आर्या मेहता पुराने शहर की गलियों में नवंबर की धुंध ऐसे उतरती थी, जैसे कोई धीमी धुन दीवारों पर टिक-टिक करती हो। शाम के पाँच बजते ही सफ़ेद रोशनी वाले बल्बों के चारों ओर पतंगों की नन्ही परिक्रमा शुरू हो जाती, और मिट्टी से आती सोंधी गंध लोगों के चेहरों पर अनजाने-से भाव रच देती। उसी धुंध में, चौक की मोड़ पर, “गुलमोहर लाइब्रेरी” अपनी लकड़ी की खिड़कियों के पीछे शांति की एक अलग दुनिया समेटे बैठी रहती—पुराने पन्नों की महक, फुसफुसाहट-सी आवाज़ें, और गिरे हुए पत्तों की ख़ामोशी। अदिति ने दरवाज़ा धकेला तो घंटी की एक पतली-सी ‘टिन’ बजकर…