Hindi - क्राइम कहानियाँ

काली डायरी

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श्रुति चतुर्वेदी


बनारस की संकरी गलियों में सुबह का उजाला अक्सर धुएँ और धूल में घुला होता है, लेकिन उस दिन ठंड के कुहासे में जो चीज़ सबसे अलग दिखी, वो था—शव। सोनारपुरा की एक टूटी-फूटी हवेली के पीछे कूड़े के ढेर पर मिली थी एक लाश—एक अधेड़ उम्र के आदमी की, जिसकी आँखें खुली थीं, जैसे मरते वक्त वो किसी चीज़ को देख रहा था… या शायद पहचान रहा था। घटनास्थल पर सबसे पहले पहुँची इंस्पेक्टर श्रद्धा त्रिपाठी की नजर सीधे उसके दाहिने हाथ पर गई, जहाँ खून से सना एक छोटा सा काला नोटबुक पड़ा था। न क़त्ल के कोई साफ़ निशान थे, न कोई गवाह। शव का नाम था—हर्षवर्धन माथुर, रिटायर्ड सरकारी अफ़सर, जो कभी ज़मीन हड़पने के एक चर्चित केस का अहम नाम था। उस काली डायरी के पहले पन्ने पर सिर्फ एक शब्द लिखा था—“मुक्ति”, और नीचे एक नाम: “संदीप यादव”। ये नाम इस केस का पहला रहस्य था। श्रद्धा ने डायरी उठाकर बैग में डाली और चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई—हवेली खामोश थी, खिड़कियाँ बंद, पर ऐसा लग रहा था जैसे कोई झरोखे से सब देख रहा हो। हवा में एक अजीब किस्म की नमी थी, और श्रद्धा को पहली बार लगा जैसे शहर की रूह खुद उससे कुछ कहना चाहती हो।

जैसे-जैसे तफ्तीश आगे बढ़ी, श्रद्धा ने महसूस किया कि केस उतना सीधा नहीं जितना ऊपर से दिखता है। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में हत्या का कोई ठोस कारण नहीं मिला—ना ज़हर, ना गला घोंटना, बस दिल की रुकावट। मगर हर्षवर्धन की आँखों में जो खौफ जमा था, वो किसी सामान्य मौत की गवाही नहीं दे रहा था। और उससे भी ज्यादा चौंकाने वाला था डायरी का दूसरा पन्ना, जिसमें अगली तारीख लिखी थी—“12 जनवरी, संदीप यादव, वार्ड नंबर 17, काशी हॉस्पिटल”। श्रद्धा ने तुरंत अस्पताल संपर्क किया, और पाया कि संदीप यादव नामक एक वार्ड बॉय दो दिन से ड्यूटी पर नहीं आया। उसका मोबाइल स्विच ऑफ था और पते पर ताला पड़ा हुआ। यह एक पैटर्न था, पर बहुत ही असामान्य—किसी को मारा जाता है, उसके पास डायरी छोड़ी जाती है जिसमें अगले शिकार का नाम होता है। एक के बाद एक, जैसे कोई “मुक्ति की लिस्ट” पूरी कर रहा हो। अपने सीनियर डीसीपी हरेश मिश्रा को रिपोर्ट देते हुए श्रद्धा ने इस केस को एक संभावित सीरियल किलिंग केस बताया, लेकिन मिश्रा ने उसे टालते हुए कहा—“श्रद्धा, बनारस में बहुत कुछ होता है, हर मौत में ड्रामा ढूँढना बंद करो।” लेकिन श्रद्धा जानती थी, यहाँ कुछ बहुत गहराई से गड़बड़ है।

