Hindi - Horror

भूतहिया कुआँ

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अनामिका चौधरी


पटना यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में उस दिन कुछ अजीब सा सन्नाटा था। रीतू ने अपनी डायरी में अंतिम लाइन लिखी—लोककथाओं में सिर्फ डर नहीं होता, इतिहास भी छिपा होता है।” उसे अगले सप्ताह फील्ड वर्क के लिए सुभाषपुर जाना था—बिहार के बरौनी ज़िले का एक छोटा-सा गाँव, जहाँ आज़ादी से पहले के ज़मींदारों की हवेलियाँ अब खंडहर बन चुकी थीं। लेकिन उसका असली मकसद था—“भूतहिया कुआँ”।

उस कुएँ की कथा सुनकर ही उसका रिसर्च टॉपिक तय हुआ था। कहा जाता था कि हर साल सावन की पहली अमावस्या की रात, उस सूखे कुएँ से एक औरत की कराह सुनाई देती है। गाँव वालों ने उसे ‘पिशाचनी’ का नाम दे दिया था। कोई नज़दीक नहीं जाता, कोई बात भी नहीं करता।

रीतु को डर नहीं लगता था। उसने बचपन में अपनी दादी से कई किस्से सुने थे, पर वह जानती थी कि हर डर के पीछे कोई कहानी होती है। और कहानियाँ—बस यही तो उसे चाहिए थीं।

बस से उतरकर जब वह सुभाषपुर पहुँची, तो सूरज ढलने को था। चारों ओर खेत, कुछ दूर एक पगडंडी, और बीच में गाँव—माटी की खुशबू से भरा। पर माहौल में कोई अदृश्य घुटन सी थी। जैसे हवा में कोई चेतावनी हो।

गाँव में उसका स्वागत विनय जी ने किया—गाँव के स्कूल मास्टर। पैंतीस साल के होंगे, आँखों में एक गहरी थकान थी, जैसे सालों से कुछ न कह पाने का बोझ उठाए हो।

“आप ही हैं रीतू जी?”
“जी हाँ। रिसर्च के सिलसिले में आई हूँ, लोककथाओं पर।”
विनय ने सिर हिलाया, लेकिन कुछ असहज हो गया। “आपको भूतहिया कुएँ के बारे में क्यों जानना है?”

रीतु मुस्कुरा दी, “क्योंकि सबने मना किया है।”

विनय कुछ पल चुप रहा, फिर बोला, “अच्छा, तो पहले आपको काकी से मिलना चाहिए। वही आखिरी गवाह हैं उस घटना की।”

काकी। गाँव की सबसे बूढ़ी औरत, उम्र सौ के करीब होगी। सब उन्हें “कहानी वाली काकी” कहते थे। पर रीतू को लगा, उनके भीतर कोई चुप्पी छुपी थी, जो कहानी कहने से डरती थी।

काकी की झोपड़ी में झूलते लालटेन के नीचे रीतू ने जब कुएँ का जिक्र किया, तो काकी की आँखें एकदम सफेद हो गईं, जैसे किसी पुरानी छाया ने उन्हें जकड़ लिया हो।

“कौन बोला रे तुझसे उस कुएँ के बारे में?”
“मैंने रिसर्च की है… पर आप तो वहाँ की गवाह हैं ना? वो विधवा औरत कौन थी?”
काकी काँपते होंठों से बोली, “नाम मत ले उसका। वो अब भी है वहाँ… जिंदा नहीं, पर जागती है…”

उस रात रीतू ने विनय के घर में डेरा जमाया। कमरा पुराना था, खिड़की पर टूटी जाली, और दीवार पर किसी ने कभी सिंदूर से कुछ लिखा था, जो अब फीका पड़ चुका था।

आधी रात को एक ठंडी हवा कमरे में आई। रीतू की नींद खुली। खिड़की खुल गई थी। खटाक। जैसे कोई बाहर से थपथपा रहा हो। फिर—एक धीमी सी कराह। जैसे कोई औरत किसी पुराने दुःख को जी रही हो।

रीतू भागकर बाहर आई। दूर खेत के पार, एक लंबा पेड़ और उसके नीचे अंधेरे में कुछ चमक रहा था—कुँआ।

