विराज कुलकर्णी
१
उत्तर भारत के एक सुदूर गाँव में जब सरकारी जीप धूल उड़ाती हुई दाखिल हुई, तो सूरज अपनी नारंगी किरणें खेतों की मेड़ों पर बिखेर रहा था। गाँव का नाम ‘गहना’ था — और सच में, यह गाँव घने सन्नाटे से ढका हुआ था। डॉ. अदिति वर्मा खिड़की से बाहर झाँकती रही; मिट्टी की सोंधी गंध के बीच कुछ अजीब सा बेचैन कर देने वाला सन्नाटा था। रास्ते भर उसने सोचा था कि यह नई तैनाती उसके लिए एक ‘ब्रेक’ होगी — शहर की भागदौड़ से दूर, कुछ समय सुकून में बिताने का मौका। लेकिन जैसे ही जीप ने गाँव के मुख्य चौराहे के पास रुककर हॉर्न बजाया, वह महसूस करने लगी कि यहाँ कुछ असामान्य है। बच्चे जो दौड़ते आते हैं, गायब थे; बूढ़े जो चौपाल में ताश खेलते हैं, दिखे नहीं। हाँ, एक युवा व्यक्ति — सफेद कुरते और चश्मे में — हाथ जोड़कर सामने आया और बोला, “आप ही डॉक्टर वर्मा हैं न? मैं नीलकंठ, यहाँ स्कूल में पढ़ाता हूँ। चलिए, आपको क्लिनिक तक ले चलता हूँ।” अदिति ने विनम्र मुस्कान दी, लेकिन उसके अंदर कहीं कोई सिरहन सी उठी — कोई स्वागत नहीं, कोई उत्सुकता नहीं, मानो गाँव जानता हो कि वह कितने समय तक रहेगी।
क्लिनिक तक पहुँचते-पहुँचते शाम घिर आई थी, और पूरा इलाका जैसे धीरे-धीरे रात की चादर ओढ़ने लगा। सरकारी क्वार्टर छोटा लेकिन साफ था, और पास में ही दो कमरों वाला प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र। नीलकंठ ने उसे आस-पास का इलाका दिखाया — तालाब, स्कूल, पंचायत भवन — लेकिन एक जगह आते ही वह अचानक चुप हो गया। अदिति ने देखा, गाँव के बीचोंबीच एक पुराना कुआँ था — सूखा, चारों ओर काँटेदार झाड़ियों से घिरा। उसके पास लोहे की जाली थी, जिस पर ताले लगे थे। “यह कुआँ…?” अदिति ने पूछा, लेकिन नीलकंठ ने तुरंत बात बदल दी — “गाँव वालों ने बंद करवा दिया है, सूख गया है। बेकार है अब।” लेकिन अदिति की निगाहें वहाँ अटक गई थीं। कुएं के चारों ओर की मिट्टी काली और गीली सी लग रही थी, जैसे किसी नमी को दबा कर रखा गया हो। रात को जब अदिति अपने कमरे में सोने गई, तब बाहर हल्की हवा चल रही थी, लेकिन अंदर का माहौल जैसे ठहरा हुआ था। खिड़की खुली थी, और खटाक से दरवाज़ा अपने आप बंद हुआ। एक पल के लिए बिजली भी चली गई। अंधेरे में उसने आँखें बंद कीं — लेकिन तभी अचानक एक धीमी, खुरदुरी आवाज उसके कानों में पड़ी — “मेरी आँखें लौटा दो…”
अगली सुबह जब अदिति उठी, तो उसे लगा कि पिछली रात का सब कुछ कोई सपना रहा होगा। लेकिन उस आवाज़ की खुरदुरी गूंज अब भी कहीं भीतर बाकी थी। नाश्ते के बाद वह क्लिनिक पहुँची और पहले ही दिन तीन-चार मरीज आ गए — बुजुर्ग, बुखार, पेट दर्द, और एक युवा जो लगातार सिरदर्द और आँखों में जलन की शिकायत कर रहा था। वह युवक बहुत शांत था, लेकिन जब अदिति ने पूछा, “रात को ठीक से सो पाते हो?”, उसने धीरे से कहा — “वो आती है… मुझे देखती है… मैं कुछ नहीं देख पाता…” अदिति ठिठक गई। उसने उसे समझाने की कोशिश की — “कोई सपना होगा, स्ट्रेस है शायद।” लेकिन युवक की आँखों की पुतलियाँ कुछ असमान लग रही थीं — जैसे रोशनी से डर रही हों। वह झल्लाई नहीं, पर कुछ सोच में पड़ गई। दोपहर के बाद जब वह बाहर निकली, तो गाँव के कुछ लोग उसे दूर से देख रहे थे — नज़रों में संदेह था, या शायद डर। तभी एक बूढ़ी औरत — झुकी हुई कमर और सफेद झक बालों वाली — उसके पास आई, और सिर्फ एक बात कहकर चली गई — “कुएं के पास मत जाना बेटी… वो देखती है, और देख लेने वालों को फिर कुछ नहीं दिखता।” अदिति स्तब्ध रह गई। पहली बार उसे महसूस हुआ कि यह गाँव सिर्फ दूरदराज़ नहीं, किसी छुपे हुए अंधेरे में जकड़ा हुआ है — और उसकी आँखें उस अंधे कुएं की तरफ खिंचती जा रही थीं, जैसे वहाँ कुछ ऐसा है जो उसे देखना चाहिए… या शायद वह उसे देख रहा है।