शिकंजा कसने के लिए श्रद्धा ने शहर के मनोविज्ञान विभाग से संपर्क किया, जहाँ उसे मिला एक नाम—प्रोफेसर विक्रांत सिंह। एक समय में दिल्ली पुलिस के साथ प्रोफाइलिंग में काम कर चुके विक्रांत अब बीएचयू में पढ़ाते थे और अपराधियों की मानसिकता पर रिसर्च कर रहे थे। पहली मुलाकात में ही श्रद्धा को पता चल गया था कि विक्रांत कोई मामूली आदमी नहीं, वो केस की तह तक जाने की लत रखता है। विक्रांत ने डायरी के शब्दों का विश्लेषण शुरू किया और बताया—“यह सिर्फ हत्या नहीं, यह एक पैग़ाम है। ‘मुक्ति’ शब्द यहाँ धार्मिक नहीं, मनोवैज्ञानिक है। हत्यारा अपने शिकार को मौत नहीं, मुक्ति दे रहा है—या शायद खुद को।” तब तक संदीप यादव की लाश मिल चुकी थी—हॉस्पिटल के जलाशय में डूबी हुई, और हाँ, उसके पास भी वही काली डायरी मिली थी—तीसरे पन्ने पर नया नाम और तारीख। श्रद्धा को महसूस होने लगा था, जैसे बनारस की पवित्रता के नीचे कोई काली नदी बह रही हो—जहाँ हर गुनहगार को एक-एक करके न्याय दिया जा रहा है, पर कानून के दायरे से बाहर। अब सवाल था—काली डायरी लिख कौन रहा है? हत्यारा कौन है? और अगला नाम कहीं खुद श्रद्धा का तो नहीं?

बनारस की सुबहें भले ही घाटों की आरती और गंगा के कलकल से शुरू होती हों, लेकिन श्रद्धा त्रिपाठी के लिए अब हर सुबह एक डर लेकर आती थी—डर इस बात का कि कहीं एक और लाश, एक और डायरी, और एक और नाम इंतज़ार न कर रहा हो। जब संदीप यादव की लाश अस्पताल के पिछवाड़े में मिली, तो शव के पास मिली काली डायरी के तीसरे पन्ने पर लिखा था—“अनुराधा शुक्ला – 15 जनवरी – तुलसी नगर, फ्लैट 304”। अनुराधा, एक निजी स्कूल की प्रिंसिपल, जो दस साल पहले एक यौन उत्पीड़न केस में गवाही से मुकर गई थीं। केस कभी साबित नहीं हुआ और पीड़िता ने आत्महत्या कर ली थी। श्रद्धा को अब यह यकीन होने लगा था कि इन हत्याओं की एक गहरी नैतिक पृष्ठभूमि है—जैसे हत्यारा सिर्फ मार नहीं रहा, न्याय बाँट रहा है। विक्रांत सिंह से चर्चा के दौरान उन्होंने महसूस किया कि ‘मुक्ति’ शब्द, जो हर पन्ने पर लिखा था, सिर्फ आत्मा की आज़ादी नहीं बल्कि अपराध के बोझ से मुक्ति भी हो सकता है। और यह हत्यारा खुद को भगवान समझ रहा है—एक ऐसा इंसान जो न्यायपालिका की असफलता का जवाब अपने हाथों से दे रहा है।

विक्रांत सिंह, जो अपनी हर बात में एक गहरी थकान छुपाए रखता था, अब इस केस में पूरी तरह शामिल हो चुका था। उसने श्रद्धा से कहा, “ये हत्याएं क्रमशः बढ़ेंगी—यह सिर्फ क्रोध से उपजा हुआ मामला नहीं, ये एक संरचित प्रतिशोध है। इस डायरी का लेखक न सिर्फ अपने शिकार को जानता है, बल्कि उन्हें मानसिक तौर पर भी तोड़ रहा है।” उन्होंने अनुराधा शुक्ला से मिलने की सिफारिश की। जब श्रद्धा उससे मिली, तो वह पहले से ही डरी-सहमी थी। उसने स्वीकार किया कि हाल ही में किसी महिला ने उसे फोन किया था, जिसने कहा था, “तुमने जो दबा दिया, अब उसका वक़्त वापस आ रहा है।” अनुराधा ने पुलिस सुरक्षा माँगी, लेकिन श्रद्धा जानती थी कि अगर डायरी में नाम आ चुका है, तो वो अब केवल गिनती की साँसें जी रही है। अगले ही दिन अनुराधा अपने ही घर के स्नानघर में मृत मिली—गले पर सिंदूर से लिखा हुआ था, “अब तू भी मुक्त।” सीसीटीवी कैमरे बंद थे, नौकरानी गायब थी, और फिर वही काली डायरी—अब चौथे पन्ने पर लिखा था—“न्यायाधीश ओंकार चौधरी – 18 जनवरी”।

