अरुणा सहाय अमावस्या की रात के आने से पहले ही गाँव का वातावरण बदलने लगता था। दिन में साधारण दिखने वाला यह गाँव जैसे ही अंधेरे में डूबने लगता, वैसे ही हर कोने में एक अनजाना डर उतर आता। बच्चे जब खेलते-खेलते नदी की ओर भागते तो बुज़ुर्ग अपनी डाँट और चेतावनी से उन्हें रोकते—“आज घर जल्दी लौट आओ, अमावस्या की रात है, मसान घाट से दूर रहना।” उनके स्वर में सिर्फ सख्ती नहीं होती, बल्कि एक गहरी चिंता और डर झलकता था, मानो वे खुद भी उन छायाओं से डरे हों जो रात ढलते ही गाँव के किनारे बसे…
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अनुपमा गुप्ता अध्याय १ – पुरानी लाइब्रेरी का रहस्य गाँव के परित्यक्त हिस्से में कदम रखते हुए आदित्य के भीतर एक अजीब-सी सनसनी दौड़ गई। वह गाँव, जहाँ समय जैसे ठहर गया था, टूटी-फूटी हवेलियों, सूनी गलियों और सूख चुके कुओं के बीच भूतहा-सा माहौल पेश करता था। आदित्य एक युवा शोधकर्ता था, जिसके भीतर इतिहास और अतीत के रहस्यों को खंगालने की अटूट जिज्ञासा थी। शहर से आए इस पढ़ाकू युवक ने गाँव के लोगों से सुना था कि पुराने ज़माने में यहाँ एक बड़ी हवेली के भीतर विशाल लाइब्रेरी हुआ करती थी, जहाँ दुर्लभ ग्रंथ, पांडुलिपियाँ और तंत्र-मंत्र…
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आकाश बर्मा नए किरायेदार परिवार के आने के साथ ही उस हवेली जैसे पुराने घर में एक अनकहा जीवन लौट आता है। हवेली बरसों से वीरान पड़ी थी—उसकी दीवारों पर समय की परतें जम चुकी थीं, रंग उखड़कर झड़ चुके थे और खिड़कियों पर धूल और मकड़ी के जाले ऐसे चिपके थे जैसे वे घर की असली सजावट हों। इस पुरानेपन के बीच भी उस घर की एक अलग भव्यता थी, मानो समय के प्रवाह के बावजूद वह अब भी अपने शान और रहस्यमय ठाठ को बचाए हुए हो। परिवार ने जब पहली बार उस हवेली में कदम रखा तो…
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१ उत्तराखंड की बर्फ़ से ढकी चोटियाँ सर्दियों की ठंडी साँसों के साथ रहस्यों को भी संजोए रहती हैं। यहाँ की वादियों में हर सरसराती हवा, हर बहती धारा, हर देवदार का पेड़ किसी पुरानी कहानी की गवाही देता है। स्थानीय गाँवों में अक्सर रात की अलाव बैठकों में बूढ़े बुजुर्ग एक ही कथा बार-बार सुनाते हैं—“काले साधु” की। यह साधु कोई साधारण संन्यासी नहीं था, बल्कि ऐसा सन्यासी जिसने अमरत्व की चाह में अपने जीवन को काले तंत्र की ओर मोड़ दिया। कहते हैं कि सदियों पहले उसने एक बर्फ़ीली गुफा को अपनी साधना का स्थान चुना और वहाँ…
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कृष्णा तामसी १ चारों तरफ बर्फ की सफेद चादरें बिछी थीं और हरे देवदार के पेड़ जैसे किसी पुराने रहस्य को छिपाए खड़े थे। आरव मल्होत्रा की जीप धीरे-धीरे घने कोहरे को चीरती हुई हिमाचल के दुर्गम पहाड़ी रास्तों से गुजर रही थी। मोबाइल नेटवर्क कब का गायब हो चुका था और जीपीएस भी मानो बर्फ में जम चुका था। ड्राइवर संजय, जो गांव का ही था, बिना कुछ कहे बस गाड़ी चलाता जा रहा था। आरव अपने कैमरे से बर्फबारी की फुटेज लेने में मग्न था, जब उसने अचानक पूछा, “संजय भाई, कितनी दूर है वो गेस्ट हाउस?” संजय…
