अमिताभ वर्मा
१
बघेलपुर गाँव की दोपहरें अक्सर आलस से भरी होती थीं, लेकिन उस दिन हवेली की मिट्टी में जो निकला, उसने पूरे गाँव को एक अनकहे सन्नाटे में डुबो दिया। ठाकुर हवेली, जो पिछले चालीस सालों से वीरान पड़ी थी, अब नई खरीददारी के बाद मरम्मत के लिए खुली थी। मजदूरों का दल दीवारें तोड़ रहा था, फर्श उखाड़ रहा था, और मलबे से धूल उड़ रही थी। तभी एक कुल्हाड़ी ज़मीन के नीचे किसी सख़्त चीज़ से टकराई — “ठक!” जैसी आवाज़ आई। मजदूर रुक गए। किसी ने कुदाल से थोड़ा और खोदा, तो बाहर निकला एक मानव कंकाल — झुका हुआ, जैसे मिट्टी के भीतर समेटकर रख दिया गया हो। एक हाथ की हड्डी अब भी जमीन के बाहर निकली हुई थी, और उंगलियों में एक पुरानी चांदी की अँगूठी जमी हुई थी। आसपास के लोगों को बुलाया गया, और कुछ ही देर में यह खबर गाँव की चाय की दुकानों से होती हुई पंचायत भवन तक पहुँच गई। प्रधान गोविंद यादव आए, आँखें सिकोड़कर शव को देखा, और धीमे स्वर में बोले, “पुरानी बात है, मिट्टी के नीचे की चीज़ें उखाड़ोगे तो गंध आएगी ही।” लेकिन सोशल मीडिया का ज़माना था, किसी युवक ने फोटो लेकर फेसबुक पर पोस्ट कर दिया — “बघेलपुर की हवेली में मिला नरकंकाल। हत्या या इतिहास?” अगले ही दिन तहसील से पुलिस आई, लेकिन जांच नाममात्र की रही। कागज़ी कार्रवाई में दर्ज हुआ — “प्राचीन अस्थियाँ, संभवतः सांस्कृतिक अवशेष।” गाँव के बुज़ुर्गों ने सिर झुकाकर हामी भरी, लेकिन युवाओं में बेचैनी थी — कुछ तो था जो अब तक छुपा रखा गया था।
एक हफ्ते बाद लखनऊ से आए एक पत्रकार ने इस केस को मीडिया में हवा दी। “क्या बघेलपुर की हवेली में किसी की हत्या हुई थी? क्यों चुप है गाँव?” — इस हेडलाइन के साथ जब न्यूज़ चैनल्स पर बहस छिड़ी, तब राज्य सरकार ने मामले को सीबीआई के हवाले कर दिया। और ऐसे ही, दिल्ली से आए सीबीआई इंस्पेक्टर नीलेश चौहान की इस कहानी में एंट्री हुई। वह तेज़ चाल से चलने वाला, हमेशा गाढ़े रंग का कोट पहनने वाला, और आँखों में जिज्ञासा से ज्यादा प्रश्न रखने वाला अफसर था। बघेलपुर स्टेशन पर उतरते ही उसे ठंडक नहीं, गर्मी लगी — वातावरण में एक अजीब सी गंध थी, जैसे ज़मीन में कुछ गल रहा हो। गाँव के रास्ते में, मिट्टी की दीवारें थीं, खपरैल की छतें थीं, लेकिन हर चेहरा जैसे कुछ कहना चाहता था, पर ज़बानें बंधी हुई थीं। पंचायत भवन में नीलेश की पहली मुलाकात प्रधान गोविंद यादव से हुई। बातचीत औपचारिक थी, पर प्रधान की आँखें जैसे साफ़ नहीं थीं। “हम लोग शांति से रहते हैं साब, यह तो बस पुरानी मिट्टी की बात है,” उन्होंने कहा। नीलेश ने कंकाल की तस्वीरें देखीं, पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट की मांग की, लेकिन फाइल अधूरी थी। गाँव के थानेदार ने कहा, “साब, शायद वो लड़की भाग गई थी सालों पहले, सब लोग जानते हैं, ठाकुर के बेटे के साथ कुछ चक्कर था।” यह “लड़की” कौन थी, ये अब तक कोई स्पष्ट नहीं बता पा रहा था। नाम, उम्र, जाति — सब कुछ धुंधला। पर नीलेश को संदेह हो गया था कि सिर्फ एक कंकाल नहीं, बल्कि पूरा गाँव किसी राज़ को ढो रहा है।
रात में जब वह ठाकुर हवेली का निरीक्षण करने गया, तब हवेली और भी डरावनी लगी — दीवारों पर छिपकली की तरह लिपटे हुए समय के निशान, और खिड़कियों से आती हवा की सीटी। नीलेश ने देखा कि जहाँ कंकाल मिला था, वहाँ अब भी मिट्टी गीली थी। पास में एक टूटी हुई पायल और कुछ काँच के चूड़ियों के टुकड़े भी दबे मिले। अचानक उसे महसूस हुआ कि कोई उसे देख रहा है — पीछे मुड़कर देखा, तो एक अधेड़ उम्र की महिला, घूँघट में, हवेली के बाहर खड़ी थी। वो बिना कुछ कहे चली गई। गाँव के लोगों से पूछने पर पता चला, वो रूबी बाई थी — गाँव के बाहर बने छोटे वेश्यालय की मालकिन, जो सब कुछ देखती थी, सुनती थी, पर कभी कुछ नहीं बोलती। नीलेश की पहली रात बघेलपुर में नींद से खाली रही — हवाओं में कुछ ऐसा था जो उसकी आदत से परे था। और सुबह होते ही वह यह समझ चुका था — यह केस सिर्फ एक हत्या का नहीं है, यह हत्या की चुप्पियों का, दबे हुए प्रेम का, और जातिवादी नफ़रत के ज़हर का भी है, जिसे माटी में दफना तो दिया गया था… पर मिटाया नहीं जा सका।