अब केस के केंद्र में आ चुके थे शहर के सबसे पुराने और प्रभावशाली रिटायर्ड जज—ओंकार चौधरी, जिनके खिलाफ कभी एक दलित किशोरी के रेप केस में ‘सबूतों के अभाव’ में फैसला आया था। श्रद्धा के पास अब समय कम था। विक्रांत ने साफ़ कहा—“हत्यारा या तो पीड़िता है, या पीड़िता से जुड़ा कोई ऐसा शख्स जो खुद को समाज का संतुलनकर्ता मानता है। लेकिन इस हत्यारे का एक कमजोर बिंदु है—वो चाहता है कि हम उसकी डायरी पढ़ें, उसका इशारा समझें, क्योंकि वह दिखाना चाहता है कि असली न्याय वो दे रहा है, तुम नहीं।” पहली बार श्रद्धा को विक्रांत की आँखों में डर दिखा, शायद इसलिए कि अब डायरी में जो नाम आने वाले थे, उनमें से कोई उनका अपना भी हो सकता था। और फिर एक शाम, जब श्रद्धा थाने में अकेली थी, एक लिफाफा आया, जिसमें था अगला पन्ना… लेकिन इस बार उसमें सिर्फ एक नाम था—“श्रद्धा त्रिपाठी – 21 जनवरी”। अब खेल बदल चुका था। हत्यारा अब उसे भी “मुक्त” करना चाहता था।

21 जनवरी की रात को बनारस की गलियाँ वैसे तो ठंडी और शांत थीं, लेकिन श्रद्धा त्रिपाठी के अंदर तूफान मचा था। उसकी हथेलियों में थामे उस काग़ज़ पर साफ़ लिखा था—“श्रद्धा त्रिपाठी – 21 जनवरी – मुक्ति।” एक सिरे से देखा जाए तो ये एक चेतावनी थी, मगर विक्रांत सिंह ने उसे समझाया, “ये सिर्फ धमकी नहीं, एक संकेत है। इसका मतलब है कि हत्यारे की नज़र अब तुम पर है। उसने तुम्हारे अतीत को खंगाल लिया है, और उसे लगता है कि तुम भी उसी दोष की श्रेणी में आती हो, जिसे वो सज़ा देता है।” श्रद्धा का दिमाग़ चकरा गया। पुलिस की नौकरी में बहुत से केस आए, बहुत से फैसले लिए—तो क्या उनमें से कोई ऐसा था जो किसी की ज़िंदगी तबाह कर गया? विक्रांत ने पूछा, “क्या कोई केस है जिसे तुमने जान-बूझकर दबाया या नज़रअंदाज़ किया हो?” श्रद्धा चुप रही। उसके ज़हन में एक चेहरा तैरने लगा—नेहा मिश्रा, 2018 की एक शिकायतकर्ता, जिसने अपने अफसर के खिलाफ़ यौन उत्पीड़न का केस दर्ज करवाया था, और फिर केस बिना जांच के बंद कर दिया गया। श्रद्धा ने तब सोच-समझकर फाइल को ‘सबूतों की कमी’ के कारण बंद किया था। मगर नेहा ने कुछ ही महीने बाद आत्महत्या कर ली थी। क्या ये वही केस है? क्या काली डायरी लिखने वाला वही इंसान है जो नेहा से जुड़ा था?