२
गाँव में उसका दूसरा दिन था, लेकिन डॉक्टर अदिति को ऐसा लगने लगा था जैसे वह महीनों से यहाँ रह रही हो — हवा में कुछ ऐसा था जो उसकी चेतना में घुलकर उसे लगातार चौकन्ना बनाए रखता था। सुबह के मरीजों में अधिकांश लोग साधारण बीमारी वाले थे, लेकिन सबकी आँखों में एक अजीब झिझक थी — वह कुछ पूछती, तो बस नज़रें झुका लेते। जब वह दवा बाँटते हुए एक बुज़ुर्ग महिला से हँसी में बोली, “आपके गाँव के बीचोंबीच जो कुआँ है, वह बहुत रोचक लग रहा है… बंद क्यों कर रखा है?”, तो महिला ने उसकी आँखों में सीधा नहीं देखा, बस मुँह फेरकर धीरे से बुदबुदाई — “उसे मत छेड़ो बेटी, वो सो रहा है… सोने दो…”। अदिति ने जब इस बात को दोहराया, तो बाकी मरीज़ों ने अचानक चुप्पी साध ली, जैसे किसी निषिद्ध विषय को छू लिया गया हो। दोपहर बाद जब गाँव लगभग सुनसान हो गया, तो अदिति ने अकेले ही कुएं की ओर जाने का मन बना लिया।
कुएँ तक पहुँचते हुए उसे एक ठंडी लहर सी महसूस हुई, मानो उसके कदमों के नीचे की ज़मीन अचानक थोड़ी भारी हो गई हो। चारों तरफ सूखे घास और बबूल के झाड़ियाँ थीं, लेकिन कुएं के आसपास की मिट्टी कुछ अलग सी थी — काली, चिपचिपी और थोड़ी सी नमी से भरी। कुएँ के ऊपर जंग लगे लोहे की जाली थी, जिस पर मोटा ताला पड़ा था। एक ओर लगे पत्थर पर हल्के से लाल रंग की पपड़ी जमी हुई थी, जिसे देखकर अदिति की भौंहें सिकुड़ गईं। वह और पास गई, झुककर उस निशान को छूना चाहा, लेकिन तभी हवा में एक कराह की सी धीमी ध्वनि गूंजी — जैसे किसी की साँस उखड़ रही हो। वह पीछे हटी, और एक पल के लिए कुएं की जाली के आर-पार झाँका — गहराई इतनी थी कि कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था, बस एक काला अंधकार जो आँखों को अपने भीतर खींचने लगा। वह झटके से पीछे हटी, और उसकी साँसें तेज़ हो गईं। तभी पेड़ के पीछे से एक हल्की सी फुसफुसाहट सुनाई दी — “देखो मत… वो देख लेगी…”। अदिति ने मुड़कर देखा — कोई नहीं था। लेकिन वो आवाज़ हड्डियों तक सरसराहट छोड़ गई।
उस रात वह कुछ ज्यादा ही थकी हुई थी, लेकिन नींद जैसे किसी परछाई से जूझती रही। सपनों में वही कुआँ दिखा — और उसमें से धीरे-धीरे एक औरत का चेहरा ऊपर आता गया — झुलसी हुई त्वचा, आँखों की जगह दो काले गड्ढे, और होठों पर एक मुस्कान जो दया और पिशाचिता के बीच झूलती हुई थी। उसने अदिति की ओर हाथ बढ़ाया और धीमे से कहा — “अब तुमने देख लिया… अब मेरी बारी है…”। अचानक चेहरा एक झटके में करीब आ गया और अदिति चीखती हुई उठ बैठी। उसका माथा पसीने से भीगा था, साँसें धौंकनी की तरह चल रही थीं। कमरे में सब कुछ वैसा ही था, लेकिन खिड़की के बाहर से आती हवा में अब एक नई गंध थी — गीली मिट्टी, बासी खून, और किसी बुझी हुई चिता की राख जैसी गंध। और उसके तकिए के पास — एक सूखे गुलाब की पंखुड़ी पड़ी थी, जबकि कमरे में उसने कभी फूल नहीं रखे थे। वो जानती थी — ये संयोग नहीं था। अब यह उसका सपना नहीं, किसी और की पुकार थी, जो उसे कुएं तक लाने लगी थी।
३
तीसरे दिन की सुबह अपेक्षाकृत सामान्य थी — चिड़ियों की चहचहाहट, दूर कहीं मंदिर की आरती और गाँव की महिलाएँ माथे पर कलश लिए खेतों की ओर जाती हुईं। लेकिन अदिति के भीतर सब कुछ असामान्य था। रात की डरावनी छाया उसके चेहरे पर अब भी बनी हुई थी। वह हर आवाज़ पर चौंक रही थी, और जब शीशे में अपनी आँखों में देखती, तो उसे लगता जैसे कोई और भी इन आँखों से झाँक रहा है। पर उसने खुद को संभाला और क्लिनिक पहुँची। आज मरीजों की भीड़ ज़्यादा थी। लेकिन उनमें एक युवक था — करीब बीस-बाईस साल का, दुबला, चुपचाप बैठा। उसकी आँखों पर चश्मा नहीं था, फिर भी वह सामने दीवार को अजीब तरह से देख रहा था, जैसे उसे कुछ नजर नहीं आ रहा। जब अदिति ने उसका नाम पूछा — “नाम?” — तो उसने देर से उत्तर दिया — “नाम… विक्रम…” और एक क्षण रुककर कहा — “मुझे दिखाई देना कम हो गया है…”
