अर्चित रस्तोगी
भाग १
चौक बाज़ार की पुरानी सड़कें जब रात के अंधेरे में चुप हो जाती हैं, तब भी एक जगह है जहाँ हलचल बनी रहती है—चौधरियों की हवेली। लोगों का कहना है कि उस हवेली के भीतर से आधी रात के बाद ज़ंजीरों की खनक सुनाई देती है। कोई कहता है बंधी हुई आत्मा है, तो कोई कहता है किसी ने वहाँ कुछ छुपा रखा है।
राघव, एक २७ वर्षीय पत्रकार, दिल्ली से इस छोटे से शहर “दौरगंज” आया था। वह क्राइम रिपोर्टिंग में नाम कमाना चाहता था, पर दिल्ली की भीड़ और राजनीति ने उसे थका दिया था। उसे लगा था, छोटे शहर में शायद कुछ ठहराव मिलेगा। पर दौरगंज ने उसे कुछ और ही दे डाला।
जिस दिन वह यहाँ पहुँचा, उसी रात हवेली के बाहर से एक लड़की की चीख़ सुनी गई। अगली सुबह, पुलिस ने सिर्फ़ एक टूटी चूड़ी और खून के छींटे पाए। लड़की कौन थी, कहाँ से आई, किसी को कुछ पता नहीं।
स्थानीय थाने के इंस्पेक्टर पांडे, जो ज़्यादातर समय चाय की दुकान पर पत्ते खेलते पाए जाते थे, ने इसे “शराबियों की हरकत” बताकर फाइल बंद कर दी।
पर राघव को कहानी सूंघने की आदत थी। पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में वह कई रहस्यों की तह तक गया था, पर कभी पूरी सच्चाई बाहर नहीं ला पाया। इस बार वह चाहता था कि कुछ बड़ा हो।
दोपहर के वक्त वह स्थानीय पुस्तकालय गया, जहां शहर के पुराने नक्शे और दस्तावेज़ रखे थे। पुस्तकालय की बूढ़ी लाइब्रेरियन, मिसेज शर्मा, जिनकी आँखों के चश्मे मोटे काँच जैसे थे, ने उसे झिझकते हुए बताया, “हवेली से दूर रहो, बेटा। वहाँ सिर्फ़ दीवारें नहीं, कहानियाँ भी कैद हैं।”
“क्या आप जानती हैं कि वह हवेली किसकी थी?” राघव ने पूछा।
उन्होंने धीमे स्वर में कहा, “१९४७ से पहले, चौधरी धर्मवीर सिंह की हवेली थी। शहर का सबसे ताक़तवर ज़मींदार। आज़ादी के बाद सब कुछ बदल गया, पर हवेली वैसी की वैसी रही। कहते हैं वहाँ एक लड़की को क़ैद रखा गया था… और वो कभी बाहर नहीं आई।”
राघव के रोंगटे खड़े हो गए।
उसी शाम वह हवेली के बाहर पहुँचा। दरवाज़े जंग लगे थे, पर खुल सकते थे। दीवारों पर सीलन थी, छत से धूल झर रही थी, और ज़मीन पर कबूतरों की बीट बिछी थी। लेकिन एक चीज़ ने उसका ध्यान खींचा—सीढ़ियों के पास फर्श पर कुछ उकेरा हुआ था। उसने मोबाइल की रोशनी से देखा—“२२ मार्च १९५२ – मुझे मत भूलना।”
वह झुक कर पास गया, तभी ऊपर से एक हल्की सी आवाज़ आई—जैसे किसी ने साँकल खींची हो।
राघव का दिल ज़ोर से धड़कने लगा। उसने ऊपर देखने की कोशिश की, पर अंधेरे में कुछ नज़र नहीं आया।
वह धीरे-धीरे ऊपर जाने लगा। हर कदम पर सीढ़ियाँ चरमराती थीं। वह एक कमरे के सामने रुका। दरवाज़ा थोड़ा खुला था। उसने हल्के से धक्का दिया। दरवाज़ा कर्कश आवाज़ के साथ खुला।
कमरे में एक पुराना झूला था, जो धीरे-धीरे हिल रहा था।
और तभी…
…उसके पीछे कोई आहट हुई।
भाग २
राघव की साँसें तेज़ हो गईं। कमरे में हल्की सी धूल और सीलन की गंध थी, पर उस आहट ने उसके रोंगटे खड़े कर दिए थे। वह पलटा, पर पीछे कोई नहीं था। उसने मोबाइल की रोशनी इधर-उधर घुमाई, पर खाली ज़ंग लगे दीवारों के सिवा कुछ नहीं दिखा।
फिर उसकी नज़र फर्श पर पड़ी। झूले के ठीक नीचे एक लाल रंग का रिबन पड़ा था, जो पुराना होने के बावजूद चमक रहा था। वह झुका और रिबन उठाने ही वाला था कि अचानक झूला रुक गया।
बिल्कुल थम गया। जैसे किसी ने हाथ से थाम लिया हो।
राघव पीछे हट गया। वह जानता था कि यह सिर्फ़ पुरानी हवेली नहीं थी। यहाँ कुछ था—कुछ जो अब भी साँस लेता था, पर दिखता नहीं था।
वह धीरे-धीरे सीढ़ियों से नीचे उतरा और हवेली से बाहर निकल आया। बाहर की हवा थोड़ी सुकून देने वाली थी, पर मन का भय और उत्सुकता और भी गहराती जा रही थी।
उसने वापस होटल जाकर अपने नोट्स लिखे।
२२ मार्च १९५२ – यह तारीख़ हवेली के फर्श पर क्यों उकेरी गई थी? झूला अपने आप क्यों हिला? रिबन – किसी लड़की का? क्या वही जिसकी चीख़ सुनाई दी थी?
