आरव चौबे सुबह की चाय जैसे यमुना के पानी में उगता सूरज घोल देता है—गुनगुना, धुएँ-सा। विश्राम घाट पर घंटियों की अनगिन गूँज है; आरती का आख़िरी स्वर हवा में तैर रहा है। धूल-मिट्टी, धूप और भीगे पत्थरों की ख़ुशबू को माँ सरोज की उबलती चाय की भाप अलग से पहचान दिला रही है। “राघव! कप धो दिये?” सरोज ने चूल्हे के पास से गर्दन घुमाई। “हो गये, अम्मा,” राघव ने बेंत की टट्टी पर सूखते गिलास उलटते हुए कहा। उसकी हथेलियाँ नाव की रस्सियों जैसी थी—ख़ुरदरी पर भरोसेमंद। कल्लू अपना ऑटो किनारे खड़ा करके आया, “दो कटिंग इधर भी…