अचानक हवा थम गई। सन्नाटा ऐसा जैसे समय भी ठहर गया हो। तभी—एक झलक। कुएँ के पास सफेद साड़ी में एक परछाईं खड़ी थी। स्थिर, पर जीवित। उसकी पीठ रीतू की ओर थी।

रीतू ने आँखें मलीं—पर जब उसने फिर देखा, वहाँ कुछ नहीं था।

अगली सुबह गाँव में खबर फैल गई—“शहर की लड़की ने उसे देख लिया है।”

 

सुबह की किरणें धीरे-धीरे खिड़की से कमरे में घुस रही थीं, लेकिन रीतू की आंखों में नींद का नामो-निशान नहीं था। रात का वह दृश्य — कुएँ के पास खड़ी सफेद साड़ी वाली परछाईं — उसकी आँखों में बार-बार लौट रही थी। क्या वो सपना था? या सच?

नाश्ते की थाली में गरम लिट्टी-चोखा आया, लेकिन रीतू ने बस दो निवाले लिए। विनय चुपचाप बैठा था, जैसे कुछ कहना चाहता हो, पर कह नहीं पा रहा हो।

“आपने भी कभी उस औरत को देखा है?” रीतू ने पूछ ही लिया।

विनय ने नजरें चुराईं, फिर धीमे स्वर में बोला, “मैंने नहीं… लेकिन मेरे बाबा ने देखा था। वो रात में खेत से लौटते हुए उस कुएँ के पास से गुज़रे थे। कहते थे, किसी औरत की सिसकी सुनाई दी थी, और जब पलटकर देखा तो कोई नहीं था। फिर कई रातों तक बुखार में बड़बड़ाते रहे।”

रीतू ने अपना रिकॉर्डर ऑन किया। “कहानी वही है जो सबको याद रहती है, लेकिन मैं उस हिस्से तक जाना चाहती हूँ जो सब भूल गए हैं।”

दोपहर में वो फिर से काकी की झोपड़ी पर गई। इस बार काकी दरवाज़े पर बैठी थीं, सूती गमछा सिर पर और आँखें सूरज की रोशनी से सिकुड़ी हुईं।

“काकी, आप मुझसे क्यों डरती हैं?”

काकी ने धीरे-धीरे कहा, “डर नहीं… पछतावा है।”

“क्यों?”

काकी की आवाज़ काँप गई, “क्योंकि मैंने कुछ नहीं किया। देखा सब, पर बोली नहीं। उस औरत का नाम था—गुलाबो। विधवा थी, जवान थी, सुंदर थी। जमींदार की नज़र उस पर थी। लेकिन गुलाबो ने ना कर दी। तब उसने बदला लिया… और एक रात… गाँव के चारों गुंडों को साथ लेकर उसे बाँधकर कुएँ में फेंक दिया।”

रीतू की साँसें रुक गईं।

“कोई बचाने नहीं आया?”
“कौन आता? डर सबके दिल में था। औरत की आवाज़ कुएँ में गूंजी, फिर… चुप हो गई। लेकिन अमावस्या की रात को वो फिर बोलती है।”

“क्या चाहती है वो?”

काकी की आँखें एकटक देखती रहीं, “इंसाफ… या साथी।”

उस शाम रीतू ने तय किया — वो कुएँ के पास जाएगी, कैमरा लेकर, रिकॉर्डर लेकर, और सवाल लेकर। गाँव वालों ने मना किया, विनय ने भी रोका, लेकिन रीतू नहीं मानी।

अंधेरा घिरते ही वो अकेले उस रास्ते पर चल पड़ी जो खेतों से गुजरता हुआ कुएँ तक जाता था। हाथ में टॉर्च थी, कंधे पर बैग।

कुएँ के पास पहुँची तो सन्नाटा गाढ़ा था। चारों ओर बस झींगुरों की आवाज़। हवा एकदम थमी हुई।

उसने कैमरा सेट किया। रिकॉर्डर ऑन किया।

“गुलाबो… अगर तुम हो, तो सामने आओ। मैं तुम्हारी कहानी जानना चाहती हूँ।”

कुछ नहीं हुआ।

फिर हवा का झोंका आया। रिकॉर्डर पर एक सरसराहट उभरी। और तभी—कुएँ से एक कराहती आवाज़ निकली। धीमी, दर्दभरी, मानो किसी के गले से आ रही हो।

“…क्यों आई है तू…?”