२
सुबह की चाय लिए नीलेश चौहान पंचायत भवन के बाहर खड़ा था, और उसकी नज़र गाँव की गलियों पर टिकी थी — जैसे वह सड़कें नहीं, कहानियाँ पढ़ रहा हो। पुराने फ़ाइलों के अनुसार, हवेली में मिला कंकाल “तीन से चार दशक पुराना” था। लेकिन उसकी हड्डियों में जो निशान मिले थे, वो किसी साधारण मौत की गवाही नहीं देते थे। स्थानीय पुलिस की रिपोर्ट में लापरवाही स्पष्ट थी — कंकाल के पास मिले टूटी चूड़ियाँ, पायल और अँगूठी को “नारी-सामान्य आभूषण” कहकर रिपोर्ट में दर्ज कर दिया गया था, मानो वे महज मिट्टी में फंसे खजाने के निष्क्रिय हिस्से हों। नीलेश ने तहसील ऑफिस से गाँव की बीते 40 सालों की गुमशुदगी रिपोर्ट मंगाई। फ़ाइलें पन्नों की नहीं, धूल की थीं। और उनमें से एक नाम जैसे उसके हाथों से चिपक गया — “मुक्ता, उम्र 17, जाति – chamar, दिनांक लापता: 5 जुलाई, 1993″। केस दर्ज हुआ था, लेकिन 6 दिन बाद उसे ‘स्वेच्छा से भागने वाला मामला’ मानकर बंद कर दिया गया था। शिकायतकर्ता थे — मुक्ताराम, पिता — जो अब जीवित नहीं थे। और कोई गवाह या शक की बात रिपोर्ट में नहीं थी। नीलेश ने तहकीकात तेज़ करने के लिए गाँव के पुराने लोगों से बात करना शुरू किया। हर किसी की आँखों में एक चौंकता हुआ डर था — जैसे “मुक्ता” नाम एक भूत की तरह लौट आया हो। एक बुजुर्ग ने धीरे से कहा, “साहब, लड़की सुंदर थी… ज़्यादा सुंदर। ठाकुर साहब के लड़के से बात करने लगी थी। हम तो पहले ही बोले थे, यह जात-पात का गाँव है।”
शाम को नीलेश बघेलपुर के प्राथमिक विद्यालय में गया, जो अब टूटा-फूटा था। वहाँ के सेवानिवृत्त मास्टर मिश्रा जी अब भी गाँव में रहते थे। उन्होंने ही बताया कि मुक्ता पढ़ाई में तेज़ थी, लेकिन जब उसने ठाकुर हवेली में काम पकड़ लिया, तो गाँव ने उसका बहिष्कार शुरू कर दिया था। “उसने ठाकुर के बेटे रघुवीर के लिए पानी लाना शुरू किया था, फिर चिट्ठियाँ चलने लगीं,” मिश्रा जी ने सिर झुकाकर कहा। “रघुवीर को गाँव में कोई देखे हुए भी दो दशक हो गया है साहब… कहते हैं शहर चला गया।” ये बात नीलेश को चुभी — अगर दोनों गाँव से लापता हुए थे, तो सिर्फ मुक्ता का नाम क्यों दर्ज हुआ? और रघुवीर का कोई जिक्र क्यों नहीं? उसी रात नीलेश ने थाने के पुराने रिकॉर्ड खंगाले — रघुवीर का नाम किसी भी गुमशुदा या अपराध रिपोर्ट में नहीं था। लेकिन गाँव में सबको मालूम था कि वह अब यहाँ नहीं है। और हर किसी का एक ही जवाब था, “शहर गया होगा साहब, उसे क्या कमी थी?” बात कुछ जम नहीं रही थी। क्योंकि अगर वह स्वेच्छा से गया होता, तो उसका कोई सरकारी पता, रजिस्ट्रेशन या निकासी क्यों नहीं था?
नीलेश ने अपने दिल्ली मुख्यालय को एक मेल भेजा — रघुवीर ठाकुर के पैन, आधार, ट्रेवल, और बैंक डिटेल्स खंगालने का आदेश। वहीं, रात में वो ठाकुर हवेली के उस कमरे में गया जहाँ मुक्ता का कंकाल मिला था। उसने एक बार फिर टॉर्च की रोशनी से ज़मीन को देखा — दीवार के पास एक छोटा सा खोखला लगा, जैसे किसी ने एक गड्ढा खोदकर फिर ढंक दिया हो। खुदाई करवाई गई, तो मिट्टी में दबा एक पुराना टीन का डिब्बा मिला — अंदर रखी थीं तीन चिट्ठियाँ, दो प्रेम गीतों की पंक्तियाँ, और एक फोटो — रघुवीर और मुक्ता, एक साथ तालाब किनारे खड़े, मुस्कुराते हुए। ये चिट्ठियाँ किसी साजिश की नहीं, एक प्रेम कहानी की थीं — लेकिन अंत में एक वाक्य नीलेश को भीतर तक हिला गया: “अगर हमें साथ मरना भी पड़ा, तो ये हवेली हमारी गवाह बनेगी।” प्रेमी जोड़े अक्सर यह कहते हैं — लेकिन अगर मुक्ता का कंकाल यहाँ मिला… तो रघुवीर कहाँ है? ज़िंदा? या वो भी माटी में दफन है — पर किसी और जगह?