विक्रम की आँखें सामान्य दिख रही थीं, लेकिन उनकी गहराई में कुछ खालीपन था — जैसे वह किसी दूसरी दुनिया में झाँक रहा हो। अदिति ने चेकअप किया — न तो रेटिना में कोई समस्या, न ही कॉर्निया में कोई सफेदी। वह हैरान थी। “कब से दिखाई देना कम हो रहा है?” — उसने पूछा। विक्रम ने नीची आवाज़ में जवाब दिया — “तीन दिन… तब से जब मैंने… गलती से कुएं की ओर देखा था… बस झाँका ही था।” अदिति ठिठक गई। यह वही दिन था जब वह गाँव आई थी। उसके शरीर में सिहरन दौड़ गई। “झाँका? क्यों?” — वह बोली। विक्रम बोला — “मैं मटर के खेत में काम कर रहा था, और रास्ता छोटा था… कुएं के पास से ही जाना पड़ा… मैं तो जानता था कि वहाँ नहीं देखना चाहिए, लेकिन कुछ था… जैसे कोई खींच रहा था।” उसकी आँखें अब और भी स्थिर हो चुकी थीं, जैसे वह कुछ नहीं बल्कि किसी को देख रहा हो, जो वहाँ नहीं था। उसने अदिति की ओर देखा, या यूँ कहिए देखने की कोशिश की — और बोला, “आप भी सुनती हैं न वो आवाज़? ‘मेरी आँखें लौटा दो…’”
अदिति को यकीन नहीं हुआ कि कोई और वही सुन सकता है जो उसके सपनों में आता है। उसने गहरी साँस ली और नीलकंठ को बुलवाया। वह कुछ ही पलों में क्लिनिक पहुँचा और अदिति ने उसे विक्रम की हालत बताई। नीलकंठ का चेहरा ज़रा भी हैरान नहीं हुआ। बस उसने धीमे से कहा, “ये पहली बार नहीं हुआ… लेकिन ज़्यादातर लोग बोलते नहीं। डरते हैं।” अदिति को गुस्सा भी आया और बेचैनी भी — “आप सब लोग डरकर चुप क्यों रहते हैं? अगर कुछ सच है तो उसका सामना करना होगा!” नीलकंठ ने आँखें झुका लीं — “कुएं की तरफ जो देखता है, उसके सपनों में ‘वो’ आती है… फिर धीरे-धीरे उसकी रोशनी चली जाती है… आँखें खुली रहती हैं, पर अंधेरा फैलता जाता है। हम क्या करें डॉक्टर? वह कुआँ अब सिर्फ पानी का नहीं… उसकी भूख औरत की तरह है — जो देखे, उसे देखना पड़ता है…” यह कहते-कहते उसकी आवाज भर्रा गई। उसी वक्त क्लिनिक के बाहर कुछ शोर हुआ — शांता दाई, बूढ़ी औरत जो अक्सर चुप रहती थी, ज़ोर-ज़ोर से बड़बड़ा रही थी — “मैंने देखा था… उसने मेरी आँखें माँगी थी… मैं भाग गई… वो अब सबकी आँखें माँगेगी…”। अदिति भागी बाहर और शांता दाई को थामने की कोशिश की, लेकिन उसकी आँखें एकदम सफेद हो चुकी थीं — जैसे रोशनी उसके भीतर कभी थी ही नहीं। और तभी अदिति को एहसास हुआ — कुएं की यह भूख कोई किस्सा नहीं, यह अनुष्ठान है, जो एक-एक करके शुरू हो चुका है… और पहली आँख खो चुकी है।
४
तीसरे दिन की रात अदिति ने तय कर लिया था कि वह अब इस रहस्य की तह तक जाएगी — गाँव की चुप्पी, कुएं की परछाईं और विक्रम की जाती हुई आँखें अब उसकी नींद नहीं छीन रहीं थीं, बल्कि एक अजीब-सी जिम्मेदारी का बोझ डाल रही थीं। लेकिन इस बार जब वह सोई, तो सपना पिछली रातों से कहीं ज्यादा स्पष्ट था। वह खुद को कुएं के पास खड़ी देखती है, और सामने से एक औरत धीरे-धीरे बाहर निकलती है — उसकी त्वचा राख जैसी, चेहरा अधजला, और आँखों की जगह दो गहरे अंधे गड्ढे। उसकी साँसों की आवाज़ सपने में भी कंपकंपी पैदा कर रही थी। वह औरत अदिति की ओर बढ़ती है, और पहली बार उसका नाम लेती है — “अदिति… तू देख सकती है… मुझे दिखा दे… मैं यशोदा हूँ…”। सपने से जागने के बाद अदिति का शरीर ठंडा था और उसके बिस्तर के पास मिट्टी में गीले पैरों के निशान थे — ठीक उसकी खिड़की से कमरे के भीतर तक।
