कुणाल राठौर
एपिसोड 1 : तहखाने की खिड़की
रात ढाई बजे दिल्ली की हवा भारी थी। डिफेंस कॉलोनी की पुरानी कोठी—डी-17—के बाहर पुलिस की पीली पट्टी लगी थी। भीतर कदम रखते ही रिपोर्टर नैना त्रिपाठी को महसूस हुआ मानो दीवारें खुद साँस ले रही हों।
बरामदे में एक परिचित चेहरा दिखा—राघव मेहरा, क्राइम ब्रांच के रिटायर्ड अफ़सर। हाथ में टॉर्च, आँखों में वही पुराना धैर्य।
“आप यहाँ?” नैना ने पूछा।
“आवाज़ सुनकर आया। और यह केस मुझे पुकार रहा था।”
स्ट्रेचर पर लेटा मृतक था—आईएएस अफ़सर अरविंद कश्यप। चेहरे पर नीली झलक और कमरे में हल्की बादाम जैसी गंध। नैना ने फुसफुसाया, “सायनाइड?” राघव ने कोई जवाब नहीं दिया, बस दीवार की ओर इशारा किया। धूल पर उँगलियों से खुरचे अक्षर—“राहा।”
नीचे तहखाने की ओर जाते कॉरिडोर में पानी टपक रहा था और कालिख बिखरी थी। हमीद, घर का पुराना केयरटेकर, बोला—“साहब मना करते थे, वहाँ सिर्फ़ कबाड़ है।” पर उसकी आवाज़ इतनी सपाट थी जैसे किसी ने उसे रटी हुई लाइन सिखाई हो। उसने जोड़ा, “आज सुबह एक लंबा आदमी आया था… जूतों की आवाज़ लोहे जैसी थी।”
तहखाने का दरवाज़ा खुला। नीचे उतरते ही ठंडी हवा ने झटका दिया। कोने में टूटा सामान, और सबसे पीछे एक छोटी खिड़की। रॉडों पर ताज़ा खरोंचें और तेल की परत। फर्श पर जली हुई पोलरॉइड फोटो का टुकड़ा पड़ा था—एक लड़की की स्याही लगी उँगलियाँ।
नैना ने रिकॉर्डर ऑन किया। तभी उसमें अजीब खड़खड़ाहट आई, और एक धीमी फुसफुसाहट उभरी—
“तहखाने की खिड़की मत खोलना।”
तीनों जड़ हो गए। ऊपर से किसी के दौड़ने की आवाज़ आई—तेज़, असमान, जैसे लोहे की कीलें पत्थर से टकरा रही हों। दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया। खिड़की के पीछे किसी साये की हल्की झलक मिली—एक चेहरा, स्थिर और ठंडा।
“कौन?” नैना की आवाज़ काँप गई।
उत्तर आया—“राहा… पूरा नाम पकड़ोगी तो मरोगी।”
और उसी पल ऊपर की घड़ी का पेंडुलम अटका हुआ होते हुए भी ज़ोर से हिला—ठीक 1:17 पर।
एपिसोड 2 : घड़ी का रहस्य
घड़ी की सुई जिस तरह 1:17 पर रुककर भी काँपती रही, वह दृश्य नैना की आँखों में गढ़ गया। तहखाने की खिड़की से दिखा वह चेहरा अब गायब था। पर हवा में धातु और नमी की अजीब गंध भर गई थी।
“यहाँ कुछ है…” नैना बुदबुदाई।
राघव ने टॉर्च का एंगल बदला। “कुछ नहीं, बस भ्रम। लेकिन यह भ्रम बार-बार क्यों लौट रहा है, यही रहस्य है।”
हमीद तेजी से सीढ़ियाँ चढ़ गया। उसकी पीठ काँप रही थी जैसे उसने कुछ ऐसा देखा हो जिसे शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता।
बाहर की रात
कोठी के बाहर भीड़ छँट चुकी थी। पुलिस का एक जवान नोटबुक में कुछ लिख रहा था। नैना ने पास जाकर पूछा—“मृत्यु का समय?”
जवान बोला—“लगभग 1:15 से 1:20 के बीच। शव की जाँच में यही निकल रहा है।”
राघव ने ठंडी साँस छोड़ी। “यानी घड़ी की सुई और मौत का समय मेल खा रहा है। किसी ने जान-बूझकर इसे 1:17 पर रोका है।”
नैना ने चौंककर कहा, “तो यह आत्महत्या नहीं, हत्या है?”
राघव ने आँखें सिकोड़ लीं। “अभी कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी। लेकिन खिड़की और यह घड़ी एक-दूसरे से जुड़े हैं। सवाल है—कैसे?”
एक पुरानी फाइल
अगली सुबह, नैना ने अख़बार में पहले पन्ने पर हेडलाइन देखी—
“वरिष्ठ आईएएस अधिकारी की संदिग्ध मौत, आत्महत्या या हत्या?”
उसके नाम के नीचे रिपोर्टर: नैना त्रिपाठी।
फोन लगातार बज रहा था। संपादक चिल्ला रहे थे—“तुम्हें और जानकारी चाहिए। जनता जानना चाहती है।”
नैना ने तुरंत राघव को कॉल किया। बूढ़ी आवाज़ आई, “मेरे घर आ जाओ। तुम्हें कुछ दिखाना है।”
राघव के पुराने मकान में धूल भरे आलमारी से उसने एक फाइल निकाली। कवर पर लिखा था—“ऑपरेशन राहा, 1997”।
नैना की साँस अटक गई। “राहा? वही शब्द जो दीवार पर लिखा था?”
“हाँ,” राघव बोला। “ये केस मैं कभी सुलझा नहीं पाया।”
फाइल का सच
फाइल में पीली हो चुकी रिपोर्टें थीं—
तीन मौतें, तीनों अलग-अलग इलाक़ों में। हर बार घड़ी 1:17 पर रुकी हुई मिली। हर जगह दीवारों पर उँगलियों से लिखा एक शब्द—“राहा।”
राघव ने धीमे स्वर में कहा—“उस समय मैंने सोचा था यह किसी पागल का खेल है। पर अब लगता है यह किसी बड़े जाल का हिस्सा है।”
नैना ने पूछा—“राहा कौन हो सकता है? कोई नाम? कोई संगठन?”
राघव ने आँखें मूँदीं। “राहा मतलब राह या रास्ता भी हो सकता है। शायद कोई संकेत… या शायद किसी का नाम।”
तहखाने की खिड़की
शाम को वे फिर उसी कोठी पहुँचे। खिड़की अब भी बंद थी। रॉड्स पर और गहरी खरोंचें थीं, जैसे किसी ने रातभर लोहे से उसे कुरेदा हो।
नैना ने कैमरा ऑन किया और धीरे से खिड़की पर हाथ रखा। अचानक काँच जम-सा गया—बर्फ़ जैसी ठंड। उसके उँगलियों से भाप उठने लगी।
पीछे से आवाज़ आई—“मत छूना!”
राघव ने उसका हाथ खींच लिया। उसकी हथेली पर हल्की लाल छाप बन गई थी।
“यह खिड़की किसी साधारण रास्ते की नहीं। शायद यह किसी और जगह से जुड़ी है।” राघव का स्वर काँप रहा था।
हमीद की गवाही
अचानक हमीद ने चुप्पी तोड़ी। “साहब… मैं अब छुपा नहीं सकता। कल रात मैंने देखा था। एक आदमी खिड़की के पास खड़ा था। लंबा, दुबला, और चेहरा ढका हुआ। उसने कहा—‘राहा जाग गया है।’”
नैना ने पेन गिरा दिया। “जाग गया है? मतलब यह कोई आत्मा है?”
