Hindi - प्रेतकथा

भूतिया तिजोरी

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शुभदीप मिश्र


वाराणसी स्टेशन की गर्म हवा में अजीब-सी गंध थी—कुछ धूप की, कुछ पुराने लोहे की, और कुछ जैसे समय की। शौर्य व्यास ने अपने ट्रॉली बैग का हत्था कसकर पकड़ा और भीड़ को चीरते हुए बाहर निकला। सालों बाद भारत लौटना उसे उतना अजनबी नहीं लगा, जितना लगा व्यास निवास का नाम सुनते ही मन में उभर आया अनकहा डर। वह तेरह साल का था जब उसके पिता की अचानक मौत के बाद मां ने उसे लंदन भेज दिया था, और तब से उसने कभी बनारस की ओर मुड़कर नहीं देखा। पर अब, वर्षों बाद, वकील के एक पत्र ने उसे खींच लाया था—”आपकी विरासत में व्यास निवास हवेली और उससे जुड़ी संपत्तियां शामिल हैं।” पहली बार जब उसने हवेली की तस्वीरें देखीं, तो उसे लगा जैसे कोई पुराने सपनों का टुकड़ा अचानक सामने आ गया हो—धूल में लिपटा, पर जिंदा। पर उसी पत्र में एक चेतावनी भी थी: हवेली की तिजोरी को न छूना। उसे यह बेतुका लगा। आखिर एक तिजोरी ही तो है! उसका मन था कि वह सब कुछ बेचकर लंदन लौट जाए—लेकिन अब, जब वह टैक्सी में बैठकर घाटों से होते हुए राजघाट के उस सुनसान इलाके की ओर बढ़ रहा था, तो दिल में एक बेचैनी उतर आई थी।

हवेली के दरवाज़े पर जंग लगे ताले देखकर उसका बचपन का हर डर जैसे एकाएक लौट आया। बंगले की दीवारें काई से ढँकी थीं, खिड़कियों की झिल्लियाँ झूल रही थीं, और फाटक के ऊपर अब भी टंगा था वही नामपट्ट—”व्यास निवास, 1896″। दरवाज़ा खुलते ही उसके कदम बरामदे में पड़े, जहाँ समय जैसे थम गया था। फर्श पर धूल की मोटी परत थी, दीवारों पर धूप और सीलन के बीच गहराई से जमी पुरानी यादें। बरसों पुराना झूमर अब भी लटका था, पर उसकी बत्ती अब बुझ चुकी थी। नीचे नौकरानी रमा खड़ी थी—अब थोड़ी झुकी हुई, पर आँखें वैसी ही सतर्क। “शौर्य बाबू? आप… सच में लौट आए?” उसकी आवाज़ में डर था या सच्ची खुशी—शौर्य तय नहीं कर पाया। रमा ने हवेली के पुराने कमरों को झाड़ा-पोंछा था, पर कुछ को वैसा ही छोड़ा था, “जैसे बड़े सरकार ने कहा था…”। शौर्य ने सिर हिलाया और ऊपर की ओर देखा—बचपन में वो जिस कमरे में रहता था, वहां की खिड़की अब भी खुली थी, जैसे कोई अब भी वहां खड़ा होकर उसका इंतजार कर रहा हो। लेकिन उसकी निगाह जल्दी ही उस कोठरी पर जा टिकी जो हवेली के बीचोबीच थी—जहां तिजोरी रखी थी।

तिजोरी… वही भारी लोहे की बनी, जिस पर खुदा था — “शापित है जो इसे खोले।” शौर्य को अब भी याद था, जब वह बच्चा था और खेलते-खेलते उस कोठरी में चला जाता, तो दादी जोर से डांट लगाती थीं, “उसके पास मत जाया कर, वहाँ जिन्न है!” बचपन में उसे लगता था, यह सब डराने के लिए कहा जाता था। पर अब, बड़े होकर जब वह वकील की चेतावनी और हवेली की खामोशी को जोड़कर देखता, तो गहराई में कुछ अजीब महसूस होता। उस रात, शौर्य ने पहली बार हवेली में अकेले रात बिताई। बाहर बरसात शुरू हो गई थी, और हवेली की छत पर गिरती बूँदों की आवाज़ जैसे किसी की पदचाप बन गई थी। आधी रात को उसकी नींद टूटी—किसी ने दरवाज़ा खटखटाया था। पर जब उसने दरवाज़ा खोला, तो वहां कोई नहीं था। नीचे बरामदे से चूड़ियों की हल्की झंकार आई। वह सीढ़ियाँ उतरता गया, धीरे-धीरे…और फिर देखा—वही तिजोरी वाली कोठरी का दरवाज़ा थोड़े से खुला था। अंदर एक लाल साड़ी का कोना ज़मीन पर घिसटता दिखा। उसने लाइट ऑन की—कोठरी खाली थी। तिजोरी बंद थी। लेकिन उसकी सांसें तेज़ चल रही थीं… और दीवार पर अब भी गूंज रही थी एक औरत की धीमी हँसी।