३
नीलेश चौहान की उंगलियाँ बार-बार वही चिट्ठियाँ पलट रही थीं — मुक्ता और रघुवीर की प्रेमकथाएं, जिन्हें हवेली की मिट्टी निगल गई थी। उसने महसूस किया कि अब यह मामला सिर्फ एक कंकाल या गुमशुदगी का नहीं रहा — यह एक पूरी प्रेमकथा की हत्या थी, जिसे गाँव की जातिवादी सोच ने धीरे-धीरे गला घोंट कर दफना दिया था। मगर फिर भी एक चीज़ अब तक अधूरी थी — मुक्ता की आखिरी उपस्थिति, वह कहाँ गई थी, किससे मिली थी, क्या किसी ने देखा था? अगली सुबह नीलेश ने गाँव के सरकारी अस्पताल की ओर रुख किया, जहाँ 90 के दशक की कुछ रजिस्टर अब भी सुरक्षित थे। dusty shelves, faded ink — मगर फाइलें थीं। तारीख के अनुसार खोजने पर पता चला कि मुक्ता 5 जुलाई 1993 को सुबह अस्पताल आई थी — पेट में दर्द की शिकायत लेकर। उस दिन की प्रविष्टि के सामने डॉक्टर का नाम था — डॉ. अच्युत चक्रवर्ती। यह नाम नया था, और तुरंत नीलेश ने गांव में पूछताछ शुरू की। कई लोग हिचकिचाए, लेकिन अंततः किसी ने बताया कि डॉ. चक्रवर्ती अब गाँव के बाहर तालाब किनारे एक टूटे-फूटे घर में अकेले रहते हैं। “दिमाग थोड़ा… ठीक नहीं,” कहा गया। जब नीलेश वहाँ पहुँचा, तो सामने एक बूढ़ा आदमी बैठा था — एक पुरानी सिलाई मशीन के ढक्कन से बनी टेबल पर हाथ रखे, और शून्य में देखते हुए। नीलेश ने नाम पूछा, तो जवाब नहीं मिला। उसने धीरे से पूछा, “क्या आप जानते हैं, मुक्ता नाम की लड़की को?” बूढ़े के होंठ कांपे, लेकिन ज़ुबान नहीं हिली। उसकी आँखें चौंक उठीं, और शरीर काँपने लगा, जैसे कोई बंद दरवाज़ा भीतर से ज़ोर-ज़ोर से खटखटा रहा हो।
नीलेश ने उस दिन डॉक्टर के सामने कुछ नहीं कहा, सिर्फ उसकी झोपड़ी से लौटते वक़्त नोट किया कि दरवाज़े के भीतर एक कोना साफ़ सिला हुआ था — मानो वहाँ कोई बार-बार बैठकर कुछ लिखता हो। वापस लौटते ही नीलेश ने सीबीआई कार्यालय को चिट्ठियाँ भेजीं, डीएनए टेस्ट की प्रक्रिया तेज़ की और साथ ही सरकारी रिकॉर्ड के माध्यम से डॉ. चक्रवर्ती के अतीत को खंगालना शुरू किया। 1980 से 1994 तक वह बघेलपुर का सरकारी डॉक्टर था, फिर अचानक नौकरी छोड़ दी — कारण: “मानसिक अस्थिरता और अवसाद” लिखा गया था। कोई आपराधिक केस दर्ज नहीं था, लेकिन एक कर्मचारी ने गुप्त रूप से बताया कि “1993 में एक बड़ी घटना के बाद डॉक्टर बदल गए थे। उस दिन कोई लड़की मर गई थी शायद।” नीलेश को समझ में आने लगा कि डॉक्टर कुछ जानते हैं — पर या तो बोल नहीं सकते या बोलना नहीं चाहते। उस रात नीलेश ने मुक्ता के घर के पुराने खंडहर पर जाकर देखा — दीवारें ढह चुकी थीं, लेकिन पीछे की दीवार पर एक नाम अब भी उकेरा था — “R – M”। यह प्रेम कोई छुपा हुआ रहस्य नहीं था, यह तो सबको पता था। तो फिर सबने क्यों चुप्पी साधी? प्रेम करने पर कोई लड़की ऐसे अचानक “भाग” कैसे सकती है, और फिर उसका शव हवेली की ज़मीन से निकले — इतने वर्षों बाद?
जैसे-जैसे रात गहराई, नीलेश की बेचैनी बढ़ी। उसने डॉ. चक्रवर्ती के पास दोबारा जाने का फैसला किया। इस बार वह अकेले नहीं, एक सादे कपड़ों में जवान महिला कांस्टेबल के साथ गया — जो “मुक्ता की बहन” बनकर उसके सामने बैठी। डॉक्टर को देखकर उस महिला ने कहा — “डॉक्टर साहब, मेरी बहन कहाँ है?” यह सुनते ही बूढ़े डॉक्टर की आँखों से आँसू निकलने लगे। वो कांपते हाथों से एक कागज़ पर कुछ लिखने लगे — टूटी, अधूरी लिखाई में सिर्फ एक वाक्य लिखा — “मैंने नहीं मारा, पर जानता हूँ किसने मारा।” यह वाक्य नीलेश के लिए पर्याप्त था — किसी गवाह की पहली कबूलनामा जैसी चीज़। उसने डॉक्टर से पूछा, “क्या आप बता सकते हैं?” जवाब में डॉक्टर ने सिर हिलाया — धीरे, थका हुआ, जैसे वर्षों की नींद के बाद पहली बार कोई सपना बोल रहा हो। लेकिन तभी उसकी तबीयत बिगड़ने लगी — कांपते हुए उसने एक ड्रॉअर की ओर इशारा किया। उसमें एक पुराना लिफाफा था — जिस पर लिखा था: “यदि कभी मुक्ता का ज़िक्र हो, तो यह चिट्ठी खोलना।” नीलेश ने चिट्ठी ली, और घर लौटकर पढ़ी — उसमें डॉक्टर ने विस्तार से लिखा था कि मुक्ता गर्भवती थी, रघुवीर से शादी करना चाहती थी, लेकिन पंचायत को जब यह बात पता चली, तो उन्हें अलग कर दिया गया। मुक्ता को ज़बरदस्ती अस्पताल लाया गया, जहां ‘गर्भपात’ की प्रक्रिया के लिए दबाव डाला गया। मुक्ता चीख़ती रही — और उसी रात से वह गायब हो गई। डॉक्टर ने लिखा — “मैंने उसे जिंदा देखा था, मगर अगली सुबह वह नहीं थी। मुझे चुप रहने को कहा गया। और मैं… डर गया।”
४