श्रद्धा ने अब तक खुद को कानून की सच्ची रक्षक माना था, मगर विक्रांत के शब्दों ने उसके विश्वास को हिला दिया था—“इस डायरी का हत्यारा तुम्हारे हर फैसले का मूल्यांकन कर रहा है, और वो तय कर चुका है कि तुम भी दोषी हो। अब सवाल ये नहीं कि वह तुम्हें मारेगा या नहीं, बल्कि ये कि क्या तुम खुद को निर्दोष साबित कर पाओगी?” श्रद्धा ने फैसला लिया—उसे खुद को बचाने के लिए सिर्फ बंदूक नहीं, सच्चाई की भी ज़रूरत है। वह नेहा के पुराने केस की फाइल लेकर फिर से जांच में जुट गई। और तब उसे कुछ ऐसा मिला जो उसने पहले कभी नहीं देखा था—एक अनाम पत्र जो नेहा ने केस बंद होने के बाद भेजा था, जिसमें लिखा था, “मैं जानती हूँ कि आप जानबूझकर मेरा केस दबा रही हैं। आप जैसी महिला अफ़सरों की वजह से ही हम जैसी लड़कियाँ चुपचाप मर जाती हैं।” यह पढ़कर श्रद्धा के हाथ कांप गए। अपराधी कौन है, यह अभी भी सवाल था—किन्तु अब दोषबोध की छाया उसके खुद के भीतर फैलने लगी थी। और तभी, उसी रात, थाने के बाहर एक युवती देखी गई जो एक काली साड़ी में सड़क किनारे खड़ी थी, और उसके हाथ में वही काली डायरी थी। जब एक कांस्टेबल ने पास जाकर पूछा, “आप कौन हैं?”, तो वह मुस्कुराई और बोली, “मैं वही हूँ जो न्याय लाती हूँ।” अगली सुबह, वह युवती गायब थी, लेकिन थाने के दरवाज़े पर वही डायरी पड़ी थी—पन्ना फड़फड़ाता, जैसे हवा खुद कोई इशारा कर रही हो।

अब कहानी सिर्फ हत्याओं की नहीं थी, अब यह एक ऐसे युद्ध की कहानी बन चुकी थी जहाँ एक तरफ कानून था, और दूसरी तरफ वह “काली”—जिसे न कोई नाम था, न चेहरा, लेकिन वह हर दोषी की सांसों में बस चुकी थी। विक्रांत ने श्रद्धा से कहा, “अब यह लड़ाई तुम्हारी ज़िंदगी की सबसे व्यक्तिगत लड़ाई होगी। सवाल सिर्फ यह नहीं कि हत्यारा कौन है, बल्कि यह भी कि तुम्हारे अंदर जो अपराध बचे हुए हैं, क्या तुम उन्हें स्वीकार कर सकोगी?” श्रद्धा ने पहली बार गहराई से महसूस किया कि अपराध हमेशा कोर्ट में दर्ज नहीं होते—कुछ अपराध आत्मा में छुपे रहते हैं, और जब कोई “काली” बनकर आता है, तो वह बाहर से नहीं, भीतर से मारता है। अगले पन्ने पर अब दो नाम थे—विक्रांत सिंह… और नीचे लिखा था—“उसने देखा था, लेकिन कुछ कहा नहीं।”