रीतू के हाथ कांपने लगे। रिकॉर्डर फिर से फुसफुसाया—“…तू भी छोड़ेगी मुझे…?”

टॉर्च की रोशनी अचानक झपकने लगी।

और तभी, रीतू को अपने बाएँ कंधे पर किसी की उंगलियों की ठंडी पकड़ महसूस हुई।

उसने घबराकर मुड़कर देखा—कोई नहीं था।

पर जब उसने फिर कुएँ की ओर देखा—वो वहाँ खड़ी थी। वही सफेद साड़ी, बिखरे बाल, और आँखें… जैसे धधकता हुआ कोयला।

 

वो क्षण जैसे समय से बाहर था। रीतू का गला सूख गया था, टॉर्च की रोशनी काँप रही थी, और सामने उस कुएँ के पास… एक परछाईं। सफेद साड़ी, बिखरे बाल, झुका हुआ चेहरा—पर उसकी आँखें एकदम खुली थीं, और उनमें ऐसा शून्य था कि जैसे उसमें गिरते ही इंसान खुद को भूल जाए।

“क्यों आई है तू?” वह आवाज़ फिर गूंजी, इस बार सीधे रीतू के सिर के भीतर।

रीतू ने खुद को मजबूती से थामने की कोशिश की। उसका रिसर्चर मन कह रहा था—यह मौका है, रिकॉर्ड करो, सब नोट करो। लेकिन भीतर कोई और आवाज़ गूंज रही थी—भाग, रीतू, भाग!

वो कांपते हाथों से कैमरा उठाने लगी, लेकिन उसी समय एक ज़ोर की हवा चली, और कैमरा ज़मीन पर गिरकर बंद हो गया।

“तू भी मुझे छोड़ देगी, जैसे बाकी सबने छोड़ा था।” अब आवाज़ में आँसू थे, शिकायत थी।

रीतू की आंखें भर आईं। उसने धीरे से कहा, “मैं जानना चाहती हूँ तुम्हारी कहानी। बताओ मुझे। सच क्या है?”

परछाईं कुछ देर स्थिर रही, फिर उसने सिर उठाया। गुलाबो का चेहरा… अधजला, झुलसा हुआ, लेकिन उसकी आँखों में ऐसा दर्द था जो शताब्दियों तक सहेजा गया हो।

“जमींदार ने मुझे कुएँ में नहीं मारा, रीतू। उसने मुझे दफन कर दिया था ज़िंदा, लेकिन मैं तब तक मरी नहीं थी जब तक मेरी उम्मीद नहीं मरी।”

रीतू ने हिम्मत जुटाकर आगे पूछा, “तुम क्या चाहती हो अब?”

“इंसाफ,” गुलाबो बोली, “या… कोई जो मेरी आवाज़ सुने। मैं हर साल एक लड़की की प्रतीक्षा करती हूँ, जो मुझसे डरकर भागे नहीं… जो मेरी कहानी पूरा करे।”

“तो क्या तुम मुझे—”

“अब तुम मेरी कहानी हो, रीतू। अब तुम इस कुएँ से बंध चुकी हो। जब तक मेरी मुक्ति नहीं होती… तुम भी आज़ाद नहीं हो सकती।”

इतना कहकर परछाईं हवा में घुल गई।

रीतू वहीं ज़मीन पर बैठी रही, देर तक, थरथर काँपती हुई। वह जानती थी, अब उसका रिसर्च सिर्फ एक विषय नहीं था—यह एक बंधन बन चुका था। गुलाबो की आत्मा ने उसे चुन लिया था।

अगली सुबह जब विनय उसे खोजने आया, तो वो कुएँ के पास बैठी थी, पूरी रात वहीं बीती थी उसकी।

“तुम ठीक हो?” विनय ने घबराकर पूछा।

रीतू ने सिर्फ एक शब्द कहा—”उसने मुझसे बात की।”