बघेलपुर की रातें अजीब थीं — ना शांत, ना ही अशांत, बस एक अजीब किस्म की ‘खाली गूंज’ से भरी। नीलेश चौहान अब तक कई केस देख चुका था — तिहाड़ से लेकर तिब्बती सीमा तक — लेकिन यह गाँव कुछ अलग था। यहाँ अपराध खामोश था, और गुनहगार भी। डॉक्टर चक्रवर्ती की चिट्ठी ने जैसे हवा का रुख बदल दिया था। नीलेश के दिमाग में अब यह स्पष्ट हो चुका था कि मुक्ता की मौत एक सुनियोजित सामाजिक अपराध थी — पंचायत की आड़ में की गई ‘इज्ज़त की हत्या’। लेकिन अब भी रघुवीर का कोई सुराग नहीं था, और न ही उस रात के प्रत्यक्षदर्शी का। उस रात नीलेश ने तय किया कि वह खुद ठाकुर हवेली में रात बिताएगा — शायद वो दीवारें कुछ बोलें, जो ज़ुबानें नहीं बोल सकीं। उसने स्थानीय चौकीदार से चाबी ली, हवेली के अंदर एक टॉर्च और एक पुरानी फ़ाइल लेकर चला गया। चारों ओर सन्नाटा था — दरारों से हवा निकल रही थी, जैसे कोई सांस ले रहा हो। हवेली के जिस कमरे से मुक्ता का कंकाल मिला था, वहाँ अब सफाई हो चुकी थी, लेकिन ज़मीन में एक गीलापन अब भी बना हुआ था, जैसे यादों की नमी सूखती नहीं।
नीलेश बैठ गया — चुपचाप। पास में रिकॉर्डर रखा, और फ़ाइलें पलटने लगा। अचानक, करीब रात के ढाई बजे, एक हल्की आवाज़ सुनाई दी — जैसे कोई औरत धीरे-धीरे सिसक रही हो। वह चौंका, लेकिन बाहर कोई नहीं था। वह दरवाज़ा खोलकर हवेली की छत की ओर गया, जहां चंद्रमा की रोशनी छत की धूल पर दूधिया परत बिछा रही थी। तभी, पीछे से फिर वही आवाज़ — इस बार थोड़ी स्पष्ट — “रघु… रघु… छोड़ दो ना…” नीलेश का शरीर सिहर गया। यह कोई हवा नहीं थी — यह आवाज़ इंसानी थी, टूटी हुई, जैसे किसी की आत्मा की आखिरी पुकार। उसने तुरंत टॉर्च उठाया, पर छत पर कोई नहीं था। वह नीचे आया और हवेली के पश्चिमी कोने की ओर बढ़ा — जो गांव वालों के अनुसार “वर्जित” माना जाता था। वहां की दीवारें धंसी हुई थीं, और एक दरवाज़ा भीतर से बंद था। उसने उस दरवाज़े को धक्का दिया — अंदर एक छोटा सा कोठरी था, जिसमें पुरानी चारपाई, एक संदूक और ढेर सारी जली हुई लकड़ियाँ थीं। लकड़ियों की राख अब भी उस कोने में बिखरी थी — मानो कुछ जलाया गया हो। उसने राख को कुरेदकर देखा — उसमें कुछ अधजले काग़ज़ मिले। एक पर मुक्ता का नाम अधूरी स्याही में लिखा था — “मुक्ता ठाकुर…”। यह अधूरा नाम उस नाम की तरह था जो कभी पूरा नहीं हो सका।
नीलेश लौटकर गाँव के कुछ बुज़ुर्गों से बात करने गया। इस बार वह सीधे सवालों के साथ आया — “आप लोग मुक्ता को जानते थे। आप जानते थे कि वो और रघुवीर एक-दूसरे से प्रेम करते थे। तो फिर आप सबने क्या किया जब वो गायब हो गई?” एक बूढ़ा आदमी, जिसे सब ‘धरम पंडित’ कहते थे, बहुत देर तक चुप रहा, फिर बोला — “हमने… देखा था साहब। पर हम क्या करते? पंचायत ने कह दिया था — ‘यह इज्ज़त का मामला है।’ रघुवीर ठाकुर खुद पंचायत के सामने गिर पड़ा था, मगर उन्हें कोई माफ़ी नहीं मिली।” नीलेश ने पूछा, “फिर क्या हुआ?” जवाब में पंडित ने सिर्फ इतना कहा — “रात को हवेली में गाड़ी आई थी… फिर आग जलाई गई… और सब शांत हो गया।” यह बयान उस अधजली राख की पुष्टि करता था — शायद उस रात मुक्ता को ज़िंदा या मृत जलाया गया था। लेकिन फिर रघुवीर? वह कहाँ गया? पंडित ने एक और बात कही — “अगली सुबह वो भी गायब था… ठाकुर साहब ने कहा, शहर पढ़ाई के लिए भेजा है… मगर हमें अब भी यकीन नहीं होता।” नीलेश समझ गया था कि यह मामला हत्या से कहीं ज़्यादा था — यह साज़िश थी, जिसमें पूरा गाँव शामिल था, ख़ामोश भागीदार की तरह। हवेली की दीवारें उस रात रोई थीं — और शायद अब भी रो रही थीं। उन्हें बस कोई सुनने वाला चाहिए था।
५
बघेलपुर की पंचायत कभी भी सिर्फ गाँव चलाने वाली इकाई नहीं रही थी — वो थी एक अघोषित अदालत, जहाँ फैसले दिये नहीं जाते थे, बल्कि थोपे जाते थे। और जो सिर झुकाता नहीं था, उसका गर्दन मोड़ दिया जाता था — कभी सामाजिक बहिष्कार से, कभी आग से। नीलेश चौहान ने अब तक जो जोड़ा था, वह सिर्फ इशारे थे — अब उसे ठोस सबूत चाहिए था। उसकी अगली जांच का केंद्र बनी पंचायत की फाइलें — पिछले चार दशक के सभी रिकॉर्ड, बैठक की कार्यवाहियाँ, विवाद निपटारे और बहिष्कार के आदेश। तहसील से इन्हें मंगवाया गया, और नीलेश ने धीरे-धीरे एक पैटर्न देखा — हर साल एक या दो दलित परिवार “ग़ायब” हुए थे, या फिर अचानक गाँव छोड़कर चले गए थे। रिपोर्टों में लिखा होता — “समाजविरोधी गतिविधियों के कारण।” मुक्ता का नाम उसमें नहीं था, लेकिन 1993 की जुलाई की बैठक में एक विशेष एंट्री थी — “एकल जाति मिलन एवं जातीय अपवित्रता के आरोप में अनुशासनिक पंचायत सत्र का आयोजन।” यह वही तारीख थी जब मुक्ता लापता हुई थी। उसी दस्तावेज़ में लिखा था — “दोषी पक्ष को सामाजिक शुद्धि की प्रक्रिया के अनुसार गाँव से बाहर करने का आदेश पारित।” किसी का नाम नहीं लिखा गया था, पर यह “शुद्धि” शब्द नीलेश के गले में अटक गया। पंचायत अध्यक्ष तब गोविंद यादव ही थे — वही जो आज भी इस पद पर काबिज हैं।