***

अगली सुबह जब शौर्य उठकर नीचे आया, तो उसे रमा पूजा घर की सफाई करते हुए कुछ बड़बड़ाते सुनाई दी—”जिसे सोना समझा, वह राख बन जाएगा… जो आत्मा सोई थी, अब जाग जाएगी।” शौर्य को अजीब लगा, पर वह कुछ बोला नहीं। रात जो देखा, उसे वह नींद की थकावट या पुराने घर का वहम मान रहा था। लेकिन न जाने क्यों, उस कोठरी की तरफ जाते ही उसका गला सूखने लगा। तिजोरी अब भी बंद थी, लेकिन उसके सामने रखे दीपक की लौ बुझ चुकी थी, जबकि खिड़कियाँ बंद थीं। तभी रमा ने पीछे से धीरे से कहा, “उस तिजोरी के पास ज़्यादा मत जाया करिए, बाबूजी। वहाँ कुछ है… जो सोया नहीं, बस छिपा हुआ था।” शौर्य ने झुंझलाकर पूछा, “रमा, तुम लोग इतने迷信 क्यों हो? बस एक पुरानी तिजोरी है!” लेकिन रमा की आंखों में जो डर था, वह नकली नहीं लगा। उसने कहा, “बड़े सरकार के ज़माने में भी एक बार वो तिजोरी खुली थी… एक पंडित को बुलाया गया था—नागेश्वर शास्त्री। उसी ने तिजोरी पर मंत्र बांधा था। उसने कहा था—अगर कोई उसे फिर से छेड़ेगा, तो आत्मा बंधन तोड़ेगी।” यह नाम शौर्य के लिए नया था, लेकिन उसी शाम उसने तय किया कि वह उस पंडित से मिलेगा। पुरानी हवेली की अलमारी में उसे एक डायरी मिली, जिसमें शास्त्री जी का पता और कुछ रहस्यमयी तांत्रिक चिह्न बने थे।

शाम होते ही शौर्य वाराणसी के काली मंदिर के पास, संकरी गली में नागेश्वर शास्त्री के पुराने मठ में पहुँचा। वह जगह धूप और धुएं से ढकी थी, और अंदर बैठा एक बुज़ुर्ग पंडित, लंबी जटाओं वाला, आँखें बंद किए माला फेर रहा था। शौर्य ने अपना परिचय दिया, तो शास्त्री ने आँखें खोले बिना पूछा, “तिजोरी खुल गई क्या?” शौर्य ठिठक गया। उसने जवाब दिया, “नहीं… लेकिन कुछ अजीब हो रहा है।” शास्त्री ने अपनी गूढ़ आवाज़ में कहा, “उस तिजोरी में खजाना नहीं, अधूरी शादी की रात है। वहाँ एक आत्मा बंधी है, जिसे किसी ने धोखा दिया, जलाया… और जीवित छुपा दिया। तुम्हारे पिता उसे बांध पाए थे। लेकिन वह अब जाग रही है।” शौर्य ने पूछा, “पर ये सब क्यों? और उस आत्मा से मेरा क्या रिश्ता?” शास्त्री ने एक पुराना चांदी का ताबीज़ निकाला, जिस पर वही चिह्न था जैसा डायरी में बना था। “यह ताबीज़ तुम्हारे दादा ने बनवाया था, जब पहली बार हवेली में… खून हुआ था। तब से हर पीढ़ी का कोई न कोई पुरुष उस आत्मा के स्पर्श से गुज़रा है। अब तुम्हारी बारी है, शौर्य व्यास।” शौर्य ने ठंडी सांस ली और कहा, “आप यह सब मुझे डराने के लिए कह रहे हैं। लेकिन मैं वह तिजोरी खोलूँगा। मुझे अपनी विरासत चाहिए, और जो कुछ भी उसमें है।” शास्त्री ने तब अपनी आंखें खोलीं—एकदम काली और चमकदार—और कहा, “तो तैयार रहो… कि जो सो रहा है, वह अब तुम्हारे सपनों में चलेगा।”

हवेली लौटते समय बाहर तेज़ आंधी शुरू हो चुकी थी। शौर्य की टैक्सी जैसे मुश्किल से चल रही थी, और रास्ते भर उसे सड़कों पर सफेद साड़ी जैसी कोई चीज़ लहराती दिखती रही। हवेली पहुंचकर जैसे ही उसने दरवाज़ा खोला, रमा सामने खड़ी थी—कपकपाती आवाज़ में बोली, “बाबूजी, तिजोरी वाला दीपक अपने आप जल गया है…” शौर्य ने कुछ नहीं कहा। वह सीधा कोठरी की ओर गया। तिजोरी अब भी बंद थी, लेकिन दीपक की लौ हवा के बिना लहरा रही थी। तभी उसे उस दीवार पर कुछ नया दिखा—किसी ने नाखून से खरोंच कर एक नाम लिखा था: “विधिमा”। वह चौंका—यह नाम उसने कभी नहीं सुना था, न अपनी फैमिली हिस्ट्री में, न पिता की डायरी में। तभी पीछे से रमा की डर से भरी फुसफुसाहट आई, “वो… जिसकी शादी अधूरी रह गई थी। वही है विधिमा। वही अब आपको देख रही है, बाबूजी…” और उस क्षण, हवेली में एक भारी आवाज़ गूंजी—जैसे किसी ने तिजोरी के अंदर से तीन बार दस्तक दी हो।