राघव ने सिर हिलाया। “नहीं। लेकिन यह कोई संगठन हो सकता है, जो बीस साल बाद फिर सक्रिय हो रहा है।”
रहस्यमय कॉल
वहीं खड़े-खड़े नैना का फोन बजा। नंबर अज्ञात था। उसने रिसीव किया तो दूसरी ओर से एक गहरी, धातु-सी आवाज़ आई—
“1:17… तुम्हारा वक्त भी वही होगा। तहखाने की खिड़की खोलो और देखो असली चेहरा। नहीं तो अगली मौत तुम्हारी होगी।”
लाइन कट गई।
नैना ने काँपते हाथ से स्क्रीन देखा—कॉल का समय 1:17 मिनट पर ही काटा गया था।
अंत का झटका
राघव ने फौरन चारों ओर नज़र दौड़ाई। “यह आदमी हमें देख रहा है। कहीं पास ही है।”
हमीद घुटनों के बल बैठ गया। “मैंने गलती कर दी… मैं उसे पहचानता हूँ।”
“कौन है वो?” राघव ने गरजकर पूछा।
हमीद की आँखों से आँसू बहे। “वो अरविंद साहब का पुराना दोस्त… नाम था निर्मल राहा।”
नैना और राघव ने एक-दूसरे को देखा। दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं।
“तो ‘राहा’ कोई शब्द नहीं, कोई आदमी है—जिंदा या… कुछ और।”
और तभी खिड़की ज़ोर से हिली—जैसे किसी ने अंदर से धक्का मारा हो।
एपिसोड 3 : निर्मल राहा की परछाईं
खिड़की का हिलना किसी साधारण झोंके का असर नहीं था। भीतर से आ रही ताक़त ने जैसे पूरे तहखाने को हिला दिया। धूल झर-झरकर गिरी और बल्ब की मद्धम रोशनी टिमटिमाने लगी।
नैना काँपते स्वर में बोली—“अगर राहा एक इंसान है, तो वह अंदर कैसे हो सकता है? यह खिड़की किसी कमरे में खुलती ही नहीं।”
राघव ने धीमी आवाज़ में कहा—“यही तो रहस्य है। यह खिड़की किसी और जगह की ओर खुलती है… या फिर किसी और समय की ओर।”
हमीद का सच
हमीद अब टूट चुका था। उसने काँपते हाथों से अपनी जेब से एक पुराना फोटो निकाला। उसमें अरविंद कश्यप और एक लंबा, साँवला आदमी साथ खड़े थे—आँखों में असामान्य चमक, होंठों पर अजीब-सा व्यंग्य।
“यह है निर्मल राहा,” हमीद फुसफुसाया। “साहब के साथ कॉलेज में पढ़ा था। दोनों मिलकर कुछ गुप्त शोध करते थे। रात-रातभर तहखाने में बंद रहते। कहते थे, इंसान का डर ही सबसे बड़ा हथियार है। लेकिन अचानक एक हादसे के बाद राहा गायब हो गया। फिर कभी लौटा नहीं।”
नैना ने फोटो को ध्यान से देखा। राहा की आँखें जैसे कैमरे के पार भी उसे घूर रही थीं। एक सवाल भीतर गूंजा—क्या यह आदमी कभी मरा ही नहीं था?
पुलिस का दबाव
उसी शाम पुलिस कमिश्नर ने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई। बयान साफ़ था—“अरविंद कश्यप ने आत्महत्या की है। किसी भी षड्यंत्र या हत्या की पुष्टि नहीं हुई।”
नैना ने टीवी पर यह बयान देखा और हताश होकर बोली, “वे सब कुछ दबाना चाहते हैं। सच सामने आने से किसे डर लग रहा है?”
राघव ने होंठ भींच लिए। “सिस्टम को। राहा का नाम एक बार फिर बाहर आ गया तो कई बड़े चेहरे बेनक़ाब हो सकते हैं।”
तहखाने की गूँज
रात ढलते ही नैना और राघव ने तय किया कि सच जानने के लिए उन्हें फिर उस खिड़की तक जाना होगा।
तहखाने में घुसते ही अंधेरा और गहरा था। दीवारों पर नमी से बनी आकृतियाँ मानो किसी भाषा का रूप ले रही थीं।
नैना ने रिकॉर्डर ऑन किया। अचानक उसमें फिर वही खड़खड़ाहट आई। इस बार आवाज़ और साफ़ थी—
“निर्मल राहा… 1:17… मौत का रास्ता।”
नैना का दिल जोर से धड़क उठा। उसने कैमरे की फ्लैश जलाई। खिड़की के काँच पर अचानक धुंधली परछाईं उभरी—एक लंबा आदमी, वही जो फोटो में था।
“तुम्हें यहाँ नहीं आना चाहिए था,” आवाज़ गूँजी।
नैना ने काँपते स्वर में कहा, “तुम कौन हो? इंसान… या कुछ और?”
उत्तर मिला—“मैं वही हूँ जिससे इंसान बनते हैं—डर। राहा नाम नहीं, एक विचार है। जो भी इसे अपनाएगा, वही मेरे रास्ते का हिस्सा होगा।”
1997 की गुत्थी
राघव ने फाइल से पढ़ना शुरू किया—
1997 में तीन मौतें हुई थीं। सभी पीड़ित बड़े अधिकारी थे। सभी का रिश्ता एक गुप्त प्रोजेक्ट से था जिसका कोडनेम था ‘प्रोजेक्ट मिरर’।
इस प्रोजेक्ट का मक़सद था—मानव दिमाग़ के डर को नियंत्रित करके उसे हथियार बनाना। वैज्ञानिक दावा करते थे कि अगर डर को एक जगह केंद्रित कर दिया जाए, तो इंसान की इच्छा-शक्ति टूट सकती है।
निर्मल राहा इस प्रोजेक्ट का नेतृत्व कर रहा था। पर एक प्रयोग के दौरान कुछ ग़लत हुआ। तीन लोग उसी रात मारे गए। और फिर राहा लापता हो गया।
राघव ने काग़ज़ नीचे रख दिए। उसकी आँखों में थकान थी। “शायद वही प्रयोग अब फिर शुरू हो गया है। और अरविंद कश्यप इसका हिस्सा था।”
नैना पर हमला
जैसे ही वे तहखाने से बाहर निकलने लगे, अचानक पीछे से सरसराहट हुई। कोई तेज़ कदमों से दौड़ रहा था।
नैना ने मुड़कर देखा—एक लंबा आदमी, चेहरा काले कपड़े से ढका हुआ, सीधे उसकी ओर बढ़ रहा था।
वह चिल्लाई—“राघव!”
पर उस आदमी ने उससे पहले ही हाथ बढ़ाकर नैना का कैमरा झपट लिया और ज़मीन पर पटककर तोड़ दिया।
उसके होंठों से फुसफुसाहट निकली—“सच मत लिखना। अगली रिपोर्ट तुम्हारी मौत होगी।”
फिर वह उसी खिड़की से होकर गायब हो गया—जैसे काँच ठोस नहीं, कोई रास्ता हो।
नैना ज़मीन पर बैठ गई, साँसें टूटती हुईं। राघव ने उसे उठाया। “अब हमें यक़ीन हो जाना चाहिए। राहा कोई भ्रम नहीं। वह जिंदा है… और यह खिड़की उसका दरवाज़ा है।”
एक और मौत
अगली सुबह खबर आई—एक और उच्च अधिकारी, डॉ. सोमेश शर्मा, अपने ही फ्लैट में मृत पाए गए। मौत का समय वही—1:17।
दीवार पर वही शब्द लिखा था—“राहा।”
नैना ने अख़बार के लिए हेडलाइन टाइप की—
“दिल्ली में सीरियल मर्डर—‘राहा’ की वापसी?”