नीलेश ने जब ये सवाल प्रधान गोविंद यादव के सामने रखे, तो वह कुछ पल के लिए ठहर गए, फिर मुस्कुरा कर बोले — “साहब, वो पुराने ज़माने की बात है। तब गाँव की रीत अलग थी। इज्ज़त के नाम पर जो करना पड़ा, किया गया।” नीलेश ने पूछा, “क्या इज्ज़त बचाने के लिए किसी की जान लेना भी ज़ायज है?” गोविंद का चेहरा थोड़ी देर के लिए सख्त हुआ, फिर नरम — “हमने किसी को नहीं मारा साहब। बस समझाया, कि कुछ रिश्ते इस धरती पर नहीं चल सकते।” यही जवाब था जो बघेलपुर के हर दरवाज़े पर लटका था — “हमने कुछ नहीं किया, बस चुप रहे।” नीलेश को यकीन था कि पंचायत की बैठक में किसी ने सब कुछ देखा था, और शायद आज भी ज़िंदा है। उसने उन सदस्यों की सूची निकाली जो 1993 की पंचायत का हिस्सा थे — कुल सात लोग। उनमें से चार अब मर चुके थे, दो बाहर चले गए, लेकिन एक नाम अब भी वहीं मौजूद था — धरम पंडित। वही जिसने पिछली रात संकेत दिया था। नीलेश ने धरम पंडित को सीधा बुलाकर कहा, “अगर आप आज नहीं बोले, तो कल जब कोई और मर जाएगा, आप उसे भी अपनी चुप्पी से मारेंगे।” बूढ़े ने कांपते हाथों से अपना माथा पकड़ा और बोला — “हमने ग़लती की साहब… बहुत बड़ी ग़लती…”
धरम पंडित की बातों ने पहली बार वह रात शब्दों में खोली — “रघुवीर ठाकुर पंचायत के सामने रो पड़ा था। कहता था, वो मुक्ता से शादी करेगा। वो ठाकुर होकर जाति की परवाह नहीं करता था। मगर ठाकुर साहब, उसके पिता, भड़क उठे। ‘हमारी रगों में खून बहता है, कीचड़ नहीं,’ बोले। उसी रात मुक्ता को हवेली बुलाया गया। पंचायत के पाँच लोग वहाँ मौजूद थे। उसे गर्भवती बताकर लज्जित किया गया। उसने साफ़ कहा — ‘मैं रघु के बच्चे को जन्म दूँगी।’ फिर ठाकुर ने कहा, ‘तो जिंदा नहीं छोड़ा जाएगा।’ हम सब डर गए। और फिर… किसी ने चुपचाप उसका गला घोंट दिया।” नीलेश ने पूछा, “किसने?” पंडित ने कहा, “मैंने नहीं देखा, साहब। लेकिन एक ही आदमी था जिसने मुँह ढंका हुआ था — वही जिसने चिट्ठियाँ जलाईं, और शव को हवेली के पश्चिमी कोने में गाड़ दिया।” यह विवरण उस जगह से मेल खाता था जहां राख मिली थी। “और रघुवीर?” नीलेश ने पूछा। धरम पंडित का चेहरा और भी सफेद पड़ गया — “रघुवीर को बंद कर दिया गया था। दूसरे दिन वह भी गायब था। ठाकुर साहब ने कहा, ‘शहर भेज दिया।’ लेकिन मुझे नहीं लगता, वो ज़िंदा गया।” पहली बार यह अनुमान नहीं, बल्कि पुष्टि की ओर बढ़ता इशारा था कि रघुवीर भी मारा गया था। दो प्रेमी — एक गाँव की ‘इज्ज़त’ की बलि चढ़ गए थे। और पंचायत अब तक इज्ज़त का पवित्र नक़ाब ओढ़े बैठी थी। नीलेश जानता था कि अब लड़ाई सिर पर आ चुकी थी — और उसे अगला कदम उस हवेली की दीवारों से आगे बढ़कर शवों के गुमनाम साए तक ले जाना था।
६
ठाकुर हवेली की दीवारें अब नीलेश चौहान के लिए केवल ईंट और मिट्टी नहीं थीं — वे अपराध के दस्तावेज़ थीं, जिन पर वक़्त ने खून, प्रेम और साज़िश की परतें चढ़ा दी थीं। पंचायत के पुराने सदस्य धरम पंडित की गवाही ने मामले को एक निर्णायक दिशा दे दी थी, लेकिन अब भी सबसे बड़ा प्रश्न अधूरा था — रघुवीर कहाँ है? यदि वह भी उस रात हवेली में बंद किया गया था, तो क्या वह भी उसी माटी का हिस्सा बन चुका है जिसमें मुक्ता मिली थी? या फिर कहीं और दफन? ठाकुर हवेली से जुड़े पुराने नक्शे और संपत्ति के दस्तावेज़ों को निकलवाकर नीलेश ने उन क्षेत्रों की पहचान की जो सालों से बंद थे — एक पुरानी गौशाला, पीछे की परित्यक्त हवेली, और सबसे अहम — एक सूखा कुआँ, जिसे ठाकुरों ने वर्षों पहले सील करवा दिया था। जब नीलेश उस कुएँ के पास पहुँचा, तो वहाँ कोई ईंट की गोल दीवार नहीं थी — बस मिट्टी में उभरी एक गोल सीमेंट की पट्टी, जैसे किसी ज़ख़्म को बेमेल तरीके से ढंक दिया गया हो।
नीलेश ने खुदाई के आदेश दिए। गांव के लोग डर से पीछे हटे — “साहब, वो कुआँ अशुभ है, उस रात के बाद ही बंद हुआ था,” किसी ने फुसफुसाकर कहा। मगर नीलेश चुपचाप खड़ा रहा, जैसे सच को खुद अपनी आँखों से बाहर आता देखना चाहता हो। खुदाई शुरू हुई — एक घंटे तक मिट्टी निकली, फिर ईंटों की परत। और अंततः, एक नरकंकाल का ऊपरी हिस्सा दिखा — कंधे झुके हुए, एक हाथ पीछे मुड़ा हुआ, और गले में अब भी एक टूटी हुई लॉकेट की चेन फँसी हुई। लॉकेट पर जंग लगा था, पर एक तरफ ‘M’ और दूसरी तरफ ‘R’ खुदा हुआ था। डीएनए टेस्ट की पुष्टि आने में वक्त था, लेकिन नीलेश जान चुका था — यह रघुवीर ठाकुर ही था। उसके कंकाल की स्थिति बताती थी कि उसे बाँधकर कुएँ में फेंका गया था — शायद ज़िंदा, या अधमरा। ये हत्या प्रेम के नाम पर नहीं, “सम्मान की रक्षा” के नाम पर की गई थी। ठाकुर परिवार के उस ज़माने के मुखिया — रघुवीर के पिता — अब इस दुनिया में नहीं थे, लेकिन पंचायत के मौन सहमति और गाँव की चुप्पी ने यह तय कर दिया था कि कोई आवाज़ उठती, उससे पहले मिटा दी जाती।