सुबह-सुबह अदिति सीधे पंचायत भवन पहुँची, जहाँ गाँव के पुराने रिकॉर्ड रखे जाते थे। उसने गाँव के इतिहास से जुड़े दस्तावेज़ माँगे, तो पंचायत कर्मचारी ने झिझकते हुए एक धूल भरी अलमारी खोली। पुराने पीले पन्नों के बीच एक रिपोर्ट मिली — “1963: स्थानीय युवती यशोदा देवी पर जादू-टोने का आरोप, पंचायत द्वारा बहिष्कार, ‘प्राकृतिक मृत्यु’ दर्ज।” अदिति के हाथ काँप गए। रिपोर्ट में ‘प्राकृतिक मृत्यु’ लिखा था, लेकिन कागज़ों के बीच दबी एक और अधूरी चिट्ठी में दर्ज था — “कुएं में डाली गई, आँखें निकाल दी गईं, ताकि वो फिर किसी को न देख सके…”। अदिति के होंठ सूखने लगे। वह गाँव की तरफ वापस चली, और शांता दाई के झोंपड़े की ओर गई — क्योंकि वही एकमात्र इंसान थी जो उस समय जीवित थी जब यह सब हुआ था।
शांता दाई अंधी थी, लेकिन उसकी सूंघने की शक्ति अब भी ज़िंदा थी। उसने अदिति के आने से पहले ही बोलना शुरू कर दिया — “तू खोजने निकली है उसे… यशोदा को… तू झाँकना चाहती है कुएं के अंदर… मत कर…” अदिति ने उसकी हथेली थामी और कहा, “सच बताइए दाई, यशोदा को क्यों मारा गया?” कुछ देर की चुप्पी के बाद शांता दाई ने कहना शुरू किया — “वो देखती थी… देख लेती थी सच… लोगों की चोरी, पाप, झूठ… और जब उसने सरपंच के बेटे को चोर कहा, सबने उसे डायन बना दिया। कहा, उसकी नजरें जादू करती हैं। एक रात… पूरा गाँव इकट्ठा हुआ… उसकी आँखें निकाली गईं… और उसे कुएं में फेंक दिया गया। बस… तब से हर कुछ साल में कोई न कोई उसकी आँखों का शिकार बनता है…” अदिति की आँखों में आँसू आ गए — इंसानों ने एक औरत से उसकी दृष्टि छीनी, और अब उसकी आत्मा हर उस इंसान से दृष्टि माँगती है, जो उसे देख सकता है। “अब क्या होगा दाई?” — अदिति ने पूछा। शांता दाई ने सिर उठाया, उसकी बंद आँखों से भी जैसे डर रिस रहा था — “अब वो जाग चुकी है… तू ही रास्ता है… तुझसे ही माँग करेगी…” और यह कहते हुए उसने फटी आवाज़ में सिर्फ इतना कहा — “अब अगली बारी तेरी है बेटी…”।
५
शांता दाई की काँपती आवाज़ और उसके अंधे नेत्रों की गहराई अदिति के दिल में उतर चुकी थी — यह अब कोई मनोवैज्ञानिक समस्या नहीं थी, यह किसी आत्मा की अधूरी यात्रा थी। लेकिन डॉक्टर अदिति वर्मा को अब भी विश्वास करना कठिन लग रहा था कि एक मरी हुई औरत की आँखों की प्यास आज भी ज़िंदा हो सकती है। उसने खुद को संयत किया और उस एकमात्र व्यक्ति से मिलने का निर्णय लिया जो शायद इस ‘अनुष्ठान’ की असली गवाही दे सकता था — सरपंच रामसिंह चौधरी। उम्रदराज़, भारी शरीर और हमेशा सफेद धोती-कुर्ते में रहने वाला वह आदमी अब कम ही बाहर निकलता था, लेकिन अदिति उसके घर पहुँची तो उसने खुद दरवाज़ा खोला। उसके चेहरे पर कोई आश्चर्य नहीं था — जैसे वह जानता था कि यह सामना होना ही है। बिना कुछ कहे उसने इशारे से भीतर बुलाया, और नीम की छाँव वाले आँगन में बिठाकर बोला, “तो… आखिर तुमने सुन ही लिया उसका नाम… यशोदा…”
अदिति ने गहरी सांस ली और पूछा, “आपके बेटे का नाम क्या था?” रामसिंह का चेहरा कठोर हो गया — “रतन… जिसकी चोरी उसने पकड़ी थी। एक ज़मींदार की तिजोरी से गहने गायब हुए थे, और यशोदा ने गाँव के सामने उसका नाम ले लिया। झूठ नहीं बोला उसने… लेकिन उसका सच किसी को नहीं भाया।” अदिति ने धीरे से कहा, “आप लोगों ने उसकी आँखें निकाल दीं… क्यों?” रामसिंह ने कुछ पल आँखें मूँद लीं, जैसे यादों का कोई कड़वा घूँट पी रहा हो — “क्योंकि हम डर गए थे। हम सबको लगता था, वो सिर्फ देख नहीं सकती, भेद भी खोल सकती है। उसे डायन कह देना आसान था। पंचायत में यह तय हुआ — उसकी नज़रें ही उसकी शक्ति हैं, तो वही छीन लो। और उस रात… उसे पकड़कर बाँधा गया… उसकी आँखें छीनकर उसे कुएं में फेंक दिया गया।” वह थम गया, फिर बोला — “कुएं की मिट्टी लाल हो गई थी उस रात। और तब से… हर कुछ सालों में वो आवाज़ फिर लौट आती है। गाँव का कोई न कोई अपनी दृष्टि खो बैठता है।”