उसकी उँगलियाँ काँप रही थीं, लेकिन भीतर कहीं जिद भी थी। उसे पता था, यह कहानी सिर्फ़ रिपोर्ट नहीं, बल्कि उसके अपने जीवन का इम्तिहान बनने वाली है।
अंत का मोड़
शाम को जब वह अपने ऑफिस लौटी तो टेबल पर एक लिफ़ाफ़ा रखा था। कोई नाम नहीं, सिर्फ़ लाल स्याही में लिखा समय—“1:17”।
लिफ़ाफ़ा खोलते ही एक पुरानी डायरी गिरी। पहले पन्ने पर हाथ से लिखा था—
“मैं निर्मल राहा हूँ। और यह मेरी कहानी है।”
नैना की साँसें थम गईं।
राघव ने उसकी आँखों में देखा और धीरे से कहा—“अब खेल शुरू हुआ है।”
एपिसोड 4 : लाल स्याही की डायरी
नैना की मेज़ पर रखी उस पुरानी डायरी का कवर फटा हुआ था। किनारों पर खून जैसे धब्बे। राघव ने दस्ताने पहनकर पहला पन्ना पलटा।
उस पर लिखा था—
“डर ही सबसे बड़ा धर्म है। जिसे डरना आ गया, वही झुकना सीखेगा। और जो झुकेगा, वही रास्ता चुनेगा। मैं निर्मल राहा—डर का पुजारी।”
नैना ने काँपते स्वर में पूछा—“यह डायरी उसे किसने यहाँ रखी?”
राघव ने गहरी साँस ली। “यानी राहा हमारे बहुत करीब है। वह चाहता है कि हम पढ़ें, समझें… और डरें।”
डायरी के पन्ने
दूसरे पन्ने पर लिखा था—
“1997 की उस रात मैंने देखा कि इंसान का मन कितना कमज़ोर है। तीन मौतें हुईं, पर असली प्रयोग तो अब शुरू हुआ है। यह शहर मेरा प्रयोगशाला है। हर घड़ी 1:17 पर बजेगी। और हर मौत के साथ डर और गहरा होगा।”
नैना ने पन्ना पलटा। तीसरे पन्ने पर एक नाम था—“सूची – अगला लक्ष्य”।
पहला नाम: डॉ. सोमेश शर्मा (जो कल ही मारा गया)।
दूसरा नाम: राघव मेहरा।
नैना का चेहरा सफेद पड़ गया। “आप… अगला निशाना?”
राघव ने हल्की मुस्कान दी। “मैं जानता था, यह खेल मुझे यहीं लाएगा। लेकिन अब हम सिर्फ़ भागेंगे नहीं।”
सुराग की तलाश
दोनों ने तय किया कि डायरी के बाकी हिस्से पुलिस को नहीं देंगे। क्योंकि पुलिस पहले ही इसे आत्महत्या का केस घोषित कर चुकी थी।
नैना बोली—“हमें खुद पता लगाना होगा राहा कहाँ छुपा है।”
राघव ने डायरी के पीछे की तरफ़ देखा। वहाँ एक पते जैसा कुछ लिखा था—“अशोक विहार, ब्लॉक-सी, पुराना गोदाम।”
अशोक विहार का गोदाम
अगली रात वे दोनों उस गोदाम पहुँचे। जगह वीरान थी, चारों ओर जंग लगे कंटेनर। भीतर घुसते ही बदबूदार धुएँ का झोंका आया।
दीवारों पर बड़े-बड़े लाल अक्षरों में लिखा था—“1:17”।
बीच में लोहे की मेज़ पर कई घड़ियाँ रखी थीं, सभी की सुइयाँ 1:17 पर अटकी हुईं।
नैना का गला सूख गया। “ये सब… प्रयोग है?”
राघव ने चारों ओर देखते हुए कहा—“हाँ। राहा डर को प्रतीक बनाता है। ये घड़ियाँ सिर्फ़ संकेत हैं।”
तभी अंधेरे कोने से धीमी तालियाँ गूँजीं।
“आख़िरकार तुम आ ही गए, राघव।”
एक लंबा आदमी आगे बढ़ा। चेहरे पर नकाब, पर आवाज़ वही थी—भारी और ठंडी।
“निर्मल राहा,” राघव ने बुदबुदाया।
सामना
राहा धीरे-धीरे करीब आया।
“बीस साल पहले तुमने मेरा प्रयोग रोक दिया था, मेहरा। लेकिन डर कभी नहीं रुकता। अब तुम्हें खुद इसका हिस्सा बनना होगा।”
नैना काँपते स्वर में बोली—“तुम इंसानों की हत्या करके क्या साबित करना चाहते हो?”
राहा हँसा—“हत्या? नहीं। यह बलि है। बलि से ही डर जन्म लेता है, और डर से ही नियंत्रण। हर मौत एक संदेश है।”
उसने जेब से एक पुराना पॉकेट-वॉच निकाला। उसकी सुइयाँ भी 1:17 पर थीं।
“यह घड़ी जिस पर टिक जाए, वहीं मौत ठहर जाती है।”
पीछा
अचानक बाहर से पुलिस सायरन गूँजा। राहा एक झटके में अंधेरे में गायब हो गया।
राघव ने चिल्लाया—“रुको!” और उसका पीछा किया।
वे दोनों पीछे-पीछे भागे। गोदाम के पिछले दरवाज़े से निकलकर राहा रेलवे ट्रैक की ओर दौड़ा। रात की धुंध में उसका कद और लंबा लग रहा था।
नैना ने कैमरे का फ्लैश ऑन किया। एक पल को राहा का चेहरा साफ़ दिखा—काली आँखें, होंठों पर विकृत मुस्कान।
पर अगले ही पल वह अंधेरे में खो गया।
पुलिस की चाल
कमिश्नर मौके पर पहुँचे। उन्होंने कड़क स्वर में कहा—“आप दोनों को चेतावनी दी थी, इस केस से दूर रहिए। अब अगर दखल दिया तो पत्रकारिता और आपकी पेंशन दोनों खत्म।”
नैना ने प्रतिवाद करना चाहा पर राघव ने उसका हाथ दबाया। “यह लोग नहीं समझेंगे। हमें अकेले ही करना होगा।”
रात का संदेश
उस रात नैना अपने फ्लैट लौटी। दरवाज़ा खोलते ही सामने दीवार पर लाल स्याही में लिखा था—
“1:17 – अगली बारी तुम्हारी।”
उसकी रीढ़ में ठंड दौड़ गई।
फोन बजा। स्क्रीन पर अनजान नंबर। उसने काँपते हाथ से रिसीव किया।
दूसरी ओर से वही आवाज़ आई—“तुम सच लिखोगी तो शहर काँपेगा। पर पहले तुम्हें देखना होगा मौत का चेहरा… अपने ही कमरे में।”
लाइन कट गई। कमरे की घड़ी देखी—रात के ठीक 1:16 हो रहे थे।
नैना ने चिल्लाकर खिड़की बंद करने की कोशिश की।
और तभी सुई 1:17 पर पहुँची—घंटी बजी, बल्ब फट गया, और कमरे में किसी के भारी साँस लेने की आवाज़ गूँजी।
एपिसोड 5 : कमरे की साँसें
नैना के कमरे में बल्ब फटते ही हर कोना अंधेरे में डूब गया। केवल घड़ी की टिक-टिक और किसी अनजानी साँस की आवाज़ गूँज रही थी।
उसकी उँगलियाँ काँपते हुए मोबाइल के फ्लैशलाइट पर गईं। जैसे ही रोशनी फैली, परदे हिलने लगे—हालाँकि खिड़कियाँ बंद थीं। रोशनी की किरण दीवार पर पड़ी। वहाँ, लाल स्याही से लिखा था—
“सच लिखोगी तो मरोगी।”
अचानक दर्पण में एक चेहरा उभरा। वही नकाबपोश लंबा आदमी—निर्मल राहा।
पर इस बार उसका स्वर और पास था। “यह कमरा अब मेरा है। तुमने मेरी डायरी पढ़ी, अब तुम मेरी सूची में हो।”
नैना चीखी और दरवाज़े की ओर दौड़ी, पर हैंडल अपने आप घूमकर बंद हो गया। आवाज़ गूँजी—“भागोगी कहाँ? डर से बाहर निकलने का रास्ता नहीं होता।”
राघव की एंट्री
इसी बीच, घंटी बजी। बाहर राघव खड़ा था। उसने ज़ोर से दरवाज़ा पीटा।
“नैना! दरवाज़ा खोलो!”
