दीपक मेहता
भाग १ : नोटिस की दीवार
सुबह का सूरज अभी ठीक से निकला भी नहीं था कि झुग्गी बस्ती की गलियों में हलचल मच गई। बच्चे स्कूल जाने की तैयारी में थे, औरतें चूल्हे पर चाय रख रही थीं, और आदमी अपने-अपने काम पर निकलने की सोच रहे थे। तभी किसी ने चिल्लाकर कहा—
“अरे! देखो… हमारी बस्ती की दीवार पर कुछ चिपकाया गया है!”
सभी लोग दौड़कर वहाँ पहुँचे। दीवार पर पीला-सा कागज़ चिपका था, जिस पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था—
“सूचना : यह भूमि सरकारी है। यहाँ अवैध झुग्गियाँ बनाई गई हैं। पन्द्रह दिनों के भीतर इन्हें खाली कर दिया जाए, अन्यथा प्रशासन इन्हें बलपूर्वक हटा देगा।”
सन्नाटा छा गया। किसी की चाय जल गई, किसी का हाथ से टिफिन गिर पड़ा। बच्चों ने मासूमियत से पूछा—“माँ, ये क्या है?”
औरतों की आँखें भर आईं। मर्द गुस्से में थे लेकिन शब्द नहीं निकल रहे थे।
शांति, जो बस्ती की सबसे बुज़ुर्ग महिला थी, काँपती आवाज़ में बोली—
“ये वही दिन है जिससे हम हमेशा डरते थे… अब हमें यहाँ से खदेड़ दिया जाएगा।”
बस्ती की औरतें आपस में बातें करने लगीं—
“कहाँ जाएँगे? किराए का घर तो हमारी पहुँच में ही नहीं।”
“हम तो सालों से यहाँ रह रहे हैं। बिजली का बिल देते हैं, पानी के लिए टैक्स देते हैं। फिर भी हमें अवैध कहते हैं?”
भीड़ में से एक आदमी, रहमान, जोर से चिल्लाया—
“ये सब बिल्डरों की साज़िश है। हमारी झुग्गी तोड़कर यहाँ बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी करनी हैं उन्हें।”
लोग बुदबुदाने लगे, लेकिन डर और गुस्से के बीच किसी को रास्ता नहीं सूझ रहा था।
शांति की बेटी – संतोष
भीड़ के बीच से तीस-पैंतीस साल की एक औरत आगे आई। उसका नाम था संतोष, लेकिन सब उसे शांति की बिटिया कहकर बुलाते थे। वह मजदूरी करके दो बच्चों का पेट पालती थी। चेहरे पर थकान थी लेकिन आँखों में अजीब-सी चमक।
उसने नोटिस को ध्यान से पढ़ा और बोली—
“कागज़ का टुकड़ा हमारी ज़िंदगी से बड़ा नहीं हो सकता। हम सब मिलकर खड़े रहेंगे। अगर ये घर टूटेगा, तो हमारी साँसें भी यहीं टूटेंगी।”
लोग चुपचाप उसकी बातें सुनते रहे। संतोष ने आगे कहा—
“हमारे पास रजिस्ट्री नहीं है, लेकिन हमारे पास गवाह हैं—ये दीवारें, ये नालियाँ, ये बच्चे। हमने अपना खून-पसीना बहाकर इस जगह को बसाया है। क्या सरकार को ये दिखाई नहीं देता?”
बस्ती में पहली बार किसी ने ज़ोर से और स्पष्ट आवाज़ में विरोध किया था।
प्रशासन का आगमन
दोपहर होते-होते जीप में दो अफसर आए। उनके पीछे दो पुलिसवाले भी थे। उन्होंने नोटिस की कॉपी सबके सामने पढ़कर सुनाई और कहा—
“पन्द्रह दिन का समय है। आप लोग अपना सामान बाँध लीजिए। फिर मत कहना कि चेतावनी नहीं दी गई।”
भीड़ से शोर उठने लगा—
“हम कहाँ जाएँगे?”
“सर, हमें थोड़ा और वक्त दीजिए।”
“क्या आपने कभी हमारी हालत देखी है?”
लेकिन अफसरों के चेहरे पर कोई असर नहीं हुआ। उन्होंने बस इतना कहा—
“कानून से बड़ा कुछ नहीं।”
संतोष गुस्से से आगे बढ़ी और बोली—
“कानून इंसान के लिए होता है या इंसान कानून के लिए? अगर कानून हमारी छत छीन ले, तो ये कैसा कानून?”
अफसरों ने उसे घूरकर देखा, और पुलिसवालों ने लोगों को पीछे हटने का इशारा किया। कुछ ही देर में जीप चली गई।
बस्ती का संकट
शाम होते-होते हर घर में सन्नाटा था। चूल्हों पर रोटियाँ कम सिक रही थीं, बच्चों के चेहरे उतरे हुए थे। औरतें एक-दूसरे को दिलासा देने की कोशिश कर रही थीं, लेकिन भीतर ही भीतर सब टूटे जा रहे थे।
संतोष अपने बच्चों को देखकर सोच रही थी—
“अगर ये घर टूट गया, तो इन्हें कहाँ ले जाऊँगी? क्या मैं इन्हें फुटपाथ पर सुलाऊँगी?”
वह रातभर जागती रही। दीवार पर चिपका पीला नोटिस उसे हर बार आँखें बंद करने पर दिखता रहा।
संघर्ष की शुरुआत
अगले दिन सुबह, संतोष ने बस्ती के लोगों को इकट्ठा किया।
“हम डरते रहेंगे तो सब खो देंगे। हमें अपनी आवाज़ उठानी होगी। मीडिया के पास जाना होगा, अखबारवालों को बुलाना होगा। और अगर ज़रूरत पड़ी तो हम अदालत का दरवाज़ा भी खटखटाएँगे।”
लोग चौंके।
“अदालत? वहाँ तो अमीरों की सुनी जाती है।”
“हमारे पास पैसे कहाँ हैं?”
संतोष ने दृढ़ स्वर में कहा—
“पैसे से बड़ा हौसला होता है। और अगर हम सब मिलकर खड़े होंगे, तो कोई हमें हटा नहीं पाएगा।”
लोगों के दिल में धीरे-धीरे उम्मीद की लौ जलने लगी।
भाग २ : अदालत का दरवाज़ा
नोटिस लगे दो दिन हो चुके थे। बस्ती की कच्ची गलियों में अब डर के साथ एक बेचैनी भी थी—जैसे हर हवा के झोंके में कोई अदृश्य काउन्टडाउन चल रहा हो। संतोष ने तीसरी सुबह सूरज के साथ उठकर घर-घर दस्तक दी—
“जो भी कागज़ हैं, सब निकालो। बिजली के बिल, राशन कार्ड, वोटर आईडी, बच्चों के स्कूल के कागज़, अस्पताल की पर्चियाँ—जो मिलेगा, सब लेकर आओ। आज हम अदालत की तरफ़ चलेंगे।”
लोगों ने अलमारियों के ऊपर रखे टीन के बक्से टटोले, बोरियों से फाइलें निकालीं—कुछ पन्नों पर हल्दी के दाग, कुछ पर बरसात की बूंदों के दाग। रहमान ने अपने कमरे की दीवार से टँगी पुरानी फ़ोटो उतारी—“यही तो पहला ईद था इस बस्ती में, जब हमने एक साथ पकवान बाँटे थे।”— वह मुस्कराया नहीं, सिर्फ़ एक गहरी सांस भरी और फ़ोटो को एक फोल्डर में सरका दिया।
संतोष ने चौपाल पर चटाई बिछवाई। शांति अम्मा धीरे-धीरे चलकर आईं और अपनी ओढ़नी की गठरी से एक फीका-सा राशन कार्ड निकाला। आँखें झुका कर बोलीं—
“बेटी, ये मेरे पचास बरस की गवाही है। यह बस्ती मैंने अपनी उम्र से जोड़ी है।”
“यही कागज़ हमारी दीवार बनेंगे, अम्मा,” संतोष ने कार्ड सँभालते हुए कहा, “कागज़ की दीवारें जो उन्हें लगती हैं, आज हमारी ढाल होंगी।”
पास ही अख़बार का एक लड़का आया—पतला-सा, कंधे पर बैग। “दीदी, मेरे संपादक ने कहा है, बस्ती की कहानी लिखनी है। फोटो भी लूँगा। नाम है कबीर।”
“कबीर,” संतोष ने ठहर कर उसका चेहरा पढ़ा, “लिखना कि हम चोरी से नहीं बसे थे। काम करते-करते यहाँ टिके। और लिखना कि हम हटेंगे नहीं—जब तक इंसाफ़ नहीं मिलेगा।”
कबीर ने कैमरा उठाया। क्लिक। क्लिक। बस्ती की दीवार, पीला नोटिस, बच्चों की आँखें, बुज़ुर्ग की झुर्रियों में उतरा सन्नाटा—सब कैद हो गए।
पन्द्रह-बीस लोग, हाथों में फाइलें और थैला लिए, दो ऑटो में भरकर जिला न्यायालय की ओर निकले। रास्ते में बड़ा चौराहा पड़ा—जहाँ विधायक का पोस्टर मुस्कराता था। उसी मोड़ पर सफेद जीप से उतरे तीन आदमी—चमड़े के जूते, गले में सुनहरी चेन। सामने आकर बोले—
“बहुत भागदौड़ हो रही है आजकल? देखो, सरकार का फैसला है, समझदारी से चलो तो सबका भला। थोड़ा-बहुत मुआवज़ा मिलेगा, निकल जाओ।”
रहमान तमतमाया—“मुआवज़ा? हमारा घर, हमारी गलियाँ, हमारी मस्जिद, हमारा मंदिर—इन सब का दाम है तुम्हारे पास?”
