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बीबी का मक़बरा: अधूरी मोहब्बत का ख़ून

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रागिनी शुक्ला


औरंगाबाद की सर्द रात की हवा में एक अजीब सी खामोशी पसरी हुई थी, जैसे इतिहास की परतों में दबी कोई अनकही दास्तान सांस रोके खड़ी हो। बीबी का मक़बरा अपने जमे हुए सौंदर्य के साथ अंधेरे में भी चमक रहा था, उसकी संगमरमर की दीवारों पर चाँदनी बिखरी हुई थी और चारों ओर खामोश दरख़्तों की कतारें स्याह साए सी लग रही थीं। उस रात मक़बरे के प्राचीन दरवाज़ों के पीछे किसी को भी भनक नहीं थी कि वहाँ मौत दस्तक देने वाली है। आयशा खान, एक युवा पत्रकार जो दिल्ली से आई थी, इसी मक़बरे के इतिहास पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाने का सपना लिए वहाँ पहुँची थी। उसने सुन रखा था कि रात के समय बीबी के मक़बरे की दीवारें अजीब सी आवाज़ें करती हैं—कभी किसी के चलने की आहट, तो कभी किसी के रोने की सिसकी, मगर आयशा ने सोचा था ये सब कहानियाँ सिर्फ़ लोगों की कल्पना हैं। कैमरे का ट्राइपॉड सेट करते हुए उसने मक़बरे की गहराई में नज़र डाली, उसकी नज़र अचानक सामने की दीवार पर पड़े हल्के से खून के धब्बों पर पड़ी, मगर उसने तुरंत ध्यान हटा लिया। तभी मोबाइल पर फ्लैशलाइट ऑन कर वो आगे बढ़ी, मक़बरे के भीतरी गलियारे में, जहाँ पुरानी नक्काशी वाले पत्थर, faded मेहराबें और जालीदार खिड़कियों से छनकर आती चाँदनी उसे किसी दूसरी ही सदी में ले जा रही थी।

भीतर की हवा अचानक ठंडी और भारी सी लगने लगी, आयशा को एहसास हुआ जैसे कोई अनदेखी निगाहें उस पर जमी हुई हैं। तभी उसे लगा कि उसकी परछाई के पीछे एक और परछाई हल्के से हिली—पर जब पलटी, वहाँ कुछ नहीं था, सिर्फ़ पुरानी दीवारें और जमी हुई धूल। उसने गहरी सांस ली और आगे बढ़ी, तभी उसकी नज़र मक़बरे के ठीक बीचोंबीच रखे उस संगमरमर के मक़बरे पर पड़ी, जिसके चारों ओर संगमरमर की जाली बनी हुई थी, जैसे सदियों से किसी रहस्य को कैद कर रखा हो। कैमरे का लेंस ज़ूम करते हुए, उसने देखा कि उस जाली के अंदर कोई हल्की सी हरकत हुई। दिल की धड़कन तेज़ हुई, मगर पेशे की आदत से उसने कैमरा नीचे नहीं किया। तभी, अचानक पास के पत्थर की सीढ़ियों से किसी के गिरने की तेज़ आवाज़ गूंजी और वो दौड़कर वहाँ पहुँची। वहाँ फर्श पर लहूलुहान पड़े हुए थे—डॉ. अब्बास अली, जाने-माने पुरातत्वविद, जिनसे आयशा सुबह ही मिली थी। उनकी आँखें खुली की खुली रह गई थीं, होंठों पर जैसे कुछ कहने की कोशिश अटकी हुई थी।

उस रात आसमान पर बादल घिर आए थे, चाँद ढक गया और पूरा मक़बरा जैसे एक स्याह परछाई में डूब गया। आयशा के हाथ काँपने लगे, उसने फोन निकाला और इमरजेंसी नंबर डायल किया, मगर सिग्नल गायब था। उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई, मगर उस वीराने में सिर्फ़ पुरानी दीवारें और पत्थरों की गूँज थी। तभी उसकी नज़र डॉ. अली के हाथ में जकड़े एक पुराने, पीले पन्नों वाले काग़ज़ पर पड़ी—जिसे वो अपनी आख़िरी सांस तक थामे रहे। आयशा ने हिम्मत कर के वो काग़ज़ निकाला; उस पर उर्दू में कुछ लिखा था, स्याही कुछ जगहों पर धुंधली थी, मगर एक शब्द साफ़ दिख रहा था—“ख़ज़ाना।” दिल की धड़कन इतनी तेज़ हो गई जैसे सीने से बाहर आ जाएगी। तभी मक़बरे की ऊँचाई पर बने मेहराबों के बीच से किसी ने धीरे से उसका नाम पुकारा—“आयशा…” वो पलटी, मगर कोई नहीं था। अंधेरे और सन्नाटे के बीच, बीबी के मक़बरे की सदियों पुरानी खामोशी में एक नए रहस्य की दस्तक हो चुकी थी।

