सौरभ मेहता भाग १ शहर की उस पुरानी गली में जहाँ मकानों की छतें एक-दूसरे के कंधे पर टिकी होती हैं और गलियों की साँसें भी धीमी पड़ चुकी होती हैं, वहीं तीसरे नंबर का मकान सबसे चुप है। दीवारों की सीलन अब तस्वीरों के किनारों तक पहुँच चुकी है, और खिड़कियों से झाँकती धूप ऐसी लगती है मानो किसी ने अनजाने में दरारों के बीच से उजाला गिरा दिया हो। उसी मकान की दूसरी मंज़िल की एक खिड़की, दोपहर के ठीक बीच में खुलती थी—बिना आवाज़ के, बिना किसी आहट के। और उस खिड़की के पीछे बैठी थी—श्रीमती सावित्री…