***

उस रात शौर्य व्यास की नींद एक अजीब स्वप्न से टूटी—उसने देखा कि हवेली का आंगन चांदनी से भरा हुआ है, और बीचोंबीच एक दुल्हन लाल जोड़े में बैठी है। उसके बाल खुले, माथे पर सिंदूर, लेकिन चेहरा साफ़ नहीं दिखता—बस उसकी आंखें… बहुत तेज़ और दुःखभरी। जैसे ही शौर्य ने उसके पास जाने की कोशिश की, वह अचानक गायब हो गई और पूरी हवेली आग की लपटों में घिर गई। वह चीखते हुए उठा—सिर पसीने से तर। दीवार पर अब भी ‘विधिमा’ नाम की खरोंच थी, और नीचे फर्श पर गुलाब की एक सूखी पंखुड़ी पड़ी थी, जो वहां पहले नहीं थी। शौर्य अब इन सब घटनाओं को केवल संयोग नहीं मान सकता था। उसने तय किया—अब वह खुद अपनी पारिवारिक इतिहास की परतें खोलेगा। सुबह होते ही वह हवेली की पुरानी लाइब्रेरी में घुसा, जहां धूल भरी किताबों और कागज़ों के बीच एक मोटी सील लगी फाइल मिली—जिस पर लिखा था: “व्यास परिवार: विवाह और वंशावली”। उसने धड़कते दिल से पन्ने पलटने शुरू किए, और फिर एक पेज पर रुका—जहां लिखा था: “श्री हरिदेव व्यास (1902–1954) ने वधु ‘विधिमा’ से 1930 में विवाह किया। विवाह के रात्रि में नववधु की रहस्यमयी मृत्यु के कारण विवाह अधूरा रहा।”

शौर्य का हाथ कांप उठा। तो विधिमा सचमुच उसकी परदादी थीं—एक औरत जिसका विवाह रात में ही मौत हो गई थी, और जिसके नाम का जिक्र पूरे व्यास वंश में किसी ने नहीं किया। फाइल में आगे लिखा था—”विधिमा का अंतिम संस्कार नहीं हुआ। शव हवेली में ही विलीन कर दिया गया, कारण अस्पष्ट।” ये पंक्तियाँ पढ़कर शौर्य को ऐसा लगा जैसे हवेली की हर दीवार उसे घूर रही हो। उसने तुरंत नागेश्वर शास्त्री को बुलाने का फैसला किया। शाम को जब शास्त्री हवेली पहुँचे, तो उनके चेहरे पर भय का साया था। उन्होंने तिजोरी के पास खड़े होकर मंत्र पढ़ने शुरू किए और आंखें बंद करके बोले, “यह आत्मा केवल तिजोरी में नहीं है। यह हवेली के हर कोने में फैली हुई है। विधिमा को जलाया नहीं गया था… वह ज़िंदा दफन की गई थी, ताकि व्यास कुल पर उसका साया न पड़े। लेकिन एक अधूरी दुल्हन कभी चैन से नहीं सोती।” शौर्य ने पूछा, “लेकिन क्यों? उन्हें क्यों मारा गया?” शास्त्री ने कहा, “क्योंकि विधिमा उस रात किसी को पहचान गई थी… किसी को जो उसे पत्नी नहीं, वारिस की गारंटी समझता था। और उस सच को ज़िंदा रहने नहीं दिया गया।”

शौर्य को जैसे सारा घर किसी अंतहीन गलती की गवाही देता दिखा—वो दीवारें, वो तस्वीरें, और वो कोठरी जिसमें तिजोरी अब भी खामोश थी। शास्त्री ने एक चांदी की कटोरी में नीला धूप डाला और हवेली में घूमते हुए उसकी राख उड़ाई—जहाँ-जहाँ वह राख पड़ी, वहां-जमीन पर लाल पाँवों के निशान उभर आए, जैसे कोई नंगे पाँव पूरी हवेली में चक्कर काट रही हो। फिर उन्होंने शौर्य को देखा और बोले, “अब विधिमा तुमसे बात करना चाहती है। लेकिन याद रखना, आत्माएँ प्रश्न नहीं करतीं… केवल उत्तर माँगती हैं।” उसी रात शौर्य ने एक निर्णय लिया—वह तिजोरी खोलेगा, लेकिन विधिमा से छुपे हर सच को उजागर करके ही। वह जानता था, अब यह हवेली केवल एक विरासत नहीं, एक अनुष्ठान बन चुकी है—जहां अधूरी आत्मा, अधूरे सच और अधूरे रिश्तों का हिसाब बाकी है।