सुबह की हल्की धूप जब मक़बरे की जालीदार खिड़कियों से छनकर भीतर आई, तो रात के डरावने सन्नाटे की जगह एक अजीब सी उदासी और बेचैनी ने ले ली। पुलिस की गाड़ियाँ मक़बरे के बाहर खड़ी थीं, और पुरातत्व विभाग के कुछ लोग भी वहाँ जमा हो चुके थे। आयशा की आँखों में नींद नहीं थी; रात भर वो डॉ. अली की मौत के बारे में सोचती रही थी, और सबसे ज़्यादा उस पीले पन्ने के बारे में, जो उन्होंने अपनी आखिरी साँसों में थामे रखा था। उसने वो काग़ज़ संभाल कर अपने बैग में रखा था, और सुबह सबसे पहले पुलिस को सच बताने की हिम्मत जुटाई। मगर उसके भीतर कहीं एक डर भी था—कि कहीं ये राज़ उसी के लिए मुसीबत न बन जाए।

इंस्पेक्टर राघव शेखावत, जो केस की जांच कर रहे थे, लंबी कद-काठी और सख़्त चेहरे वाले आदमी थे। उन्होंने आयशा से विस्तार से सवाल किए—तुम कब आई, कब सुना आवाज़, कब देखा लाश? आयशा ने सब कुछ सच-सच बताया, मगर उस पन्ने की बात छुपा गई। पुलिस के लोग डॉ. अली के काम की फाइलें, नोट्स और लैपटॉप ज़ब्त कर रहे थे। तभी, मक़बरे की संगमरमर की सीढ़ियों के पास, जहाँ रात को लाश मिली थी, खून के निशान अब भी धब्बों में दिखाई दे रहे थे। मगर ध्यान से देखने पर आयशा को समझ आया कि वो निशान सिर्फ़ वहीं नहीं थे—बल्कि दीवार की तरफ़ जाते हुए भी थे, जैसे किसी ने वहाँ तक घसीटने की कोशिश की हो या किसी के हाथ में चोट लगी हो और वो वहाँ से गुज़रा हो। उसने कैमरे से उन निशानों की तस्वीरें खींच लीं, पर ये बात पुलिस से भी छुपा ली।

भीड़ में अचानक उसकी मुलाक़ात विक्रांत देव से हुई, जो स्थानीय इतिहासकार थे और बीबी के मक़बरे पर कई लेख लिख चुके थे। वो भी डॉ. अली की रिसर्च टीम का हिस्सा थे, और रात की घटना की ख़बर सुनकर सुबह-सुबह पहुँच गए थे। विक्रांत ने आयशा को देखते ही कहा, “तुम्हें कुछ पता चला?” आयशा ने कुछ झिझक कर सिर हिलाया, फिर धीमे से कहा, “डॉ. अली के हाथ में एक पुराना काग़ज़ था… उस पर ‘ख़ज़ाना’ लिखा था।” विक्रांत की आँखों में एक पल को चमक सी आई, मगर उसने तुरंत चेहरे पर गंभीरता लाते हुए कहा, “तुम्हें ये बात अभी किसी को मत बताना। यहाँ कुछ ऐसा है जो न जाने कितने सालों से छुपा है।” आयशा ने घबराकर पूछा, “क्या सच में कोई ख़ज़ाना है?” विक्रांत कुछ पल चुप रहे, फिर बोले, “सिर्फ़ ख़ज़ाना नहीं… एक कहानी है, जिसमें मोहब्बत भी है, ग़द्दारी भी और शायद क़त्ल भी… और डॉ. अली उसी के क़रीब पहुँच गए थे।” उनके लहजे में डर भी था और उत्सुकता भी, जैसे सदियों पुरानी किसी कथा के सच होने की भनक मिल गई हो।