विनय हकबका गया।

“गुलाबो?”
“हाँ। और अब मैं गाँव के रजिस्टर, ज़मींदारी के कागज़ात, और पुरानी रिपोर्ट्स खंगालना चाहती हूँ। मुझे उसकी कहानी पूरी करनी है। उसे मुक्ति दिलानी है।”

विनय चुप रहा, फिर बोला, “अगर तुम साथ चाहो, तो मैं मदद करूँगा।”

रीतू ने पहली बार मुस्कराकर कहा, “अब मैं अकेली नहीं हूँ।”

 

गाँव की पंचायत भवन में एक पुराना अलमारीनुमा कमरा था, जिसमें धूल जमी फाइलें, रजिस्टर और जमींदारी ज़माने के दस्तावेज़ दबे हुए थे। वो कमरा शायद वर्षों से खोला नहीं गया था। दीवारों पर जाले, ज़मीन पर चूहे की बूँदें, और हवा में बासी इतिहास की महक।

विनय और रीतू ने साथ बैठकर दस्तावेज़ों को उलटना शुरू किया। पुराने अक्षरों में लिखी इबारतें, ज़मींदारी के फरमान, जमीनों के हिस्सेदारी के कागज। तभी रीतू की निगाह एक नाम पर टिक गई—गुलाबो देवी”

“देखो ये,” रीतू ने विनय को कागज थमाया। “ये 1939 की तारीख है। इसमें लिखा है कि गुलाबो देवी ने अपने खेत की वापसी के लिए अर्ज़ी दी थी। पर उसके बाद…”

“कुछ नहीं है,” विनय ने धीरे से कहा। “न मंजूरी, न नाम, न अगला पन्ना। जैसे उसकी कहानी को यहीं से काट दिया गया हो।”

“या दबा दिया गया हो,” रीतू बोली।

उसी समय, फाइलों के ढेर से एक और कागज़ गिरा। जला हुआ सा, आधा कटा—लेकिन उस पर किसी महिला का फोटोग्राफ चिपका था। तस्वीर में वो एक सुंदर और आत्मविश्वास से भरी युवती थी, माथे पर बिंदी और सीधा लुक।

“ये गुलाबो हो सकती है,” रीतू ने तस्वीर को थामते हुए कहा।

विनय ने धीमे से सिर हिलाया, “इस गाँव में ऐसी तस्वीरें तब सिर्फ दस्तावेज़ी पहचान के लिए ली जाती थीं। अगर ये सच में गुलाबो है, तो तुम्हारी कहानी को चेहरा मिल गया है।”

 

उसी शाम, गाँव में अजीब सी गहमा-गहमी थी। कुछ लोगों ने रीतू को पागल करार दे दिया था। कोई कह रहा था, “बाहर वाली लड़की ने भूत को जगा दिया है।” किसी ने मंदिर में पूजा करवाई, तो कोई झाड़-फूँक के लिए पंडित बुला लाया।

पर रीतू अब डर से नहीं, गुस्से से भर गई थी।

“एक औरत को मरने के बाद भी बदनाम कर रहे हो। जिन लोगों ने कुछ किया नहीं, वही अब ढोंग कर रहे हैं?” वो एक पंचायत में खड़ी हो चिल्लाई।

विनय ने उसका हाथ पकड़ लिया और बाहर ले आया।

“तुम सच कह रही हो, पर ये लोग डरते हैं। तुम उनसे ज़्यादा तेज़ चल रही हो।”

रीतू बोली, “क्योंकि गुलाबो की आत्मा अब मेरे पीछे खड़ी है। और जब तक मैं उसकी कहानी कहूँगी नहीं, वो किसी और के सपने खा जाएगी।”

उस रात, रीतू ने सपने में खुद को गुलाबो के रूप में देखा। वही सफेद साड़ी, वही जमींदार की हवेली, वही कुआँ। चार आदमी उसे घसीटते हुए ले जा रहे थे, और वो चिल्ला रही थी—“मेरी ज़मीन मेरी है!” लेकिन उसकी आवाज़ धुंध में गुम हो जाती।

अचानक ही उसका सपना टूट गया, और कमरे में सन्नाटा था। पर खिड़की के बाहर कोई खड़ा था।

वो उठी, धीरे से खिड़की की ओर बढ़ी। बाहर वही चेहरा… गुलाबो का… लेकिन इस बार उसकी आँखों में करुणा थी, क्रोध नहीं।