संतोष ने शांत स्वर में कहा—“हम अदालत जा रहे हैं। वहाँ मिलिए।”
एक गुंडा हंसा—“अदालत में तुम्हारा वकील कौन? पैसे हैं?”
“हौंसला है,” संतोष ने सीधे आँखों में देखा, “और कागज़ भी।”
जीप के लोग कुछ फुफकारे, “देख लेंगे,” बोलकर निकल गए। ऑटोवालों ने बिना कुछ कहे ऑटो तेज़ कर दी। जैसे वे भी समझते हों कि आज की सवारी केवल किराये की नहीं, किसी जंग की है।
जिला न्यायालय का परिसर—ऊँची इमारत, बरामदे पर पीतल की नेमप्लेटें, पोर्टेबल चाय की केतली से उठती भाप, और चारों तरफ़ फाइलों की सरसराहट। संतोष के साथ पहुँचे लोगों की आँखें चौंधिया रहीं थीं—जैसे किसी अजनबी शहर में उतर आए हों। बरामदे के एक कोने में ‘जिला विधिक सेवा प्राधिकरण’ (लीगल एड) का बोर्ड लगा था। संतोष सीधे वहीं गई।
काउंटर पर बैठी एक महिला ने चश्मा ठीक किया—“हाँ, बताइए?”
“मैडम, हमारी बस्ती पर तोड़-फोड़ का नोटिस आया है। हमारे पास बिजली-पानी के बिल हैं, पहचान पत्र हैं, बच्चों के स्कूल के कागज़। हमें मदद चाहिए।”
महिला ने ध्यान से देखा, फिर मुस्कुराई—“मेरा नाम देवयानी त्रिपाठी है। मैं पैनल वकील हूँ। पहले आप सबके कागज़ देख लेती हूँ।”
फाइलें खुलीं। देवयानी एक-एक पन्ना देखती गईं—बिलों की तारीखें, पते, स्कूल का बोनाफाइड, अस्पताल की पर्ची। “अच्छा,” उन्होंने धीरे-धीरे कहा, “आप लोग यहाँ दस-पंद्रह साल से कम नहीं हैं। बिजली का कनेक्शन अधिकृत है। स्कूल रिकॉर्ड में पता यही है। नोटिस पन्द्रह दिन का—कम समय। नगर निगम ने किसी पुनर्वास का जिक्र नहीं किया। हम रिट दायर कर सकते हैं—आर्टिकल २१ के तहत राइट टू शेल्टर और राज्य की पुनर्वास नीति का हवाला देंगे। एक स्टे ऑर्डर (अंतरिम रोक) की माँग करेंगे।”
रहमान की आँखें चमक उठीं—“मतलब, जब तक अदालत सुने, वे तोड़ नहीं पाएँगे?”
“कोशिश यही होगी,” देवयानी बोलीं, “लेकिन इसके लिए आप सबकी शपथपत्र (अफ़िडेविट) लगेंगी। जो-जो परिवार हैं, उनके नाम, उम्र, पहचन नंबर, इस पते पर रहने की अवधि—सब साफ़-साफ़।”
“हम लिखेंगे,” संतोष ने कहा, “जो सच है, वही लिखेंगे।”
देवयानी ने सामने बैठे पुराने टाइपिस्ट को इशारा किया। “लालाजी, एक याचिका का फॉर्मेट खोलिए।” टाइपराइटर की टक-टक शुरू हुई। शब्द आकार लेने लगे—याचिकाकर्ता बनाम नगर निगम, अन्तरिम प्रार्थना, पुनर्वास नीति, प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त।
कबीर, जो चुपचाप साथ चला आया था, बरामदे की रेलिंग से टेक लगाकर नोटबुक में लिख रहा था। उसने धीरे से पूछा—“दीदी, नाम छापूँ?”
संतोष ने थोड़ी देर सोचा—“नाम तो छापो, चेहरों के पीछे डर नहीं होना चाहिए। पर बच्चों की फोटो मत छापना।”
कबीर ने सिर हिलाया—“ठीक है। आज की खबर बन जाएगी—‘कागज़ की दीवारें: बस्ती अदालत पहुँची।’”
अफ़िडेविट पर दस्तखत करवाने में शाम उतर आई। शांति अम्मा के हाथ काँप रहे थे। देवयानी ने कलम पकड़ाते हुए कहा—“अम्मा, धीरे-धीरे।”
“बिटिया,” शांति बोलीं, “मेरी आँखें अब धुँधला जाती हैं। पर ये कागज़… इसी से क्या मेरा घर बच जाएगा?”
“घर कागज़ से नहीं, लोगों से बचता है,” देवयानी ने स्नेह से कहा, “पर कागज़ रास्ता खोल देता है।”
दस्तखत पूरे हुए। टाइपिस्ट ने कार्बन कॉपी निकालकर फाइल बाँधी। क्लर्क ने रसीद काटी—फाइलिंग नंबर 1347/25। देवयानी ने कैलेंडर देखा—“सोमवार को सूची में आने की संभावना है। मैं मेंशन करके अर्जेंसी दिखवाऊँगी। तब तक, किसी उकसावे में मत आना। अगर बुलडोज़र आए, तो मुझे और लोकल मीडिया को तुरंत कॉल करना।”
संतोष ने नंबर सेव किया। “हम सब साथ हैं,” उसने एक-एक चेहरे की ओर देखते हुए कहा, “कोई अकेला नहीं है अब।”
रात को बस्ती में लौटी टोली का स्वागत चाय और उम्मीद ने किया। बच्चे, जो दो दिनों से चुप थे, आज थोड़े खिलखिला पड़े। किसी ने पूछा—“दीदी, क्या हम स्कूल जाते रहेंगे?”
“हाँ,” संतोष ने मुस्करा कर कहा, “तुम्हारी कॉपी-किताबें भी हमारे कागज़ों का हिस्सा हैं।”
लेकिन हर उम्मीद के पीछे एक परछाईं होती है। देर रात वही सफेद जीप गली के मोड़ पर फिर दिखी। इंजन की घरघराहट, सिगरेट की जलती लकड़ियाँ, और दरवाजे पर धप्प-धप्प। संतोष ने दरवाजा खोला तो सामने वही लोग।
“बहुत बड़ा खेल खेलने निकली हो, बहन?” एक ने मुँह बिचकाया, “देखो, अदालत-वदालत में वक्त लगता है। बुलडोज़र को वक्त नहीं लगता। समझ रही हो?”