अंदर से उसकी घुटी आवाज़ आई—“दरवाज़ा बंद है, कोई अंदर है…”
राघव ने झटका मारा। दरवाज़ा खुला और वह भीतर घुसा। कमरे में बस धुआँ और स्याही की गंध थी। राहा गायब हो चुका था।
नैना काँप रही थी। उसने दीवार पर लिखे शब्द दिखाए। राघव की आँखें सिकुड़ गईं।
“वह चाहता है कि तुम डरकर हार मान लो। लेकिन यही उसकी ताक़त है। हमें इसे तोड़ना होगा।”
डायरी का दूसरा हिस्सा
दोनों ने मिलकर डायरी के और पन्ने पढ़े।
“जो डर को देख लेता है, वही डर बन जाता है। मेरी सूची में हर नाम इसलिए है कि वे मेरे प्रयोग को नकारते हैं। मैं उन्हें डर का पाठ पढ़ाऊँगा। और अंत में—शहर को झुकाऊँगा।”
अगला नाम लिखा था—“नैना त्रिपाठी।”
नैना ने पन्ना गिरा दिया।
राघव ने गंभीर स्वर में कहा—“इसका मतलब है अब हमें हमला करने से पहले ही राहा तक पहुँचना होगा। नहीं तो तुम्हारी जान खतरे में है।”
सुराग की कड़ी
राघव ने सोचा—“1997 का प्रोजेक्ट मिरर किसने शुरू किया था? सरकार के ऊँचे अफ़सर। अरविंद कश्यप, सोमेश शर्मा… और शायद कोई तीसरा।”
नैना ने लैपटॉप खोलकर आर्काइव फाइलें खोजीं।
वहाँ एक नाम उभरा—डॉ. रजनीकांत वर्मा, न्यूरोसाइंटिस्ट।
“ये आदमी अब कहाँ है?” नैना ने पूछा।
राघव ने कहा—“अगर वह जिंदा है, तो उसी के पास राहा का असली राज़ होगा।”
पुराना अस्पताल
पता चला कि डॉ. वर्मा पिछले दस साल से शहर के किनारे बने एक बंद पड़े मानसिक अस्पताल में रह रहे हैं। लोग कहते हैं, वे पागल हो गए हैं।
रात के अँधेरे में दोनों वहाँ पहुँचे। जगह सुनसान थी। टूटी खिड़कियाँ, जंग लगे गेट, और भीतर सन्नाटा।
एक कमरे में, टिमटिमाती मोमबत्ती के पास, सफेद बालों वाला आदमी बैठा था—डॉ. वर्मा। उसकी आँखें लाल थीं और होंठ फटे हुए।
“तुम लोग यहाँ क्यों आए हो?” उसने बुदबुदाया।
राघव ने डायरी आगे रखी। “निर्मल राहा। उसके बारे में सच बताइए।”
वर्मा का खुलासा
वर्मा ने काँपते हाथों से डायरी छुई। “राहा… वह इंसान नहीं रहा। 1997 में हमने डर पर प्रयोग किया। हमने सोचा था, दिमाग़ के डर को रिकॉर्ड करके मशीन से नियंत्रित करेंगे। लेकिन राहा… उसने डर को अपने भीतर ही समा लिया। वह मशीन और इंसान दोनों बन गया। उसकी आत्मा अब डर में बसती है। इसीलिए वह खिड़की से आता-जाता है—क्योंकि वह सिर्फ़ इंसान नहीं, एक परछाईं है।”
नैना ने काँपते स्वर में पूछा—“तो उसे रोका कैसे जा सकता है?”
वर्मा ने आँखें मूँद लीं। “डर को डर से नहीं, सत्य से हराया जा सकता है। अगर उसके प्रयोग को सार्वजनिक कर दो, अगर लोग उसका सच जान लें, तो उसका डर बेअसर हो जाएगा। लेकिन…”
उसने रुककर कहा—“वह तुम्हें ऐसा करने नहीं देगा। तुम्हारे पास बस एक ही रास्ता है—उसकी खिड़की से होकर जाना। वहीं उसका असली चेहरा है।”
मौत का हमला
इसी बीच अस्पताल की खिड़की पर तेज़ धमाका हुआ। काँच चटक गया। बाहर से वही आवाज़ गूँजी—“डॉ. वर्मा, तुम्हारा समय आ गया है।”
वर्मा चीख उठा—“भागो! वह मुझे लेने आया है!”
दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया। धुएँ का बादल उठा। और उसी में से राहा का नकाबपोश चेहरा प्रकट हुआ।
उसने एक झटके में वर्मा की गर्दन पकड़ ली।
नैना ने चिल्लाकर कहा—“रुको!”
राघव ने पिस्तौल निकाली, पर गोली चलाने से पहले ही राहा और वर्मा दोनों गायब हो गए—सिर्फ़ खून की धार और घड़ी की टिक-टिक बची।
घड़ी रुकी थी—1:17।
अंत का झटका
अस्पताल की दीवार पर अब नई लाइन लिखी थी—
“सूची पूरी होती जा रही है। अगली मौत—कल रात।”
नैना के हाथ से डायरी फिसल गई।
राघव ने उसकी ओर देखा। “अब हमें उसके जाल में घुसना होगा। खिड़की ही कुंजी है। अगली बार अगर वह आया, तो हमें उसके रास्ते का पीछा करना होगा।”
नैना की आँखों में डर और जिद दोनों थे।
उसने धीरे से कहा—“तो अगली रात हम उसका इंतज़ार करेंगे… 1:17 पर।”
एपिसोड 6 : खिड़की के पार
अगली रात, जब दिल्ली की गलियाँ आधी रात के बाद सन्नाटे में डूबी थीं, नैना और राघव उसी पुरानी कोठी में लौटे। दोनों के चेहरे पर थकान थी, पर भीतर जिद की आग।
तहखाने की खिड़की के सामने मोमबत्ती रखी गई थी। घड़ी की सुई धीरे-धीरे 1:17 की ओर बढ़ रही थी।
नैना ने धीरे से कहा—“यही पल है। अगर राहा आता है, तो हमें भागना नहीं है। हमें उसके रास्ते में उतरना होगा।”
राघव ने सिर हिलाया। “हाँ। अब डर को देखना पड़ेगा। तभी उसका सच सामने आएगा।”
इंतज़ार
सन्नाटा ऐसा था कि दिल की धड़कनें भी सुनाई दे रही थीं।
1:16…
खिड़की का शीशा धुंधला होने लगा। भीतर से ठंडी हवा निकली। अचानक उस पर वही परछाईं उभरी—लंबा आदमी, नकाब से ढका चेहरा।
उसकी आवाज़ गूँजी—“तुम्हें सच चाहिए? तो चलो मेरे साथ। लेकिन याद रखना—वापस लौटना आसान नहीं।”
नैना ने काँपते स्वर में कहा—“हम तैयार हैं।”
राघव ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया।
पार की छलाँग
सुई 1:17 पर पहुँची और खिड़की हिल गई। अचानक शीशा पिघलते मोम की तरह टपकने लगा। भीतर काले धुएँ का भंवर बना।
राहा ने हाथ बढ़ाया। नैना ने अपनी आँखें बंद कीं और भीतर क़दम रख दिया। राघव भी उसके पीछे गया।
जैसे ही दोनों अंदर गए, उनके कानों में सीटी जैसी आवाज़ भर गई। पल भर में वे दूसरी दुनिया में थे।
डर की दुनिया
यह जगह तहखाने जैसी नहीं थी। चारों ओर अनंत अंधेरा, जिसमें धुंधले गलियारे तैर रहे थे। दीवारों पर बड़े-बड़े घड़ियाँ लटक रही थीं—हर घड़ी 1:17 पर अटकी।
मंच जैसा एक स्थान था, जहाँ इंसानों की परछाइयाँ बंधी थीं। वे चीखना चाहती थीं, पर आवाज़ बाहर नहीं आती थी।
नैना का दिल काँप उठा। “ये सब… कौन हैं?”
राहा की आवाज़ हवा में गूँजी—“ये वे हैं जिन्होंने सच देखा, पर डर से हार गए। अब ये मेरे कैदी हैं।”
राघव ने दाँत भींच लिए। “तो यह तेरी प्रयोगशाला है। डर की जेल।”
राहा सामने आया। “हाँ। और अब तुम दोनों भी यहीं रहोगे।”
मन का खेल
अचानक नैना के सामने उसकी माँ का चेहरा उभरा—लहूलुहान, आँसू भरी आँखें।
“बेटी… क्यों लौट आई? तू हमें छोड़कर क्यों चली गई?”