“अब तुम मेरी कहानी सुन रही हो, इसलिए मैं तुम्हें अपनी सबसे छुपी याद देने आई हूँ,” वह फुसफुसाई।

“क्या?” रीतू ने कांपते हुए पूछा।

गुलाबो बोली, “कुएँ के नीचे सिर्फ मेरा शव नहीं है। वहाँ एक और राज़ दबा है। एक कागज़, एक सच्चाई… जो सबको चुप करा देगा।”

 

सुबह होने से पहले ही रीतू की नींद टूट गई। सपने में गुलाबो की कही बात उसके दिमाग में बार-बार घूम रही थी—कुएँ के नीचे सिर्फ मेरा शव नहीं है… वहाँ एक कागज़ है… एक सच्चाई।”

वह एक रिसर्च स्कॉलर थी, लेकिन अब उसकी यात्रा शोध से कहीं आगे बढ़ चुकी थी। यह एक वादा बन चुका था—एक औरत से, जो जीते जी न सुनी गई और मरने के बाद भी आवाज़ में तब्दील होकर कुएँ में गूंजती रही।

विनय जब उठा, तो रीतू पहले ही अपने बैग में टॉर्च, नोटबुक और दस्ताने भर चुकी थी।

“तुम सुबह-सुबह कहाँ जा रही हो?” विनय ने पूछा।

“कुएँ में उतरने,” रीतू ने निर्भीकता से कहा। “गुलाबो ने मुझे बताया है कि वहाँ कुछ है। मुझे ढूंढना है।”

“तुम पागल हो गई हो क्या? वो कुआँ सालों से बंद है, कोई नहीं गया वहाँ।”

“इसलिए तो मैं जाऊँगी।”

विनय अंततः मान गया, लेकिन एक शर्त पर—”मैं साथ चलूँगा।”

दोनों दोपहर तक कुएँ के पास पहुँचे। रीतू के पास पुरानी रस्सी, एक लोहे की कटोरी जिसे घंटे की तरह इस्तेमाल करना था, और गाँव के एक लड़के से ली गई बैटरी लाइट थी। विनय ने रस्सी को पेड़ से बाँधा और नीचे झांकते हुए बोला, “बहुत गहरा है। साँप-बिच्छू भी हो सकते हैं।”

रीतू बोली, “डर की बात मत करो। यहाँ कोई औरत साठ सालों से अपनी कहानी कहने के लिए इंतज़ार कर रही है।”

वो धीरे-धीरे रस्सी के सहारे नीचे उतरने लगी। हर फुट नीचे जाते हुए अंधेरा घना होता गया, दीवारें गीली थीं, और हवा भारी।

कुएँ के तल में कीचड़ था, कुछ हड्डियों जैसी आकृतियाँ ज़मीन में दबी हुई थीं। रीतू ने अपने हाथ से चारों ओर कीचड़ हटाना शुरू किया। तभी उसकी उंगलियों को कोई सख्त चीज़ छुई।

एक छोटा लकड़ी का बक्सा।

उस पर लाल धागे लिपटे थे, जैसे किसी मंत्र से बाँधा गया हो। रीतू ने हल्के हाथों से धागा खोला, ढक्कन खोला—भीतर एक पुराना दस्तावेज़ था, तांबे की मुहर लगी हुई।

रोशनी में उसने देखा—”गुलाबो देवी बनाम ठाकुर रणबीर सिंह”। दस्तावेज़ में गुलाबो द्वारा दायर किया गया ज़मीन हड़पने का मुकदमा था। और नीचे एक साइन—”स्वीकृत।” यानी उस औरत ने केस जीत लिया था।

लेकिन… अगर केस उसने जीता था, तो उसकी हत्या क्यों हुई?

“गुलाबो को इंसाफ मिला था… लेकिन किसी ने उसे दुनिया को बताने से पहले ही मिटा दिया,” रीतू बुदबुदाई।

ऊपर खड़ा विनय बार-बार पुकार रहा था, “रीतू, सब ठीक है?”