इस बार संतोष ने दरवाजा पूरी तरह खोल दिया। घर के भीतर दो बच्चे जाग गए थे। शांति अम्मा ने चरमराती चारपाई से उठकर लाठी थामी। सामने रहमान और दो-तीन जवान लड़के खड़े हो गए—चुपचाप, मगर तनकर।
“समझ जाएँगे हम,” संतोष ने स्थिर स्वर में कहा, “और आपको भी समझाना आएगा—कानून सड़क पर नहीं बनता, अदालत में बनता है। आप जाइए।”
कई खिड़कियाँ खुल चुकी थीं। दर्जनों आँखें बाहर थीं। सफेद जीप वाले एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे—भीड़ बढ़ रही थी। “चलो,” किसी ने दाँत पीसकर कहा। जीप चली गई। गली में कुछ देर तक सिर्फ़ कुत्तों के भौंकने की आवाज़ रही, फिर चुप्पी उतर आई—एक भारी, थकी हुई चुप्पी।
संतोष ने बच्चों को फिर सुलाया। शांति अम्मा के हाथ पकड़े—“डरिए नहीं, अम्मा। अदालत का दरवाज़ा हमने खोल दिया है।”
“दरवाज़ा खोला है,” अम्मा ने धीमे से कहा, “अब अंदर जाना भी होगा, बेटी—और बिना झुके खड़े रहना होगा।”
सोमवार की सुबह। अभी धूप सीढ़ियों तक नहीं पहुँची थी कि संतोष, रहमान, शांति अम्मा और दस-पंद्रह लोग अदालत की सीढ़ियों पर बैठ गए। देवयानी काली कोट में आईं—कंधे पर फाइल, माथे पर हल्की-सी पसीने की रेखा, आँखों में तेज़।
“लिस्टिंग मिल गई,” उन्होंने फाइल खोली, “खंडपीठ—कोर्ट नम्बर पाँच। मैं मेंशन करूँगी कि नोटिस की अवधि बहुत कम है, पुनर्वास का ज़िक्र नहीं। हमें आज ही अंतरिम रोक चाहिए।”
बरामदे के दूसरी ओर नगर निगम का वकील भी खड़ा था—साफ-सुथरा सूट, चमकते जूते, हाथ में पतली फाइल। उसने एक तिरछी नज़र संतोष पर डाली, जैसे कह रहा हो—देखते हैं तुम्हारी दीवार कितनी ऊँची है।
घड़ी ने दस बजाए। पीतल की घंटी बजी। “कोर्ट!” का स्वर गूँजा। लोग उठ खड़े हुए। संतोष ने शांति अम्मा का हाथ थाम लिया। बस्ती के लोग कतारबद्ध होकर, जैसे किसी नदी में उतरते हों, धीरे-धीरे उस बड़े हॉल में घुसे—जहाँ उनकी किस्मत कागज़ों पर लिखी जाएगी, पर पहली बार उनके कागज़ उन्हीं के पक्ष में बोलेंगे।
देवयानी ने पीछे मुड़कर फुसफुसाया—“हौसला रखिए। आज कागज़ की दीवारें हमारे लिए खड़ी हैं।”
हॉल के भीतर जज साहब ने चश्मा उठाया, फाइलें खुलीं, नाम पुकारे गए—
“कागज़ की दीवारें बनाम नगर निगम…”
और बस्ती ने पहली बार महसूस किया—अदालत के दरवाज़े सिर्फ़ लकड़ी और लोहे के नहीं होते; कुछ दरवाज़े उम्मीद के भी होते हैं, जो भीतर से खुलते हैं।
भाग ३ : स्टे ऑर्डर की सुबह
कोर्ट नम्बर पाँच का दरवाज़ा खुला। जज साहब ने बेंच पर बैठते ही फाइल उठाई। क्लर्क ने पुकारा—
“कागज़ की दीवारें बनाम नगर निगम।”
देवयानी त्रिपाठी तुरंत खड़ी हुईं। उनके साथ संतोष और बस्ती के लोग पीछे की कतार में सीने कसकर बैठे थे।
देवयानी ने आवाज़ में ठहराव लाते हुए कहा—
“माननीय न्यायालय, मेरे मुवक्किल—यह बस्ती—पिछले पंद्रह वर्षों से यहाँ निवास कर रही है। इनके पास बिजली के बिल, स्कूल रिकॉर्ड, राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, पानी के टैक्स की रसीदें सब मौजूद हैं। नगर निगम ने अचानक पंद्रह दिन की नोटिस चिपका दी है, जिसमें कहीं भी पुनर्वास का उल्लेख नहीं है। यह संविधान के अनुच्छेद 21—जीवन और आवास के अधिकार—का सीधा उल्लंघन है। हम विनम्र अनुरोध करते हैं कि जब तक विस्तृत सुनवाई न हो, तब तक इस नोटिस पर रोक लगाई जाए।”
नगर निगम के वकील ने तुरंत प्रतिवाद किया—
“माय लॉर्ड, यह भूमि सरकारी है। यहाँ की झुग्गियाँ अवैध हैं। ये लोग किराया नहीं देते, टैक्स नहीं देते, और शहर की सुंदरता बिगाड़ते हैं। इन्हें हटाना आवश्यक है। कानून के अनुसार निगम को कार्रवाई करने का पूर्ण अधिकार है।”
जज साहब ने गंभीर निगाह से पूछा—
“क्या आपके पास पुनर्वास योजना का कोई दस्तावेज़ है? क्या निगम ने वैकल्पिक आवास का प्रावधान किया है?”
वकील हकलाया—“जी… फिलहाल कोई तत्काल योजना नहीं है, पर आगे चलकर—”
“फिलहाल?” जज ने चश्मा नीचे खिसकाया। “बिना पुनर्वास योजना के हज़ारों लोगों को सड़क पर छोड़ देना कैसा न्याय है? यह अदालत सहन नहीं करेगी।”
देवयानी ने दस्तावेज़ आगे बढ़ाए—
“मान्यवर, ये देखिए—बिजली विभाग के बिल, जिन पर सरकारी मुहर है। स्कूल का बोनाफाइड सर्टिफिकेट, जिसमें पता यही दर्ज है। क्या इन्हें कागज़ से बाहर माना जा सकता है?”
बस्ती के लोग साँस थामे देख रहे थे। संतोष की उँगलियाँ काँप रही थीं, पर उसकी नज़रें सीधी थीं।
कुछ मिनट की बहस के बाद जज ने आदेश लिखा। कोर्ट रूम में पिन ड्रॉप साइलेंस। फिर क्लर्क ने ऊँची आवाज़ में पढ़ा—
“अदालत आदेश देती है कि नगर निगम फिलहाल इस बस्ती पर कोई तोड़-फोड़ की कार्रवाई न करे। याचिका पर विस्तृत सुनवाई अगली तिथि पर होगी। यह अंतरिम आदेश तत्काल प्रभाव से लागू होगा।”
लोगों ने एक-दूसरे की ओर देखा। राहत का सागर जैसे आँखों में भर आया। शांति अम्मा की आँखों से आँसू बह निकले—“हे भगवान, आज हमारी दीवार बच गई।”
संतोष ने गहरी सांस ली। उसे लगा जैसे किसी ने उसके कंधों से बोझ हटाया हो। लेकिन वह जानती थी—ये सिर्फ़ शुरुआत है। लड़ाई लंबी होगी।
बस्ती में वापसी
शाम को जब टोली लौटकर बस्ती पहुँची, तो गलियों में ढोल-नगाड़े नहीं थे, पर खुशियों की फुसफुसाहट थी। बच्चे दौड़-दौड़कर पूछ रहे थे—“माँ, घर नहीं टूटेगा?”
औरतें मुस्कराकर कह रही थीं—“फिलहाल नहीं, बेटा।”
रहमान ने ऊँची आवाज़ में कहा—
“अदालत ने कहा है कि जब तक सुनवाई पूरी नहीं होती, कोई बुलडोज़र यहाँ नहीं आएगा। हम सब जीत गए!”