अगले दिन वह फिर पुस्तकालय पहुँचा। इस बार मिसेज़ शर्मा नहीं थीं, पर वहाँ एक लड़का बैठा था—नाम था अंशुल। राघव ने उससे पूछा, “क्या तुम हवेली के बारे में कुछ जानते हो?”
अंशुल ने आँखें बड़ी कीं, “आप पत्रकार हैं ना? मैंने आपको अख़बार में देखा था।”
“हाँ, और मैं एक पुरानी सच्चाई ढूँढ रहा हूँ।”
अंशुल थोड़ा हिचकिचाया, फिर बोला, “माँ कहती हैं कि चौधरी साहब की एक बेटी थी—शांभवी। कहते हैं वह किसी मुस्लिम लड़के से प्यार करती थी, जो उस ज़माने में बहुत बड़ा अपराध माना जाता था। चौधरी साहब ने उसे हवेली में ही बंद कर दिया था। उसके बाद वो लड़की कभी नहीं दिखी… और न ही वो लड़का।”
राघव की साँस अटक गई। क्या यह वही कहानी थी जो हवेली की दीवारों में बंद थी?
“तुम ये सब कहाँ से जानते हो?” राघव ने पूछा।
“मेरे दादा की डायरी में पढ़ा था। वो चौधरी साहब के माली थे।”
“क्या तुम्हारे पास वह डायरी अब भी है?”
अंशुल ने सिर हिलाया। “हाँ, लेकिन माँ ने मना किया है किसी को दिखाने से। वो डरती हैं कि कुछ बुरा हो सकता है।”
“पर अगर उसमें कुछ ऐसा लिखा है जिससे एक लड़की की चीख़ का जवाब मिल सके, तो क्या वो दिखाना ज़रूरी नहीं?”
अंशुल चुप हो गया। फिर बोला, “आप आज रात आइए। माँ सो जाएँगी तो मैं आपको वो डायरी दिखा दूँगा।”
राघव ने हामी भरी और चल पड़ा।
रात के ग्यारह बजे वह अंशुल के घर पहुँचा। वह घर पुराने मुहल्ले में था। अंशुल उसे अंदर ले गया, और एक पुराने संदूक से मोटी, धूल भरी डायरी निकाली।
राघव ने पन्ने पलटना शुरू किया। अंदर हाथ से लिखी कहानियाँ, तारीख़ें, और हवेली की गतिविधियाँ दर्ज थीं।
२१ मार्च १९५२ – “आज चौधरी साहब ने हवेली के सबसे ऊपर वाले कमरे में कुछ बंद किया है। औरतों के चीखने की आवाज़ आई थी। मैंने पूछा तो बोले, घर का मामला है।”
२२ मार्च १९५२ – “शांभवी बिटिया… मुझे डर है उन्होंने… नहीं कहना चाहता। कुछ गलती हो गई शायद। हवेली के फर्श पर खून दिखा था।”
राघव की उँगलियाँ काँपने लगीं।
“तुम्हारे दादा ने ये सब देखा था?”
“हाँ,” अंशुल ने कहा, “और तीन दिन बाद वो गाँव छोड़कर चले गए थे।”
राघव जान गया था कि कहानी जितनी पुरानी है, उतनी अधूरी भी नहीं। कुछ ज़िंदा है अब भी उस हवेली में।
और तभी…
दरवाज़े पर ज़ोर की दस्तक हुई।
“कौन हो सकता है इस समय?” अंशुल फुसफुसाया।
राघव ने धीरे से खिड़की से झाँका। बाहर कोई नहीं था।
फिर नीचे देखा—एक वही लाल रिबन वहाँ पड़ा था।
भाग ३
दरवाज़े पर रखे लाल रिबन को देखकर राघव का चेहरा पीला पड़ गया। वह एक ही चीज़ दो जगह नहीं हो सकती थी—पहले हवेली में और अब यहाँ?
“यह… यह कैसे हो सकता है?” अंशुल की आवाज़ काँप रही थी।
राघव ने धीरे से दरवाज़ा खोला। बाहर गलियों में हल्की हवा बह रही थी, पर इंसान का कोई निशान नहीं था। वो रिबन अभी भी वहाँ पड़ा था, जैसे किसी ने जानबूझकर रख छोड़ा हो।
राघव ने झुककर उसे उठाया। रिबन थोड़ा गीला था—जैसे किसी ने अभी-अभी उसे छुआ हो, या शायद… आँसुओं से भीगा हो?
“दरवाज़ा बंद करो,” उसने अंशुल से कहा। “अब कुछ बहुत गहरा चल रहा है। यह सिर्फ़ पुरानी कहानी नहीं है।”
राघव ने डायरी अपने बैग में रखी और अंशुल से विदा ली। “कल सुबह मैं फिर आऊँगा। तब तक किसी से इसका ज़िक्र मत करना।”
रात के ढाई बजे थे जब वह अपने होटल के कमरे में पहुँचा। उसकी आँखों में नींद नहीं थी। उसने डायरी दोबारा खोली और पढ़ना शुरू किया।
२३ मार्च १९५२ – “आज हवेली की छत पर से धुआँ निकला। किसी ने कहा, पुरानी चीज़ें जलाई जा रही हैं। मुझे डर है कि कुछ और भी जला है। शायद इंसानियत।”
राघव को वह लाइन दिल पर चोट की तरह लगी। क्या शांभवी को सच में जला दिया गया था?