नीलेश ने रघुवीर की हड्डियाँ, लॉकेट और अन्य अवशेष जब्त करवाए, और एक विशेष प्रेस कॉन्फ्रेंस की तैयारी शुरू कर दी। मगर इससे पहले उसने गाँव के स्कूल में जाकर बच्चों को देखा — खेलते हुए, हँसते हुए। उसकी नज़र एक लड़की पर पड़ी — उसकी आँखें मुक्ता जैसी थीं। तभी नीलेश को एहसास हुआ, कि ये कहानी किसी रघुवीर या मुक्ता की नहीं थी — यह हर उस प्रेम की थी जो जाति, रिवाज़ और झूठी इज्ज़त के नीचे कुचला जाता है। शाम को जब वह ठाकुर हवेली लौटा, तो सूरज ढल रहा था। हवेली की परछाइयों में अब कोई डर नहीं था — बल्कि जैसे कोई हल्की, सधी हुई शांति थी। उसने रघुवीर और मुक्ता की चिट्ठियाँ उसी कमरे में रखीं, जहाँ वे कभी साथ बैठे होंगे। फिर एक बार मुड़कर देखा — दीवार की दरारों से अब भी रोशनी छन रही थी, और हवा में वो सिसकी अब नहीं थी… शायद हवेली को अब चुप रहना नहीं पड़ रहा था।
७
बघेलपुर गाँव के बाहर, पीपल के नीचे खड़े दो खंभों के बीच एक छोटा सा नीला बोर्ड झूलता था — “कुसुम निवास”, लेकिन गाँव वाले इसे जानते थे एक और नाम से: “रूबी का कोठा।” वर्षों से यह जगह गाँव के नैतिक नक़्शे से बहिष्कृत रही थी, लेकिन हर राज, हर फुसफुसाहट, हर मर्द की शर्म वहीं आकर गिरती थी — चुपचाप, अधूरी। नीलेश को पता था कि अगर कोई था जो उस रात की परछाइयों में मौजूद था, वो थी रूबी बाई। लेकिन उससे बात करना आसान नहीं था — वह किसी पुलिस से नहीं डरती थी, लेकिन किसी पर भरोसा भी नहीं करती थी। कई बार बुलावा भेजने के बाद भी वह नहीं आई। आखिरकार नीलेश खुद उसके कोठे पर गया — वहाँ की दीवारें गुलाबी थीं, लेकिन वहाँ की हवा में कोई इश्क़ नहीं, बस पुराना दर्द लटका हुआ था। रूबी बाई आई — लाल साड़ी, बालों में गजरा, पर चेहरा थका हुआ। नीलेश ने कहा, “आपको कुछ कहना है, मुझे पता है। जो आपने देखा, अब वक्त है कहने का।” वह हँसी — एक सूखी हँसी, जो ज़िंदगी से नहीं, धूल से उठती है। “मैंने बहुत कुछ देखा है साहब… पर देखना आसान है, बोलना नहीं,” उसने कहा। “उस रात हवेली से चीखें आई थीं। और मैं जानती हूँ, मुक्ता की मौत प्यार की नहीं, ‘पैसे और पितृसत्ता’ की मिलीभगत थी।”
नीलेश ने पूछा, “क्या आप हवेली के पास थीं?” रूबी ने चुपचाप अपनी चूड़ियाँ खनकाईं, जैसे वह आवाज़ें उसकी यादें झाड़ रही हों। फिर बोली, “रात थी… आधी। मैं अपने कमरे में थी। लेकिन मेरी खिड़की से हवेली की पृष्ठभूमि साफ दिखती है। मैंने देखा था — दो बैलगाड़ियाँ आई थीं। एक में रघुवीर को बाँधकर लाया गया, दूसरी में कोई गठरी थी — बाद में समझ आया, वो मुक्ता थी। उन्होंने दोनों को अलग-अलग कमरे में रखा। फिर एक-एक करके पाँच लोग आए — पंचायत के लोग।” नीलेश ने बीच में टोका, “क्या आप पहचान सकती हैं?” रूबी बोली, “पहचानती हूँ… पर बोलूंगी तब, जब मेरा सच भी सुना जाएगा।” नीलेश ने गारंटी दी कि उसकी सुरक्षा सुनिश्चित की जाएगी। फिर उसने कहा, “रघुवीर की आवाज़ आई थी — ‘मैं शादी करूँगा उससे, चाहे मर जाऊँ।’ लेकिन जवाब में थप्पड़ की आवाज़ आई। फिर मुक्ता की चीख़… फिर कुछ देर सन्नाटा… और फिर… धुआँ।” रूबी की आँखों से अब आँसू बह रहे थे, पर उसने उन्हें पोछा नहीं। “मैंने देखा था कि एक आदमी गड्ढा खोद रहा था… हवेली के पश्चिमी कोने में। और फिर… वो गठरी वहीं गाड़ दी गई। रघुवीर को बाद में कुएँ की ओर ले गए।”
रूबी की गवाही अब इस केस की सबसे अहम कड़ी थी — पहली बार किसी ने नाम नहीं, पर चेहरों को, हरकतों को देखा था। लेकिन अगले ही दिन सुबह, जब नीलेश उसे दोबारा बयान के लिए बुलाने गया, तो गाँव में खबर फैल चुकी थी — “रूबी बाई की लाश कुएँ में मिली है।” वही कुआँ — जो माटी की कब्र बन चुका था। ग्रामीणों ने कहा, “आत्महत्या है साहब… वो औरत खुद ही परेशान रहती थी।” लेकिन नीलेश जानता था — यह चुप्पी की आखिरी आवाज़ थी, जिसे मार दिया गया था। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में ज़हर के संकेत मिले, लेकिन यह तय नहीं हो सका कि ज़हर कैसे पहुँचा। नीलेश की रिपोर्ट में यह साफ लिखा गया: “प्राकृतिक मृत्यु नहीं, संभावित दबाव में आत्महत्या या हत्या।” अब वह पूरी तरह आश्वस्त था कि यह गाँव खुद को ‘संस्कृति’ की चादर में ढाँपकर एक श्मशान बना चुका है। एक-एक कर वे सब मारे गए जो सच बोलना चाहते थे। लेकिन नीलेश ने हार नहीं मानी। उसने रूबी की रिकॉर्डेड गवाही और डॉक्टर चक्रवर्ती की चिट्ठी एक साथ सीबीआई हेडक्वार्टर भेजी, और PCA (Protection of Community Witnesses) के अंतर्गत पूरे गाँव की पंचायत के पुराने सदस्यों के खिलाफ FIR दर्ज करवाई। हवेली, कुआँ और पंचायत — तीनों अब सबूत बन चुके थे। और रूबी बाई — जो इस कहानी की अदृश्य सूत्रधार थी — अब उस मिट्टी में शामिल हो चुकी थी, जहाँ इश्क़, इज़्ज़त और इंसाफ़ तीनों गुम थे।
८