“नहीं,” संतोष ने बीच में टोका, “हम सिर्फ़ एक लड़ाई जीते हैं। जंग अभी बाकी है।”
लोगों ने सिर हिलाया। वे समझ रहे थे।
सफेद जीप की वापसी
रात होते-होते वही जीप गली में दाखिल हुई। इस बार भी वही तीन आदमी। उनमें से एक ने तिरस्कार से कहा—
“तो कोर्ट से स्टे ले आए? बहुत समझदार हो गए हो। पर याद रखो, स्टे हमेशा नहीं रहता। आखिर में फैसला तो निगम का ही होगा।”
संतोष ने दरवाज़े से बाहर कदम रखा। अंधेरी गली में भी उसकी आँखों की चमक साफ़ थी।
“फैसला अदालत का होगा। और अदालत इंसाफ़ देती है, डर नहीं।”
भीड़ जुटने लगी। जीप वाले बड़बड़ाते हुए लौट गए।
उम्मीद की सुबह
अगली सुबह बस्ती में कुछ अलग ही माहौल था। औरतें मुस्कराकर चूल्हे जला रही थीं। बच्चे किताबें लेकर स्कूल जा रहे थे। दीवार पर चिपका पीला नोटिस अब उतना डरावना नहीं लग रहा था। लोग कहते थे—“ये हमारी कागज़ की दीवार नहीं, हमारी ढाल है।”
कबीर ने अखबार का नया अंक बस्ती में लाकर लहराया—
“अदालत ने रोका नगर निगम का बुलडोज़र”
तस्वीरों में संतोष, शांति अम्मा और बस्ती के बच्चे छपे थे।
लोगों ने अख़बार को हाथों-हाथ लिया। पहली बार उन्हें लगा कि उनकी आवाज़ छपकर बाहर आई है।
संतोष ने अखबार को हाथ में लेकर शांति अम्मा से कहा—
“अम्मा, देखो। अब हमारी कहानी सिर्फ़ बस्ती में नहीं, शहर में भी गूँज रही है।”
अम्मा ने मुस्कराते हुए कहा—
“बेटी, अब यह लड़ाई तेरी नहीं, पूरे समाज की हो गई है। दीवारें कागज़ की हों या पत्थर की, जब लोग साथ खड़े हों तो कोई उन्हें गिरा नहीं सकता।”
भाग ४ : अख़बार की सुर्ख़ियाँ और साज़िशें
सुबह की धूप बस्ती की टीन की छतों पर बिखरी हुई थी। पर उस दिन हवा में कुछ और ही चमक थी। कारण था अख़बार की सुर्ख़ियाँ। कबीर ने जब बस्ती में ताज़ा अख़बार बाँटे तो हर घर में जैसे त्यौहार का माहौल बन गया।
पहले पन्ने पर बड़ी तस्वीर थी—“कागज़ की दीवारें: अदालत ने रोका बुलडोज़र”। तस्वीर में संतोष खड़ी थी, हाथ में कागज़ की फाइल और बगल में शांति अम्मा। बच्चों की मुस्कान पीछे झलक रही थी।
“देखो-देखो, हमारी तस्वीर छपी है!” बच्चे दौड़-दौड़कर एक-दूसरे को अख़बार दिखा रहे थे। औरतें हँस रही थीं, जैसे बरसों बाद किसी ने उनकी आवाज़ सुनी हो।
संतोष ने अख़बार को हाथ में लेकर गहरी साँस ली। पर उसके चेहरे पर गर्व से ज़्यादा चिंता थी। उसने सोचा—
“अब हमारी लड़ाई सबके सामने आ गई है। ये अच्छी बात है, लेकिन सत्ता में बैठे लोग अब और भी चिढ़ेंगे। हमें और सावधान रहना होगा।”
विधायक की बैठक
शहर के बीचोंबीच, एक आलीशान दफ़्तर में विधायक मिश्रा ने अपने चेले-चपाटों को बुलाया। मेज़ पर वही अख़बार पड़ा था। मिश्रा ने गुस्से में उसे पटकते हुए कहा—
“ये क्या हो रहा है? अख़बार में झुग्गीवालों की तस्वीरें छप रही हैं और अदालत हमारे काम में अड़ंगा डाल रही है। ये पत्रकार भी पता नहीं कब तक हमारे खिलाफ लिखते रहेंगे।”
एक आदमी बोला—“साहब, ये सब उस औरत की वजह से है… संतोष। वही सबको भड़काती है। अगर वो चुप हो जाए, तो बाकी सब डरकर घर छोड़ देंगे।”
मिश्रा ने सिगार जलाते हुए कहा—“सिर्फ़ एक औरत हमारी राह रोक रही है? तो हमें उसे चुप कराना होगा। लेकिन ऐसे कि बाहर से लगे हम कुछ नहीं कर रहे।”
बस्ती में साज़िश की आहट
शाम को जब संतोष घर लौटी तो उसने देखा कि गली में कुछ अनजान चेहरे घूम रहे हैं। उनकी नज़रें तिरछी थीं, जैसे वे हर घर का जायज़ा ले रहे हों। रहमान ने फुसफुसाते हुए कहा—
“दीदी, ये मिश्रा के लोग हैं। खबर फैली है कि वो हमें तोड़ने के लिए गुंडे भेजेगा। हमें चौकसी रखनी होगी।”
संतोष ने कहा—“डरना नहीं है। अगर वो ताक़त से आएँगे, तो हम सच से लड़ेंगे। मीडिया अब हमारे साथ है।”
उसी वक्त कबीर भी आया। उसके हाथ में कैमरा और कंधे पर बैग।
“संतोष दीदी, आज शहर के कई मोहल्लों से फोन आए। लोग कह रहे हैं कि आपकी लड़ाई उनकी भी लड़ाई है। ये खबर असर कर रही है। लेकिन सावधान रहना, सत्ता कभी सीधी नहीं चलती।”
संतोष ने उसकी आँखों में देखकर कहा—“कबीर, लिखना कि हम हारेंगे नहीं। चाहे हमारे खिलाफ़ कितनी भी साज़िश क्यों न हो।”
रात का हमला
आधी रात को अचानक बस्ती की गलियों में शोर उठा। कुछ नकाबपोश लोग आए और कई घरों की दीवारों पर कोलतार फेंक गए। किसी के चूल्हे को लात मार दी, किसी के दरवाज़े पर गाली लिख दी। बच्चे चीखने लगे, औरतें भाग-दौड़ करने लगीं।
संतोष बाहर निकली तो देखा कि उसके घर की दीवार पर बड़ा-सा लिखा था—
“यह ज़मीन हमारी है, झुग्गी हटाओ।”
उसने पल भर को काँपते हुए दीवार को देखा। फिर एक कपड़ा भिगोकर लिखावट को मिटाने लगी। धीरे-धीरे बाकी औरतें भी बाहर आईं और सबने मिलकर दीवारें साफ़ कीं। शांति अम्मा बोलीं—
“ये डराने का खेल है। लेकिन दीवारों पर जितना भी लिखें, हमारी ज़मीन का सच नहीं मिटा सकते।”
पुलिस का दोहरा चेहरा
सुबह थाने में शिकायत करने पहुँची संतोष और रहमान। दरोगा ने ऊबते हुए कहा—
“दीवार पर लिख देने से क्या होता है? ये तो बच्चों की शरारत भी हो सकती है। हमारे पास बड़े केस हैं।”
संतोष ने ठंडी आवाज़ में कहा—
“अगर कल रात यही दीवार आपके थाने की होती, तो क्या आप भी यही कहते? हमें पता है किसने किया है। लेकिन आप डरते हैं मिश्रा से।”
दरोगा भड़क गया—“बहुत ज़ुबान चलाने लगी हो! संभलकर रहो। कानून का भरोसा करती हो न? तो अदालत में लड़ो। यहाँ मत आना बार-बार।”
संतोष ने पलटकर कहा—“हाँ, हम अदालत में ही लड़ेंगे। लेकिन आपको याद दिलाते रहेंगे कि कानून जनता का है, मिश्रा का नहीं।”
बढ़ती उम्मीद और बढ़ता डर
कबीर की रिपोर्ट से शहरभर में चर्चा हो गई। कॉलेज के छात्र बस्ती में आने लगे, समाजसेवी संगठन मदद करने लगे। किसी ने मुफ्त में वकील देने का वादा किया, कोई राशन बाँटने लगा।
लेकिन जितनी उम्मीदें बढ़ रहीं थीं, उतना ही डर भी बढ़ रहा था। हर गली में यह फुसफुसाहट थी कि विधायक अब बड़ा कदम उठाएगा।
संतोष रात को बच्चों को सुलाते हुए सोच रही थी—
“हमारी लड़ाई अब सिर्फ़ घर बचाने की नहीं रही। यह लड़ाई सम्मान की है। अगर हम झुक गए, तो आने वाली पीढ़ियाँ भी झुकेंगी।”
उसकी आँखें लाल थीं, पर उनमें आग थी।
भाग ५ : छात्र, समाजसेवी और संघर्ष की चिंगारी
बस्ती की गलियों में अब रोज़ नए चेहरे दिखने लगे थे। कुछ कॉलेज के छात्र अपने बैग में पर्चे लेकर आते, कुछ समाजसेवी संगठनों के लोग दरी और बैनर लेकर। बच्चों को यह सब किसी मेले जैसा लगता था, लेकिन बड़ों को पता था कि यह मेले की नहीं, आंदोलन की तैयारी है।
संतोष ने देखा कि चौपाल पर बीस-पच्चीस युवक-युवतियाँ जमा हैं। उनके हाथों में पोस्टर थे—“हर इंसान का हक़—घर”, “झुग्गी नहीं, घर है हमारा”। एक लड़की ने माइक पकड़कर कहा—