अगली सुबह वह पुलिस स्टेशन पहुँचा और इंस्पेक्टर पांडे से मिला। “मैं चौधरी हवेली के केस में कुछ जानकारियाँ चाहता हूँ,” राघव ने सीधा कहा।
इंस्पेक्टर पांडे ने ऊब भरी नज़रों से उसे देखा। “तुम वही हो ना, पत्रकार? बेटा, पुरानी बातें खोदोगे तो बदबू ही निकलेगी। और हमारे पास वक्त नहीं है भूत पकड़ने का।”
“भूत नहीं, इंसाफ़ की बात कर रहा हूँ,” राघव बोला। “अगर उस हवेली में आज भी चीख़ सुनाई देती है, तो किसी ने कभी दर्द सहा होगा।”
पांडे हँसा। “शहर में बहुत से लोग दर्द में हैं। अब सबकी आत्मा खोजने लगें तो दफ़्तर कब चलाएँगे?”
राघव को समझ आ गया कि सिस्टम से कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए।
शाम होते-होते वह फिर हवेली पहुँचा। पर इस बार वह अकेला नहीं था। अंशुल भी साथ आया था, डर के बावजूद।
हवेली के पीछे एक छोटा दरवाज़ा था जो बगीचे में खुलता था। ज़्यादातर लोग इसके बारे में नहीं जानते थे, पर अंशुल के दादा ने डायरी में इसका ज़िक्र किया था।
उन्होंने वह रास्ता चुना।
बगीचे में जंगली घास उग आई थी। पुराने पत्थर के मूर्तियाँ यहाँ-वहाँ गिरी पड़ी थीं, जैसे किसी ने उन्हें गिरा दिया हो जानबूझकर। एक कोने में कुआँ था—सूखा और गहरा।
राघव नीचे झुका। कुएँ में कुछ था।
“अंशुल, ज़रा मोबाइल की फ्लैशलाइट इधर ला।”
रोशनी में कुछ चमका—धातु की कोई चीज़। राघव ने एक लंबी लकड़ी से उसे बाहर खींचने की कोशिश की। आख़िरकार, वह चीज़ बाहर आई।
एक पुरानी चूड़ी थी। वही डिज़ाइन, जैसा पुलिस ने पहली बार पाया था चीख़ के बाद।
लेकिन यह चूड़ी साफ़ थी। बिना खून, बिना मिट्टी।
“यह… नई लग रही है,” अंशुल ने फुसफुसाया।
राघव सोच में पड़ गया। “तो फिर पहली चूड़ी किसकी थी? और यह यहाँ क्यों है?”
अचानक हवेली के अंदर से फिर वही साँकल खनकने की आवाज़ आई। इस बार और ज़ोर से। जैसे कोई दरवाज़ा पीट रहा हो।
दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा।
“अब चलें?” अंशुल ने डर से पूछा।
राघव ने सिर हिलाया। “अब रुकना नहीं है।”
वे हवेली के पिछले दरवाज़े से अंदर घुसे। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए आवाज़ तेज़ होती गई।
फिर… बिलकुल ख़ामोशी।
वे तीसरी मंज़िल के एक कमरे के सामने पहुँचे। दरवाज़ा बंद था, पर नीचे से हल्की रौशनी छनकर आ रही थी।
“ये कमरे तो बंद पड़े थे सालों से,” अंशुल ने फुसफुसाया।
राघव ने साँस खींची, और दरवाज़े की कुण्डी पर हाथ रखा।
और तभी…
दरवाज़ा अपने आप खुल गया।
भाग ४
दरवाज़ा चरमराहट के साथ अपने आप खुल गया। राघव और अंशुल दोनों कुछ पल स्तब्ध खड़े रहे। कमरे के अंदर हल्की पीली रौशनी थी, जैसे कोई पुराना लैम्प जल रहा हो — पर राघव ने साफ़ देखा, कमरे में बिजली का कोई कनेक्शन ही नहीं था।
कमरे के बीचोंबीच एक लकड़ी की मेज़ थी। उस पर फैले हुए थे — पुराने काग़ज़, एक शीशा, और एक सिल्क की साड़ी — लाल रंग की। वही लाल जो रिबन में था।
“कोई और है यहाँ…” अंशुल की आवाज़ काँप रही थी।
राघव ने चारों ओर देखा। कमरे में कोई नहीं था। पर दीवारों पर कुछ अजीब निशान थे — जैसे किसी ने नाख़ूनों से खुरचा हो।
उन्होंने एक काग़ज़ उठाया। वह एक चिट्ठी थी। लिखावट घबराई हुई थी, और स्याही कई जगहों पर फैल चुकी थी, पर कुछ शब्द साफ़ थे:
“मैंने मना किया था… मुझे मत छूओ… मैं किसी और की हूँ… तुम मुझे कैद कर सकते हो, पर मेरा दिल नहीं…”
नीचे सिर्फ़ नाम लिखा था — शांभवी।
राघव के हाथ काँप गए। यह वही लड़की थी। वही कहानी, जो अब तक सिर्फ़ अफ़वाह थी, अब काग़ज़ पर साँस ले रही थी।
अंशुल ने मेज़ पर रखा शीशा उठाया। वह एक हाथ का आईना था — पुराना, पीतल का फ्रेम, पर शीशे पर उँगलियों के निशान थे। जैसे किसी ने अभी-अभी उसमें देखा हो।
“यहाँ कोई अभी भी है…” अंशुल फुसफुसाया।
और तभी…
कमरे का दरवाज़ा ज़ोर से बंद हो गया।
“कौन है?” राघव चिल्लाया।
कोई जवाब नहीं।
पर दरवाज़े के उस पार — साँकल की आवाज़ फिर आई। इस बार जैसे कोई बाहर से बंद कर रहा हो।
“हमें यहाँ बंद किया जा रहा है!” अंशुल दरवाज़ा धकेलने लगा, लेकिन वो टस से मस नहीं हुआ।
कमरे में अचानक ठंड बढ़ गई। साँसें धुआँ बनने लगीं।
और तब…
साड़ी हवा में खुद-ब-खुद हिलने लगी। मानो कोई अदृश्य शरीर उसे पहन रहा हो।
आईने में धुंध छा गई। फिर उसमें एक चेहरा उभर आया — बड़ी आँखें, थरथराते होंठ, और पीड़ा से भरा चेहरा। वही चेहरा, जो राघव ने अपनी कल्पना में बार-बार देखा था।
शांभवी।
राघव ने धीरे से कहा, “तुम अब भी यहाँ हो?”