“तो अब क्या?” अदिति की आवाज़ काँप रही थी, “क्या आप लोग कोई उपाय नहीं करते?” रामसिंह ने सिर झुका लिया — “एक उपाय है… एक पुराना रिवाज़… जिससे आत्मा को कुछ समय की तृप्ति मिलती है। हर तीसरे दशक में उसे एक जोड़ी दृष्टि समर्पित करनी पड़ती है — लेकिन ज़रूरी है कि वो आँखें उसी की हों जिसने उसे देखा हो… जिसने उसे सपने में पाया हो। तभी वो आत्मा शांत होती है। हमने पिछली बार एक लड़की को भेजा था, जिसे सपनों में ‘वो’ दिखाई दी थी… और उसने खुद की आँखें कुएं के पास एक अनुष्ठान में त्याग दीं। फिर पंद्रह सालों तक सब शांत रहा।” अदिति सुन्न थी। अब उसे समझ आ गया था कि क्यों माया, विक्रम और खुद वह — तीनों में वही सपना आ रहा था, क्यों गाँव वाले चुप थे, क्यों कुआँ ताले में था… यह सिर्फ एक मिथक नहीं, बल्कि पीढ़ियों से चलता आ रहा बलिदान था, जो हर बार किसी न किसी को अंधेरा सौंपकर कुएं को शांत करता था।
६
उस रात डॉक्टर अदिति देर तक नींद के लिए संघर्ष करती रही — लेकिन नींद उसके पास आने से डरती थी, जैसे सपनों का दरवाज़ा अब एक बार खुल गया था और हर रात उसी कुएँ में उतरना अब नियति बन गई थी। सुबह जैसे ही उजाला फैला, क्लिनिक की दहलीज़ पर एक और झटका खड़ा था — नीलकंठ अपनी छोटी बहन माया को गोद में उठाए आया। माया की आँखें खुली थीं, लेकिन उनमें न कोई रोशनी थी, न ही कोई प्रतिक्रिया। अदिति दौड़ी और उसकी आँखें जाँचीं — कोई बाहरी घाव नहीं था, पर पुतलियाँ कुछ इस तरह थकी और शून्य थीं जैसे वो एक लंबी, थकाऊ यात्रा से लौटी हो। “कब से ऐसा हो रहा है?” — अदिति ने पूछा। नीलकंठ काँपती आवाज़ में बोला — “कल शाम कुएं के पास गई थी… मैंने उसे ढूंढा, तो वो वहीं बैठी मिली… चुपचाप। तब से एक भी शब्द नहीं बोली, और अब देख नहीं पा रही।” उसकी आँखों में आँसू थे — “डॉक्टर… आपने कहा था ये सब मन का वहम है, अब बताइए… मेरी बहन की आँखें कौन ले गया?”
अदिति के पास अब कोई वैज्ञानिक उत्तर नहीं था। उसने नीलकंठ को समझाया कि माया को कुछ देर के लिए हॉस्पिटल रिफर करना होगा — लेकिन भीतर से वह जानती थी कि इस लड़की की हालत किसी मेडिकल रिपोर्ट से नहीं समझी जा सकती। शाम होते ही अदिति फिर शांता दाई के पास गई, जो झोंपड़ी के बाहर बैठी मिट्टी में उँगलियाँ घुमा रही थी — जैसे कोई लकीरें बना रही हो। अदिति ने पूछा, “क्या यशोदा अब माया की आँखें ले चुकी है?” शांता दाई ने गर्दन हिलाई — “नहीं, अभी नहीं… अभी तो वो देख रही है उसकी आँखों से… बच्ची की आँखों से देख रही है दुनिया… लेकिन जैसे ही अगली पूर्णिमा आएगी, वो आँखें उसकी होंगी… तब लड़की कुछ नहीं देखेगी… कुछ भी नहीं।” अदिति ने काँपती आवाज़ में पूछा, “कोई रास्ता नहीं है?” शांता दाई ने वही पुरानी बात दोहराई — “उसे कोई न कोई चाहिए… कोई जो अपनी रोशनी खुद दे… जो देखना बंद करने का चुनाव करे, ताकि वो देख सके।”
उस रात अदिति के सपने और भयानक हो गए। इस बार वह खुद कुएं के मुहाने पर खड़ी थी, और सामने माया थी — उसकी आँखें बाहर निकली हुईं, और खून में लथपथ। यशोदा की आत्मा उन्हें लेकर गायब हो जाती है। नींद से जागने के बाद अदिति की आँखों से आँसू बह रहे थे, और तकिए पर फिर एक पंखुड़ी थी — लेकिन इस बार गुलाब नहीं, मदार का फूल था — श्मशान में चढ़ाया जाने वाला। वह समझ गई — यशोदा ने अब माया की ओर से अपनी नज़रें फेर ली हैं, और उसकी नज़र अब उसी पर है। डॉक्टर अदिति, जिसने कुएं में झाँका, जिसने उसकी कहानी जाननी चाही, जिसने उसकी भूख को समझा — वही अब वह पात्र थी जो उसे वह अंतिम चीज़ दे सकती थी जिसकी उसकी आत्मा को प्यास थी: दृष्टि की स्वीकृत बलि। और अब सवाल यही था — वह इस बलिदान से माया को बचा पाएगी… या सबकुछ खोकर कुएं की आत्मा को हमेशा के लिए और भी ज्यादा भूखा छोड़ देगी?