“हम शहर के विश्वविद्यालय से आए हैं। आप अकेले नहीं हैं। आपकी लड़ाई हमारी भी लड़ाई है। अगर आपको उजाड़ा गया तो कल हमें भी किराए के कमरों से निकाला जा सकता है। हम सब मिलकर सड़कों पर उतरेंगे।”
बस्ती के लोग पहले चुप थे, लेकिन धीरे-धीरे तालियाँ गूँजने लगीं।
समाजसेवी का भाषण
दोपहर को एक समाजसेवी संगठन का प्रतिनिधि आया। उसका नाम सुधांशु था। उसने कहा—
“हम वर्षों से पुनर्वास के लिए लड़ रहे हैं। सरकार हमेशा झुग्गियों को समस्या कहती है, समाधान नहीं। हम आपके केस में इंटरवेंशन करेंगे। अदालत को बताएँगे कि यह सिर्फ़ एक बस्ती का मुद्दा नहीं है, बल्कि पूरे शहर का सवाल है।”
संतोष ने उसकी बात ध्यान से सुनी और कहा—
“हमारा दर्द सिर्फ़ अख़बार की सुर्ख़ियों में रहकर खत्म नहीं होना चाहिए। हमें सड़कों पर अपनी ताक़त दिखानी होगी।”
बच्चों की मासूम आवाज़
शाम को कुछ बच्चे भी अपनी छोटी-छोटी कॉपी पर लिखे नारे लेकर चौपाल पर खड़े हो गए। एक बच्चे ने ऊँची आवाज़ में पढ़ा—
“मेरा घर मत तोड़ो, मेरी किताब मत छीनो।”
यह सुनकर कई औरतें रो पड़ीं। शांति अम्मा ने बच्चों को गोद में लेकर कहा—
“तुम्हारी आवाज़ सबसे सच्ची है। तुम्हारे लिए ही हम लड़ रहे हैं।”
मिश्रा की चाल
उधर विधायक मिश्रा को यह सब नागवार गुजर रहा था। उसने अपने सहयोगियों से कहा—
“ये आंदोलन अगर बड़ा हुआ तो चुनाव में हमें नुकसान होगा। मीडिया और छात्र मिलकर माहौल बना रहे हैं। हमें तोड़-फोड़ करनी होगी। झगड़ा खड़ा करो—धर्म के नाम पर, जात के नाम पर। लोग बँट जाएँगे तो लड़ाई कमजोर हो जाएगी।”
उसके गुंडों ने शहर में अफवाह फैलानी शुरू की—“ये बस्ती अपराधियों का अड्डा है। यहाँ छुपकर लोग चोरी करते हैं।” कुछ अख़बारों में पैसों के बल पर छोटी-छोटी खबरें भी छप गईं।
संतोष का संकल्प
लेकिन संतोष पीछे हटने वाली नहीं थी। उसने चौपाल पर सबको इकट्ठा करके कहा—
“हम पर चाहे कितने भी इल्ज़ाम लगें, हम टूटेंगे नहीं। हमारा आंदोलन शांतिपूर्ण होगा। हमें उकसाने की कोशिश की जाएगी, लेकिन हमें संयम से जवाब देना होगा। याद रखना, हमारे साथ अब अदालत भी है, छात्र भी हैं, समाजसेवी भी। ये लड़ाई अब हमारी ही नहीं, पूरे शहर की है।”
लोगों ने हाथ उठाकर उसकी बात का समर्थन किया।
पहली रैली
अगले रविवार को बस्ती से एक रैली निकली। औरतें सिर पर लाल और नीली चुनरियाँ ओढ़े थीं, बच्चे हाथों में तख्तियाँ पकड़े थे, और छात्र नारे लगा रहे थे—
“घर हमारा अधिकार है!”
“बस्ती नहीं मिटेगी!”
सड़क किनारे लोग खड़े होकर यह सब देख रहे थे। किसी ने तालियाँ बजाईं, किसी ने पानी बाँटा। पहली बार बस्ती के लोग अपनी दहलीज़ से निकलकर पूरे शहर को अपनी मौजूदगी दिखा रहे थे।
पुलिस की रोक
जैसे ही रैली नगर निगम के दफ़्तर के पास पहुँची, पुलिस ने बैरिकेड लगाकर रोक दिया। दरोगा वही था जो पहले शिकायत टाल चुका था। उसने सख़्त आवाज़ में कहा—
“अनुमति नहीं है। तुरंत लौट जाओ।”
भीड़ में तनाव फैल गया। कुछ युवक गुस्से में नारे लगाने लगे। लेकिन संतोष आगे बढ़ी और पुलिस के सामने खड़ी हो गई।
“हम हिंसा नहीं करेंगे। हम सिर्फ़ अपनी बात कहना चाहते हैं। अगर आप रोकेंगे, तो हम यहीं सड़क पर बैठ जाएँगे।”
और सचमुच सब लोग वहीं धरने पर बैठ गए। पुलिस असमंजस में थी। मीडिया कैमरे लेकर पहुँच गई। कबीर भी वहीं था। उसने माइक सामने करके कहा—
“ये देखिए—ये बस्ती वाले हिंसा नहीं कर रहे, बस इंसाफ़ माँग रहे हैं। क्या इन्हें अपनी बात कहने का हक़ भी नहीं है?”
पुलिस पीछे हट गई। धरना चलता रहा।
आग की लपट
उसी रात मिश्रा के गुंडों ने एक घर में आग लगाने की कोशिश की। सौभाग्य से लोग जाग गए और आग फैलने से पहले बुझा दी। लेकिन डर का माहौल छा गया। बच्चे रो रहे थे, औरतें काँप रही थीं।
संतोष ने जलते लकड़ी के टुकड़े को पैर से दबाया और कहा—
“अब ये सिर्फ़ कागज़ की दीवारों की लड़ाई नहीं रही। ये लड़ाई आग और राख से भी बड़ी होगी। लेकिन हम हारेंगे नहीं। हम और मज़बूत होकर खड़े होंगे।”
लोगों की आँखों में डर के साथ-साथ दृढ़ता भी लौट आई।
भाग ६ : आग और राख के बीच अदालत की सुनवाई
रात की आग बुझ तो गई थी, लेकिन उसकी राख अब भी बस्ती के दिलों में सुलग रही थी। जली हुई लकड़ियों से धुआँ उठ रहा था, और बच्चों की आँखों में डर की छाया गहरी थी। औरतें थरथराती आवाज़ में कह रही थीं—
“आज अगर हम जागे न होते तो सब कुछ जल जाता।”
संतोष ने सबको इकट्ठा करके कहा—
“ये हमला साफ़ दिखाता है कि वे डर गए हैं। लेकिन हमें डरना नहीं है। हमें अदालत में और मज़बूती से खड़ा होना होगा। हर हमला हमारी दलील को और मजबूत करेगा।”
अदालत का माहौल
दो दिन बाद फिर अदालत की सुनवाई थी। इस बार कोर्ट परिसर में असामान्य भीड़ थी। पत्रकार, छात्र, समाजसेवी—सब आए थे। संतोष और रहमान ने बच्चों को घर पर छोड़ दिया था, लेकिन शांति अम्मा ज़िद करके आईं।
“मैं अपनी आँखों से देखना चाहती हूँ कि हमारी बात सुनी जा रही है,” उन्होंने कहा।
देवयानी त्रिपाठी ने फाइलें संभालीं और कोर्ट नंबर पाँच में दाखिल हुईं।
बहस की गर्मी
देवयानी ने जज के सामने आगजनी की घटना का ज़िक्र किया। उन्होंने कहा—
“मान्यवर, बस्ती को न केवल प्रशासनिक आदेश से खतरा है, बल्कि अब सीधे हमले हो रहे हैं। ये घटना दिखाती है कि वहाँ के लोगों को जबरन डराने की कोशिश की जा रही है। अगर अदालत तत्काल सुरक्षा का आदेश नहीं देती, तो बड़ी त्रासदी हो सकती है।”
नगर निगम का वकील खड़ा हुआ और बोला—
“माय लॉर्ड, ये सब राजनीतिक ड्रामा है। बस्ती वाले खुद ही आग लगाकर सहानुभूति बटोर रहे हैं।”
कोर्ट रूम में फुसफुसाहट फैल गई। संतोष का चेहरा लाल हो उठा। वह खड़ी हुई और बोली—
“माय लॉर्ड, अगर हमें सहानुभूति चाहिए होती तो हम चुपचाप भीख माँगते। लेकिन हम यहाँ सच के लिए खड़े हैं। हमारी झुग्गियों में बच्चों की किताबें जलने की कगार पर थीं, और यह कोई ड्रामा नहीं था। ये हमारी ज़िंदगी का सच है।”
जज ने हाथ उठाकर सबको शांत किया।
“कोर्ट में अनुशासन रहेगा। लेकिन याचिकाकर्ता की भावनाओं को हम नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।”
अंतरिम आदेश
जज ने आदेश लिखवाया—
“नगर निगम और पुलिस को निर्देशित किया जाता है कि बस्ती को किसी भी प्रकार की धमकी, हिंसा या जबरन कार्रवाई से बचाया जाए। थाना प्रभारी को आदेशित किया जाता है कि बस्ती की सुरक्षा सुनिश्चित करें। अगली सुनवाई में विस्तृत जवाब प्रस्तुत किया जाए।”
यह सुनकर बस्ती के लोग सिसक पड़े। शांति अम्मा ने हाथ जोड़कर कहा—
“भगवान का शुक्र है, अब हमारी रातें थोड़ी सुरक्षित होंगी।”
देवयानी ने फुसफुसाकर संतोष से कहा—
“ये जीत का कदम नहीं, लेकिन बड़ी राहत है। अब मिश्रा की चालें भी अदालत की नज़र में आएँगी।”
मीडिया की ताक़त
बाहर पत्रकारों ने संतोष को घेर लिया। माइक सामने थे—
“दीदी, अदालत ने सुरक्षा का आदेश दिया है, आपकी क्या प्रतिक्रिया है?”
