অনির্বাণ সেনগুপ্ত ১ রাত দশটা পঁচিশ। হাওড়া স্টেশনের শেষ লোকাল ট্রেনটা বাঁশদ্রোণীর দিকে ছেড়ে গেল। প্ল্যাটফর্ম ফাঁকা হতে হতে হঠাৎ দেখা গেল এক মাঝবয়সী লোক দৌড়ে এসে থামল, যেন কিছু ফেলেছে বা কাউকে খুঁজছে। হাতে একটা লাল খাম। চোখে আতঙ্ক, মুখে ঘাম, পাঞ্জাবির পকেট থেকে কিছু যেন ছিঁড়ে বেরিয়ে এসেছে—একটা ছোট্ট ফটো, দুটো গুচ্ছ চাবি আর একটা মলিন নোট। গার্ড আর পুলিশ এগিয়ে এলো। “কি হয়েছে?” লোকটা বলল, “উনি… আমার স্ত্রী… ওই ট্রেনেই উঠেছিলেন। কিন্তু কিছু একটা ঠিক ছিল না। আমি ভুল করিনি। কেউ ওঁর পিছু নিয়েছিল। আমি… আমি এখনই রিপোর্ট করতে চাই।” পুলিশ অফিসার সন্দেহের চোখে তাকাল, “আপনার নাম?”…
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अनिरुद्ध त्रिपाठी जनवरी की ठंडी सुबह थी। कुंभ मेले का शोर हर दिशा में गूंज रहा था — गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम तट पर आस्था और भक्ति की एक अलग ही दुनिया बसी थी। साधु-संतों की आवाज़ें, ढोल-नगाड़ों की थाप, मंत्रों की गूंज और दूर-दूर से आए श्रद्धालुओं का उत्साह — सबकुछ मानो किसी दैवी रंगमंच का हिस्सा हो। आठ साल का आरव अपने माता-पिता और बड़ी बहन समीरा के साथ पहली बार कुंभ मेले में आया था। छोटे शहर के इस मध्यमवर्गीय परिवार के लिए यह यात्रा एक धार्मिक कर्तव्य से बढ़कर एक पारिवारिक उत्सव थी। “माँ,…