“हाँ! मुझे मिला वो कागज़! गुलाबो सच कह रही थी!” उसकी आवाज़ कुएँ की दीवारों में गूंजी।

जैसे ही रीतू ऊपर चढ़ने लगी, कुएँ की हवा अचानक थम गई। एक ठंडक उसके चारों ओर फैली, और फिर… एक धीमी आवाज़ आई—अब मैं आज़ाद हूँ…”

उस रात गाँव की हवाएं कुछ बदली-बदली थीं। पहली बार वर्षों बाद अमावस्या की रात आई… और कोई चीख नहीं गूंजी। कोई साया नहीं दिखा।

गुलाबो अब चुप थी।

 

सुबह जब रीतू ने पंचायत भवन के बाहर दस्तावेज़ की कॉपी लोगों को दिखानी शुरू की, तो पहले तो कोई विश्वास नहीं कर पाया। गाँव के बुज़ुर्ग, जो वर्षों से जमींदार के खानदान के नीचे दबे रहे थे, चुपचाप देखते रहे। कुछ नौजवानों ने तो फुसफुसाना शुरू कर दिया—”तो असली ज़मीन तो उसी विधवा की थी?”

“गुलाबो देवी… जिनकी चीखें हमने अमावस्या की रातों में सुनीं, वो हमारी इंसाफ की कहानी बन गईं,” रीतू ने दस्तावेज़ हवा में लहराते हुए कहा।

पंचायत प्रमुख, जो अब तक सारी बातों को अंधविश्वास मानते आए थे, कागज़ को उलट-पलटकर देखने लगे। “इस मुहर पर सरकार की मोहर है। ये असली लगता है।”

काकी, जो भीड़ के पीछे से देख रही थीं, चुपचाप सामने आईं और बोलीं, “मैंने उसे मरते देखा था। और आज मैं उसे मुक्ति पाते देख रही हूँ। अब गाँव उसका नाम फिर से सम्मान से लेगा।”

गाँव में वर्षों से बंद पड़ी एक छोटी-सी चौपाल थी, जो अब पुस्तकालय बनने वाली थी। विनय ने प्रस्ताव रखा—”क्यों न इस लाइब्रेरी का नाम गुलाबो पुस्तकालय’ रख दें?”

सबसे पहले तालियाँ रीतू ने बजाईं, फिर बच्चों ने, फिर बाकी गाँव वालों ने। जैसे कोई बाँध टूटा हो, और भीतर की ग्लानि बह निकली हो।

उसी शाम, जब रीतू अपने कमरे में बैठी रिपोर्ट टाइप कर रही थी, तो हवा का एक हल्का झोंका अंदर आया। खिड़की के परदे हिले, और अचानक टेबल पर रखी गुलाबो की तस्वीर हल्के से झुक गई—मानो सिर झुका रही हो।

रीतू मुस्कराई। “तुम्हारी कहानी अब सिर्फ कुएँ में बंद नहीं है, गुलाबो। अब वो किताबों में है, ज़ुबानों में है, और इतिहास में भी।”

पैकिंग के दौरान विनय चुपचाप दरवाज़े पर खड़ा रहा।

“जा रही हो?” उसने पूछा।

“हाँ। पटना यूनिवर्सिटी में रिपोर्ट जमा करनी है। शायद यह थीसिस मेरी ज़िंदगी की सबसे ज़रूरी चीज़ है।”

“और तुम्हारे साथ जो कुछ हुआ… वो?”

“वो अब मेरे भीतर है। डर की जगह ताकत बन गया है।”

विनय ने हल्के से मुस्कराकर कहा, “कभी वापस आना। गाँव की कहानियाँ खत्म नहीं होतीं, बस नई आवाज़ें ढूँढती हैं।”

ट्रेन के सफर में रीतू ने अंतिम बार अपनी डायरी खोली।

गुलाबो सिर्फ एक आत्मा नहीं थी। वो हर उस औरत की आवाज़ थी, जिसे चुप करा दिया गया। लेकिन एक दिन, हर कुएँ में गूंजने वाली चीख़ें कहानी बन जाएंगी। और कहानी कभी नहीं मरती।”

उसने अंतिम शब्द लिखे, फिर खिड़की से बाहर झाँका। सूरज ढल रहा था, लेकिन उस ढलती रोशनी में कहीं गुलाबो की परछाईं मुस्कराती दिख रही थी।

समाप्त

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