संतोष ने गहरी साँस लेकर कहा—
“हमने सिर्फ़ अपना हक़ माँगा है। अदालत ने हमें सुना, इसके लिए आभार। लेकिन हम तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक हमारे घरों को स्थायी मान्यता नहीं मिलती। हम बस यही कह रहे हैं—घर इंसान का हक़ है, किसी की मेहरबानी नहीं।”
यह बयान अगले दिन शहरभर के अख़बारों में छपा। टीवी चैनलों पर संतोष की तस्वीर दिखाई गई।
मिश्रा की बौखलाहट
उधर विधायक मिश्रा गुस्से से तिलमिला रहा था। उसके सहयोगी ने कहा—
“साहब, अब ये औरत शहर की पहचान बन रही है। लोग इसे ‘बस्ती की आवाज़’ कह रहे हैं। अगर चुनाव नज़दीक आए और ये लहर बनी रही तो…”
मिश्रा ने मेज़ पर हाथ पटका—
“मुझे इससे पहले इसे कुचलना होगा। अदालत ने सुरक्षा दी है? पुलिस हमारे इशारे पर है। देखते हैं ये सुरक्षा कितनी टिकती है।”
बस्ती का हौसला
उस रात पहली बार पुलिस की एक जीप गश्त करती दिखी। बच्चे हँसते हुए बोले—“देखो, अब पुलिस हमारे लिए है!”
औरतों ने चैन की साँस ली।
संतोष ने चौपाल पर सबको संबोधित किया—
“हमारे पास अब अदालत का सहारा है। लेकिन याद रखो, सबसे बड़ी सुरक्षा हमारी एकजुटता है। अगर हम बँट गए तो कोई कागज़, कोई आदेश हमें नहीं बचा पाएगा।”
भीड़ ने एक स्वर में कहा—
“हम साथ हैं!”
शांति अम्मा ने लाठी टिकाते हुए कहा—
“जब तक साँस है, तब तक यह बस्ती भी साँस लेगी। और अब तो अदालत भी गवाह है।”
भाग ७ : चुनावी मौसम और बस्ती की आवाज़
बरसात के बादल छँट रहे थे और शहर में चुनाव की गहमागहमी शुरू हो गई थी। दीवारों पर पोस्टर, चौराहों पर झंडे, लाउडस्पीकरों पर भाषण। हर गली में नए-नए वादे गूँज रहे थे।
लेकिन बस्ती की गलियों में इस बार एक अलग ही चर्चा थी—
“क्या हमारे घरों का फैसला भी चुनाव के साथ होगा?”
“मिश्रा फिर से जीता तो हमारा क्या होगा?”
संतोष सबकी बातें सुनती और सोचती—
“अब वक्त आ गया है कि हमारी आवाज़ सिर्फ़ अदालत तक न रहे, चुनाव तक पहुँचे। हमें बताना होगा कि हम वोटर हैं, सिर्फ़ झुग्गीवाले नहीं।”
मतदाता सूची की ताक़त
एक शाम संतोष ने रहमान और युवकों को बुलाकर कहा—
“हमारे पास वोटर आईडी हैं। चलो, पहले यह सुनिश्चित करें कि बस्ती का हर नाम मतदाता सूची में दर्ज है। अगर वे हमें हटाना चाहते हैं, तो उन्हें याद दिलाओ कि हमारी उँगलियों की स्याही ही उनका ताज बनाती है।”
युवक फॉर्म भरने लगे। बूढ़ी औरतें लाइन में खड़ी होकर अपने कार्ड दिखाने लगीं। बच्चों ने मज़ाक में कहा—
“अब तो हमारी माएँ भी नेताओं से बड़ी हो गईं, क्योंकि उनके पास वोट है।”
चुनावी सभाएँ
मिश्रा ने पास के मैदान में एक बड़ी सभा की। मंच पर रोशनी, ढोल-नगाड़े, भीड़ जुटाने के लिए पैसे बाँटे गए। उसने माइक्रोफोन पकड़कर कहा—
“हम शहर को सुंदर और आधुनिक बनाएँगे। अवैध झुग्गियों को हटाकर नई इमारतें खड़ी करेंगे।”
यह सुनकर बस्ती के लोग जो दूर से सभा देख रहे थे, एक-दूसरे का हाथ पकड़ने लगे। संतोष ने फुसफुसाकर कहा—
“ये खुलेआम कह रहा है कि हमें मिटाएगा। अब हमें भी अपनी सभा करनी होगी।”
बस्ती की सभा
दो दिन बाद चौपाल पर बस्ती की अपनी सभा हुई। कोई भव्य मंच नहीं था, बस टीन की छत और टिमटिमाते बल्ब। लेकिन भीड़ उमड़ी हुई थी—छात्र, समाजसेवी, पत्रकार, पास के मोहल्लों के लोग।
संतोष ने माइक हाथ में लेकर कहा—
“नेता कहते हैं कि हम अवैध हैं। लेकिन हम पूछते हैं—क्या हमारी मेहनत अवैध है? क्या हमारे बच्चों की पढ़ाई अवैध है? क्या इस शहर की इमारतें हमारे पसीने के बिना खड़ी होतीं? हम वोट देंगे, लेकिन उसे जो हमें इंसान मानेगा, समस्या नहीं।”
तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी। कबीर ने तस्वीरें खींचीं। अगले दिन अख़बार में छपा—
“बस्ती की सभा ने चुनावी मौसम गरमाया”।
विरोध की रणनीति
सुधांशु समाजसेवी ने सुझाव दिया—
“चुनाव आयोग तक शिकायत पहुँचाओ कि विधायक खुलेआम बस्ती को हटाने की धमकी दे रहा है। चुनावी आचार संहिता के तहत यह गलत है।”
देवयानी वकील ने भी हामी भरी—
“अगर आयोग नोटिस भेजेगा तो मिश्रा की मुश्किल बढ़ जाएगी। कानून सिर्फ़ अदालत तक सीमित नहीं है।”
मिश्रा की बौखलाहट
मिश्रा को जब यह खबर लगी, तो उसने चिढ़कर कहा—
“ये औरत मुझे चुनौती दे रही है। अगर ये चुनाव तक जिंदा रही तो मेरी कुर्सी चली जाएगी।”
उसने अपने गुंडों को बुलाया और आदेश दिया—
“सभा-वसभा भूल जाओ। अब इनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी को नर्क बना दो। बिजली काटो, पानी रोक दो। ये खुद-ब-खुद हार मान जाएँगे।”
बस्ती का संघर्ष
अगले ही दिन बस्ती में बिजली चली गई। हैंडपंप से पानी आना बंद हो गया। बच्चे प्यास से रोने लगे, औरतें सिर पर खाली मटके लेकर खड़ी थीं।
संतोष ने सबको इकट्ठा किया—
“ये हमें झुकाने की चाल है। लेकिन हम चुप नहीं रहेंगे। कल सुबह हम नगर निगम दफ़्तर के सामने बैठकर सत्याग्रह करेंगे। चाहे पानी न मिले, पर आवाज़ रोकी नहीं जाएगी।”
रात की चर्चा
उस रात शांति अम्मा ने संतोष का हाथ थामकर कहा—
“बेटी, तू सचमुच अब इस बस्ती की दीवार बन गई है। पर दीवार पर जितने वार होते हैं, उतनी दरारें पड़ती हैं। संभलकर चलना।”
संतोष ने दृढ़ स्वर में कहा—
“अम्मा, अगर दरार पड़े भी तो उसमें से रोशनी आएगी। यही रोशनी हमारी ताक़त बनेगी।”
अम्मा की आँखें भर आईं। उन्होंने आसमान की ओर देखा और धीमे से कहा—
“हे भगवान, इस लड़की को हिम्मत देना। अब ये अकेली नहीं, हजारों का सहारा है।”
भाग ८ : सत्याग्रह और सत्ता का टकराव
सुबह का सूरज निकला भी नहीं था कि बस्ती की गलियों में हलचल शुरू हो गई। औरतें अपने सिर पर खाली मटके रखे थीं, बच्चे हाथों में तख्तियाँ पकड़े थे—“पानी हमारा अधिकार है”, “घर हमारा हक़ है”। रहमान और अन्य युवक झंडे लेकर आगे-आगे चल रहे थे। सबसे आगे संतोष थी, उसकी आँखों में नींद नहीं थी, लेकिन दृढ़ता थी।
“आज हम नगर निगम के सामने बैठेंगे,” उसने सबको कहा, “जब तक हमें पानी और बिजली नहीं मिलती, हम नहीं उठेंगे।”
नगर निगम का घेरा
सुबह के दस बजे तक बस्ती से निकली भीड़ नगर निगम दफ़्तर के बाहर पहुँच गई। चारों तरफ पुलिस का पहरा था। दरोगा वही था जिसने पहले शिकायत टाल दी थी। उसने हाथ उठाकर कहा—
“यहाँ धरना देने की अनुमति नहीं है। तुरंत हट जाओ।”
भीड़ से आवाज़ आई—
“पानी दो, बिजली दो!”