रूबी बाई की मौत के बाद बघेलपुर में एक असहज शांति पसर गई थी, जैसे किसी ने हवाओं को डर के साथ बाँध दिया हो। नीलेश चौहान ने यह समझ लिया था कि अब यह मामला सिर्फ हत्या या जातिगत अन्याय का नहीं रहा — यह एक ऐसी सामूहिक साज़िश थी, जो दशकों तक समय और परंपरा की ढाल में छुपती रही। सीबीआई की टीम अब पूरी तरह से सक्रिय हो चुकी थी। मगर नीलेश जानता था कि आखिरी चोट तब लगेगी, जब कागज़ी सबूत — वो चुप दस्तावेज़ जो हर पंचायत, हर जमींदारी लेनदेन, और हर ‘इज्ज़त बचाओ अभियान’ की परतों में दबे हुए थे — उजागर होंगे। उसने स्थानीय सब-रजिस्ट्रार ऑफिस और तहसील के रिकॉर्ड कक्षों में 1990 से 1995 तक की ठाकुर परिवार से जुड़ी हर ज़मीन, संपत्ति, और कानूनी दस्तावेज़ों को निकलवाया। और वहाँ उसे मिला — एक हस्तलिखित वसीयतनामा — ठाकुर सरजू सिंह (रघुवीर के पिता) का, जिसमें लिखा था: “यदि मेरा पुत्र रघुवीर इस वंश के नियमों के विरुद्ध विवाह करता है, तो उसे उत्तराधिकार से वंचित किया जाएगा और उसका वध ‘कुल-संरक्षण’ की प्रक्रिया अनुसार होगा।” यह वाक्य अब कानूनी भाषा में नहीं, हत्या की सज़ा का दस्तावेज़ बन चुका था।
उसी दिन नीलेश को हवेली के संदूक में बंद एक और फाइल मिली — जिसमें रघुवीर की लिखी चिट्ठियाँ थीं, जिन्हें शायद जला देने की योजना थी, मगर बच गईं। इनमें एक चिट्ठी ने नीलेश को जड़ से हिला दिया — रघुवीर ने पंचायत के आदेश के बाद भी ठाकुर हवेली में ही रहकर मुक्ता के साथ भागने की योजना बनाई थी। वह लिखता है: “मैंने तहसील से नकली कागज़ बनवा लिए हैं। हम लखनऊ में शादी करेंगे। मैं नाम बदल दूँगा, मुक्ता भी। हवेली से बस दो रात बाद निकलेंगे।” मगर वह दो रात कभी नहीं आई। ठाकुर सरजू सिंह को यह योजना पता चल चुकी थी। और संभवतः, उन्होंने पंचायत की सहमति से पहले मुक्ता को हवेली बुलवाया — और फिर वही हुआ, जो रूबी ने देखा था। उन चिट्ठियों में एक खास पंक्ति बार-बार दोहराई गई थी — “हमारा प्रेम कोई गलती नहीं, तुम्हारा डर है क़सूर।” अब यह डर, यह भय — जो जाति, परंपरा और पुरुष सत्ता का था — एक ही बार में न्याय के कटघरे में आ खड़ा हुआ था। नीलेश ने इन चिट्ठियों को केस डायरी में सबूत के तौर पर जोड़ा, और साथ ही एक पुराने राजस्व अधिकारी को भी बुलवाया — जिसने 1993 में रघुवीर की हस्ताक्षर युक्त ज़मीन ट्रांसफर पर गवाही दी थी। वह अधिकारी अब रिटायर्ड था, पर स्पष्ट बोला — “हमसे जबरन दस्तख़त करवाए गए थे… रघुवीर को कभी नहीं देखा मैंने उस दिन। फाइलें लाई गईं और ‘ताकीद’ की गई।”
इस खुलासे के बाद केस की तस्वीर पूरी हो चुकी थी — रघुवीर को ज़िंदा समझकर उसकी संपत्ति हथिया ली गई थी, और पंचायत ने मुक्ता की मौत को ‘भागने’ का रूप देकर उसे मिटा दिया था। नीलेश ने इस पूरे केस को अब “Institutionalized Honor Killing and Property Fraud under Customary Shield” के तहत रिपोर्ट किया। ठाकुर परिवार के बचे हुए सदस्य — जिनमें सरजू सिंह के भतीजे भी शामिल थे — को गिरफ्तार किया गया। और सबसे पहले गोविंद यादव — वर्तमान पंचायत अध्यक्ष — को हिरासत में लिया गया, जिसने हर सवाल के जवाब में कहा था, “हमने कुछ नहीं किया।” नीलेश ने अपनी रिपोर्ट में आखिरी पंक्ति में लिखा — “यह मामला सिर्फ एक प्रेम कहानी का अंत नहीं, एक सामाजिक पाप का दस्तावेज़ है। मुक्ता और रघुवीर को मारा नहीं गया, उन्हें मिटा दिया गया। लेकिन मिट्टी भी एक दिन बोलती है।” बघेलपुर में अब हवेली सील कर दी गई थी, कुआँ सुरक्षा घेरे में था, और पंचायत का मंच अब खाली था — शायद पहली बार वहाँ सिर्फ सच की आवाज़ गूँजती थी।
९
बघेलपुर अब पहले जैसा नहीं रहा था। हवेली की दीवारें खामोश थीं, लेकिन पहली बार उनके भीतर दबे सच ने अपना रास्ता बना लिया था — अदालत की फ़ाइलों में, DNA रिपोर्टों में, और सबसे ज़्यादा, गाँव के बच्चों की आँखों में। ठाकुर परिवार की गिरफ़्तारी, पंचायत प्रमुख की चुप्पी और वर्षों से दबी ज़ुबानों के जागने के बाद गाँव के बुज़ुर्गों ने पहली बार एक मीटिंग बुलाई — कोई फैसला सुनाने के लिए नहीं, बल्कि एक क्षमा याचना और स्मृति निर्माण के लिए। उसी जगह पर, जहाँ से मुक्ता का कंकाल निकला था — एक छोटा सा मैदान बनाया गया, जिसके बीच में एक सफेद पत्थर लगाया गया। उस पर सिर्फ दो नाम उकेरे गए — “मुक्ता” और “रघुवीर”, और नीचे एक वाक्य: “वे प्यार करते थे, यही उनका अपराध था।” नीलेश जब वहाँ पहुँचा, तो उसने देखा कि गाँव की दो छोटी लड़कियाँ — एक दलित, एक ठाकुर — उस पत्थर के पास बैठकर खिलखिला रही थीं। शायद यही बदलाव की शुरुआत थी, जो न रिपोर्ट में दर्ज होती है, न मीडिया में, लेकिन समाज की असली जड़ वहीं पनपती है।