नैना की आँखें भर आईं। “नहीं माँ… ये सच नहीं है…”
पर आवाज़ बार-बार गूँजने लगी।
राघव के सामने उसका जवान बेटा खड़ा था, जिसकी मौत कार एक्सीडेंट में हुई थी।
“पापा… आपने मुझे बचाया क्यों नहीं? आप पुलिस वाले होकर भी बेबस थे।”
राघव का दिल टूट गया।
राहा हँस रहा था। “यही है डर। इंसान अपने अतीत से नहीं भाग सकता। यही मेरा हथियार है।”
प्रतिकार
नैना ने अचानक आँखें बंद कर लीं। उसने वर्मा की बात याद की—“डर को सच से हराना।”
उसने ज़ोर से चिल्लाया—“ये सच नहीं है! मेरी माँ जिंदा है, सुरक्षित है। तुम बस मेरे डर को भटका रहे हो।”
परछाईं अचानक टूट गई।
राघव ने भी गहरी साँस ली। “मेरा बेटा अब शांति में है। उसका दोष मेरा नहीं, हादसे का था। मैं उसे जाने दे चुका हूँ।”
उसके सामने की परछाईं भी गायब हो गई।
राहा की हँसी अचानक थम गई।
“तुम दोनों… कैसे निकल गए?”
असली चेहरा
नैना ने आगे बढ़कर उसका नकाब खींचा।
चेहरे पर जलने के निशान थे, आँखें गहरी और खाली, पर होंठों पर वही विकृत मुस्कान।
“निर्मल राहा…” राघव ने बुदबुदाया।
राहा गुर्राया। “तुम सोचते हो सच से मुझे रोक लोगे? डर कभी मरता नहीं। यह दुनिया हमेशा जीवित रहेगी।”
अचानक दीवारों पर बंधी परछाइयाँ चिल्लाने लगीं। उनकी आवाज़ें गूँजकर हवा में भर गईं।
नैना ने कैमरा ऑन कर दिया। “अब यह सब रिकॉर्ड होगा। अगर हम लौटे, तो दुनिया तुम्हारा सच देखेगी।”
राहा चीखा। “नहीं!”
भागने की जद्दोजहद
राघव ने नैना का हाथ पकड़ लिया। “चलो!”
दोनों उसी भँवर की ओर दौड़े जहाँ से आए थे। राहा पीछे-पीछे। उसकी लंबी परछाई दीवारों पर फैल रही थी।
घड़ी फिर 1:17 की ओर बढ़ी। जैसे ही सुई ने वह समय छुआ, खिड़की खुली।
दोनों ने छलाँग लगाई। पल भर में वे वापस तहखाने में आ गिरे।
साँसें तेज़, शरीर काँपता हुआ।
खिड़की अब ठोस काँच बन चुकी थी। दूसरी ओर राहा का चेहरा ठहरा हुआ दिखा—गुस्से से लाल।
उसने इशारा किया—“यह खत्म नहीं हुआ।”
अंत का झटका
नैना ने कैमरे की स्क्रीन देखी। रिकॉर्डिंग ऑन थी। और उसमें साफ़-साफ़ कैद था—राहा की परछाईं, उसकी आवाज़ें, और डर की जेल।
राघव ने कहा—“अब हमारे पास सबूत है। अगर यह बाहर आया, तो लोग समझेंगे राहा कोई देवता नहीं, बस एक बीमार इंसान है।”
लेकिन तभी कैमरे की स्क्रीन झिलमिलाई।
रिकॉर्डिंग मिटने लगी। और अंतिम फ्रेम पर लाल अक्षरों में उभरा—
“1:17 – सच कभी बाहर नहीं जाएगा।”
नैना ने दहशत से राघव को देखा।
राघव फुसफुसाया—“अब लड़ाई और कठिन हो गई है। राहा हमारी हर चाल जानता है।”
एपिसोड 7 : मुखौटे के पीछे
खिड़की से लौटने के बाद भी नैना और राघव की नींद गायब हो चुकी थी। उनकी आँखों के नीचे काले घेरे थे, और मन में केवल एक सवाल—क्या राहा को सचमुच बेनक़ाब किया जा सकता है?
कैमरे की रिकॉर्डिंग मिट चुकी थी, लेकिन उस पर आख़िरी संदेश रह गया था—“सच कभी बाहर नहीं जाएगा।”
राघव ने मेज़ पर मुट्ठी मारी। “वह हमें चुनौती दे रहा है। अगर वह हमारी हर चाल जानता है, तो हमें वह रास्ता चुनना होगा, जिसकी उसे उम्मीद न हो।”
अख़बार की सुर्ख़ियाँ
अगली सुबह अख़बारों में एक और मौत की ख़बर थी।
“वरिष्ठ वकील, अनिल माथुर, अपने चैंबर में मृत पाए गए। दीवार पर लाल अक्षरों में लिखा—‘राहा।’ मौत का समय—1:17।”
नैना ने अख़बार मेज़ पर पटक दिया। “यह सीरियल किलिंग अब सार्वजनिक हो चुकी है। लेकिन पुलिस अब भी इसे आत्महत्या बता रही है।”
राघव ने गहरी साँस ली। “यही तो उसकी सबसे बड़ी ताक़त है। डर और सिस्टम की मिलीभगत।”
एक गुप्त संपर्क
उसी दिन शाम को नैना को एक अनजान ईमेल मिला।
सब्जेक्ट लाइन: “अगर राहा को हराना है, तो सच यहाँ मिलेगा।”
मेल के साथ एक अटैचमेंट था—पुराना वीडियो फुटेज।
फुटेज 1997 का था।
एक कमरे में प्रयोग चल रहा था। राहा, अरविंद कश्यप और सोमेश शर्मा मेज़ पर रखी मशीन के सामने बैठे थे। मशीन से नीली तरंगें निकल रही थीं।
राहा ने कैमरे की ओर देखते हुए कहा—
“आज हम डर को हमेशा के लिए नियंत्रित करेंगे। आज इंसान को इंसान पर राज़ करने का हथियार जन्म लेगा।”
वीडियो अचानक कट गया।
नैना ने काँपते स्वर में कहा—“अगर यह फुटेज जनता तक पहुँचा, तो लोग समझेंगे कि राहा एक वैज्ञानिक प्रयोग का हिस्सा था, कोई रहस्यमयी देवता नहीं।”
राघव ने सिर हिलाया। “पर सवाल यह है कि यह फुटेज किसने भेजा? कोई अंदरूनी आदमी हमारी मदद कर रहा है।”
नक़ली नक़ाब
रात होते ही दोनों एक परित्यक्त लाइब्रेरी पहुँचे। वहीं ईमेल भेजने वाला उनसे मिलने वाला था।
धुंधली रोशनी में एक बुज़ुर्ग महिला आई। चेहरा ढका हुआ।
“मैं राहा की बहन हूँ,” उसने फुसफुसाया। “मेरा नाम निर्मला।”
नैना और राघव स्तब्ध रह गए।
निर्मला ने कहा—“मेरे भाई को बचपन से ही डरने का जुनून था। वह अँधेरे कमरों में बैठकर अपनी साँसें गिना करता। जब उसने प्रोजेक्ट मिरर जॉइन किया, मैंने उसे रोकने की कोशिश की। लेकिन उसने मुझे भी कैद कर दिया। बीस साल से मैं छुपकर जी रही हूँ।”
राघव ने पूछा—“आपने हमें फुटेज क्यों भेजा?”