उस दिन दोपहर को मक़बरे की भीड़ थोड़ी कम हुई, तो आयशा फिर से उस जगह गई जहाँ रात को डॉ. अली मिले थे। वहाँ खून के धब्बे अब भी नम से लग रहे थे, जैसे इतिहास अभी भी अपना रहस्य छोड़ने को तैयार नहीं था। उसने कैमरा ऑन किया और दीवार पर उँगलियों से निशान तलाशने लगी, तभी अचानक उसे उस दीवार में हल्की सी दरार महसूस हुई। धड़कन बढ़ गई; शायद यहीं कोई तहखाना होगा, जिसके बारे में कहानियाँ कही जाती थीं। उसने विक्रांत को आवाज़ दी, मगर वो दूर कहीं फोन पर बात कर रहे थे। अकेले ही उसने दीवार को धक्का दिया, मगर वो हिली नहीं। तभी पीछे से एक धीमी आवाज़ आई—“इतिहास हमेशा ख़ून से लिखा जाता है…” आयशा पलटी तो देखा, रात का गार्ड आरिफ़ खड़ा था, उसकी आँखों में अजीब सी उदासी और डर मिला हुआ था। “इस मक़बरे में जो खोजोगी, उससे डर भी जाओगी,” उसने कहा, फिर धीमे कदमों से चला गया, जैसे अंधेरे की परछाई में गुम हो गया हो। उस पल आयशा को एहसास हुआ कि बीबी का मक़बरा सिर्फ़ एक मक़बरा नहीं, बल्कि किसी अधूरी दास्तान का कब्रिस्तान है—और वो दास्तान अब फिर से जाग रही थी।

शाम ढलते-ढलते मक़बरे की दीवारों पर परछाइयाँ लंबी होने लगी थीं, और हवा में नमी के साथ एक रहस्यमयी सी गंध भी घुल गई थी, जैसे पुरानी किताबों और गीली मिट्टी का मिला-जुला एहसास। आयशा ने तय कर लिया था कि अब उसे सिर्फ़ सतह पर नहीं रुकना, बल्कि उस दीवार के पार झाँकना होगा जिसके पीछे का सच सदियों से दफ्न है। विक्रांत से मिलकर उसने अपनी खोज की बात बताई। विक्रांत की आँखों में अजीब सा डर झलक गया, पर फिर भी उसने हामी भरी—“आज रात, जब यहाँ सन्नाटा हो जाएगा, तब कोशिश करते हैं।” रात का इंतज़ार, दोनों के लिए एक अलग तरह की बेचैनी लेकर आया। जैसे-जैसे अंधेरा गहराया, मक़बरे की नक्काशीदार मेहराबों में छुपी परछाइयाँ भी सजीव लगने लगीं।

रात के करीब ग्यारह बजे दोनों फिर से उसी जगह पहुँचे जहाँ दरार मिली थी। हाथ में टॉर्च, बैग में कैमरा और दिल में डर और जिज्ञासा का अजीब सा संगम। विक्रांत ने दीवार के एक कोने को धीरे से दबाया, और हल्की सी खटक की आवाज़ के साथ पत्थर की जाली में एक दरवाज़ा जैसा हिस्सा थोड़ा सा अंदर धँस गया। आयशा की साँसें थम गईं। दोनों ने मिलकर उसे थोड़ा और धकेला, और एक पुरानी, संकरी सीढ़ियाँ दिखाई दीं जो नीचे अंधेरे में उतर रही थीं। नीचे से ठंडी हवा का झोंका आया, जिसमें सीलन, धूल और जाने किस चीज़ की सड़ी-गली महक घुली हुई थी। टॉर्च की रोशनी में सीढ़ियाँ बहुत पुरानी लग रहीं थीं, कुछ सीढ़ियाँ टूटी भी थीं। धीरे-धीरे उतरते हुए दोनों का हर कदम पत्थर पर हल्की सी गूँज पैदा कर रहा था, जैसे अंधेरे में कोई उनकी आहट सुन रहा हो।

नीचे उतरकर सामने एक लंबा गलियारा खुला, जिसकी दीवारों पर उर्दू और फारसी में कुछ लिखा था। कुछ लफ़्ज़ पढ़े जा सकते थे—‘मौत’, ‘इश्क़’, ‘ख़ज़ाना’। आयशा ने कैमरे से तस्वीरें खींचीं, दिल की धड़कन अब और तेज़ हो गई थी। तभी गलियारे के दूसरे सिरे से किसी के चलने की सरसराहट सी आवाज़ आई—मद्धम, मगर साफ़। दोनों ठिठक गए, टॉर्च की रोशनी उस ओर डाली, पर वहाँ सिर्फ़ धूल, पत्थर और घुप्प अंधेरा था। आवाज़ फिर आई, इस बार कुछ और पास से, जैसे कोई उनके बहुत क़रीब से गुज़रा हो। दोनों ने बिना कुछ कहे आगे बढ़ना शुरू किया, डर के बावजूद कदम पीछे नहीं लिए। अचानक विक्रांत का पैर एक पुराने पत्थर पर पड़ा, जो दबते ही सरक गया, और दीवार में एक खुफ़िया कक्ष का दरवाज़ा खुल गया। कक्ष के भीतर एक टूटी हुई संदूक रखी थी, और संदूक के अंदर एक धुंधली सी मुहर लगी किताब। आयशा ने किताब हाथ में ली, उसकी जिल्द पर कुछ लिखा था—‘तारा’।

