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    सिगरेट के धुएं में एक अधूरी कविता

    अन्वी शुक्ला बंद कमरा और अधूरी कविता इलाहाबाद विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग, समय की परतों से ढका हुआ, उन इमारतों में से एक था जहाँ दीवारें भी शेर सुनाती थीं। पुराने बरामदे, लोहे के गेट, और बरगद के नीचे लगे बेंच — सबमें कोई ना कोई दास्तान अटकी हुई थी। प्रोफेसर यतीन भटनागर, जिन्हें सब आदर से ‘यतीन सर’ कहते थे, हर दिन सुबह नौ बजे ठीक उसी बेंच पर बैठकर अपनी चाय पीते, मानो वक़्त को अपनी हथेली में थामे बैठे हों। उस दिन भी कुछ अलग नहीं था, सिवाय इसके कि हवा में कुछ अजीब था—जैसे कोई धुआँ……

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    चाय और वो पुराना स्टेशन

    नीलेश राघव स्टेशन वही था—प्लेटफॉर्म नंबर तीन, पुरानी लकड़ी की बेंच, जंग खाया पीला बोर्ड, और सामने वही चायवाला, जो कभी मेरी कॉलेज की सुबहों की शुरुआत करता था। अब भी वो पुराने केतली में चाय उबाल रहा था, जैसे वक्त ने उसे छुआ तक नहीं। मैंने पास जाकर कहा, “तू अभी भी यहाँ चाय बेचता है?” वो चौंक गया, फिर मुस्कराया, “अरे भैया… नीलेश भैया ना? आप तो… कितना साल हो गया आपको देखे हुए!” “बीस,” मैंने कहा, “करीब बीस साल।” उसने सिर हिलाया, “पर चाय वही है। पीजिएगा?” मैंने पाँच का सिक्का बढ़ा दिया। उसने कुल्हड़ में चाय…