निर्मला की आँखें भीग गईं। “क्योंकि अगर उसे कोई रोक सकता है, तो आप दोनों। लेकिन याद रखिए—राहा अब सिर्फ़ इंसान नहीं, वह डर की परछाई है। उसे हराने के लिए सिर्फ़ सबूत नहीं, साहस चाहिए।”
अगला निशाना
निर्मला ने एक पर्ची दी।
उस पर लिखा था—“कल रात—पुलिस कमिश्नर। समय: 1:17।”
राघव ने दाँत भींच लिए। “तो अगली मौत सिस्टम के भीतर ही होगी। और अगर कमिश्नर मारा गया, तो सबूत हमेशा के लिए दफ़न हो जाएगा।”
नैना ने निर्णायक स्वर में कहा—“हमें उसे बचाना होगा। और राहा को वहीं पकड़ना होगा।”
जाल की तैयारी
दोनों ने रातभर योजना बनाई।
कमिश्नर के बंगले के बाहर सीसीटीवी कैमरे लगाए गए। नैना ने लाइव फीड रिकॉर्ड करने की व्यवस्था की।
राघव ने अपने पुराने पुलिस संपर्कों से हथियार मंगवाए।
“इस बार अगर वह खिड़की से आया, तो हमें उसके भीतर घुसकर नहीं, यहीं बाहर रोकना होगा।”
1:17 की रात
घड़ी की सुइयाँ धीरे-धीरे उस समय की ओर बढ़ रही थीं।
कमिश्नर अपने कमरे में थे। बाहर राघव और नैना निगरानी कर रहे थे।
1:16 पर अचानक खिड़की पर धुंध छाई।
नैना ने स्क्रीन की ओर इशारा किया। “वो आ रहा है।”
अगले ही पल काँच पिघलने लगा और भीतर से राहा का नक़ाबपोश चेहरा उभरा।
“समय पूरा हुआ, कमिश्नर,” उसकी आवाज़ गूँजी।
राघव ने पिस्तौल तान दी। “राहा! इस बार तेरा खेल खत्म।”
गोलियाँ चलीं, पर हर बार वह धुएँ की तरह गायब हो गया।
नैना ने कैमरा सीधा खिड़की पर कर दिया। इस बार रिकॉर्डिंग रुक नहीं रही थी।
राहा ने गुस्से से चीख़ मारी। “तुम्हें सच बाहर नहीं ले जाने दूँगा!”
रहस्योद्घाटन
अचानक कमिश्नर के चेहरे पर अजीब मुस्कान फैल गई।
“राघव, तुम सोचते हो मैं शिकार हूँ? नहीं। मैं खुद इस खेल का हिस्सा हूँ।”
राघव और नैना स्तब्ध रह गए।
कमिश्नर ने आगे कहा—“राहा अकेला नहीं है। सरकार के कई ऊँचे लोग उसके साथ हैं। हम सब डर को हथियार बनाना चाहते हैं। और तुम दोनों हमारे रास्ते का काँटा हो।”
नैना के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।
“तो पुलिस भी…”
“हाँ,” कमिश्नर ने कहा। “इसलिए हम हर सबूत मिटाते हैं। और अब तुम्हारी बारी है।”
अंत का झटका
खिड़की से राहा भीतर आया। उसके और कमिश्नर के बीच कोई दूरी नहीं थी। दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा और फिर साथ हँस पड़े।
राघव की पिस्तौल काँप गई। “तो तुम दोनों… एक ही पक्ष में हो।”
नैना के होंठ सूख गए। “इसका मतलब… हम जाल में फँस गए हैं।”
घड़ी की सुई 1:17 पर टिक गई।
बत्ती बुझ गई।
और कमरे में केवल एक शब्द गूँजा—
“अगला नाम—राघव मेहरा।”
एपिसोड 8 : शिकारी और शिकार
कमिश्नर की हँसी कमरे की दीवारों से टकराकर गूँज रही थी। खिड़की के भीतर से राहा का चेहरा ठंडे धुएँ की तरह फैल रहा था। नैना और राघव के लिए यह खुलासा बिजली की तरह था—राहा अकेला नहीं, सत्ता उसके साथ थी।
राघव ने पिस्तौल पर पकड़ कस ली। “तो यह सब षड्यंत्र था… जनता के सामने आत्महत्या, भीतर सत्ता और डर का सौदा।”
कमिश्नर मुस्कुराया। “डर ही सबसे सस्ता और सबसे प्रभावी हथियार है। और राहा हमारा पुजारी।”
धोखे का घेरा
राहा ने आगे बढ़ते हुए कहा—“राघव मेहरा, तुम्हारा नाम अब मेरी सूची में है। यह सूची कभी ग़लत नहीं होती।”
नैना ने काँपते स्वर में कहा—“लेकिन तुम इंसान नहीं रहे। तुम एक परछाई हो, जो डर के बिना कुछ नहीं।”
राहा हँस पड़ा। “डर ही असली इंसान है, और मैं उसका चेहरा।”
कमरे का बल्ब झिलमिलाया। दीवारों पर फिर वही शब्द उभर आए—“1:17”।
घड़ी की सुइयाँ टिक-टिक करते हुए उसी ओर दौड़ रही थीं।
अचानक वार
राघव ने अचानक ट्रिगर दबाया। गोली चली, सीधा कमिश्नर के कंधे में लगी। वह लड़खड़ाया और गिर पड़ा।
नैना चीख उठी—“आपने…!”
राघव ने ठंडी आवाज़ में कहा—“यह आदमी पहले से ही हमारी मौत पर हस्ताक्षर कर चुका था। जीवित बचना अब हमारी ज़िम्मेदारी है।”
कमिश्नर ज़मीन पर पड़ा कराह रहा था। उसने हँसते हुए कहा—“तुम सोचते हो, मुझे मारकर बच जाओगे? यह पूरी व्यवस्था राहा की है। अगली रात तुम्हें कोई नहीं बचा पाएगा।”
भागने की जद्दोजहद
तभी खिड़की से धुएँ का भंवर बना। राहा का हाथ बाहर निकला, लंबा और ठंडा। उसने राघव की ओर झपट्टा मारा।
राघव और नैना दौड़कर कमरे से बाहर निकले। सीढ़ियों पर उनके कदमों की गूँज रात की चुप्पी चीर रही थी।
बाहर निकलते ही नैना ने गाड़ी स्टार्ट की। इंजन गरजा और दोनों अँधेरे में भाग निकले।
पीछे खिड़की में राहा का चेहरा दिखा—स्थिर, पर उसकी आँखों में वादा था कि यह पीछा अब ख़त्म नहीं होगा।
छिपने की जगह
वे दोनों शहर से दूर, यमुना किनारे बने एक छोड़े गए गोदाम में पहुँचे।
नैना हाँफ रही थी। “अब क्या करेंगे? वह हमें हर जगह ढूँढ लेगा।”
राघव ने कहा—“हमें शिकारी बनना होगा। अब तक वह हमें शिकार बना रहा था। अगली बार जब 1:17 बजेगा, हमें उसी के जाल में घुसना होगा।”
नैना ने काँपते स्वर में कहा—“लेकिन कैसे? उसकी खिड़की हर जगह है।”
राघव ने डायरी उठाई। उसके पन्नों में एक लाइन थी—
“डर का दरवाज़ा केवल वहीं खुलता है जहाँ कोई विश्वासघात हुआ हो।”
राघव ने सोचा। “तो हमें उसकी अगली चाल पहचाननी होगी। कमिश्नर उसका साथी था। उसके मरते ही राहा नया मोहरा खोजेगा। हमें उस जगह पहुँचना होगा।”
पुरानी फाइल का खुलासा
नैना ने अपने लैपटॉप में गुप्त डेटा खोला। कमिश्नर के मेल आईडी से निकाले गए डॉक्युमेंट्स में एक फाइल थी—“Mirror 2.0”।
इसमें लिखा था—
“नई दिल्ली में प्रयोग का दूसरा चरण। 10 लक्षित व्यक्तियों की सूची। हर नाम सत्ता और कानून के ढांचे से जुड़ा। मौत का समय—1:17।”
सूची के पाँच नाम पहले ही काटे जा चुके थे।
छठा नाम चमक रहा था—“राघव मेहरा।”
नैना का खून जम गया। “आपका नाम सचमुच उसमें है…”
राघव शांत स्वर में बोला—“तो यही मौका है। अगर वह मुझे मारने आएगा, तो हम उसका असली चेहरा पकड़ेंगे।”
जाल बिछाना
दोनों ने गोदाम में कैमरे और ट्रैप लगाए। घड़ियाँ सेट की गईं, सभी 1:17 दिखा रही थीं।
नैना ने रिकॉर्डर ऑन किया।
“अगर यह हमारी आख़िरी रात हुई, तो यह रेकॉर्ड जनता तक पहुँचेगा।”
राघव ने पिस्तौल लोड की। “आज हम शिकारी बनेंगे।”
1:17 की प्रतीक्षा
धीरे-धीरे सन्नाटा गहराने लगा। घड़ी की सुइयाँ पास आ रही थीं।
नैना की साँसें तेज़ हो गईं। उसने अपने गले में ताबीज कसकर पकड़ा।
राघव ने कहा—“डरो मत। याद रखो, डर को सच से हराना है।”
1:16…
खिड़की के सामने धुंधली परछाई बनने लगी।
1:17…
अचानक शीशा पिघल गया और राहा बाहर आया—लंबा, नक़ाबपोश, हाथों से ठंडी धुएँ की धार निकलती हुई।
टकराव
राघव आगे बढ़ा। “आ जा, राहा! इस बार तेरे लिए कोई खिड़की नहीं। बस सच।”
राहा ने हँसकर कहा—“सच? सच तो वही है जिसे लोग डर में मान लें।”
नैना ने कैमरा सीधा उसकी ओर किया।
राघव ने गोली चलाई। लेकिन इस बार गोली धुएँ को चीरते हुए भीतर नहीं गई—बल्कि राहा की छाती से टकराई। वह चीख़ा।
“तुमने… सच में मुझे छुआ?”