***

शौर्य उस रात अपनी परदादी की शादी की कल्पना करता रहा—एक हवेली, जो रोशनी से जगमगाती थी, मेहमानों से भरी हुई, और बीच में बैठी एक सजी-धजी दुल्हन जिसका नाम कोई ज़ोर से नहीं लेना चाहता था। लेकिन जैसे-जैसे वो अपने दिमाग में उस रात के टुकड़े जोड़ने लगा, एक भयानक तस्वीर उभरती गई। अगली सुबह शौर्य ने हवेली के तहखाने की चाबी खोज निकाली—वह कमरा जिसे बरसों से बंद कर दिया गया था। तहखाने में सीलन की तेज़ गंध थी, और दीवारों पर जाले। एक कोने में धूल में सना एक लोहे का संदूक रखा था। उसने संदूक खोला तो अंदर पुराने कागजों, एक फोटोग्राफ और एक पत्र की गड्डी मिली। तस्वीर में एक सुंदर युवती थी, जिसकी आँखें उसके जैसी ही थीं—नीली, तीखी, और भीतर कुछ कहती हुई। फोटो के पीछे लिखा था—“विधिमा, विवाह से एक दिन पहले।” शौर्य ने काँपते हाथों से पत्र पढ़ा। पहला ही वाक्य उसे अंदर तक हिला गया—“मैं जानती हूँ कि इस शादी के बाद मेरा जीवन नहीं बचेगा। लेकिन अगर मेरी आत्मा सच्ची है, तो यह हवेली एक दिन मेरी बात सुनने को मजबूर होगी।”

पत्रों से साफ हुआ कि विधिमा ने यह विवाह अपनी मर्जी से नहीं, एक व्यापारिक सौदे के तहत स्वीकार किया था। उसके पिता—काशी के एक ब्राह्मण—पर कर्ज़ था, और हरिदेव व्यास, जो व्यास निवास के उत्तराधिकारी थे, उस कर्ज़ के बदले शादी का प्रस्ताव लेकर आए थे। विवाह तय हुआ, पर विधिमा ने विवाह के पहले ही दिन किसी सच्चाई को जान लिया था—कुछ ऐसा जो उसने किसी को नहीं बताया, सिर्फ पत्र में लिखा—“हरिदेव ने कहा कि मैं सिर्फ उनके पुत्र को जन्म देने का माध्यम हूँ। उन्होंने मुझे पत्नी नहीं, संपत्ति माना है।” उसी रात विवाह हुआ, और हवेली के नौकरों ने सुबह जो देखा, वह भयावह था—विवाह के बाद पहली बार जब कमरे का दरवाज़ा खोला गया, विधिमा बिस्तर पर नहीं थी। हरिदेव ने कहा, “वह डरकर भाग गई है,” पर रमा की माँ, जो तब हवेली में काम करती थी, ने उसे आंगन में गिरा हुआ सिंदूर और टूटी चूड़ियों का ढेर दिखाया। किसी को कुछ नहीं बताया गया। चुपचाप विधिमा को हवेली की एक दीवार में ‘स्थायी रूप से बंद’ कर दिया गया, और तिजोरी उसी जगह रखी गई—कहा गया, “जो चीज़ हिलती नहीं, वह बोलती भी नहीं।”

शौर्य की आंखों के सामने अब पूरी कहानी जीवित हो चुकी थी। वह जान चुका था कि उसकी परदादी को बलि की तरह मारा गया था—और उसकी आत्मा उसी अन्याय के साथ बंद रही। नागेश्वर शास्त्री ने जब इन पत्रों को देखा, तो उन्होंने कहा, “यह आत्मा अब न्याय नहीं, प्रतिष्ठा की मांग कर रही है। उसे उसका नाम, उसका अस्तित्व चाहिए।” उन्होंने शौर्य को एक अनुष्ठान के लिए तैयार किया—एक ऐसा अनुष्ठान, जिसमें शौर्य को तिजोरी के सामने विधिमा के नाम की मान्यता देनी थी, उसे व्यास कुल की वधु मानकर स्वीकार करना था। लेकिन शौर्य जानता था, अगर वह ऐसा करेगा, तो हवेली की हर ईंट हिल जाएगी। उसने उस रात तिजोरी के सामने दीप जलाया, विधिमा की तस्वीर रखी, और पहली बार उसका नाम ज़ोर से पुकारा—”विधिमा व्यास!” पल भर में तिजोरी के अंदर से फिर वही तीन दस्तकें आईं, और फिर दीवार से बहती लाल रोशनी की एक लकीर ज़मीन पर फैल गई। हवेली के हर कमरे से खिड़कियाँ अपने आप खुलने लगीं, और हवा में गुलाब की मुरझाई हुई खुशबू भर गई। शौर्य अब जान चुका था—यह तिजोरी सिर्फ एक शाप नहीं, एक स्त्री की चीख थी… जिसे अब आवाज़ मिल चुकी थी।