पन्ने पर विक्रांत सिंह का नाम देखकर श्रद्धा का दिल धक् से रह गया। अब तक वह विक्रांत को सलाहकार, विश्लेषक और साथी समझती थी—लेकिन अगर ‘काली’ की नजरों में वह भी दोषी है, तो फिर कौन निर्दोष है? श्रद्धा ने उसी पल उससे सामना किया। “विक्रांत, यह क्या है? तुमने देखा था? किसे?” विक्रांत पहले तो चुप रहा, लेकिन जब श्रद्धा ने डायरी उसे सामने रख दी, तो उसने गहरी साँस ली और कहा, “हाँ… मैंने देखा था। नेहा मिश्रा सिर्फ तुम्हारे केस का हिस्सा नहीं थी, वो मेरी रिसर्च असिस्टेंट थी। वो कई बार मुझसे मदद मांगने आई थी, मगर मैंने… मैंने उसे सिर्फ एक ‘डेटा पॉइंट’ की तरह देखा, इंसान नहीं। मुझे लगा पुलिस जाने और करे—मैं कौन होता हूँ बीच में पड़ने वाला? और तब उसने आखिरी ईमेल में लिखा था, ‘सर, आप भी उतने ही दोषी हैं जितने वो अफसर।’” विक्रांत की आवाज़ में पहली बार टूटन थी। श्रद्धा को लगा, जैसे ये डायरी सिर्फ बाहर के हत्यारों की नहीं, उनके भीतर छुपे अपराधबोध की भी गवाही है। विक्रांत ने आगे कहा, “मैंने नेहा के केस के बाद खुद को विश्वविद्यालय की चारदीवारी में कैद कर लिया… खुद को अपराधी नहीं, एक शर्मिंदा इंसान मानकर। पर अब लगता है, कोई है जो हमारे गुनाहों का हिसाब किताब लिख रहा है—काली डायरी में।”

इधर बनारस पुलिस महकमा दबाव में था। चार मौतें, चार डायरी, और अब नाम आ चुके थे पुलिस अफ़सर और विश्वविद्यालय प्रोफेसर जैसे ‘क्लीन’ दिखने वाले लोगों के। डीसीपी हरेश मिश्रा ने श्रद्धा को बुलाकर फटकार लगाई—“ये सब मत फैलाओ, हम पर राजनीति का दबाव है। क्या तुम्हें नहीं लगता कि ये कोई गैंग है, जो समाज के प्रभावशाली लोगों को निशाना बना रहा है?” श्रद्धा ने शांत स्वर में जवाब दिया—“अगर यह गैंग है, तो उनके पास पीड़ितों का पुराना रिकार्ड, कोर्ट की फाइलें, केस के अंदरूनी दस्तावेज़ कहाँ से आ रहे हैं? ये किसी पुलिस या कोर्ट के अंदर से ही निकला है। और इस ‘काली’ को सब पता है… शायद हमसे ज़्यादा।” मिश्रा ने उसे सस्पेंड करने की धमकी दी, लेकिन श्रद्धा को अब डर नहीं लगता था—वो जानती थी, अब वह इस केस का हिस्सा नहीं, शिकार है। उसी रात एक गोपनीय सूचना ने कहानी की दिशा ही बदल दी—एक अनाम कॉल, जिसमें एक महिला की आवाज़ थी: “अगर तुम सच में जानना चाहती हो कि ‘काली’ कौन है, तो रानी घाट के पीछे पुराने गोदाम में अकेले आओ… पर बिना हथियार के।”

श्रद्धा ने अकेले जाने का फैसला लिया, क्योंकि उसे महसूस हुआ कि यह हत्यारा नहीं, कोई पीड़िता बोल रही है—जो अब खुद को न्याय की देवी मान बैठी है। रानी घाट की उस उजाड़ हवेली में, दीवारों पर नेहा मिश्रा की तस्वीरें, पुराने कोर्ट केस की कटिंग्स, और मिट्टी में धँसी एक लकड़ी की पेटी मिली—जिसमें थी… असली ‘काली डायरी’। हाथ से लिखी, स्याही में भीगती पंक्तियाँ, हर पेज पर एक अपराध, एक पीड़ित, और एक गुनहगार की पहचान। और लास्ट पेज पर—“मैंने तुम्हें चुना, श्रद्धा… क्योंकि तुम अब भी सुधर सकती हो। बाकी सब मर चुके हैं।” श्रद्धा को अब यकीन हो चला था, यह कोई सीरियल किलर नहीं—यह किसी टूटे हुए आत्मा की आखिरी पुकार है। और अब, वो आत्मा अगले दिन खुद मिलने वाली थी… क्योंकि लिफाफे में एक और नोट था—“22 जनवरी – घाट पर आओ, मैं तुम्हारे सामने खड़ी होऊँगी। अगर पहचान सको, तो बच सको।”