राघव गरजा—“हाँ। क्योंकि हमने अब तुझसे डरना बंद कर दिया।”
असली रूप
राहा का नक़ाब गिरा। चेहरा आधा इंसान, आधा राख। आँखें बुझी हुई आग जैसी।
वह कराहते हुए बोला—“तुम मुझे मिटा नहीं सकते। मैं सत्ता हूँ, मैं डर हूँ। मैं हर आदमी के भीतर हूँ।”
नैना चिल्लाई—“नहीं। तुम बस एक बीमार प्रयोग का नतीजा हो। और यह दुनिया तुम्हें जान जाएगी।”
उसने कैमरा स्क्रीन राघव को दिखाया। रिकॉर्डिंग हो रही थी।
राहा चीख़ा और दीवारों पर धुआँ फैल गया।
अंत का झटका
जैसे ही सब शांत हुआ, वे दोनों खिड़की के सामने खड़े थे। राहा गायब हो चुका था।
लेकिन कैमरे की स्क्रीन पर एक संदेश उभरा—
“यह खेल अभी खत्म नहीं। अगली रात—1:17।”
नैना और राघव ने एक-दूसरे की ओर देखा।
राघव ने धीमे स्वर में कहा—“अब हमें आख़िरी चाल चलनी होगी। वरना यह शहर हमेशा के लिए उसकी कैद में रहेगा।”
एपिसोड 9 : अंतिम योजना
गोदाम की खिड़की से गायब होते धुएँ के बाद भी कमरे में अजीब-सी ठंडक बची रही। नैना और राघव जानते थे—यह खेल आख़िरी पड़ाव पर पहुँचा है।
राघव ने मेज़ पर घड़ी रखी, जिसकी सुइयाँ अभी भी 1:17 पर अटकी थीं।
“कल की रात निर्णायक होगी। या तो हम राहा को ख़त्म करेंगे, या फिर वह हमें।”
नैना ने थके स्वर में कहा—“लेकिन कैसे? गोली भी उसका पूरा अंत नहीं कर सकी। और सिस्टम उसके साथ है।”
राघव ने गहरी साँस ली। “हमें उसके हथियार को ही उसके खिलाफ़ करना होगा—डर को। हमें ऐसा सच उजागर करना होगा जिससे लोग डरें नहीं, बल्कि जागें।”
रहस्य की तह तक
नैना ने डायरी के आख़िरी पन्नों को फिर पढ़ा।
“डर को अमर करने के लिए, उसे हर जगह फैलाना होगा। हर मौत एक पूजा है। और जब दस मौतें पूरी होंगी, तब डर का साम्राज्य स्थायी होगा।”
उसने काँपते हाथ से पन्ना पलटा।
नीचे लिखा था—“दसवाँ नाम – नैना त्रिपाठी।”
नैना का चेहरा पीला पड़ गया।
राघव ने उसकी ओर देखा। “तो यही है। वह तुझे अंतिम बलि बनाना चाहता है। अगर हम उसे रोकना चाहते हैं, तो तुझे उसका सामना करना ही होगा।”
नैना ने आँखें बंद कर लीं। कुछ देर बाद उसने दृढ़ स्वर में कहा—“अगर मेरी जान दाँव पर लगाकर यह शहर बच सकता है, तो मैं तैयार हूँ। लेकिन मैं शिकार नहीं बनूँगी। मैं शिकारिन बनूँगी।”
योजना का खाका
उन्होंने तय किया कि अगली रात उसी तहखाने में लौटेंगे जहाँ से सब शुरू हुआ था।
नैना ने अपने लैपटॉप में लाइव स्ट्रीमिंग सेट की। “जैसे ही वह आएगा, पूरी दुनिया देखेगी। अब न कोई पुलिस रोक सकेगी, न कोई सत्ता। अगर लोग देख लेंगे कि राहा कोई देवता नहीं, बस एक विकृत इंसान है—उसका डर मिट जाएगा।”
राघव ने कहा—“और अगर उसने फिर रिकॉर्डिंग मिटा दी?”
नैना ने हल्की मुस्कान दी। “इस बार बैकअप क्लाउड में जाएगा। उसे सब मिटाने के लिए पूरे इंटरनेट को जलाना होगा।”
रास्ते में धोखा
अगली शाम जब वे कोठी की ओर बढ़ रहे थे, एक काली गाड़ी उनका पीछा करने लगी।
राघव ने शीशे से देखा—दो नक़ाबपोश आदमी।
“ये उसके साथी हैं।”
गाड़ी पीछा करती रही, लेकिन जैसे ही उन्होंने यमुना ब्रिज पार किया, अचानक वह गाड़ी खुद-ब-खुद रुक गई। दोनों आदमी गायब हो चुके थे।
नैना फुसफुसाई—“वह हमें डराने के लिए परछाइयों का इस्तेमाल कर रहा है।”
राघव ने दाँत भींच लिए। “अब डर बेअसर है। हमने उसका चेहरा देख लिया है।”
तहखाने का इंतज़ार
रात बारह बजे वे दोनों तहखाने में पहुँचे।
कैमरे चालू थे, लाइट्स ऑन।
नैना ने अपने गले में ताबीज कसकर पकड़ा।
राघव ने पिस्तौल और एक पुराना टेप रिकॉर्डर सेट किया।
1:15…
हवा भारी होने लगी। दीवारों पर लाल अक्षर उभरने लगे—“1:17।”
नैना ने कैमरे की ओर देखा। “लाइव स्ट्रीम शुरू हो चुका है।”
1:16…
खिड़की से धुआँ रिसने लगा।
राघव ने फुसफुसाया—“अब आ रहा है।”
राहा की वापसी
1:17…
खिड़की पिघली और राहा बाहर आया। चेहरा अब पूरी तरह दिख रहा था—आधा इंसान, आधा राख। आँखें लाल, होंठों पर वही विकृत मुस्कान।
उसने ठंडी आवाज़ में कहा—“नैना त्रिपाठी, स्वागत है। आज तू मेरी दसवीं बलि बनेगी। और डर अमर होगा।”
नैना ने काँपते स्वर में कहा—“आज डर नहीं, सच अमर होगा।”
उसने कैमरे की ओर इशारा किया। “देखो, लाखों लोग यह देख रहे हैं।”
राहा पलटा। स्क्रीन पर खुद का चेहरा देखकर वह चीख उठा।
“नहीं! उन्हें मेरा रूप नहीं देखना चाहिए! मैं परछाईं हूँ, चेहरा नहीं।”
निर्णायक टकराव
राघव आगे बढ़ा। “यही तेरी हार है, राहा। तूने डर को हथियार बनाया, पर सच के सामने डर टिक नहीं सकता।”
उसने टेप रिकॉर्डर ऑन किया। उसमें वर्मा की आवाज़ गूँजने लगी—
“निर्मल राहा इंसान था, एक असफल प्रयोग का हिस्सा। वह देवता नहीं, बस डर का क़ैदी है।”
राहा ज़ोर से चिल्लाया। उसकी परछाईं दीवारों पर फैली, लेकिन स्क्रीन पर सब कुछ रिकॉर्ड हो रहा था।
नैना ने लाइव चैट देखा—लोग लिख रहे थे:
“यह कोई देवता नहीं, यह धोखा है।”
“हम नहीं डरेंगे।”
अंतिम वार
राघव ने गोली चलाई। इस बार राहा लड़खड़ाया।
नैना ने चीखकर कहा—“अब कोई नहीं डरेगा!”
