुझे अपना वारिस चुना है। याद रखना, हर कहानी को यादों में मत दबाना, उसे सुनाना। तभी गली जीवित रहेगी।”

बच्चे की आँखों में चमक आ गई। उसे लगा कि वह सिर्फ़ सुनने वाला नहीं रहा, अब वह कहने वाला भी है।

दिन चढ़ा तो गली अपने असली रूप में लौट आई। पन्नालाल की दुकान पर भीड़ जुटी, बबलू की सब्ज़ी की टोकरी खाली होने लगी, तारा देवी की आवाज़ दीवारों से टकराकर आसमान तक पहुँची, और दूधवाले रामसजीवन फिर अपनी तेज़ आवाज़ में पुकारने लगे।

लेकिन बच्चे ने अब सबको नए नज़रिए से देखा। उसे लग रहा था कि हर इंसान इस गली का धागा है। कोई लाल, कोई हरा, कोई पीला। सब मिलकर ही तो यह गली बनी है।

शाम को जब घाटों पर आरती हुई, तो बच्चा भीड़ में खड़ा था। गंगा पर जलते दीयों की कतार देख उसने सोचा—
“गली भी तो गंगा जैसी है। इसमें भी अनगिनत कहानियाँ बहती हैं, कुछ दिखती हैं, कुछ गहराई में छुप जाती हैं। लेकिन बहाव कभी रुकता नहीं।”

आरती की गूँज उसके कानों में देर तक रही। लौटते समय उसने फिर उस पुरानी हवेली की ओर देखा। खिड़की से आती परछाई अब उसे डरावनी नहीं लगी। बल्कि ऐसा लगा कि वह परछाई भी इस गली का हिस्सा है, एक अधूरी कहानी, जो अब उसकी है।

पन्नालाल ने हँसते हुए कहा—
“बबुआ, अब तू गली को समझ गया है। यह रहस्य नहीं, यह जीवन है। जो यहाँ रहा, वह गली का हिस्सा हो गया। और जो गली का हिस्सा हो गया, वह कभी मिटा नहीं।”

अम्मा ने उसकी पीठ थपथपाई और बोलीं—
“जाना मत भूलना, बबुआ। जब भी लौटेगा, गली तुझे पहचान लेगी। यहाँ चेहरों की भीड़ है, पर हर चेहरा याद रखती है।”

रात गहराते ही बच्चा छत पर खड़ा गली को निहारता रहा। दीवारों पर परछाइयाँ नाच रही थीं, कहीं दूर सारंगी की आवाज़ गूँज रही थी, और चाय की भट्ठी से उठता धुआँ आसमान में मिल रहा था। उसे लगा जैसे पूरा बनारस उसके दिल में उतर आया है।

उसने मन ही मन कहा—
“यह गली खत्म नहीं होती। यह अनंत है। हर क़दम पर नई शुरुआत, हर मोड़ पर नई कहानी। मैं अब इसका हिस्सा हूँ। और जब तक लोग इसकी गलियों से गुजरेंगे, बनारस जिंदा रहेगा।”

और सचमुच, बनारस की गली का यह सफ़र कभी ख़त्म नहीं होता। यह शहर हर यात्री को अपने भीतर उतार लेता है और हर आत्मा को अपनी कहानी में बदल देता है।

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