नीलेश की खुद की स्थिति अब बदल रही थी। केस की राष्ट्रीय कवरेज, मीडिया का दबाव, और सीबीआई द्वारा पेश की गई रिपोर्ट ने दिल्ली मुख्यालय में हलचल मचा दी थी। उन्होंने इस मामले को “sensitive caste and communal impact zone” कहकर विशेष श्रेणी में डाला, लेकिन साथ ही नीलेश को एक पत्र थमा दिया — “You are hereby transferred to Jagdalpur Sector (Chhattisgarh) with immediate effect.” यह आदेश एक औपचारिक काग़ज़ जैसा दिखता था, पर नीलेश जानता था — जब कोई अफसर सच बोलने लगता है, सिस्टम उसे चुप करवाने की जगह बदल देता है। उसने कोई विरोध नहीं किया। उसने बस इतना किया कि रघुवीर की अंतिम चिट्ठी — जो शायद मुक्ता को देने से पहले ही फाड़ दी गई थी — हवेली की पश्चिमी दीवार पर रख दी। और उस चिट्ठी में लिखा था: “अगर हम ज़िंदा नहीं रहे, तो मेरी मुक्ति बस एक चीज़ में है — कि कोई और लड़का, किसी और जाति की लड़की से प्यार करने से न डरे।”
ट्रांसफर की रात, नीलेश आखिरी बार गाँव के तालाब किनारे बैठा। वही तालाब, जहाँ कभी मुक्ता और रघुवीर की तस्वीर खिंची थी — अब वहाँ दो नावें थीं, बच्चों के खिलौने, और एक गिटार। एक युवा लड़का वहाँ बैठकर गाना गा रहा था — “साँझ की बेला में कोई नाम पुकारे।” शायद उसने भी कहानी सुनी थी। नीलेश मुस्कुरा दिया। उसकी ट्रेन सुबह थी, और दस्तावेज़ दिल्ली भेजे जा चुके थे। जाते-जाते उसने तहसील कार्यालय के पटल पर एक नोट छोड़ा: “अपराध मिटाया जा सकता है, लेकिन अगर आप मिट्टी को आवाज़ देना सिखा दें — तो वो ज़रूर बोलेगी।” अब बस एक अध्याय शेष था — जहाँ न मुक्ता रहेगी, न रघुवीर, न नीलेश। लेकिन बघेलपुर की रेत पर उनके नाम लिखे रहेंगे — और कोई आँधी उन्हें अब मिटा नहीं सकेगी।
१०
दिल्ली की विशेष अदालत में मामला जब पेश हुआ, तो पूरे देश की निगाह उस केस पर टिकी थी जिसे एक “पुराने गाँव की दबी कहानी” कहकर पहले खारिज कर दिया गया था। लेकिन अब वह एक उदाहरण बन चुका था — कि कैसे न्याय, भले देर से आता हो, लेकिन जब आता है तो ज़मीन काँपती है। अभियोजन पक्ष ने जो सबूत सामने रखे — डॉक्टर चक्रवर्ती की लिखित चिट्ठी, रूबी बाई की रिकॉर्डिंग, रघुवीर की चिट्ठियाँ, पंचायत की वसीयत, और डीएनए रिपोर्ट — वह किसी एक प्रेम कहानी का नहीं, पूरे सामाजिक तंत्र के अपराध का खुलासा था। बचाव पक्ष ने बार-बार ‘संस्कृति’, ‘परंपरा’ और ‘सामाजिक मर्यादा’ की दुहाई दी, लेकिन जज ने फैसला सुनाते हुए कहा:
“परंपरा वह है जो इंसानियत को साथ रखे, जो प्रेम को मिटा दे, वह सिर्फ पाखंड है।”
ठाकुर सरजू सिंह के भतीजे सहित पंचायत के तीन सदस्य दोषी पाए गए — हत्या, आपराधिक साज़िश, महिला उत्पीड़न और सबूत मिटाने के आरोप में आजीवन कारावास। बाकी दो अभियुक्त जो उम्रदराज थे, उन्हें न्यायिक निगरानी में रखा गया, लेकिन निर्णय यह था — “वे ज़िंदा भले रहें, मगर समाज अब उन्हें ‘गवाह’ नहीं, ‘गुनहगार’ की तरह देखेगा।” अदालत के बाहर नीलेश मौजूद नहीं था — वह जगदलपुर में एक नए केस पर लगा हुआ था। लेकिन जब उसे फैसला सुनाया गया, उसने सिर्फ इतना कहा: “मुक्ता को देर से न्याय मिला, मगर अब उसकी चुप्पी भारत के हर छोटे गाँव की हवा में गूंज रही है।”
उसी साल, जुलाई की एक सुबह, बघेलपुर में पहली बार एक आयोजन हुआ — जिसे गाँव के नवयुवकों ने नाम दिया: “मुक्ता दिवस।” मंदिर के घंटे की जगह, स्कूल की घंटी बजी; शंख के बजाय एक दलित लड़की ने मंच पर कविता पढ़ी, और ठाकुर परिवार के बचे हुए सदस्यों ने सिर झुकाकर श्रद्धांजलि दी। उस सफेद स्मृति-स्तंभ के पास जहाँ “मुक्ता और रघुवीर” के नाम खुदे थे, बच्चों ने फूल चढ़ाए और कहा — “हम इश्क़ से नहीं डरेंगे।” नीलेश को वहाँ आमंत्रित किया गया, लेकिन उसने आने से मना कर दिया। उसने सिर्फ एक चिट्ठी भेजी, जो मंच से पढ़ी गई: “मैं वहाँ नहीं आऊँगा, क्योंकि अब यह कहानी मेरी नहीं रही। यह उन बच्चों की है जो जाति पूछे बिना दोस्ती करेंगे, यह उन बुजुर्गों की है जो अब चुप नहीं रहेंगे, यह उन पंचायतों की है जो अब इज्ज़त के नाम पर हत्या नहीं करेंगी।” गाँव में पहली बार हर जाति ने एक साथ भोजन किया — जिसमें हर थाली में एक चावल का दाना अलग रंग का रखा गया — उसे कहा गया: “यह मुक्ता का दाना है, जो मिट्टी में गया, पर अब हम सबके भीतर है।”
उसी शाम जब सूरज ढल रहा था, हवेली की एक पुरानी दीवार पर एक लड़की ने लाल सिंदूर से कुछ लिखा — “हम दोनों जिंदा हैं — अगर हमें कोई याद करता है।” और सच यही था — मुक्ता और रघुवीर अब इंसान नहीं, एक विचार बन चुके थे। एक चेतावनी, एक स्मृति, और एक उम्मीद। नीलेश ने अपनी डायरी में केस की अंतिम लाइन दर्ज की:
“सच को मारना आसान है, लेकिन उसकी कब्र से अक्सर क्रांति जन्म लेती है।”
बघेलपुर अब किसी सरकारी नक्शे का गाँव नहीं था — वह भारत के उन हज़ारों गाँवों का प्रतीक बन गया था, जहाँ प्यार को मार दिया गया था, और अब पहली बार माटी ने अपना गुनाह कुबूल किया था।
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