विक्रांत ने धीमे से कहा, “ये वही तारा होगी जिसके बारे में किंवदंती है—डॉ. अली इसी तक तो पहुँचने वाले थे…” तभी पास की दीवार से कुछ सरसराहट की आवाज़ फिर आई, जैसे कोई साँस ले रहा हो। दोनों ने पलटकर देखा, मगर कोई नहीं था—सिर्फ़ अंधेरे में दीवारों पर उभरी उनकी अपनी परछाइयाँ। आयशा की उँगलियाँ काँप रही थीं, मगर उसने किताब को अपने सीने से चिपकाकर कसकर पकड़ लिया। उस पल, बीबी के मक़बरे का ये तहखाना सिर्फ़ पत्थरों का ढेर नहीं, बल्कि एक दबी हुई सच्चाई की गवाही बन चुका था—और उस सच्चाई का चेहरा अभी भी परछाइयों के पीछे छुपा हुआ था।

मक़बरे के तहख़ाने से बाहर निकलते वक्त आयशा के हाथों में थमी वह पुरानी मुहर लगी किताब उसके लिए अब सिर्फ़ एक चीज़ नहीं, बल्कि सदीयों से दफ्न एक सवाल की चाबी बन चुकी थी। ऊपर आकर दोनों ने उस किताब को ध्यान से देखा—धूल और सीलन से सनी हुई जिल्द पर बस एक नाम उकेरा था: “तारा”। पन्ने खुरदरे, कुछ जगहों पर गीलेपन के दाग़ और स्याही की महक जैसे किसी भूली हुई सिसकी की तरह दिल को छू रही थी। आयशा ने काँपते हाथों से पहला पन्ना पलटा, और जैसे ही पढ़ना शुरू किया, उसकी साँसें रुक-सी गईं।

“मैं तारा, जिन्दा होकर भी पत्थर बनी हूँ… मेरी मोहब्बत मेरे लहू के साथ इसी मक़बरे की मिट्टी में दफ़्न हो चुकी है।” यह पहला वाक्य ही जैसे किसी दिल टूटे दिल की चीख़ था। पन्नों में आगे लिखा था कि कैसे तारा एक नर्तकी थी, जिसे औरंगज़ेब के बेटे ने चोरी-छुपे दिल दे दिया था। मगर इस प्यार को सज़ा मिली—ग़द्दारी के इल्ज़ाम में तारा को बंद तहख़ाने में कैद कर दिया गया, जहाँ वह आख़िरी साँस तक किसी के लौट आने का इंतज़ार करती रही। विक्रांत के हाथ भी काँप रहे थे, और उसकी आँखों में एक दर्द छुपा हुआ था, मानो तारा की दास्ताँ सिर्फ़ पढ़ नहीं रहा था, बल्कि महसूस कर रहा था।

डॉ. अली शायद इस डायरी के ज़रिये उस तहख़ाने की असली हकीकत जान चुके थे। डायरी के आख़िरी हिस्से में एक रहस्यमयी नक़्शा भी बना था, जहाँ लाल स्याही से कुछ निशान लगे थे, और उर्दू में लिखा था—“जहाँ इश्क़ ने दम तोड़ा, वहीं ख़ज़ाने का दिल धड़कता है।” आयशा के दिल की धड़कन तेज़ हो गई; शायद तारा का प्यार सिर्फ़ उसकी रूह तक ही सीमित नहीं था—शायद उसने अपनी आख़िरी यादों के साथ कोई राज़ भी दफ़्न कर दिया था। उस रात मक़बरे की वीरानी में, आयशा और विक्रांत को एहसास हुआ कि डॉ. अली की मौत कोई हादसा नहीं—बल्कि उस ख़ज़ाने तक पहुँचने की दौड़ का खूनी पड़ाव थी। और ये भी कि आगे का रास्ता उनसे उनके डर, उनकी हिम्मत और उनके दिल की सच्चाई माँगने वाला था।

अगली सुबह जब मक़बरे के बाहर की भीड़ कम होने लगी, आयशा और विक्रांत ने तय किया कि डायरी के नक़्शे की मदद से उस जगह तक पहुँचने की कोशिश करेंगे, जिसे तारा ने “ख़ज़ाने का दिल” कहा था। मगर उससे पहले विक्रांत ने आयशा को एक जगह चलने को कहा—शहर की पुरानी लाइब्रेरी, जहाँ कुछ मुगल दस्तावेज़ सुरक्षित रखे थे। वहाँ धूल से भरी पुरानी अलमारियों और जर्जर पन्नों के बीच विक्रांत ने एक दस्तावेज़ निकाला—औरंगज़ेब का लिखा हुआ एक गुप्त फ़रमान, जिसके बारे में सिर्फ़ कुछ इतिहासकार ही जानते थे। उस फ़रमान में लिखा था कि “मक़बरे के तहख़ाने में उस परछाई को क़ैद किया जाए, जो मेरे बेटे के इश्क़ की आग को भड़का सकती है।”

