नीलेश राघव स्टेशन वही था—प्लेटफॉर्म नंबर तीन, पुरानी लकड़ी की बेंच, जंग खाया पीला बोर्ड, और सामने वही चायवाला, जो कभी मेरी कॉलेज की सुबहों की शुरुआत करता था। अब भी वो पुराने केतली में चाय उबाल रहा था, जैसे वक्त ने उसे छुआ तक नहीं। मैंने पास जाकर कहा, “तू अभी भी यहाँ चाय बेचता है?” वो चौंक गया, फिर मुस्कराया, “अरे भैया… नीलेश भैया ना? आप तो… कितना साल हो गया आपको देखे हुए!” “बीस,” मैंने कहा, “करीब बीस साल।” उसने सिर हिलाया, “पर चाय वही है। पीजिएगा?” मैंने पाँच का सिक्का बढ़ा दिया। उसने कुल्हड़ में चाय…