७
अगले दिन सुबह सूरज की रोशनी कुछ ठंडी थी, जैसे आसमान भी अब उस गाँव की हवा से घबरा गया हो। अदिति बिना किसी से कुछ कहे शांता दाई के पास पहुँची, जो अब बहुत कमजोर लग रही थी — मानो हर दिन उसके शरीर से कुछ और कम हो रहा हो। लेकिन उसकी बंद आँखों में एक अजीब सी चमक अब भी थी, मानो बिना देखे भी सबकुछ देख रही हो। अदिति ने सीधे पूछा — “आपने कहा था एक अनुष्ठान होता है… जिससे आत्मा को तृप्त किया जा सकता है… बताइए, क्या करना होगा?” शांता दाई ने गहरी साँस ली, और अपनी सूखी, झुर्रियों वाली हथेलियाँ अदिति की ओर फैलाकर बोली — “तू डॉक्टर है, तूने जीवन दिया होगा न किसी को? अब एक दृष्टि देकर किसी का जीवन बचाना पड़ेगा। पर ये साधारण बलिदान नहीं है — इसमें शरीर नहीं, ‘इच्छा’ को कुर्बान करना होता है। यशोदा को सिर्फ आँखें नहीं चाहिए… उसे चाहिए वो शक्ति जो ‘देख सकती है’, महसूस कर सकती है… उसे चाहिए तृप्ति।” अदिति ने पूछा, “कैसे?” शांता ने एक पत्थर पर चाक से तीन चिह्न बनाए — त्रिकोण, आँख, और अग्नि — “पूर्णिमा की रात, कुएं के पास बैठकर इन तीनों चिह्नों को रेखांकित करना होगा। एक दीप जलाना होगा, जो तेरी आँखों की अंतिम रौशनी को दर्शाएगा। और फिर, मंत्र पढ़ना होगा… जो पुराने गाँव की बोली में है… यह मंत्र ही उस आत्मा को बुलाता है और उससे संवाद करता है।”
अदिति ने सबकुछ ध्यान से नोट किया, लेकिन उसका दिल काँप रहा था। मेडिकल कॉलेज में उसने हजारों शरीरों की संरचना पढ़ी थी, लेकिन अब वह जिस चीज़ का सामना कर रही थी — वह शरीर से परे आत्मा की भूख थी। उसी दिन शाम को उसने नीलकंठ को बताया — और वह सुनते ही सन्न रह गया। “तुम… अपनी दृष्टि दे रही हो? तुम पागल हो गई हो क्या?” अदिति ने मुस्कुराकर कहा — “पागल नहीं, जागरूक। माया की उम्र ही क्या है? उसका जीवन अभी शुरू हुआ है। और मैं… शायद मेरी यात्रा यहीं पूरी होनी थी।” नीलकंठ कुछ कहना चाहता था, लेकिन उसकी जुबान पर शब्द नहीं चढ़े। अदिति ने उससे एक वादा लिया — “यदि मैं अपनी आँखें खो बैठूँ, तो मुझे इसी गाँव में रहने देना… इसी क्लिनिक में… मैं देख नहीं सकूँगी, पर सुन और समझ सकूँगी। क्योंकि इस गाँव को एक डॉक्टर की ज़रूरत है — चाहे वह देख सके या नहीं।” नीलकंठ की आँखें नम हो गईं।
पूर्णिमा की रात आ गई। कुएं के पास वही पुरानी ठंडी हवा चल रही थी, लेकिन अब उसका स्वर अलग था — मानो कोई साँस ले रहा हो… इंतज़ार कर रहा हो। अदिति ने मंत्रोच्चारण शुरू किया, दीप जलाया, और तीनों चिह्न मिट्टी में बनाए। जैसे ही अंतिम मंत्र की ध्वनि हवा में घुली, कुएं की जाली अपने आप झनझनाई — और धुएँ की एक हल्की परछाईं निकलकर सामने आकार लेने लगी। वो वही थी — यशोदा। झुलसी हुई देह, आँखों की जगह अंधकार, लेकिन चेहरा शांत। उसने अदिति की ओर देखा और कहा — “तू देगी?” अदिति ने आँखें बंद कीं और सिर झुका दिया — “हाँ, लेकिन एक शर्त पर — माया को उसकी दृष्टि वापस मिले… और फिर किसी को यह अनुष्ठान न करना पड़े।” यशोदा कुछ पल चुप रही — और फिर उसकी अधूरी आँखों में एक चमक आई — जैसे उसने पहली बार दुनिया को ‘महसूस’ किया। एक ठंडी हवा चली, दीपक बुझ गया — और अदिति की आँखों के सामने धीरे-धीरे सब कुछ काला होने लगा… पहले धुंध… फिर घना अंधकार… और फिर… शांति।
८