आयशा की रूह काँप गई। इसका मतलब तारा को सिर्फ़ महल की सज़ा नहीं मिली थी—उसे किसी गुप्त योजना के तहत मक़बरे की नींव में दफ़्न कर दिया गया था, ताकि उसके प्यार की दास्ताँ बाहर न निकल सके। विक्रांत ने धीमे से कहा, “तुम समझती हो न आयशा, डॉ. अली इसी सच्चाई को उजागर करने के करीब थे, और शायद इसी वजह से…” उसकी आवाज़ रुक गई। आयशा को भी अब यकीन हो चला था कि यह मामला सिर्फ़ ख़ज़ाने का नहीं, बल्कि सदियों पुरानी मोहब्बत, ग़द्दारी और राज़ को ज़िन्दा करने का था।

डायरी के नक़्शे और गुप्त आदेश से जोड़कर उन्हें एहसास हुआ कि मक़बरे के सबसे पुराने हिस्से में, उस जालीदार गुंबद के ठीक नीचे, कोई छुपा तहख़ाना या कमरा हो सकता है। दोनों ने तय किया कि रात में वहीं जाकर देखेंगे। पर जैसे-जैसे शाम हुई, मक़बरे के सन्नाटे में कुछ बदलने लगा। हवा भारी और ठंडी हो गई, जैसे दीवारें भी उनकी योजना सुन रही हों। और उसी सन्नाटे में कहीं, किसी ने फिर से सरसराती आवाज़ में कहा—“जहाँ इश्क़ ने दम तोड़ा…”। आयशा की रूह तक सिहर गई, और उस पल उसे महसूस हुआ कि तारा की अधूरी मोहब्बत अब भी उन्हें पुकार रही थी—मगर क्या वो मोहब्बत उन्हें ख़ज़ाने तक ले जाएगी, या किसी और मौत का सबब बनेगी, इसका जवाब अब बस उन रातों में छुपा था जो इतिहास ने कभी खत्म नहीं होने दीं।

रात का सन्नाटा बीबी का मक़बरा निगल चुका था, चाँदनी जालीदार मेहराबों से छनकर पत्थरों पर बिछी हुई थी, और हवा में सीलन और किसी अनकही दास्तान की महक घुली हुई थी। आयशा और विक्रांत धीमे कदमों से उस जगह पहुँचे जहाँ नक़्शे में लाल स्याही से निशान बने थे—मक़बरे के मध्य गुंबद के ठीक नीचे, जहाँ कभी किसी ने ध्यान नहीं दिया था। हाथ में टॉर्च की हल्की रोशनी, दिल में डर की धड़कन और मन में सैकड़ों सवाल—क्या सच में ख़ज़ाना यहीं दफ़्न है, या ये सिर्फ़ किसी शापित प्रेमकहानी की गूँज है? अचानक विक्रांत ने गुंबद की दीवार पर एक उभरा हुआ पत्थर देखा, जिसे दबाते ही ज़मीन पर पत्थर की पटिया खिसकने की आवाज़ आई, और सामने ज़मीन में एक संकरा रास्ता खुल गया।

दोनों ने काँपते हुए नीचे उतरना शुरू किया। सीढ़ियाँ सीलन भरी थीं और हर कदम पर अंधेरे में उनकी परछाइयाँ कांप रही थीं। नीचे उतरकर सामने खुला एक छोटा सा तहख़ाना, जिसकी दीवारों पर उर्दू और फ़ारसी में इश्क़ और मौत की कहानियाँ उकेरी थीं—जैसे तारा ने अपनी रूह से इन्हें लिखवाया हो। तहख़ाने के बीचोंबीच एक पत्थर की संदूक रखी थी, उस पर वही मुहर जो डायरी पर थी—“तारा”। आयशा के हाथ काँप रहे थे, मगर उसने हिम्मत जुटाकर संदूक खोला। भीतर एक मखमली कपड़े में लिपटी चीज़ थी—सोने और जवाहरात का ख़ज़ाना, मुग़ल दौर के ज़माने का, जिसकी चमक भी अंधेरे में आँखों को चकाचौंध कर रही थी। साथ ही, संदूक में एक और चीज़ थी—एक मटमैला काग़ज़, जिस पर लिखा था, “जिस इश्क़ ने दम तोड़ा, वही इश्क़ ख़ून माँगेगा…”।