22 जनवरी की सुबह, श्रद्धा त्रिपाठी एक सादी साड़ी में घाट की सीढ़ियाँ उतर रही थी। बनारस के घाटों पर उस समय सामान्य चहल-पहल थी—स्नान करती भीड़, पुजारियों की मंत्रोच्चार, फूल और अगरबत्ती की गंध, और गंगा की सतह पर हल्की-सी धुंध। लेकिन श्रद्धा की नजरें भीड़ में किसी एक को खोज रही थीं—‘काली’, जिसने इतने लोगों को मारा, जिसे सिस्टम ने बनाया, और जो अब उसे चुनौती दे रही थी—”पहचान सको तो बच सको।” श्रद्धा ने उस नोट को बार-बार पढ़ा था। विक्रांत सिंह घाट से थोड़ी दूरी पर खड़ा था, उसके पास कोई हथियार नहीं था, सिर्फ वो डायरी थी, जिसे अब वे दोनों सबूत से ज़्यादा एक दर्पण मानते थे—जिसमें सबके अपराध दिखते थे। तभी श्रद्धा ने देखा—एक औरत, काली सलवार-कुर्ता में, सिर पर सफेद दुपट्टा, घाट की सबसे आखिरी सीढ़ी पर अकेली बैठी थी। उसकी निगाहें गंगा की लहरों में थीं, लेकिन जैसे उसने श्रद्धा को आते हुए महसूस कर लिया हो। श्रद्धा पास पहुँची, लेकिन उसके कदम धीरे-धीरे लड़खड़ाने लगे। उस औरत का चेहरा… वो चेहरा अजनबी नहीं था।

वो समीरा अंसारी थी—नेहा मिश्रा की रूममेट, जो केस बंद होने के बाद अचानक गायब हो गई थी। पुलिस रिकॉर्ड में उसका नाम महज़ एक गवाह के रूप में था, लेकिन अब समझ में आ रहा था कि वह सिर्फ गवाह नहीं, प्रतिशोध की जीवंत मूर्ति बन चुकी थी। समीरा ने मुस्कुराकर कहा, “तुमने मुझे नहीं पहचाना? पर मैंने तो हर उस रात को याद किया, जब नेहा रोती थी… और तुम चुप थीं।” श्रद्धा को एक झटका सा लगा। “मैंने तो…” —वह कुछ कहने ही वाली थी कि समीरा ने बीच में रोक दिया—“तुमने कुछ नहीं किया, यही तो गुनाह था। और विक्रांत? वो तो नेहा के इतने करीब था, फिर भी उसने उसे एक केस स्टडी की तरह इस्तेमाल किया। तुम दोनों ‘प्रोफेशनल’ थे, लेकिन इंसान कहाँ थे?” समीरा की आवाज़ में न गुस्सा था, न घृणा—बस एक बेहद शांत ठंडापन। श्रद्धा ने पूछा, “तो तुमने सबको मारा?” समीरा ने सिर हिलाया, “मैंने सिर्फ उस दर्द को हवा दी जो पहले से भीतर सड़ रहा था। हर नाम, हर केस… सबके पीछे वही कहानी—सिस्टम के बाहर की सज़ा, जो कभी भीतर नहीं दी गई। मैं कोई देवी नहीं, पर तुम लोग भी कोई देवता नहीं थे।” और फिर, समीरा ने धीरे से डायरी गंगा में बहा दी—“अब सबकुछ खत्म है। मैंने तुम्हारा नाम भी लिखा था, लेकिन… तुम बदली हो। शायद यही मेरी जीत है।” समीरा ने आत्मसमर्पण कर दिया—बिना झगड़े, बिना गोली, बस एक सच्चाई के साथ।