सवेरा देर से हुआ — या यूँ कहें, वह हुआ ही नहीं। अदिति की आँखें खुलीं तो उन्हें रोशनी से कोई सरोकार नहीं था; उसकी दुनिया अब सिर्फ आवाज़ों से बनी थी — धीमे झींगुरों की सनसनाहट, मिट्टी में चलती हवा, और दूर कहीं माया की धीमी हँसी। वह अपनी खाट पर पड़ी थी, शरीर थका हुआ लेकिन आत्मा स्थिर। उसे ठीक-ठीक याद नहीं था कि अनुष्ठान के अंतिम क्षणों में क्या हुआ, लेकिन इतना ज़रूर महसूस हुआ था कि उसकी दृष्टि के बदले में कोई प्यास बुझ चुकी है। तभी दरवाज़ा खटका — नीलकंठ भीतर आया, उसके साथ माया भी। माया ने अदिति का हाथ थामा और धीरे से कहा — “दीदी… आप… देख नहीं सकती?” अदिति ने मुस्कुराकर उसकी हथेली को छुआ — “लेकिन तुम देख सकती हो न? बस इतना ही काफी है।” माया रो पड़ी, और नीलकंठ की आवाज़ भी काँप रही थी — “कुएं के पास अब कोई आवाज़ नहीं आती… शांता दाई कहती हैं — यशोदा अब चली गई है…”
लेकिन गाँव में शांति का यह क्षण अस्थायी था। दोपहर तक कुछ अजीब बातें सामने आने लगीं — कुएं के पास की ज़मीन अब एकदम सूखी हो गई थी, लेकिन उस पर तीन गहरे निशान अब भी थे — वही त्रिकोण, आँख और अग्नि। और इन चिह्नों के बीचोंबीच एक रक्तबिंदु — जो दीपक बुझने से ठीक पहले अदिति की पलकों से टपका था। लोगों ने धीरे-धीरे यह मान लिया कि यह कोई बलिदान नहीं, एक संकल्प था। गाँव के बुज़ुर्ग जो अब तक चुप थे, पंचायत भवन में इकट्ठा हुए और पहली बार किसी ने कहा — “हमें अब हर तीस साल में आँखें नहीं चढ़ानी पड़ेंगी… अब हमें सच बोलना पड़ेगा… जो यशोदा देखती थी, वही हमें भी देखना होगा।” अदिति की आँखों की कीमत पर गाँव को आत्मा नहीं, अपनी अंतरात्मा मिल गई थी।
लेकिन उसी रात, जब सब कुछ शांत था, अदिति को अपने कमरे में एक हल्की सी सरसराहट सुनाई दी — जैसे कोई कोना छूकर गुज़रा हो। उसकी बंद आँखों ने कुछ नहीं देखा, लेकिन कानों ने एक धीमी आवाज़ सुनी — “धन्यवाद… अब मैं भी देख सकती हूँ… लेकिन अब मैं लौटूंगी नहीं…”। यह यशोदा की अंतिम पुकार थी, जो अब पुकार नहीं, विलय बन चुकी थी। अब वह आत्मा नहीं रही — वह दृष्टि की स्मृति बन गई थी, जो हर बार इंसान को यह याद दिलाएगी कि जब कोई अनदेखा किया जाता है, तो वह छाया बनकर लौटता है… और जब उसे देख लिया जाता है, तो वह सत्य बन जाता है। कुआँ अब भी वहीं था — लेकिन अब उसका नाम बदल गया था… ‘यशोदा की दृष्टि’।
९
अंधकार में जीना किसी सज़ा से कम नहीं होता — पर अदिति के लिए अब यह कोई ‘कमी’ नहीं, बल्कि एक और तरह की जागृति बन चुका था। उस सुबह जब वह उठी, तो उसे हर चीज़ की हलचल महसूस हुई — खिड़की से आती हवा की सरसराहट, नीम के पत्तों की गिरती छाया की आहट, और पास बैठी माया की साँसों की थरथराहट। अदिति अब दुनिया को आँखों से नहीं, ध्वनि, कंपन और एहसासों से देखती थी। उसे एक महीने हो चुका था दृष्टिहीन हुए — और अब गाँव धीरे-धीरे उसे ‘डॉक्टरनी’ की तरह नहीं, एक संवेदना की तरह पहचानने लगा था। हर दिन मरीज आते, और अदिति उन्हें सुनकर, छूकर, और नब्ज की धड़कन को समझकर इलाज करती — और अजीब यह था कि अब उसकी सही सलाह की दर पहले से कहीं अधिक हो गई थी।
नीलकंठ ने क्लिनिक को नया रंग दिलवाया, दीवारों पर उभरी लिपि में दवाओं के नाम लिखवाए, और माया अब अदिति की सहायक बन गई थी — वह हर पर्ची पढ़ती, दवा थमाती, और अदिति के निर्देश को पूरे ध्यान से समझकर आगे पहुँचाती। लेकिन उस दिन — ठीक पूर्णिमा के एक महीने बाद — नीलकंठ एक फटी-पुरानी डायरी लेकर आया। उसने कहा — “ये मुझे सरपंच रामसिंह के पुराने घर में मिली… शायद यशोदा की है।” अदिति ने उसे माया से पढ़वाने को कहा। डायरी की पहली पंक्ति थी — “अगर कोई मेरी आँखों से देखना चाहे, तो उसे पहले मेरी पीड़ा समझनी होगी।” हर पन्ने में यशोदा की वो रात दर्ज थी — किस तरह उसे दोषी ठहराया गया, कैसे पंचायत ने आँखों का निर्णय लिया, और कैसे वह खुद अपने भीतर उस अन्याय को देखती रही — अकेली, पर जिद्दी। आखिरी पन्नी पर सिर्फ दो शब्द थे: “मैं देखती रहूँगी।”