आईने में चेहरा हिलाया — हाँ।
“क्या तुम्हें किसी ने मार डाला था?”
आईने में एक आँसू की तरह बूंद बनी — और फिर नीचे गिर पड़ी।
“क्या वो तुम्हारे अपने थे?”
अबकी बार चेहरा मिट गया, और शीशे पर उँगलियों से लिखा सा दिखा —
“पिता।”
राघव और अंशुल दोनों चुप। कमरे की हवा जैसे और भारी हो गई थी।
“तुम क्या चाहती हो?” राघव ने पूछा।
आईने पर फिर लिखा गया —
“सच बाहर लाओ।”
तभी दरवाज़ा अपने आप खुल गया। हवेली के अंदर की हवा जैसे पल भर को रुक गई।
राघव और अंशुल बाहर निकले। पीछे मुड़कर देखा — कमरा फिर से वैसा ही हो गया था जैसे पहले था। बिना रौशनी, बिना हवा, बिना साड़ी।
जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
पर राघव जान चुका था — शांभवी अब भी बोल रही थी। अब भी चाहती थी कि उसकी कहानी, जो दीवारों में दबी थी, बाहर आए।
“हमें कुछ करना होगा,” राघव ने कहा।
अंशुल बोला, “पर कैसे? सब लोग तो इसे भूत की कहानी समझेंगे।”
“नहीं,” राघव ने कहा, “अब इसे सबूतों की ज़ुबान देनी होगी। डायरी, चिट्ठी, आईना — सब कुछ अब रिपोर्ट बनेगा। मैं ये कहानी छापूँगा। सबको बताऊँगा कि शांभवी कौन थी, और उसके साथ क्या हुआ था।”
और तभी—
हवेली के मुख्य दरवाज़े पर एक छाया दिखी।
लंबा कद, हाथ में छड़ी, सफ़ेद धोती।
कोई देख रहा था।
भाग ५
मुख्य दरवाज़े पर खड़ी वह छाया हिल भी नहीं रही थी। अंधेरे में उसका चेहरा दिख नहीं रहा था, पर उसकी मौजूदगी हवा की तरह भारी थी।
राघव और अंशुल दोनों थम गए। राघव ने धीरे से मोबाइल की टॉर्च जलाई और रोशनी छाया की ओर घुमाई — पर वहाँ कुछ नहीं था।
“क्या तुमने भी देखा?” राघव ने पूछा।
अंशुल ने सिर हिलाया, “हाँ… और उसका चेहरा… बिल्कुल चौधरी साहब जैसा।”
“तुमने उन्हें देखा है कभी?”
“बस तस्वीरों में,” अंशुल फुसफुसाया। “पुस्तकालय में उनकी एक पुरानी तस्वीर है। मूंछें, कड़क चेहरा, और वही छड़ी।”
राघव समझ गया — अब सिर्फ़ आत्मा की नहीं, इतिहास की सच्चाई की भी परतें खुल रही थीं।
उन्होंने जल्दी-जल्दी हवेली छोड़ी और सीधा पुस्तकालय पहुँचे। रात के साढ़े दस बजे थे, पर मिसेज़ शर्मा अब भी अंदर थीं। “फिर से तुम?” उन्होंने हैरानी से पूछा।
“हमें आपकी मदद चाहिए,” राघव बोला। “हमें चौधरी धर्मवीर सिंह की सारी जानकारी चाहिए। तस्वीरें, कागज़, कुछ भी जो बचा हो।”
मिसेज़ शर्मा ने गहरी साँस ली, फिर धीरे से एक तालेदार दराज़ से एक फाइल निकाली। “ये आख़िरी बची फाइल है,” उन्होंने कहा। “बाकी सब… किसी ने सालों पहले हटा दी थी।”
राघव ने फाइल खोली। अंदर एक फ़ोटो थी — चौधरी साहब खड़े थे अपनी हवेली के सामने, हाथ में वही छड़ी, और साथ में एक छोटी लड़की। वही साड़ी, वही आँखें — शांभवी।
फोटो के पीछे एक तारीख़ थी —
“१५ अगस्त १९५१ – स्वतंत्रता की पहली सालगिरह पर”
“क्या तुम्हें पता है कि उसके बाद क्या हुआ?” राघव ने पूछा।
मिसेज़ शर्मा ने चुपचाप सिर झुका लिया। “कुछ बातें होती हैं जिन्हें लोग भूलना चाहते हैं। पर मैं जानती हूँ… एक रात शांभवी हवेली से बाहर भागने की कोशिश कर रही थी। चौधरी साहब को पता चला… और उसी रात हवेली की तीसरी मंज़िल से धुआँ उठा।”
“उसके बाद वो कभी नहीं दिखी?” अंशुल ने पूछा।
“नहीं,” मिसेज़ शर्मा ने कहा। “लोगों ने कहा वो लंदन भेज दी गई, कुछ ने कहा उसकी शादी कर दी गई… पर कोई नहीं जानता सच।”