***

रात गहराने लगी थी और हवेली के चारों ओर घना सन्नाटा छा गया था, मानो पूरी बनारस नगरी एक पल को थम गई हो। हवेली के भीतर शौर्य व्यास घी का दीपक लेकर तिजोरी वाली कोठरी में प्रवेश करता है—कोठरी, जो अब मंदिर जैसी लगती थी, लेकिन जिसमें कैद थी एक क्रोध से तपती आत्मा। दीपक की लौ जब तिजोरी के पास पहुंची, तब उसने देखा कि तिजोरी की जंग लगे सतह पर कोई नया निशान उभर आया था—जैसे किसी ने अंदर से नाखूनों से खरोंचते हुए कुछ उकेरा हो। निशान अस्पष्ट थे, लेकिन शौर्य उन्हें पहचान गया—यह वही तांत्रिक चिह्न थे जो दादी की किताबों और नागेश्वर शास्त्री के ताबीज़ में देखे थे। उसने शास्त्री से सीखा मंत्र दोहराते हुए तिजोरी के चारों ओर अक्षत, सिंदूर और नीम की पत्तियाँ रखीं। कोठरी की हवा अब भारी होती जा रही थी, और एक क्षण ऐसा भी आया जब दीपक की लौ एकदम सीधी खड़ी हो गई—जैसे कोई अदृश्य शक्ति उसे देख रही हो। शौर्य ने कांपते हाथों से तिजोरी के हैंडल को छुआ—वह ठंडा नहीं, जलता हुआ लगा।

पहली बार जब उसने तिजोरी को खींचा, तो एक लोहे की घरघराहट गूंजी, और तिजोरी थोड़ी सी खुल गई। उसके भीतर से कोई तेज़ गर्म हवा का झोंका बाहर निकला, जैसे कोई वर्षों से बंद सांस अब खुली हो। फिर अचानक भीतर से एक सिसकती हुई आवाज़ आई—कमज़ोर, पर साफ़—“शौर्य…” वह पीछे हटा, लेकिन दरवाज़ा फिर खुद-ब-खुद खुल गया। अंदर अंधकार था, लेकिन उसकी आंखें धीरे-धीरे समायोजित होने लगीं। उसने देखा—तिजोरी के भीतर एक छोटी सी लकड़ी की संदूकची रखी थी, और उसके ऊपर एक लाल चुनरी बिछी हुई थी। संदूक के चारों ओर राख फैली हुई थी, और चुनरी पर कुछ जलने के निशान थे। शौर्य ने जैसे ही वह चुनरी हटाई, उसे अंदर एक पुराना मांगटीका, एक टूटी चूड़ी, और एक हस्तलिखित भोजपत्र मिला। भोजपत्र पर लिखा था—“यह उस स्त्री की स्मृति है, जिसे विवाह की रात पत्नी नहीं माना गया। उसका अंग-अंग जला, पर आत्मा शेष रही। उसे मुक्त करना केवल खजाना पाना नहीं, कुल के अपराध से मुक्ति पाना है।” भोजपत्र को पढ़ते ही शौर्य की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। पहली बार उसने महसूस किया कि वह न केवल अपनी विरासत से जुड़ रहा है, बल्कि अपने पूर्वजों के पाप को भी धो रहा है।

तिजोरी पूरी तरह खुलने के साथ ही हवेली की दीवारें जैसे कांप उठीं। ऊपर झूमर अपने आप हिलने लगा, दीवारों से हल्की खड़खड़ाहट सुनाई देने लगी, और कोठरी में तापमान अचानक बहुत नीचे गिर गया। शौर्य ने दीपक को सामने रखा और संदूकची से चूड़ी उठाकर कहा, “विधिमा व्यास, आज मैं तुम्हें इस घर की स्वीकृत वधु मानता हूँ। तुम्हारा नाम, तुम्हारा अपमान अब इस घर में दबा नहीं रहेगा।” जैसे ही ये शब्द उसके मुँह से निकले, हवेली के हर कोने से एक हल्की सी रोशनी फूट पड़ी। खिड़कियों से उड़ती धूल में किसी स्त्री की आकृति उभरी—लंबे बाल, लाल साड़ी, और नज़रें झुकी हुई। विधिमा अब सामने खड़ी थी, पर उसकी आँखों में पहली बार क्रोध नहीं… शांति थी। उसने शौर्य की ओर देखा, जैसे कह रही हो—”अब मैं मुक्त हूँ…”। और अगले ही क्षण, वो आकृति धुएं की तरह हवा में विलीन हो गई। शौर्य घुटनों पर बैठ गया, उसकी सांसें तेज़ थीं, पर मन एक अजीब हल्केपन से भर चुका था। हवेली, जो वर्षों से एक बंद ग्रंथ थी, अब खुल चुकी थी—और उसका सबसे डरावना अध्याय अब समाप्त हो चुका था… या शायद अभी और कुछ बाकी था।