अदिति ने जब यह सुना, तो उसकी रीढ़ में हल्का सा झटका गया — क्या यह सब सचमुच खत्म हो चुका है? या यशोदा अब उसके भीतर किसी और रूप में ज़िंदा है? कुछ दिनों बाद एक बच्चा क्लिनिक आया — आँखों में अजीब सी थकावट। अदिति ने उसकी नब्ज थामी और बिना कुछ देखे पूछा — “तुम कुएं की तरफ तो नहीं गए थे?” बच्चा चौंक गया — “हाँ, पर कैसे जाना आपको?” अदिति मुस्कुरा दी। उसकी मुस्कान में अब अनुभव था, भय का उत्तर था। उसने कहा, “मत झाँकना वहाँ… वहाँ अब कुछ नहीं बचा… सिर्फ यादें हैं, और वो बहुत देर तक घूरती हैं।” अब वह डॉक्टर नहीं थी जो रोग से लड़ती थी — वह अब अतीत से भविष्य तक देखने वाली ‘नेत्रहीन दृष्टा’ बन चुकी थी, जिसे यशोदा की आत्मा ने अपनी जगह सौंपी थी — किसी को सज़ा नहीं देने के लिए, बल्कि सच को समझाने के लिए।
१०
पूर्णिमा की अगली रात थी — चाँद एक बार फिर पूरे तेज़ से चमक रहा था, लेकिन अदिति के लिए यह सिर्फ आहटों और कंपन से भरी रात थी। अब उसे अंधकार से डर नहीं लगता था, बल्कि वह उसकी भाषा समझने लगी थी। लेकिन उस रात कुछ अलग था — हवाओं में पहले से कहीं अधिक चुप्पी थी, जैसे पूरा गाँव साँसें रोके किसी अनजानी प्रतीक्षा में हो। अदिति खाट पर बैठी थी, और अचानक उसकी साँसें गहरी होने लगीं… उसकी बंद आँखों के पीछे फिर वही कुआँ उभर आया — लेकिन इस बार वह सपना नहीं था, बल्कि जैसे उस गहराई से कुछ सचमुच उसे पुकार रहा था।
उसने खुद को कुएं के पास खड़ा महसूस किया — न जाली थी, न ताला। चारों ओर सिर्फ शून्य। और तभी कुएं से एक आकृति निकली — अधजली यशोदा नहीं, बल्कि एक युवती, जिसकी आँखों में दर्द नहीं बल्कि शांति थी। वह बोली — “अदिति, तूने मुझे नहीं देखा… फिर भी मुझे सबसे अधिक समझा… अब मैं लौटने के लिए तैयार हूँ।” अदिति ने पूछा — “क्या तू अब मुक्त है?” यशोदा ने सिर हिलाया — “हाँ, लेकिन मेरा एक हिस्सा तेरे भीतर रह गया है… एक दृष्टि जो बिना आँखों के देख सकती है… जब भी इस गाँव में फिर अन्याय होगा, मैं तेरी चेतना से बोलूँगी… मैं अब आत्मा नहीं, स्मृति बन चुकी हूँ।” और यह कहकर यशोदा की आकृति धीरे-धीरे मिटने लगी — जैसे राख हवाओं में घुलती हो, और सिर्फ एक गंध छोड़ जाती हो — एक स्वीकृति की।
अदिति की नींद खुली, लेकिन आँखें अब भी बंद थीं। खिड़की के बाहर हल्की सी रोशनी थी, और पवन की एक अजीब गंध — जिसमें ना खून था, ना मिट्टी… बस एक मधुर, शांत गंध थी… छूट जाने की। क्लिनिक की दीवार पर उस सुबह एक नया संदेश लिखा गया — “जिसने आँखें खोई, उसने सब कुछ देख लिया।” गाँव अब धीरे-धीरे नया बन रहा था। पंचायत अब हर साल उस कुएं के किनारे बैठती थी — न डर के लिए, न अंधविश्वास के लिए… बल्कि सच का सामना करने के लिए। कुआँ अब सिर्फ ‘यशोदा की दृष्टि’ नहीं था — वह एक स्मारक बन गया था… उस महिला के लिए जिसे इस गाँव ने कभी ग़लत समझा… और उस डॉक्टर के लिए जिसने सब कुछ खोकर उसे समझा।
डॉ. अदिति अब भी क्लिनिक में बैठती है — आँखें बंद, लेकिन चेहरा शांत। जब कोई बच्चा डर से काँपता है, जब कोई औरत अपने साथ हुए अन्याय को कह नहीं पाती, या जब कोई बूढ़ा यह कहता है कि “अब कोई नहीं देखता”— तब अदिति मुस्कुराती है और कहती है, “देखता हूँ… मैं… यशोदा…”। क्योंकि अब आँखों से नहीं, आत्मा से देखने का युग शुरू हो गया है। और वह कुआँ — वह अब चुप नहीं है। वह हर उस व्यक्ति को पुकारता है… जो सुन सके… जो समझ सके… जो ‘देख सके’… बिना आँखों के।
— समाप्त —
				
	

	