राघव ने कहा, “मैं जानता हूँ सच कहाँ है — उसी हवेली में, उसी कमरे में। और शायद उस कुएँ में भी।”
उस रात राघव ने तय कर लिया — वह रिपोर्ट लिखेगा। अगले दिन उसने अपने लैपटॉप पर एक लेख तैयार किया:
“दौरगंज की हवेली में दबी एक आत्मा की पुकार — शांभवी की अधूरी कहानी”
पुरानी कहानियाँ सिर्फ़ किस्से नहीं होतीं, कभी-कभी वे सच्चाई की चीखें होती हैं। चौधरी हवेली की दीवारों में दबी एक लड़की की कहानी, जो प्यार कर बैठी थी — और उसका गुनाह इतना बड़ा था कि उसे ज़िंदा दफना दिया गया…
लेख वायरल हो गया। शहर में हड़कंप मच गया। लोग फिर से हवेली की ओर देखने लगे — इस बार डर से नहीं, जिज्ञासा से।
पर इस लेख के साथ ही राघव की ज़िंदगी बदलने लगी।
किसी ने रात को उसके होटल के कमरे के बाहर दरवाज़ा पीटा।
किसी ने उसके फोन पर कॉल किया — पर दूसरी तरफ़ सिर्फ़ साँसों की आवाज़ थी।
और एक सुबह, जब वह उठकर नीचे लॉबी में पहुँचा, तो रिसेप्शन पर एक लिफ़ाफ़ा रखा था।
उस पर सिर्फ़ लिखा था —
“कुछ कहानियाँ अधूरी ही रहने दो। वरना अगली चीख़ तुम्हारी होगी।”
भाग ६
लिफ़ाफ़े में लिखी चेतावनी ने राघव की रीढ़ में सिहरन दौड़ा दी। “अगली चीख़ तुम्हारी होगी” — यह कोई सामान्य डराने की कोशिश नहीं थी, बल्कि एक सीधी धमकी थी। किसी ने जानबूझकर यह संदेश छोड़ा था, और वह जानता था कि राघव कहाँ ठहरा है, क्या कर रहा है, और शायद… वह क्या सोच रहा है।
राघव ने तुरंत लिफ़ाफ़ा पुलिस को दिखाने का सोचा, लेकिन फिर रुक गया। इंस्पेक्टर पांडे की बेरुख़ी उसे याद आ गई — “हमारे पास भूत पकड़ने का वक़्त नहीं है”।
“नहीं,” राघव ने खुद से कहा, “अब ये कहानी पीछे नहीं हटेगी। अब तो इसकी जड़ तक पहुँचना ही होगा।”
उसने अंशुल को बुलाया। “हमें आज रात हवेली फिर से जाना है।”
“तुम पागल हो!” अंशुल चौंक गया। “तुम्हें धमकी मिली है। अब और जाना मतलब जान जोखिम में डालना।”
“ठीक इसी वजह से जाना ज़रूरी है,” राघव बोला। “कोई चाहता है कि हम रुक जाएँ। यानी हम सच के क़रीब पहुँच चुके हैं।”
उस शाम दोनों फिर से हवेली पहुँचे, लेकिन इस बार तैयारी पूरी थी। राघव के पास एक कैमरा था, वॉइस रिकॉर्डर, और अपने पास की जेब में एक छोटी सी माला — जो उसकी माँ ने कभी उसे ‘सुरक्षा के लिए’ दी थी। वह कभी उसपर विश्वास नहीं करता था, पर आज उसे साथ रखना ज़रूरी लगा।
वे हवेली के भीतर घुसे। हर कोना शांत था, लेकिन असामान्य रूप से। जैसे हवेली इंतज़ार कर रही हो।
“आज हम सीधे तीसरी मंज़िल पर जाएँगे,” राघव बोला।
जब वे उस कमरे तक पहुँचे, जहाँ पहले साड़ी और आईना मिला था, तो दरवाज़ा पहले से खुला था।
अंदर वही मेज़, वही कुर्सी — लेकिन इस बार, एक और चीज़ थी।
एक छोटा बक्सा।
लकड़ी का, ज़ंग लगे ताले से बंद।
“ये पहले तो नहीं था…” अंशुल ने कहा।
राघव ने धीरे से बक्से को छुआ। उसकी सतह गर्म थी, जैसे किसी ने अभी-अभी उसे रखा हो।
“हम इसे खोल नहीं सकते अभी,” राघव बोला। “हम इसे होटल लेकर जाएँगे।”
तभी हवा तेज़ चलने लगी। खिड़कियाँ अपने आप बंद हो गईं। झरोखों से पर्दे फड़फड़ाने लगे। कमरे में फिर वही ठंड भर आई — साँसें जमने लगीं।
आईना फिर से धुँधला हो गया।
और इस बार लिखा उभरा —
“कहीं मत ले जाना। खोलो यहीं। अभी।”
“ये बक्सा… शांभवी चाहती है कि हम इसे यहीं खोलें,” राघव फुसफुसाया।
अंशुल डर के मारे पीछे हट गया। “अगर इसमें कुछ है… कोई हड्डियाँ, कोई दस्तावेज़…?”