“घर हमारा हक़ है!”
संतोष आगे बढ़ी। उसने दरोगा की आँखों में देखते हुए कहा—
“आप कहते हैं अनुमति नहीं है। लेकिन हमें जीने की अनुमति किसने दी है? जब आप हमारा पानी काटते हैं, बिजली बंद करते हैं, तब किससे अनुमति लेते हैं?”
दरोगा चुप हो गया। पत्रकार कैमरे लेकर खड़े थे। पुलिस के लिए बल प्रयोग करना आसान नहीं था।
सत्याग्रह की शुरुआत
लोग ज़मीन पर बैठ गए। औरतें मटके रखकर हाथ जोड़कर बैठीं। बच्चे अपनी कॉपियाँ खोलकर वहीं लिखने लगे। पूरा माहौल शांतिपूर्ण था, लेकिन गूंजदार।
कबीर ने माइक बढ़ाकर पूछा—
“संतोष दीदी, आप यहाँ कब तक बैठेंगी?”
संतोष ने साफ़ कहा—
“जब तक पानी और बिजली वापस नहीं आती। और जब तक हमारे घरों को इंसानियत से देखा नहीं जाता।”
सत्ता का टकराव
दोपहर होते-होते विधायक मिश्रा की गाड़ी वहाँ पहुँची। उसके पीछे समर्थकों की भीड़ थी। मंच जैसा बना और मिश्रा ने माइक पकड़ा—
“ये सब नाटक है। शहर की सुंदरता बिगाड़ने वाले लोग अब हमें ब्लैकमेल कर रहे हैं। मैं साफ़ कहता हूँ—अवैध झुग्गियाँ हटेंगी। चाहे ये कितना भी चिल्लाएँ।”
भीड़ में गुस्सा फैल गया। कुछ छात्र खड़े होकर चिल्लाए—
“शहर हमारी मेहनत से चलता है!”
“हम अवैध नहीं हैं!”
पुलिस ने तुरंत छात्रों को पीछे धकेला। माहौल गरमा गया।
संतोष का सामना
संतोष उठी और सीधे मिश्रा के मंच के सामने खड़ी हो गई। भीड़ सन्न रह गई।
“मिश्रा जी,” उसने ऊँची आवाज़ में कहा, “आप कहते हैं हम अवैध हैं। पर बताइए—क्या हमारी मेहनत अवैध है? आपने जिन इमारतों का शिलान्यास किया, उनमें ईंटें किसने उठाईं? आपने जिन सड़कों का उद्घाटन किया, उनमें पसीना किसका मिला? हम अवैध नहीं, इस शहर की नींव हैं।”
तालियाँ गूँज उठीं। पत्रकारों के कैमरे चमक उठे। मिश्रा का चेहरा लाल पड़ गया।
“तू बहुत बोलती है,” उसने दाँत पीसते हुए कहा, “याद रख, राजनीति का खेल तेरे बस का नहीं।”
“राजनीति का खेल आपका है,” संतोष ने जवाब दिया, “लेकिन जीने का हक़ हमारा है। और इस हक़ के लिए हम झुकेंगे नहीं।”
पुलिस का लाठीचार्ज
अचानक आदेश हुआ—“लाठीचार्ज!”
पुलिस ने डंडे बरसाने शुरू कर दिए। लोग चीखने लगे, बच्चे भागे। औरतें ढाल बनकर बच्चों के आगे खड़ी हो गईं। रहमान को डंडा लगा, वह गिर पड़ा।
संतोष ने शांति अम्मा को सहारा दिया जो ज़मीन पर बैठी थीं और लाठी उनके कंधे पर लगी थी।
“मत मारो!” संतोष चीखी, “हम हिंसा नहीं कर रहे। हम सिर्फ़ इंसाफ़ माँग रहे हैं!”
पत्रकारों ने यह दृश्य लाइव प्रसारित किया। टीवी चैनलों पर चीखें और लाठियाँ एक साथ दिखाई दीं।
अदालत का तगड़ा आदेश
शाम को ही देवयानी वकील ने अदालत में कंटेम्प्ट पिटीशन दाखिल की। अगले दिन अदालत ने सख्त आदेश दिया—
“न्यायालय के संरक्षण में रहते हुए याचिकाकर्ताओं पर बल प्रयोग निंदनीय है। पुलिस और प्रशासन तुरंत रिपोर्ट पेश करें। अन्यथा कठोर कार्रवाई होगी।”
यह आदेश सुनकर बस्ती में फिर से उम्मीद लौटी।
घायल लेकिन मज़बूत
बस्ती में लोग पट्टियाँ बाँध रहे थे। रहमान ने मुस्कराते हुए कहा—
“डंडा खाया है, लेकिन डर टूटा नहीं। अब तो और लड़ाई लड़ेंगे।”
संतोष ने बच्चों को गोद में लेकर कहा—
“ये संघर्ष सिर्फ़ हमारे घरों का नहीं, तुम्हारे भविष्य का है। और जब भविष्य दाँव पर हो, तो पीछे हटने का सवाल ही नहीं।”
शांति अम्मा ने काँपती आवाज़ में कहा—
“बेटी, आज तूने मिश्रा को सबके सामने जवाब दिया। यही तेरी सबसे बड़ी जीत है। बाकी जीतें अभी आनी हैं।”
भाग ९ : जनता का फैसला और राजनीति का दबाव
लाठीचार्ज की घटना पूरे शहर में आग की तरह फैल गई। टीवी चैनलों पर बार-बार वही दृश्य दिखाया जा रहा था—औरतें सिर पर मटके रखकर जमीन पर बैठी हैं, बच्चे किताबें थामे रो रहे हैं, और पुलिस डंडे बरसा रही है।
लोग सोशल मीडिया पर लिखने लगे—
“झुग्गी तोड़ना आसान है, लेकिन उनकी आवाज़ तोड़ना असंभव।”
“ये सिर्फ़ बस्ती की लड़ाई नहीं, इंसानियत की लड़ाई है।”
जनता का ग़ुस्सा
चुनावी माहौल में यह घटना मिश्रा के लिए भारी पड़ रही थी। शहर के दूसरे इलाकों में भी लोग बोलने लगे—
“अगर आज इन्हें निकाला गया तो कल हमारी बारी आएगी।”
बाजारों में चर्चा, कॉलेजों में बहस, मोहल्लों में मीटिंग। हर जगह सवाल था—क्या शहर सिर्फ़ अमीरों का है?