उसने राहा का नक़ाब कैमरे के सामने फेंक दिया।
राहा ने अंतिम बार चीख मारी। उसका शरीर धुएँ में बदल गया। घड़ी की सुइयाँ थम गईं।
दीवार पर लिखा—“1:17”—मिटने लगा।
अंत का झटका
सब कुछ शांत हो गया।
कैमरे की स्क्रीन पर मैसेज उभरा—“लाइव स्ट्रीम सफल।”
लाखों लोग देख चुके थे कि राहा कोई अलौकिक शक्ति नहीं, बल्कि एक बीमार इंसान का विकृत चेहरा था।
नैना और राघव ने थकी मुस्कान दी।
लेकिन तभी तहखाने के कोने से हल्की फुसफुसाहट आई—
“डर कभी नहीं मरता… मैं लौटूँगा।”
दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा।
राघव ने धीमे स्वर में कहा—“अगर वह लौटा, तो हम भी तैयार रहेंगे।”
एपिसोड 10 : आख़िरी घंटा
तहखाने में सब शांत था। घड़ी की सुइयाँ, जो हमेशा 1:17 पर अटक जाती थीं, अब ठहर चुकी थीं। लाइव स्ट्रीम के बाद पूरा शहर हिल गया था। लोग अब जान चुके थे कि निर्मल राहा कोई देवता नहीं, बल्कि एक असफल प्रयोग का विकृत नतीजा था।
लेकिन उस आख़िरी फुसफुसाहट—“डर कभी नहीं मरता”—ने हवा को फिर भारी कर दिया।
सुबह की सुर्ख़ियाँ
अगली सुबह हर अख़बार की हेडलाइन थी—
“राहा का सच उजागर, वैज्ञानिक प्रयोग के नाम पर बीस साल का आतंक।”
सोशल मीडिया पर लाइव स्ट्रीम के क्लिप्स वायरल थे। लोग पहली बार खुलकर कह रहे थे—
“हम डरेंगे नहीं।”
नैना के इनबॉक्स में सैकड़ों मेल आए। कोई उसे ‘साहस की आवाज़’ कह रहा था, कोई ‘सत्य की योद्धा’।
लेकिन राघव अब भी सतर्क था। उसने कहा—“डर कभी पूरी तरह नहीं मिटता। राहा मिटा होगा, लेकिन उसके पीछे खड़ा सिस्टम अब भी ज़िंदा है।”
परतें खुलती रहीं
कमिश्नर अस्पताल में भर्ती था। उसकी गिरफ्तारी तय थी। लेकिन उसने मीडिया के सामने बयान दिया—
“मैं अकेला नहीं था। सरकार के कई बड़े चेहरे इस प्रोजेक्ट में शामिल थे। अगर मैंने नाम लिए, तो देश हिल जाएगा।”
राघव और नैना ने यह खबर सुनी और एक-दूसरे की ओर देखा।
“तो असली खेल अभी बाकी है,” नैना ने धीमे स्वर में कहा।
खिड़की का रहस्य
उस रात नैना अपने घर लौटी। दरवाज़ा खोलते ही उसने देखा—उसके कमरे की खिड़की पर हल्की धुंध जम रही थी।
दिल की धड़कन तेज़ हो गई।
“क्या यह फिर लौट आया?”
उसने धीरे से खिड़की खोली। लेकिन इस बार कोई परछाईं नहीं थी।
सिर्फ़ एक पन्ना पड़ा था, जिस पर लिखा था—
“मैं चला गया। लेकिन डर हमेशा रहेगा। जब भी इंसान झूठ के आगे झुकेगा, मैं लौट आऊँगा।”
नैना की आँखें भीग गईं। उसने पन्ना फाड़कर हवा में उड़ा दिया।
“डर रहेगा, लेकिन हम भी रहेंगे—सच के साथ।”
राघव की जंग
राघव ने पुलिस मुख्यालय में बयान दिया। उसने 1997 के पूरे केस की फाइल सार्वजनिक कर दी।
फाइल में साफ़ लिखा था कि “प्रोजेक्ट मिरर” में कई वैज्ञानिक और अफ़सर शामिल थे, जिनका मक़सद इंसानों के दिमाग़ में डर पैदा करके उन्हें नियंत्रित करना था।
मीडिया ने इसे ‘भारत का सबसे बड़ा काला सच’ कहा। संसद में हंगामा हुआ।
राघव ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा—
“निर्मल राहा मर चुका है। लेकिन जब तक हम डर को हथियार बनाते रहेंगे, कोई न कोई राहा जन्म लेगा। हमारा काम है, सच को सामने रखना, ताकि डर कमजोर हो।”
नैना की किताब
कई महीनों बाद नैना ने एक किताब लिखी—“1:17 – डर की परछाइयाँ”।
उस किताब में उसने पूरी कहानी दर्ज की—राहा की डायरी, खिड़की का रहस्य, और वह आख़िरी लाइव स्ट्रीम जिसने पूरे शहर को बदल दिया।
लॉन्च के दिन सभागार खचाखच भरा था।
नैना ने कहा—
“यह कहानी सिर्फ़ एक आदमी की नहीं, यह उस डर की है जो हमारे भीतर छिपा रहता है। अगर हम सच के साथ खड़े हों, तो कोई राहा हमें कैद नहीं कर सकता।”
तालियाँ गूँज उठीं।
अंत का सन्नाटा
रात को, जब नैना अकेली बैठी थी, उसने घड़ी की ओर देखा।
सुइयाँ धीरे-धीरे 1:17 की ओर बढ़ रही थीं।
दिल थम-सा गया।
लेकिन इस बार घड़ी ने रुकने के बजाय आगे बढ़ना जारी रखा।
टिक-टिक… 1:18…
उसने गहरी साँस छोड़ी। “हाँ, खेल खत्म हो गया।”
राघव और नैना
राघव अब सेवानिवृत्त जीवन जी रहा था, लेकिन लोगों के लिए वह एक हीरो बन गया था।
नैना ने उसे किताब की पहली प्रति दी।
उसने मुस्कराकर कहा—“तुम्हारी कलम ने वह कर दिखाया, जो मेरी बंदूक नहीं कर सकी।”
दोनों ने चुपचाप यमुना के किनारे बैठकर डूबते सूरज को देखा।
और फिर राघव ने धीरे से कहा—
“अगर कभी राहा लौटा, तो हमें भी लौटना होगा।”
नैना ने सिर हिलाया। “हाँ। डर कभी नहीं मरता। लेकिन सच भी अमर है।”
अंतिम मोड़
कहानी खत्म हो चुकी थी।
लेकिन कहीं, किसी अंधेरे कमरे में, एक पुरानी घड़ी अब भी 1:17 पर अटकी थी।
उसके पास एक बच्चा खड़ा था, आँखों में वही चमक, होंठों पर हल्की मुस्कान।
धीरे से उसने फुसफुसाया—
“मैं राहा नहीं हूँ… मैं उसका उत्तराधिकारी हूँ।”
घड़ी की टिक-टिक फिर गूँज उठी।
समापन
				
	

	