“तो वही तो चाहिए हमें — सबूत।”
राघव ने झटके से ताला तोड़ने की कोशिश की। नहीं टूटा।
तभी —
कमरे के कोने से एक छाया निकली।
वह कोई महिला थी — लाल साड़ी में, सिर झुका हुआ। वह धीरे-धीरे बक्से के पास आई, और हाथ बढ़ाया। ताला अपने आप खुल गया।
राघव और अंशुल हक्का-बक्का देखते रहे।
महिला ने सिर उठाया।
शांभवी।
उसकी आँखों में आँसू थे — पर दर्द से ज़्यादा उम्मीद थी।
उसने हाथ से इशारा किया — बक्सा खोलो।
राघव ने धीरे से ढक्कन खोला।
अंदर थे — कुछ पुराने काग़ज़, एक जले हुए कंगन के टुकड़े, और एक फोटो।
फोटो में वही लड़का था, जिसे शांभवी प्यार करती थी। मुस्कुराता हुआ, शांभवी के साथ खड़ा — एक आम, मासूम तस्वीर।
पीछे लिखा था —
“हम एक हैं। चाहे दुनिया माने या न माने।”
तभी कमरे में सब कुछ शांत हो गया।
शांभवी की छाया मुस्कुराई — और धीरे-धीरे हवा में घुल गई।
आईने में आख़िरी बार लिखा उभरा —
“धन्यवाद।”
भाग ७
कमरे में गहराती ख़ामोशी अब डर की नहीं, राहत की थी। जैसे किसी ने सालों बाद चैन की साँस ली हो। राघव और अंशुल ने बक्से के अंदर रखी चीज़ों को संभालकर अपने बैग में रखा। अब उनके पास ठोस सबूत थे — न सिर्फ़ शांभवी के होने का, बल्कि उसके प्रेम, उसकी पीड़ा और उसके साथ हुए अन्याय का।
राघव ने कमरे के चारों ओर देखा। अब यह वही कमरा नहीं लग रहा था। दीवारों की नमी जैसे सूख गई थी। हवा में अब वह अजीब गंध नहीं थी। लगता था जैसे हवेली ने कोई बोझ उतार दिया हो।
“क्या अब ये कहानी पूरी हो गई?” अंशुल ने पूछा।
राघव ने सिर हिलाया। “नहीं, अब असली कहानी शुरू होगी। ये सच अब सबके सामने जाएगा। और यह सिर्फ़ एक आत्मा की मुक्ति नहीं होगी — ये उस सोच के खिलाफ़ आवाज़ होगी जिसने उसे कैद किया।”
अगली सुबह राघव ने फोटोज़ स्कैन किए, दस्तावेज़ों को डिजिटल फॉर्म में बदला, और एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की।
शीर्षक था:
“शांभवी: एक प्रेम, एक साज़िश, एक विद्रोह”
इस लेख के साथ उसने हवेली की तस्वीरें, डायरी के अंश, और बक्से की चीज़ों की छवियाँ जोड़ीं।
जब लेख प्रकाशित हुआ, पूरे दौरगंज में तहलका मच गया।
कुछ लोगों ने इसे “भूतों की बकवास” कहा, तो कुछ ने कहा “यह सिर्फ़ सनसनी फैलाने की कोशिश है।”
लेकिन बहुत से युवा — खासकर लड़कियाँ — इस कहानी से जुड़ गईं। कॉलेजों में, कैफे में, गलियों में लोग शांभवी की बात करने लगे।
राघव को कई इंटरव्यूज़ के लिए बुलाया गया।
लेकिन जितना उसकी कहानी ने ध्यान खींचा, उतना ही खतरा भी बढ़ने लगा।
एक रात, जब वह अपने होटल लौट रहा था, तो एक काली स्कॉर्पियो उसकी बाइक के पीछे लगी। अंधेरी सड़क पर कोई और नहीं था। राघव ने स्पीड बढ़ाई, लेकिन स्कॉर्पियो और पास आ गई।
तभी एक पतली गली में मोड़ काटते हुए वह किसी तरह बचकर निकल गया।
उसने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवाई, पर हमेशा की तरह — “हम जाँच करेंगे” कहकर फाइल बंद हो गई।
राघव समझ चुका था कि चौधरी परिवार के वंशज, जो अब भी शहर की राजनीति और ज़मीन के खेल में थे, इस कहानी से खुश नहीं थे।
एक दिन एक बुज़ुर्ग आदमी होटल की लॉबी में आया। सफ़ेद कुर्ता-पायजामा, आँखों में थकावट, पर चाल में ठहराव।
“आप राघव हैं?” उसने पूछा।
“जी,”
“मैं हूँ — वीरेन सिंह, चौधरी धर्मवीर का पोता।”
राघव कुछ क्षण चुप रहा।
“मैं माफ़ी माँगने नहीं आया,” वीरेन बोला। “बस ये जानना चाहता हूँ कि तुम ये सब क्यों कर रहे हो?”
“क्योंकि शांभवी ने मुझसे कहा था — ‘सच बाहर लाओ’। और वो सच अब सिर्फ़ कहानी नहीं, सबूत बन चुका है।”
वीरेन ने कुछ देर सोचा, फिर एक छोटा पैकेट उसकी ओर बढ़ाया।
“ये मेरी दादी की चिट्ठियाँ हैं — धर्मवीर की पत्नी की। शायद उसमें कुछ ऐसा हो जो तुम्हारी कहानी पूरी कर दे।”
राघव ने पैकेट खोला। उसमें पीले पड़े काग़ज़ थे, जिनमें सुंदर, स्पष्ट लिखावट में एक महिला का दर्द उभरा था।
“मैंने अपनी बेटी की चीखें सुनी हैं। मैंने धर्मवीर से लड़ाई की, पर मैं हार गई। मैं माँ होकर भी कुछ न कर सकी। ये मेरा अपराध है, जिसे मैं कभी माफ़ नहीं कर पाऊँगी।”
राघव जानता था — अब कहानी पूरी थी।
लेकिन सवाल था — क्या अब भी कोई चाहता था कि ये कहानी मिटा दी जाए?