कुछ दिनों बाद, ‘काली डायरी’ केस मीडिया की सुर्खियों में रहा। समीरा को मानसिक रूप से अस्थिर घोषित किया गया, लेकिन श्रद्धा जानती थी, वो सिर्फ कानून की भाषा थी। असल में, समीरा ने उन्हें आईना दिखाया था। विक्रांत ने विश्वविद्यालय में वापसी से इंकार कर दिया, और एक नई किताब लिखने लगा—“The Justice of Silence”। श्रद्धा अब हर केस को केवल फाइल की तरह नहीं देखती, बल्कि उसमें छिपे इंसान को भी पढ़ने लगी थी। ‘काली’ अब जेल में थी, लेकिन उसकी डायरी शहर के हर गुनहगार के ज़मीर में धीरे-धीरे लिखी जा रही थी। क्योंकि न्याय हमेशा अदालत में नहीं होता—कभी-कभी वो आता है किसी काली साड़ी वाली परछाईं की शक्ल में… और एक ऐसा नाम लेकर, जिसे पढ़ते ही साँस रुक जाए: “तुम।”

घाट पर हुई गिरफ़्तारी के बाद समीरा अंसारी का केस धीरे-धीरे एक सामान्य सीरियल किलर फाइल की तरह बंद किया जाने लगा, लेकिन श्रद्धा त्रिपाठी के लिए यह मामला वहीं खत्म नहीं हुआ था। उसे यकीन था कि समीरा महज़ एक किरदार थी उस पूरे तंत्र में, जो खुद को ईश्वर मानकर न्याय बाँटने निकला था। समीरा ने पाँच हत्याएँ कबूल कीं, लेकिन डायरी में कुल नौ नाम थे। बाकी चार नाम किसके थे? और क्या समीरा अकेली थी? विक्रांत सिंह, जो अब धीरे-धीरे अपने अपराधबोध के भार से निकलने की कोशिश कर रहा था, ने श्रद्धा से कहा, “समीरा ने एक लहर शुरू की थी… लेकिन लहर कभी एक किनारे पर नहीं रुकती। मुझे लगता है, काली डायरी अभी खत्म नहीं हुई है।” इसी बीच, थाने में एक पुराना बंद लिफाफा सामने आया, जो नेहा मिश्रा की मौत के दो हफ्ते बाद जमा हुआ था। लिफाफे में एक चिट्ठी थी, किसी महिला की लिखावट में—“मैंने सब देखा था। अगर तुमने सुना नहीं, तो अब मैं बोलूँगी।” उस पत्र पर कोई नाम नहीं था, लेकिन नीचे एक दस्तखत जैसा कुछ था: “N”. क्या ये नेहा थी? या कोई और? श्रद्धा को लगने लगा कि यह खेल कई चेहरों, कई आवाज़ों और शायद कई डायरी के पन्नों से बुना हुआ है।

शहर के कोतवाल मोहल्ले में एक पुरानी लाइब्रेरी की सफाई के दौरान एक और डायरी मिली—वैसी ही काली जिल्द, वैसी ही लिखावट, और वैसी ही भाषा। लेकिन इसमें किसी का नाम नहीं था। हर पन्ने पर सिर्फ भावनाएँ थीं—डर, चुप्पी, प्रतिशोध, घृणा, और अंत में… मुक्ति। श्रद्धा ने डायरी को उलट-पलटकर देखा, हर शब्द को महसूस किया। ऐसा लग रहा था, जैसे ये डायरी किसी और ‘काली’ की है—कोई जो कभी सामने नहीं आई, लेकिन जिसने समीरा को यह सब सिखाया। विक्रांत ने सुझाव दिया कि डायरी की हैंडराइटिंग का मिलान किया जाए, और रिपोर्ट ने पुष्टि की—यह डायरी नेहा मिश्रा की थी। श्रद्धा के लिए यह एक निजी झटका था। नेहा कभी सुसाइड नहीं करना चाहती थी… वो बोलना चाहती थी। वो लड़ना चाहती थी। पर जब किसी ने नहीं सुना, तो शायद समीरा उसका औज़ार बन गई। श्रद्धा ने महसूस किया, कि न्याय की यह लड़ाई कभी एक व्यक्ति के साथ खत्म नहीं होती—यह एक विचार बन जाती है, जो दूसरे के भीतर घुस जाता है। और ‘काली’… अब केवल समीरा नहीं थी। वो एक आंदोलन थी। एक आहट, जो हर गलती के दरवाज़े पर दस्तक देती थी।