उस पंक्ति को पढ़ते ही तहख़ाने की हवा में कुछ बदल गया। जैसे किसी अदृश्य छाया ने उस जगह को अपनी गिरफ़्त में ले लिया हो। आयशा और विक्रांत ने ऊपर देखने की कोशिश की, पर वहां बस अंधेरा और सरसराहट थी। दिल की धड़कन अब इतनी तेज़ थी कि दोनों को अपनी ही सांसों की आवाज़ सुनाई दे रही थी। विक्रांत ने डर के बावजूद फुसफुसाकर कहा, “आयशा… लगता है इस ख़ज़ाने पर सिर्फ़ ताला नहीं, बल्कि तारा की आत्मा का पहरा भी है।” उस पल दोनों समझ गए कि यह सिर्फ़ सोना-चाँदी नहीं, बल्कि सदियों पुरानी मोहब्बत, ग़द्दारी और मौत की दास्तान का अधूरा अध्याय है—और उस दास्तान का सच किसी को बिना क़ुर्बानी दिए हासिल नहीं हो सकता। मक़बरे की सीलन भरी दीवारों में, परछाइयों की गूँज में और हवाओं की सरसराहट में वही सवाल गूंजा—“ख़ज़ाना या शाप?”—और शायद ये जवाब अब भी तारा की रूह के पास ही था।

बीबी के मक़बरे के तहख़ाने में उस रात आयशा और विक्रांत के सामने खुला वह संदूक सिर्फ़ ख़ज़ाने की चमक नहीं, बल्कि मौत की परछाई भी साथ लेकर आया था। सोने-चाँदी की झिलमिलाहट को देखते ही विक्रांत की आँखों में पहली बार डर के साथ एक लालच की झलक भी चमकी, जिसे आयशा ने महसूस तो किया, पर समझ नहीं पाई। तभी तहख़ाने की सरसराहट तेज़ हुई, और अचानक किसी के गिरने की आवाज़ आई। दोनों ने पलटकर देखा तो वही गार्ड आरिफ़ खड़ा था, जिसकी आँखों में अंधेरे से भी ज़्यादा गहरा डर था। उसने काँपती आवाज़ में कहा, “मुझे माफ़ कर दो… मैंने ही डॉ. अली को रोका था… मुझे कहा गया था…” उसकी बात पूरी होने से पहले ही उसके सीने से खून की धार निकली, और वो वहीं गिर पड़ा।

आयशा का दिल जैसे थम गया, उसकी आँखों के सामने आरिफ़ की लाश और पीछे संदूक में रखा वो ख़ज़ाना था, जिसकी कीमत अब उसे साफ़ दिखने लगी थी—इंसानी ज़िन्दगी। विक्रांत ने तेजी से आयशा का हाथ पकड़ा और कहा, “हमें यहाँ से निकलना होगा… कोई नहीं जानता हम यहाँ हैं!” पर उसके लहजे में घबराहट से ज़्यादा कुछ और था—जैसे वो कुछ छुपा रहा हो। ऊपर निकलने की सीढ़ियों तक पहुँचे ही थे कि तहख़ाने में किसी के कदमों की आहट गूँज उठी, और उसी पल टॉर्च की रोशनी में एक चेहरा उभरा—वो चेहरा जिसने आयशा को अंदर तक हिला दिया। वो और कोई नहीं, बल्कि विक्रांत खुद था, मगर उसका चेहरा ज़मीन पर पड़ा था… खून से सना हुआ।

सच किसी बिजली की तरह दिमाग़ में कौंधा—विक्रांत के साथ जो खड़ा था, वो असली विक्रांत नहीं, बल्कि कोई और था। असली विक्रांत की लाश उस तहख़ाने में पड़ी थी, और आयशा के साथ जो अब तक था, वो शायद उसी ख़ज़ाने के पीछे लगा कोई हत्यारा था, जिसने डॉ. अली की भी जान ली थी। आयशा की साँसें तेज़ हो गईं, मगर उसकी चीख़ गले में ही अटक गई। उस नकली विक्रांत ने धीमे से कहा, “अब तुम भी बहुत जान चुकी हो… तुम्हें भी यहीं दफ़्न होना होगा…” उस पल मक़बरे की दीवारों में कैद सदियों पुरानी दास्तान, मोहब्बत, ख़ज़ाना और ग़द्दारी एक साथ ज़िंदा हो उठी। आयशा के सामने अब बस दो रास्ते थे—या तो उस शापित तहख़ाने में मर जाना, या किसी तरह इस मौत की साज़िश से भागकर सच की गवाही बन जाना। और उस वीरान अंधेरे में, जहाँ तारा की रूह अब भी भटक रही थी, आयशा ने ठान लिया—वो अब किसी भी क़ीमत पर ज़िन्दा बाहर निकलेगी, ताकि तारा की कहानी भी और इस मौत की साज़िश भी दुनिया को बता सके।