***

तिजोरी के खुलने के बाद हवेली में जैसे एक मौन उत्सव शुरू हो गया था। दीवारों की सीलन जैसे कम होने लगी थी, बरामदे में धूप टिकने लगी थी, और पुराने फर्नीचर से आती ठंडी उदासी अब गर्मी की तरह छूने लगी थी। शौर्य को लगा जैसे हवेली खुद साँस लेने लगी हो। रमा ने वर्षों बाद हवेली के भीतर तुलसी का दीपक जलाया और कहा, “आज हवेली पहली बार जगी है, बाबूजी।” लेकिन जिस रात उसने सोचा था कि यह सब खत्म हो गया, उसी रात एक नया दरवाज़ा खुला—इस बार नींद में नहीं, बल्कि वास्तव में। शौर्य तिजोरी के कक्ष से बाहर निकला तो देखा कि हवेली की पिछली दीवार पर एक हिस्सा धंसा हुआ है—जैसे भीतर से कोई दबाव पड़ा हो। अगले दिन उसने मजदूर बुलाकर दीवार हटवाई, और अंदर खुला एक और छोटा कमरा—एकदम संकरा, लेकिन उसमें भी एक तिजोरी थी। पर यह तिजोरी वैसी नहीं थी—यह न लोहे की थी, न तांबे की—बल्कि पत्थर की बनी हुई थी, जिस पर किसी अज्ञात लिपि में कुछ उकेरा गया था। नागेश्वर शास्त्री को जब बुलाया गया, उन्होंने इसे देखकर चुप्पी साध ली। फिर बोले, “यह तिजोरी नहीं, एक संकल्प है। यह विरासत की वह शाखा है जिसे जानबूझकर छुपा दिया गया।”

शौर्य ने पूछा, “क्या इसमें भी कोई आत्मा बंद है?” शास्त्री बोले, “नहीं। आत्मा नहीं, इतिहास है। और वह इतिहास तुम्हारे कुल से भी पुराना है।” उन्होंने बताया कि व्यास कुल केवल धन और सम्मान से समृद्ध नहीं था, बल्कि तंत्र और सिद्धि से भी जुड़ा था। हवेली के नीचे एक ऐसा स्थल है, जहां एक समय रक्तयज्ञ किए जाते थे—उन दिनों में जब काशी के राजपरिवारों के बीच शक्ति के लिए लड़ाई चलती थी। यह दूसरी तिजोरी उसी रक्तयज्ञ की गवाही है। शौर्य को यह सब अविश्वसनीय लगा, लेकिन हवेली की पुरानी किताबों में जिस तरह ‘व्यास देवालय’ और ‘कुल यज्ञगृह’ के उल्लेख मिले, उसने यक़ीन करना शुरू कर दिया। तिजोरी पर लिखा था—“रक्त बिना शुद्धि नहीं, और शुद्धि बिना उत्तराधिकार नहीं।” इसका अर्थ वह तब तक नहीं समझ पाया जब तक शास्त्री ने कहा—“इसका मतलब यह है कि जो भी तिजोरी खोलेगा, उसे अपने रक्त से उसकी मोहर तोड़नी होगी।” शौर्य एक क्षण को कांप गया—उसने तो विधिमा की आत्मा को शांत करने के लिए बहुत कुछ किया, अब क्या फिर किसी बलिदान की ज़रूरत है? शास्त्री ने गंभीरता से कहा, “बलिदान नहीं, साहस। और यह जानने की जिज्ञासा कि कहीं तुम्हारी विरासत सिर्फ हवेली तक सीमित तो नहीं है?”