भाग ८
वीरेन सिंह के दिए गए पत्रों ने उस कहानी को एक नई गहराई दे दी थी, जिसे राघव अब तक उजागर कर रहा था। ये अब केवल शांभवी की त्रासदी नहीं रही — यह अब उस समाज की भी कहानी बन गई थी जहाँ औरतों की आवाज़ों को घर की दीवारों में कैद कर दिया जाता था।
पत्रों में धर्मवीर सिंह की पत्नी का आत्मस्वीकृत अपराध, उनकी लाचारी, और एक माँ की हताश चीख़ थी। राघव ने उन्हें ध्यान से पढ़ा और आखिरी पत्र पर रुका:
“शांभवी अब भी मेरे सपनों में आती है। उसके पैर ज़मीन पर नहीं टिकते। वह उड़ना चाहती थी। पर धर्मवीर ने उसे पिंजरे में बंद कर दिया। क्या कोई आएगा जो मेरी बच्ची की रूह को आज़ादी दे सके?”
राघव ने आँखे मूंद लीं। वह समझ गया था — यह कहानी अब केवल पत्रकारिता नहीं रही, यह अब उसका अपना वादा बन गई थी।
उसी रात उसने एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की। इस बार सिर्फ़ लेख नहीं, बल्कि एक डॉक्युमेंट्री वीडियो भी, जिसमें तस्वीरें, पुराने दस्तावेज़, हवेली के फुटेज और अंशुल के साथ उसके साक्षात्कार शामिल थे।
वीडियो का शीर्षक था:
“सांकलों के पीछे: एक हवेली की चीख़”
इस डॉक्युमेंट्री ने इंटरनेट पर आग लगा दी।
हज़ारों शेयर, लाखों व्यूज़, और अंततः — एक जन याचिका।
लोगों ने मांग शुरू कर दी कि चौधरी हवेली को एक “Memorial for the Forgotten” यानी ‘भूली हुई आत्माओं की स्मृति स्थली’ घोषित किया जाए।
पर जितना बढ़ रहा था समर्थन, उतनी ही तेज़ हो रही थीं धमकियाँ।
एक शाम, जब राघव अपने होटल के बाहर खड़ा था, एक बाइक पर सवार दो नकाबपोश लड़कों ने उसकी ओर पत्थर फेंका — जिसमें एक चिट्ठी बंधी थी:
“तुम्हारा सच हमें खोखला कर रहा है। बंद करो, वरना यह आखिरी चेतावनी है।”
राघव डरा नहीं। उसने पुलिस में शिकायत दर्ज की, लेकिन उसे यह भी पता था कि व्यवस्था अब भी उसी हाथों में है जिन्होंने शांभवी को मिटा दिया था।
उसी रात, उसे एक अनजान नंबर से कॉल आया।
दूसरी ओर, एक बुज़ुर्ग महिला की आवाज़ — थरथराती, पर साफ़:
“तुम जो कर रहे हो, उससे मेरी बेटी को मुक्ति मिलेगी। धन्यवाद बेटा। मैं जानती हूँ, वो आज रात मुस्कुरा रही होगी।”
“आप कौन?” राघव ने पूछा।
कुछ क्षण चुप्पी रही।
फिर एक शब्द — “माँ…”
लाइन कट गई।
राघव की आँखों में आँसू आ गए।
उसने आसमान की ओर देखा। हवेली के उस अंधेरे कमरे में अब रोशनी नहीं थी, लेकिन उसके भीतर की रूह शायद अब उड़ चुकी थी — अपने वादे, अपने प्रेम, और अपनी सच्चाई के साथ।
भाग ९
अगली सुबह, दौरगंज की हवा बदली-बदली सी थी। अख़बारों में राघव की रिपोर्ट छाई हुई थी। “चौधरी हवेली में हुआ था बेटी का क़त्ल”, “सांकलों के पीछे छुपा था प्रेम का क़त्ल” — ऐसी सुर्खियों के साथ अब हर गली में बस एक ही नाम था: शांभवी।
राघव ने कुछ देर के लिए खुद को कमरे में बंद कर लिया। वह जानता था—हर क्रांति के बाद एक शून्य आता है। लोगों की उत्सुकता की आँच तेज़ होती है, पर जल्दी ठंडी भी हो जाती है। लेकिन वह चाहता था कि शांभवी सिर्फ़ एक ‘वायरल नाम’ बनकर न रह जाए, बल्कि उसका नाम इस शहर की आत्मा में बस जाए।
उसने तय किया — वह चौधरी हवेली की दीवारों पर एक स्मारक बनवाएगा, जिसमें वह चिट्ठी, आईना, और शांभवी की तस्वीर लगाई जाएगी।
इसी दौरान अंशुल भागता हुआ होटल आया। उसके चेहरे पर डर भी था और उत्तेजना भी।
“राघव! हवेली में कुछ लोग घुस आए हैं! नकाबपोश हैं, हथौड़े लेकर! दीवारें तोड़ रहे हैं! शायद सबूत मिटाने आए हैं!”