तहख़ाने की घुटन भरी सीलन, अंधेरे में टॉर्च की काँपती रौशनी और सामने खड़ा वो आदमी—जिसने खुद को विक्रांत बताकर आयशा को धोखा दिया था—इन सबके बीच आयशा की साँसें जैसे जम गईं। उसका दिमाग़ तेज़ी से चल रहा था, दिल तेज़ धड़क रहा था, मगर उसने खुद को समझाया—डर से नहीं, हिम्मत से काम लेना होगा। वो आदमी अब भी धीमे कदमों से उसके पास आ रहा था, उसकी आँखों में वही लालच और नफ़रत थी, जो शायद उस ख़ज़ाने से भी ज़्यादा भारी थी। आयशा ने अचानक पीछे की दीवार की तरफ़ देखा, जहाँ तारा की कहानी पत्थरों पर खुदी थी—उस अधूरी मोहब्बत की गवाही, जो आज भी तहख़ाने की हवा में ज़िंदा थी।

वो आदमी कुछ कहने ही वाला था कि आयशा ने झुककर संदूक से एक लोहे की पुरानी मूठ वाला टुकड़ा उठाया और पूरी ताक़त से उसके सिर पर दे मारा। उसके मुंह से दर्द की चीख़ निकली, मगर वो गिरा नहीं, बस कुछ पल के लिए लड़खड़ा गया। आयशा ने उसी मौक़े पर उसे धक्का दिया और अंधेरे में भागी, उसकी टॉर्च हाथ से छूटकर गिर पड़ी और तहख़ाने में अंधेरा घिर आया। दिल की धड़कन जैसे कानों में गूंज रही थी, साँस फूलने लगी थी, मगर उसके कदम रुक नहीं रहे थे। उसे पता था ऊपर जाने वाली सीढ़ियाँ दूर नहीं, और अगर एक बार वो तहख़ाने से निकल गई, तो शायद ज़िन्दा रह सकेगी।

भागते-भागते उसे दीवार पर वही नक़्शा फिर से दिखाई दिया, जो तारा की डायरी में भी था—और अचानक समझ आया, तारा ने सिर्फ़ ख़ज़ाने का नहीं, बल्कि इस तहख़ाने से निकलने का रास्ता भी बताया था। दीवार के पत्थरों में हल्की सी जगह से हवा का झोंका आ रहा था। आयशा ने पूरी ताक़त से उस जगह को धक्का दिया, पत्थर खिसका और सामने एक संकरा सुरंगनुमा रास्ता खुल गया। पीछे से भागते कदमों की आवाज़ तेज़ होती जा रही थी, मगर आयशा उस सुरंग में घुस गई। पत्थर, धूल और अंधेरे के बीच रेंगती हुई वो आगे बढ़ी, हर पल दिल में यही डर कि कहीं ये रास्ता भी मौत की गली न निकले। मगर तभी ऊपर से हल्की सी रोशनी की एक किरण पड़ी। उस पल आयशा को जैसे तारा की रूह की आवाज़ सुनाई दी—“सच को ज़िन्दा निकलना ही होगा…”। और उस आवाज़ के सहारे उसने आख़िरी दम तक रेंगते हुए उस रोशनी की तरफ़ हाथ बढ़ाया—क्योंकि सच की तलाश सिर्फ़ ख़ज़ाने की नहीं थी, बल्कि तारा की अधूरी मोहब्बत और उस मौत की साज़िश को दुनिया के सामने लाने की थी, जो मक़बरे की दीवारों में सदियों से कैद थी।

आयशा के हाथ जैसे ही ऊपर की रोशनी तक पहुँचे, उसने आख़िरी दम लगाकर खुद को उस संकरे सुरंग से खींचकर बाहर निकाला। बाहर का ठंडा खुला हवा का झोंका उसके चेहरे पर पड़ा, जैसे सदियों से दबी घुटन से आज़ादी की पहली सांस मिली हो। चारों ओर फैला मक़बरे का प्रांगण रात की निस्तब्धता में डूबा था, मगर वही चाँदनी अब उसे मौत का नहीं, बल्कि उम्मीद का आभास दे रही थी। वह धीरे-धीरे खड़ी हुई, उसके कपड़े धूल से सने थे, हाथ में जगह-जगह चोट के निशान थे, पर आँखों में जिद की आग थी। पीछे मुड़कर देखा, वो तहख़ाना जिसकी परतों में ग़द्दारी, मोहब्बत और ख़ून की कहानियाँ छुपी थीं, आज भी अपनी चुप्पी में अनगिनत दास्तानें कैद किए खड़ा था।