शौर्य ने अगली रात उस तिजोरी के सामने दीप जलाया, जैसे उसने पहले किया था। लेकिन इस बार वातावरण में कुछ भिन्न था—यह डर नहीं, बल्कि उत्सुकता थी। उसने अपने अंगूठे को कांटे से चुभोकर एक बूँद रक्त तिजोरी के चिह्नों पर टपकाया। जैसे ही रक्त गिरा, तिजोरी से एक गहरी ध्वनि निकली—जैसे गुफा में शंख बजा हो। तिजोरी धीरे-धीरे खुली, और उसके भीतर एक पत्थर की पटिया मिली, जिस पर तांत्रिक लिपि में लिखा था: “जिसने अतीत को सहेजा, वही भविष्य का अधिकारी है।” साथ ही मिला एक धातु का सिक्का, जिस पर व्यास कुल का एक अज्ञात चिन्ह बना था—त्रिशूल और सूर्य के बीच में एक स्त्री की आकृति। शौर्य ने शास्त्री की ओर देखा, उन्होंने कहा—“यह कुल के सबसे प्राचीन देवता की प्रतिमा है, जिसे समय के साथ भुला दिया गया। शायद विधिमा उसी चेतना की पुनरावृत्ति थी—एक शक्ति, जिसे दबाया गया।” अब शौर्य समझ चुका था—हवेली की तिजोरियाँ केवल दरवाज़े नहीं थीं, वे उसकी पहचान के कक्ष थे—हर एक को खोलना, उसके भीतर किसी भूले हुए सच को ज़िंदा करना था। लेकिन क्या सभी सच सुनने लायक होते हैं? यह प्रश्न अब भी हवेली की दीवारों में गूंज रहा था।

***

हवेली के नीचे खोजी गई दूसरी तिजोरी ने न केवल शौर्य की विरासत की गहराई बदल दी, बल्कि उसके भीतर कुछ और भी खोल दिया—एक ऐसी जिज्ञासा, जो अब डर से नहीं, उत्तर की भूख से प्रेरित थी। शौर्य उस पत्थर की पटिया को रोज़ अपने कमरे में रखकर पढ़ने की कोशिश करता रहा। नागेश्वर शास्त्री ने कहा, “यह लिपि गुप्त तंत्र से जुड़ी है—यह ‘वीर साधना’ की भाषा है, जो केवल वही समझ सकता है जो साधना से गुज़रा हो।” उन्होंने पटिया पर अंकित आकृति को देखा—त्रिशूल, सूर्य, और एक स्त्री का चेहरा, जिसकी आंखें खुली थीं लेकिन होंठ सिल दिए गए थे। शास्त्री ने धीमी आवाज़ में कहा, “यह है श्री चामुण्डा व्यासिनी, तुम्हारे कुल की आराध्य। एक तांत्रिक शक्ति, जिसे कभी जीवित कन्या के माध्यम से पूजा जाता था… और शायद यही पूजा विधिमा को बलिदान के रूप में झेलनी पड़ी।” शौर्य स्तब्ध रह गया—क्या विधिमा केवल व्यास वंश की वधु नहीं, बल्कि एक देवी की प्रतीक थी? और क्या उसकी मौत कोई पारिवारिक त्रासदी नहीं, बल्कि तांत्रिक परंपरा का ढका हुआ अध्याय थी?

इन्हीं प्रश्नों के बीच एक दिन जब शौर्य हवेली के उत्तर-पूर्वी कक्ष की दीवारें ठीक करवा रहा था, तो अंदर से एक पत्थर की चौखट और उसके पीछे छिपा एक आले निकला। उस आले में एक तांत्रिक यंत्र, सिंदूर की कटोरी और एक मुड़ी हुई भोजपत्र की पांडुलिपि रखी थी। पांडुलिपि खोलते ही एक तेज़ गंध उठी, और लिखा था—“यदि कोई इस यंत्र को छुएगा, तो उसे देवी के दर्शन होंगे, परंतु केवल तब जब वह रात्रि के तीसरे प्रहर में, रक्त और अग्नि के बीच खड़ा हो।” शौर्य को वह रात याद आई जब तिजोरी से विधिमा प्रकट हुई थी—क्या वही तीसरा प्रहर था? उस रात उसने वैसा ही किया। उसने यंत्र को हवेली के मध्य में रखकर दीपक जलाया, हाथ में विधिमा की तस्वीर थामी, और वही चूड़ी जो पहली तिजोरी में मिली थी। जैसे ही तीसरा प्रहर आया, हवा एकदम शांत हो गई, और यंत्र की रेखाएँ जलने लगीं। अचानक कमरे में एक स्त्री की आकृति उभरी—विधिमा। पर यह विधिमा पहले से अलग थी—वह शांत नहीं, तेजस्विनी लग रही थी, माथे पर रक्तबिंदु और आंखों में स्वीकृति।

उसने शौर्य की ओर देखा और धीमे स्वर में कहा—“अब जब तुमने सच्चाई जान ली है, मैं अपने संकल्प से मुक्त हो सकती हूँ। मेरे साथ जो हुआ, वह केवल एक लड़की की हत्या नहीं थी… वह उस शक्ति की चुप्पी थी जो भीतर रोई और बाहर गूंगी रही। तुम्हारे कुल ने मेरी आहुति ली, लेकिन अब उसी कुल ने मुझे आवाज़ दी है।” शौर्य ने कांपते हुए पूछा, “क्या अब आप… पूरी तरह मुक्त हैं?” विधिमा मुस्कराई, “नहीं। जब तक यह कुल अपने स्त्री इतिहास को स्वीकार नहीं करेगा, मेरी छाया इस हवेली में बनी रहेगी—सहायक बनकर, ना कि प्रतिशोधी बनकर।” फिर उसकी छवि ओझल होने लगी, और हवेली में एक नए मंत्र की गूंज उठी—“या देवी सर्वभूतेषु, शक्ति रूपेण संस्थिता…” हवेली अब शापित नहीं रही। यह एक जाग्रत स्थान बन चुकी थी—जहां नारी की आवाज़ अब कैद नहीं, प्रतिष्ठित थी। शौर्य ने सिर झुका लिया, यह समझकर कि विरासत केवल जमीन-जायदाद नहीं, बल्कि स्वीकार, क्षमा और जागरूकता का भी उत्तराधिकार है।

