Arjun Sharma Part 1: The Letter in the Attic The hills of Ranikhet were wrapped in their usual mist, like a half-remembered dream refusing to fade with morning light. Anaya Mehra sat in the back of the shared taxi, her fingers clenched around the strap of her leather sketchbook bag. The sharp scent of pine mixed with damp earth rushed in through the half-open window, unfamiliar yet oddly calming. It had been ten years since she last came here — as a teenager, arms crossed in rebellion, dragged by her parents to visit her grandmother. Now, she returned alone, thirty…
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লিপিকা বৰা পৰ্ব ১: প্ৰথম দেখা, প্ৰথম ধেমালি অসমৰ এখন সৰু চহৰ—নলবাৰী। এচাটিৰ ওপৰত ৰঙা বেলিৰ পোহৰ পৰিছে, আৰু এটা স্কুটিৰ শব্দেৰে শুব পৰা কলেজ ৰোডটো সঘন হৈ পৰিছে। কলেজৰ প্ৰথম বছৰ, আৰু আজিৰ দিনটো বিশেষ—নৱাগন্তুকবোৰৰ বাবে “ওৰিয়েণ্টেশ্বন”। নীলা শৰ্মা, ডিব্ৰুগড়ৰ পৰা অহা এখন মিচিকীয়া হাঁহিৰ লৰা ছোৱালী। তেওঁৰ চকুত এখন নতুন জগত—নতুন কলেজ, নতুন বন্ধুবান্ধৱী, আৰু সকলোবোৰত এটা আশাৰ ৰঙ। তেওঁ ইংৰাজী বিভাগত নাম ভৰ্তি কৰিছে, আৰু তেওঁৰ হাতত এটা ডায়েৰী, যেন তেওঁ সকলো কথা লিখি ৰাখিব খোজে। আনফালে, অভি ডেকা ছাত্ৰ। স্থানীয় ছোৱালীবিলাকৰ মাজত অলপ জনপ্ৰিয়। তেওঁ সমাজ বিজ্ঞানত পাঠ লৈছে, আৰু কলেজৰ নাটকৰ দলৰ অন্যতম মুখ। অভিৰ…
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अनामिका जोशी 1 शाम की हवा में अजीब सी उदासी थी, जैसे दिन अपने पैरों के निशान समेट रहा हो। दिल्ली के हज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन पर मयंक एक बेंच पर बैठा था, अपने नीले डफल बैग के ऊपर कोहनी टिकाए, और दूसरी ओर एक किताब पकड़े—”Norwegian Wood”। कानों में ईयरफोन, लेकिन कोई गाना नहीं चल रहा था। बस, शोर से खुद को काटने की एक कोशिश थी। उसे ट्रेन पकड़नी थी—जयपुर जाने वाली इंटरसिटी। पहली नौकरी, पहली पोस्टिंग, और पहली बार दिल्ली छोड़ना। भीतर कुछ हल्का सा डर भी था और थोड़ा गर्व भी। आसपास लोग भागदौड़ कर रहे थे,…
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মেঘমল্লার দে পর্ব ১ : ভেজা চায়ের ঘ্রাণ কলেজ থেকে বেরিয়ে রোদ্দুরহীন আকাশটার দিকে তাকিয়ে ছিল অয়ন। না মেঘ, না রোদ, একটা ধূসর ধূ-ধূ দুপুর—যে দুপুরে না ফিরে যেতে ইচ্ছে করে, না এগোতে। মাথার ভেতর ঘুরছিল অসমাপ্ত প্রেজেন্টেশনের স্লাইড আর তপতী ম্যামের রাগী মুখ। একটা মেসেজ এল ফোনে— “Where are you?” প্রিয়া। গার্লফ্রেন্ড নয়, আবার বন্ধুও নয়। একটা স্ট্যাটাসের মতো কিছু, যেটা undefined। অয়ন উত্তর দিল না। শুধু ব্যাগটা কাঁধে তুলে রাস্তায় নেমে এল। আর তখনই বৃষ্টি পড়ল। হঠাৎ। নির্লজ্জ, নির্দয়, নির্ভুল। অয়ন পকেট থেকে ছাতাটা বার করল না। ইচ্ছে করেই। কেমন একটা শীতল জল এসে কপালের কোণ দিয়ে গড়িয়ে…
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नीलेश राघव स्टेशन वही था—प्लेटफॉर्म नंबर तीन, पुरानी लकड़ी की बेंच, जंग खाया पीला बोर्ड, और सामने वही चायवाला, जो कभी मेरी कॉलेज की सुबहों की शुरुआत करता था। अब भी वो पुराने केतली में चाय उबाल रहा था, जैसे वक्त ने उसे छुआ तक नहीं। मैंने पास जाकर कहा, “तू अभी भी यहाँ चाय बेचता है?” वो चौंक गया, फिर मुस्कराया, “अरे भैया… नीलेश भैया ना? आप तो… कितना साल हो गया आपको देखे हुए!” “बीस,” मैंने कहा, “करीब बीस साल।” उसने सिर हिलाया, “पर चाय वही है। पीजिएगा?” मैंने पाँच का सिक्का बढ़ा दिया। उसने कुल्हड़ में चाय…
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অঙ্কুর বিশ্বাস বৃষ্টির দিনে দেখা কলকাতার আকাশটায় সেই বিকেলটা যেন ভেজা ক্যানভাস হয়ে ছিল। মেঘে ঢাকা আকাশ, গুঁড়িগুঁড়ি বৃষ্টি, আর একরাশ ধোঁয়াটে আলো—তাতে শহরটা কিছুটা ক্লান্ত, কিছুটা স্বপ্নালু লাগছিল। কলেজের ফটকের বাইরে, ছাতাহীন অনুরাধা হাঁটছিল ধীরে ধীরে। সোনালি সালোয়ারটা হাঁটু পর্যন্ত ভিজে গিয়েছে, চুলগুলো এলোমেলো হয়ে কপালের ওপর নেমে এসেছে। সে তাড়াহুড়ো করছিল না। বৃষ্টি আর স্মৃতির মিশেলে একটা অদ্ভুত আবেশ ছিল তার মধ্যে। সে হাঁটছিল ঠিক সেই সময়, এক অচেনা কণ্ঠস্বর তাকে থামিয়ে দিল। “তুমি অনুরাধা?” কণ্ঠটা ভদ্র, কিন্তু আত্মবিশ্বাসী। মুখ ঘুরিয়ে দেখল, এক ছেলেকে। হাতে ক্যামেরা, চোখে গোল ফ্রেমের চশমা, কাঁধে একটা ছোট ব্যাগ। তার মুখটা একেবারে পরিচিত…