राघव बिना समय गँवाए अंशुल के साथ हवेली पहुँचा। अंदर घुसते ही देखा — सामने की दीवार पर लाल पेंट से लिखा गया था:
“झूठ को सत्य मत बनाओ। चुप रहो।”
काँच टूटे हुए थे, वह पुराना झूला अब ज़मीन पर गिरा पड़ा था। आईना — चकनाचूर।
लेकिन बक्सा, जो राघव अपने साथ होटल लाया था — सुरक्षित था।
राघव समझ गया कि यह अंतिम वार है। डराने का, चुप कराने का।
उसने तुरंत प्रेस कांफ्रेंस बुलवाई। अपने सबूत, दस्तावेज़, चिट्ठियाँ — सब कुछ सामने रखा।
“मुझे धमकाया गया, मारा गया, डराया गया,” उसने माइक पर कहा, “लेकिन ये कहानी अब सिर्फ़ मेरी नहीं, आपकी भी है। अगर हम सच को मिटने देंगे, तो अगली शांभवी किस हवेली में बंद होगी — कौन जाने?”
लोगों की आँखों में आँसू थे।
वीरेन सिंह, जो अब तक परदे के पीछे थे, मंच पर आए। उनकी आवाज़ भारी थी।
“मैं शर्मिंदा हूँ। अपने दादा की गलती की माफ़ी नहीं मांग सकता, लेकिन उसके परिणामों को कबूल करता हूँ। मैं खुद नगर निगम को पत्र लिखूंगा कि चौधरी हवेली को एक स्मृति स्थली बनाया जाए। और यह जगह हर उस आवाज़ को समर्पित हो जो इतिहास में दबा दी गई।”
तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी।
उस रात राघव फिर से हवेली गया — अकेला।
वह तीसरी मंज़िल के उस कमरे में पहुँचा जहाँ से यह सब शुरू हुआ था।
कमरे में अब कोई आवाज़ नहीं थी। हवा स्थिर थी।
फिर भी, वह आईने के टूटे हुए टुकड़े के सामने रुका।
मोबाइल की रोशनी में एक टुकड़े पर हल्की-सी चमक थी।
उसने देखा।
टुकड़े पर एक आख़िरी शब्द उभरा —“मुक्ति।”
भाग १०
“मुक्ति” — टूटी हुई आईने की सतह पर उभरा वह आख़िरी शब्द राघव के भीतर एक गहरी शांति की लहर ले आया। ऐसा लगा जैसे शांभवी की रूह ने आख़िरकार उसे पहचान लिया, उसे स्वीकार किया, और अब वह बंधनों से आज़ाद हो चुकी थी।
कमरे की दीवारों से अब कोई आहट नहीं आ रही थी। हवेली, जो इतने दिनों तक एक कैदख़ाना बनी रही, अब किसी खुली स्मृति की तरह शांत और निष्कलंक लग रही थी।
राघव धीरे-धीरे नीचे उतरा, हर उस सीढ़ी पर चलते हुए जहाँ कभी चीख़ें गूँजी थीं, आँसू गिरे थे और झूठ बोला गया था।
अब हर ईंट पर सच्चाई उकेरी जा चुकी थी।
दो हफ़्तों बाद, चौधरी हवेली के बाहर एक समारोह आयोजित किया गया। नगर निगम के अधिकारी, पत्रकार, कॉलेज के छात्र, महिलाएँ, और शहर के बुज़ुर्ग — सभी इकट्ठा हुए थे। मंच पर एक संगमरमर की पट्टिका का अनावरण हुआ, जिस पर लिखा था:
“शांभवी की याद में — एक प्रेम, जिसे कैद किया गया, एक आवाज़, जो फिर गूँजी।
यहाँ वह नहीं दफ़न है,
बल्कि यहाँ से वह उड़ी है — मुक्त।”
वीरेन सिंह मंच पर आए। उनकी आँखों में आँसू थे। उन्होंने एक लाल साड़ी का टुकड़ा मंच पर रखा — वही साड़ी, जिसकी छवि हवेली में घूमती रही थी।
“यह मेरी बुआ की आख़िरी निशानी है,” उन्होंने कहा। “आज मैं नहीं रो रहा, बल्कि मेरी रगों में जो अपराध का लहू बहता था, उसे धुलता देख रहा हूँ।”
राघव पीछे बैठा था, कैमरे और मोबाइल की भीड़ में छिपा हुआ। उसे किसी मान-सम्मान की ज़रूरत नहीं थी। वह बस यह देखना चाहता था — क्या कहानी सच में असर डाल सकती है?
और फिर, उसकी नज़र सामने एक लड़की पर पड़ी।
करीब २० साल की होगी। गले में कैमरा लटका था, आँखों में जिज्ञासा। वह शांभवी की पट्टिका के पास खड़ी थी, चुपचाप देख रही थी।
राघव उसके पास गया।
“कहानी जानना चाहोगी?” उसने पूछा।
लड़की मुस्कुराई। “मैंने सुनी है, लेकिन अब मैं उसे आगे लिखना चाहती हूँ।”
“तुम?” राघव ने चौंककर पूछा।
“हाँ,” उसने कहा, “मैं पत्रकारिता की छात्रा हूँ। और ये कहानी मेरे लिए सिर्फ़ रिपोर्ट नहीं है — ये एक मिशन है। मैं भी ऐसी आवाज़ें ढूँढना चाहती हूँ जो कहीं कैद हैं।”
राघव मुस्कुरा उठा। उसे समझ आ गया — शांभवी की कहानी अब पूरी नहीं हुई, अब वह जन्म ले चुकी है… और आगे बढ़ चुकी है।
उसने आसमान की ओर देखा।
धूप हल्की थी, हवेली की दीवारों पर सुनहरी रेखाएँ पड़ रही थीं। उस पुराने आईने का टुकड़ा अब एक छोटे मंदिर में रख दिया गया था — स्मृति के रूप में, डर के नहीं।
और तभी… हवा में एक धीमी सी झंकार गूँजी।
जैसे कोई साँकल खुली हो।
पर इस बार… वह बंद करने के लिए नहीं, खोलने के लिए थी।
समाप्त