***

वाराणसी की सुबह में अब कुछ बदल गया था। हवेली जो पहले वीरान थी, अब उसके आंगन में तुलसी की पत्तियाँ हिलती थीं, बरामदे में सुबह की चाय की भाप उठती थी, और भीतर एक धीमी-धीमी धुन बजती थी—पुरानी, पर शुद्ध। शौर्य व्यास ने वर्षों बाद उस घर को घर बनाने का निश्चय किया था, जिसे उसने एक समय डरावनी विरासत समझा था। रमा अब केवल एक नौकरानी नहीं, बल्कि एक मौसी की तरह हवेली का हर कोना सजाने लगी थी। लेकिन सबसे बड़ा परिवर्तन यह था कि व्यास निवास अब आत्माओं की शांति का नहीं, उनके गौरव के उत्सव का केंद्र बन चुका था। हवेली की दीवारों पर विधिमा की एक चित्रकृति लगाई गई—लाल साड़ी में, तेजस्वी आंखों वाली, ठीक वैसी जैसी उस रात शौर्य ने देखी थी। नीचे शिलालेख खुदवाया गया—“व्यास कुल की पहली स्त्री, जो आवाज़ बनी।” और उस दिन, जब चित्र अनावरण किया गया, हवेली में पहली बार काशी की किसी कन्या ने पांव रखे—विवाह के लिए नहीं, अपने अधिकार से, अपनी मर्जी से।

शौर्य ने अपने जीवन की साथी के रूप में चुना था विदिशा त्रिपाठी को—एक पुरातत्त्वविद्, जिसने विधिमा की कथा को लोककथाओं में बदलने का सपना देखा था। विवाह कोई तामझाम से भरा आयोजन नहीं था। केवल 21 दीप जलाए गए, सात नहीं—आठ फेरे लिए गए, आठवां फेरा विधिमा के नाम का था। पंडित नागेश्वर शास्त्री ने स्वयं वैदिक मंत्रों में चुपचाप एक नया श्लोक जोड़ा—“या स्त्री अतीत की चुप्पी थी, वह आज की घोषणा बने।” शौर्य जब विदिशा के साथ विवाह मंडप से उठा, तो हवेली में लगे हर पुराने चित्र—दादा, परदादा, और हरिदेव व्यास—जैसे कुछ कह रहे थे… या शायद चुपचाप देख रहे थे। यह वही हवेली थी जिसने विधिमा को दबाया, और अब उसी हवेली ने एक नई वधु का स्वागत खुले दरवाज़े से किया। हवेली में वह कोठरी अब खुली थी, पर तिजोरी हट चुकी थी। उसकी जगह एक दीया हर दिन जलता था—न पूजा के लिए, बल्कि स्मृति के लिए। और एक पुरानी टूटी चूड़ी, अब सोने की फ्रेम में सजाकर वहीं रखी गई थी।

विवाह के बाद, विदिशा ने हवेली में एक संग्रहालय खोला—“स्त्री-स्मृति केंद्र”। इसमें केवल विधिमा ही नहीं, काशी की उन सभी महिलाओं की कहानियाँ थीं जिन्हें इतिहास ने छोटा लिखा या छुपा लिया। हवेली में अब लोग डर से नहीं, जिज्ञासा से आते थे। बच्चे दौड़ते हुए कहते, “ये वही घर है जहाँ भूत नहीं, शक्ति रहती है!” शौर्य के लिए यह एक चक्र की पूर्णता थी—वह घर जिसे वह छोड़कर भागा था, अब उसका कर्मक्षेत्र बन गया था। और उस रात, जब शौर्य और विदिशा ने हवेली की छत पर बैठकर बनारस की आरती की घंटियों को सुना, तब हवाओं में एक मधुर, मीठी गंध थी—गुलाब की… शायद वही जो विधिमा हर रात हवेली में फैलाती थी। उस रात पहली बार शौर्य ने सपने में देखा—विधिमा अब किसी लाल जोड़े में नहीं थी। वह सफेद साड़ी में थी, मुस्कुरा रही थी, और पीछे धीरे-धीरे चल रही थी, जैसे कह रही हो—”अब यह घर तुम्हारा है। मेरा काम पूरा हुआ।”

समाप्त

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