विपक्ष की चाल
विपक्षी पार्टी ने तुरंत मौके का फ़ायदा उठाया। उनके नेता बस्ती में आए, कैमरों के सामने संतोष से हाथ मिलाया और कहा—
“हम आपके साथ हैं। मिश्रा ने अन्याय किया है। चुनाव के बाद हम आपकी बस्ती को पक्का घर देंगे।”
संतोष ने शांति से जवाब दिया—
“हम राजनीति का हिस्सा नहीं हैं। हमारी लड़ाई सिर्फ़ इंसाफ़ की है। आप भी वादा कर रहे हैं, लेकिन हमें भरोसा केवल अदालत और हमारी एकजुटता पर है।”
लोग तालियाँ बजाने लगे। पत्रकारों ने यह बयान सुर्ख़ियों में छापा।
मिश्रा पर दबाव
विधायक मिश्रा अब चारों ओर से घिर गया था। पार्टी के आला नेताओं ने उसे तलब किया।
“तुम्हारी वजह से पार्टी की छवि खराब हो रही है। चुनाव हार भी सकते हैं। तुरंत कोई हल निकालो।”
मिश्रा ने दबी आवाज़ में कहा—
“साहब, यह औरत… संतोष… सबकी नज़र में नायिका बन गई है। अगर इसे चुप न कराया गया तो…”
“चुप कराने की नहीं, समाधान की सोचो,” नेताओं ने सख्ती से कहा, “चुनाव सिर पर हैं। हमें वोट चाहिए, विवाद नहीं।”
अदालत में निर्णायक बहस
उधर अदालत में सुनवाई निर्णायक मोड़ पर पहुँच गई थी। देवयानी वकील ने दस्तावेज़ों की मोटी फाइल जज के सामने रखी।
“मान्यवर, यह बस्ती वर्षों से यहाँ रह रही है। सरकारी विभाग खुद इनके नाम पर बिजली और पानी का बिल लेता रहा है। अब इन्हें अवैध कहना अपने ही रिकॉर्ड को झुठलाना है। यह असंवैधानिक है।”
नगर निगम का वकील कमजोर पड़ चुका था। उसने सिर्फ़ इतना कहा—
“माय लॉर्ड, हम उच्च अधिकारियों से निर्देश लेकर अगली सुनवाई में स्पष्ट योजना देंगे।”
जज ने कड़ी नज़र से कहा—
“योजना अब चाहिए। या तो पुनर्वास का प्रस्ताव दो, या इस बस्ती को वैध मानो। अदालत अनिश्चितता बर्दाश्त नहीं करेगी।”
बस्ती की उम्मीद
शाम को संतोष और सब लोग चौपाल पर बैठे थे। कबीर ने खबर सुनाई—
“जज ने साफ़ कहा है—या तो वैध मानो या पक्का घर दो। अब खेल उनके हाथ से निकल रहा है।”
लोगों की आँखों में चमक लौट आई। औरतों ने कहा—
“क्या अब हमें सचमुच पक्का घर मिलेगा?”
रहमान ने मुस्कराकर कहा—
“अगर अदालत ने कहा है, तो जरूर मिलेगा। मिश्रा चाहे या न चाहे।”
संतोष का डर और संकल्प
रात को जब सब सो गए, संतोष अकेली बैठी रही। उसने अंधेरे में सोचा—
“क्या वाकई हमें जीत मिलेगी? या यह भी कोई नया झूठा वादा होगा? लेकिन चाहे जो हो, अब पीछे लौटने का सवाल नहीं। ये लड़ाई मेरी नहीं, हर उस गरीब की है जो शहर में हाशिए पर जी रहा है।”
उसने बच्चों की ओर देखा—सोते हुए चेहरों पर शांति थी।
“मैं उन्हें बेघर नहीं होने दूँगी,” उसने मन ही मन कसम खाई।
जनता का फैसला
अगले दिन शहर में जनसभा हुई। छात्र, मजदूर, समाजसेवी, आम नागरिक—सब सड़कों पर उतरे। नारों से आसमान गूंज उठा—
“घर हमारा अधिकार है!”
“बस्ती नहीं मिटेगी!”
टीवी चैनलों ने इसे “जनता का फैसला” कहा। पत्रकारों ने लिखा—
“जब शहर की सड़कों पर गरीब और मध्यमवर्ग साथ आ जाए, तो सत्ता को झुकना ही पड़ता है।”
भाग १० : अंतिम फैसला और कागज़ की दीवारों की जीत
सुबह अदालत परिसर में असामान्य चहल-पहल थी। दीवारों पर नोटिस बोर्ड पर मोटे अक्षरों में लिखा था—“कागज़ की दीवारें बनाम नगर निगम – अंतिम सुनवाई”।
संतोष, शांति अम्मा, रहमान और बस्ती के लोग कतार में खड़े थे। उनके हाथों में वही पुराने बिल, राशन कार्ड, बच्चों की कॉपियाँ और जली हुई दीवारों की तस्वीरें थीं। सबकी आँखों में चिंता भी थी और उम्मीद भी।
देवयानी त्रिपाठी काली कोट में आईं। उन्होंने धीरे से कहा—
“आज का दिन निर्णायक है। चाहे जो फैसला आए, आपको संयम रखना होगा। याद रखिए, अदालत में सिर्फ़ सच बोलना है।”
अंतिम बहस
कोर्ट नंबर पाँच में सुनवाई शुरू हुई।
देवयानी ने दृढ़ स्वर में कहा—
“मान्यवर, यह सिर्फ़ एक बस्ती का मामला नहीं है, यह इंसानियत की कसौटी है। इन लोगों ने सालों से टैक्स दिया है, बच्चों को स्कूल भेजा है, इस शहर को अपनी मेहनत से सींचा है। इन्हें अवैध कहना इनके अस्तित्व को नकारना है। संविधान का अनुच्छेद 21 कहता है कि हर नागरिक को गरिमा से जीने का अधिकार है। हम विनम्र निवेदन करते हैं कि इस बस्ती को वैध मान्यता दी जाए और इनके लिए पुनर्वास की ठोस व्यवस्था हो।”
नगर निगम का वकील कमजोर पड़ चुका था। उसने धीमे स्वर में कहा—
“माय लॉर्ड, हम उच्च अधिकारियों से परामर्श के बाद यह मानते हैं कि बिना पुनर्वास के इन्हें हटाना संभव नहीं है। अतः निगम इन परिवारों को वैध मान्यता देने या चरणबद्ध पक्का आवास योजना में शामिल करने को तैयार है।”
जज ने गहरी नज़र से दोनों पक्षों को देखा। फिर आदेश लिखा।
अदालत का फैसला
क्लर्क ने ऊँची आवाज़ में पढ़ा—
“अदालत पाती है कि याचिकाकर्ता वर्षों से इस भूमि पर निवासरत हैं और राज्य स्वयं उनके नाम पर सार्वजनिक सेवाएँ उपलब्ध कराता रहा है। इन्हें अवैध कहना संविधान के सिद्धांतों के विपरीत है। अतः नगर निगम को आदेशित किया जाता है कि—
- इस बस्ती को तत्काल वैध मान्यता दी जाए।
 - पुनर्वास और पक्के आवास की योजना में प्राथमिकता से इन्हें शामिल किया जाए।
 - बिना वैकल्पिक व्यवस्था के किसी भी परिवार को विस्थापित न किया जाए।
 
यह आदेश अंतिम और बाध्यकारी है।”
कोर्ट रूम तालियों से गूंज उठा। शांति अम्मा की आँखों से आँसू बह निकले। रहमान ने संतोष का हाथ थामा और कहा—
“दीदी, आज हमारी कागज़ की दीवारें सचमुच पक्की हो गईं।”
बस्ती में जश्न
शाम को जब लोग बस्ती लौटे तो गलियाँ रोशनी से भर गईं। बच्चों ने रंगोली बनाई, औरतों ने ढोलक बजाई। कोई मिठाई बाँट रहा था, कोई गले लग रहा था।
संतोष के घर की दीवार पर, जहाँ कभी काले रंग से “झुग्गी हटाओ” लिखा गया था, अब बच्चों ने सफेद चूने से लिख दिया—
“यह घर वैध है। यह घर हमारा है।”
शांति अम्मा ने संतोष को आशीर्वाद देते हुए कहा—
“बेटी, तूने साबित कर दिया कि हिम्मत और सच मिलकर सबसे बड़ी ताक़त बनते हैं। आज से तू सिर्फ़ बस्ती की बेटी नहीं, इस शहर की आवाज़ है।”
पत्रकार की कलम
कबीर ने अख़बार में लिखा—
“कागज़ की दीवारें जीत गईं। यह कहानी हमें याद दिलाती है कि गरीबों की ज़िंदगी कोई अवैध निर्माण नहीं, बल्कि इस शहर की नींव है। जब इंसाफ़ बोलता है तो सत्ता को झुकना ही पड़ता है।”
संतोष का अंतिम संकल्प
रात को संतोष अकेली छत पर बैठी थी। हवा में खुशी की गंध थी, लेकिन उसके मन में एक और संकल्प जन्म ले रहा था।
“हमने अपने घर बचा लिए। लेकिन इस शहर में और भी बस्तियाँ हैं, जहाँ लोग अब भी डरे हुए हैं। उनकी आवाज़ भी बनना होगा। लड़ाई खत्म नहीं हुई, यह तो बस शुरुआत है।”
उसने आसमान की ओर देखा। चाँद साफ़ चमक रहा था। और उसे लगा—आज उनकी झुग्गी का हर टीन का टुकड़ा, हर ईंट, हर दीवार चाँदनी में पहले से ज्यादा मजबूत चमक रही है।
				
	

	