अंततः, श्रद्धा ने फैसला लिया कि वह डायरी को बंद अलमारी में नहीं रखेगी, बल्कि पुलिस ट्रेनिंग अकादमी में एक सेमिनार रखेगी—“कानून बनाम न्याय – एक ‘काली डायरी’ की गवाही”। विक्रांत मुख्य वक्ता बना, और समीरा के केस को उदाहरण बनाकर यह सिखाया गया कि चुप रहना भी अपराध होता है। कार्यक्रम के अंत में, श्रद्धा ने अंतिम शब्द कहे—“हमेशा याद रखें, काली डायरी लिखने वाला कभी अकेला नहीं होता। हर बार जब हम किसी पीड़ित की आवाज़ अनसुनी करते हैं, हम उसकी एक पंक्ति उस डायरी में खुद जोड़ देते हैं।” उसी रात, श्रद्धा के घर के दरवाज़े के नीचे से एक पर्ची सरकती है। उस पर सिर्फ तीन शब्द थे—”अब तुम सुनती हो।” वह मुस्कुराई। हाँ, अब वह सुनती थी। और इस बार, वह सिर्फ पुलिस अफसर नहीं, इंसान भी थी।

साल भर बीत चुका था। बनारस अब भी वैसा ही था—गंगा बहती रही, आरतियाँ गूंजती रहीं, और घाट की सीढ़ियाँ रोज़ की तरह जीवन और मृत्यु के दर्शन करवाती रहीं। ‘काली डायरी’ केस अब पुलिस अकादमी में एक स्थायी केस स्टडी बन चुका था। समीरा अंसारी को मानसिक रूप से अस्थिर मानते हुए विशेष केंद्र में रखा गया था, जहाँ वह चुपचाप अपने भीतर की आग को बुझाने की कोशिश कर रही थी। श्रद्धा त्रिपाठी अब सीनियर क्राइम इंस्पेक्टर बन चुकी थी, और विक्रांत सिंह ने अपनी किताब के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीत लिया था। सब कुछ सामान्य लगने लगा था—कम से कम ऊपर से।

लेकिन असली कहानियाँ कभी खत्म नहीं होतीं—वे बस जगह और चेहरे बदल लेती हैं।

मुंबई, लोअर परेल के एक पुराने गोदाम में आग लगी थी। दमकल कर्मियों ने जब मलबा हटाया, तो वहाँ एक अधजली अलमारी के भीतर से एक नोटबुक मिली। काली जिल्द, वही मोटी स्याही, और पहले पन्ने पर लिखा था:
“किसी और ने देखा था। किसी और ने भी चुप्पी साधी थी। अब उसकी बारी है।”
नीचे लिखा था: “काली डायरी – अध्याय 2”

बगल में पड़ी राख में एक नाम अधजला हुआ लिखा था—”ACP आदित्य ठाकुर”
और उसकी कार की सीट पर पड़ा एक लिफाफा, जो आग से बच गया था, उसमें सिर्फ यही पंक्ति थी—
“सिर्फ बनारस नहीं जलता… हर शहर में एक घाट होता है।”

श्रद्धा त्रिपाठी, एक नए केस की रिपोर्ट पढ़ते हुए अचानक रुक गई। उसका फोन बजा। दूसरी ओर से एक अनजान महिला की आवाज़ आई—”क्या तुम फिर से सुनोगी, इंस्पेक्टर त्रिपाठी?”
श्रद्धा ने आँखें बंद कीं, गहरी साँस ली, और कहा—”हाँ… और इस बार, मैं जवाब भी दूँगी।”

समाप्त

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