१ राजस्थान की तपती दोपहर में जब रेत के ढेर सुनहरी चमक बिखेर रहे थे, उसी समय वीरेंद्र राठौड़ अपने सफर की थकान झेलते हुए गाँव में पहुँचा। गाँव छोटा था, लेकिन सदियों पुराने किलेनुमा घरों और मिट्टी के झोपड़ों से भरा हुआ। हर गली से गुजरते हुए उसे महसूस होता कि लोग उसे एक अजीब नज़र से देख रहे हैं—जैसे उसकी पहचान उनसे अलग हो, जैसे उसका मक़सद उन्हें पहले ही मालूम हो। गाँव के चौपाल पर बैठे बूढ़े धीरे-धीरे आपस में फुसफुसाते, और बच्चे डरते-डरते उसके बैग को देखते, मानो किसी अनजाने यात्री का सामान हमेशा रहस्य से…
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अविनाश त्रिपाठी १ गांव के बीचोंबीच, ऊँचे-ऊँचे बरगद और पीपल के पेड़ों की छाया में, एक पुरानी हवेली खड़ी थी। चारों ओर जंगली घास ने ज़मीन को ढक लिया था और हवेली की दीवारें जगह-जगह से उखड़ चुकी थीं। बरसों की बरसात और धूप ने ईंटों पर काई जमा दी थी, मानो किसी ने उसे जानबूझकर त्याग दिया हो। टूटी खिड़कियों से आती हवा के साथ चरमराते दरवाज़ों की आवाज़ रात के सन्नाटे में किसी आत्मा की फुसफुसाहट सी लगती थी। कभी यह हवेली राजवीर सिंह के ज़मींदार परिवार की शान थी—जहां मेहमानों का तांता लगा रहता था, दावतें होती…
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दिल्ली के शाहपुर जाट इलाके की पतली गलियों में, एक पुरानी इमारत की तीसरी मंज़िल पर अवनि शर्मा ने हाल ही में किराए पर एक फ्लैट लिया था। मकान मालिक ने कहा था, “थोड़ा पुराना है, मगर शांत इलाका है।” अवनि को यही चाहिए था—शांति। एकाकी ज़िंदगी, कॉफी मग में भाप लेती शामें, लैपटॉप पर काम और दीवार पर टँगी किताबों की अलमारियाँ। वह एक डिजिटल मीडिया एडिटर थी और ज़्यादातर वक़्त घर से ही काम करती थी। फ्लैट छोटा था लेकिन खुला-खुला, जिसकी बालकनी से हौज खास के पुराने गुंबद दिखाई देते थे। मगर पहले ही दिन जब वह…
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प्रताप श्रीवास्तव १ लखनऊ विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी की सबसे ऊपरी मंज़िल पर, जहाँ किताबों पर धूल की मोटी परत जम चुकी थी, वहीं एक कोने में बैठा था इतिहास विभाग का शोधार्थी विवेक मिश्रा। बाहर बारिश की बूँदें खिड़की की काँच पर थपकी दे रही थीं, लेकिन विवेक की आंखें जमी थीं उस पुराने नक्शे पर जिसे वह पिछले दो घंटे से उलट-पलट कर रहा था। नक्शा 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय का था—लखनऊ की गलियाँ, कोठियाँ, और हवेलियाँ उसमें चिन्हित थीं। अचानक उसकी नज़र एक धुँधले से नाम पर पड़ी—”रौशन मंज़िल”। ना किसी इतिहास की किताब में इसका…
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तृषा मिश्रा १ दिल्ली की भीड़भाड़ और धूल-धक्कड़ भरी गलियों से निकलकर जब डॉ. वेदिका माथुर उत्तर प्रदेश के उस सुदूर गाँव ‘बड़ागाँव’ पहुँची, तो सुबह के आठ बजे थे। बस स्टैंड पर बस ने झटके से ब्रेक लगाया था और साथ बैठे ग्रामीणों की बातचीत एक पल को थम गई थी। हाथ में जंग खाया लोहे का सूटकेस और कंधे पर लैपटॉप बैग लटकाए वेदिका जब उतरी, तो गाँव की गलियों ने उसका स्वागत सन्नाटे से किया। उसका उद्देश्य सीधा था—इस गाँव के मंदिर के पास रखे लोहे के एक रहस्यमयी पिंजरे के बारे में जानना, जिसके बारे में…
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अभिज्ञान मेहता आगमन गहरी रात थी। झारखंड की पहाड़ियों के बीच बसा बिसराडीह गाँव जैसे नींद में था, लेकिन हवा में कुछ असामान्य था। रिया चौधरी, एक नवयुवती खोजी पत्रकार, टैक्सी की खिड़की से बाहर झांक रही थी। कोलकाता से तकरीबन 300 किलोमीटर की दूरी तय कर वह इस रहस्यमयी गाँव में पहुँच चुकी थी। साथ था उसका कैमरामैन अमित, जो थका हुआ था लेकिन उत्साहित भी। “रिया, यार… हम ये लोककथाओं की रिपोर्टिंग क्यों कर रहे हैं? भूत-प्रेत की कहानियाँ अब कोई नहीं सुनता,” अमित ने कैमरा बैग जमाते हुए कहा। “TRP की बात मत कर अमित। यहां कुछ…