उसने गहरी साँस ली और जल्दी से फोन निकाला, जो अंधेरे में भागते वक़्त उसके बैग में बचा रह गया था। पुलिस को कॉल किया, आवाज़ काँप रही थी मगर शब्द मज़बूत थे—“बीबी के मक़बरे में तहख़ाने में एक लाश है, और एक आदमी जिसने विक्रांत की जगह ली…” उसकी आवाज़ में सच्चाई की ताक़त थी, और डर से कहीं ज़्यादा अब उसमें तारा की कहानी को दुनिया तक पहुँचाने की धुन थी। चाँदनी में उसने अपनी परछाई देखी, जैसे तारा की परछाई उसी में मिल गई हो—वो अधूरी मोहब्बत, वो अनकहा दर्द और वो ग़ुस्सा, जिसने सदियों से इस मक़बरे की दीवारों में साँसें ली थीं।

थोड़ी ही देर में पुलिस की गाड़ियों की लाल-नीली बत्तियाँ मक़बरे की ख़ामोशी चीरती हुई पहुँचीं। आयशा ने सब कुछ बता दिया—तहख़ाने का रास्ता, तारा की डायरी, असली विक्रांत की लाश, और उस झूठे आदमी का सच। उसकी आँखों में आँसू थे, मगर डर के नहीं—एक अधूरी कहानी को न्याय दिलाने की तसल्ली के आँसू। पुलिस तहख़ाने की ओर बढ़ी, और आयशा चुपचाप गुंबद की ओर देखने लगी। उसे लगा जैसे तारा की परछाई आज मुस्कुरा रही हो—सदियों बाद किसी ने उसकी दास्तान सुनी, उसे शब्द दिए। और उस पल आयशा ने महसूस किया कि समय सिर्फ़ पत्थरों में नहीं, सच्चाई में भी कैद होता है—और जब वो सच्चाई बाहर आती है, तो सदियों पुराना समय भी अपना चेहरा बदलकर दुनिया को अपना असली प्रतिबिंब दिखा देता है।

१०

बीबी का मक़बरा उस सुबह वैसा ही दिखता था जैसा सदियों से दिखता आया था—चुप, भव्य और समय के हाथों में थमा हुआ। मगर उस सुबह उसकी दीवारों में एक हलचल थी, जैसे किसी ने उसकी पुरानी दास्तानों को फिर से ज़िन्दा कर दिया हो। पुलिस ने तहख़ाने से असली विक्रांत की लाश बरामद की, और उसी के पास गिरफ़्तार किया उस नकली विक्रांत को—जिसका असली नाम राजन था, जो पुरातत्व विभाग में ठेके पर काम करता था और जिसने डॉ. अली की खोज के बारे में जानकर लालच में यह खूनी खेल रचा था। डॉ. अली की हत्या के पीछे भी वही था, जिसने रात की खामोशी का फ़ायदा उठाकर उन्हें रास्ते से हटाया और खुद को विक्रांत बताकर आयशा के साथ तहख़ाने तक जा पहुँचा—ताकि ख़ज़ाने तक अकेले पहुँच सके।

पुलिस स्टेशन में बैठकर आयशा ने सब कुछ बताया—तहख़ाने की राह, तारा की डायरी, गुप्त फ़रमान और राजन की साज़िश। राजन ने भी आख़िरकार अपना गुनाह कबूल किया, उसकी आँखों में डर से ज़्यादा हार की नमी थी। आयशा ने उस डायरी को सबूत के तौर पर पुलिस को सौंप दिया, मगर दिल में कहीं तसल्ली थी कि तारा की अधूरी दास्ताँ अब किताबों में, दस्तावेज़ों में और लोगों की ज़ुबान पर ज़िन्दा हो जाएगी। ख़ज़ाना सरकार ने ज़ब्त कर लिया, मगर आयशा के लिए असली ख़ज़ाना वो सच्चाई थी जो उसने दुनिया के सामने लाई थी।

उस शाम मक़बरे के सामने खड़े होकर आयशा ने आख़िरी बार उस जालीदार गुंबद की ओर देखा, जहाँ कभी तारा के इश्क़ ने दम तोड़ा था। हवाओं में हल्की सरसराहट हुई, जैसे तारा की रूह अब आज़ाद होकर मुस्कुरा रही हो। उसकी परछाई आयशा की परछाई में मिल गई—अधूरी दास्तान अब अधूरी नहीं रही। और उस पल आयशा ने महसूस किया कि इतिहास सिर्फ़ किताबों में नहीं लिखा जाता—कभी-कभी वो ख़ून, मोहब्बत और सच्चाई के संगमरमर में भी दर्ज हो जाता है। मक़बरे की दीवारें आज भी वहीं थीं, मगर उनमें गूँजती आवाज़ अब कह रही थी—सच चाहे जितना भी दबा दो, वो कभी मरता नहीं… आख़िरकार वो अपना रास्ता ढूंढ ही लेता है।

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