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आलोक पाण्डेय १ राजस्थान की तपती हुई धरती पर फैला हुआ था कर्णपुरा गाँव—एक ऐसा स्थान जहाँ गर्म हवाएँ दिन में साँय-साँय करती थीं और रात होते ही सब कुछ जैसे ठहर जाता था। चारों ओर बंजर ज़मीन, सूखे पेड़ों की छाँह, और रेत में गहराती चुप्पी। जुलाई की उस दोपहर में, जब सूरज अपनी पूरी प्रखरता से चमक रहा था, दिल्ली विश्वविद्यालय से रिसर्च स्कॉलर अन्वेषा शर्मा ने पहली बार इस गाँव की मिट्टी को छुआ। हाथ में डायरी, बैग में रिकॉर्डिंग डिवाइस और मन में ढेर सारे सवाल लेकर वह एक पुरानी जीप से उतरी, जो उसे शहर…
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मानव वर्धन १ मध्य प्रदेश के भीतरी हिस्सों में बसा था एक पुराना, लगभग भुला दिया गया गाँव — बेरोज़ा। इस गाँव का नाम तक मानचित्रों में साफ़ नहीं दिखता था, लेकिन उसकी कहानियाँ लोकगीतों और बुज़ुर्गों की फुसफुसाहटों में अब भी ज़िंदा थीं। किसी जमाने में यह इलाका राजा वीरप्रताप सिंह के अधीन था, जिनकी विशाल हवेली अब वीरान पड़ी थी। हवेली की जर्जर दीवारें, छत पर उगी काई, टूटी खिड़कियाँ और सामने की परछाइयाँ — सब मिलकर उस जगह को किसी शापित चित्र की तरह बनाते थे। पत्रकार शौर्य वर्मा और उसकी कैमरा ऑपरेटर मित्र दीपिका उस दिन…
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शिवानंद पाठक कोल्हापुर की घाटियों से गुजरती जीप धूल उड़ाते हुए चिखली गाँव की सीमा में प्रवेश कर रही थी। जीप में बैठे वेदांत त्रिपाठी खिड़की से बाहर झाँकते हुए मंदिर की मीनार की झलक पकड़ने की कोशिश कर रहे थे। वे भारत सरकार के पुरातत्व विभाग से जुड़े वरिष्ठ अधिकारी थे और इस अभियान के मुख्य अन्वेषक भी। चिखली जैसे दूरदराज़ गाँवों में आना उनकी रिसर्च का हिस्सा नहीं, बल्कि जुनून था। उनके साथ बैठी थीं रुचिका देशमुख, एक दक्ष रिसर्च एनालिस्ट, जो कोल्हापुर से ही ताल्लुक रखती थीं। उनके हाथ में मंदिर के नक्शे और एक पुरानी पांडुलिपि…
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शक्कर रञ्जन महापात्र जब बप्पा भानगढ़ी गाँव पहुँचा, तो आसमान धूसर था और धूप जैसे छिप कर बैठ गई थी। बस से उतरते ही उसे सबसे पहले महसूस हुआ मिट्टी की सोंधी गंध, जो बारिश से पहले की नमी जैसी लग रही थी। गाँव छोटा था, मगर उसकी खामोशी में कोई अजीब सी बात थी—जैसे कोई सब कुछ देखकर भी अनजान बना हो। स्टेशन से निकलकर वह जब कच्चे रास्ते पर चला, तो देखा कि बच्चे खेलते समय अचानक चुप हो जाते हैं, और बूढ़े अपनी छड़ी थामे, गर्दन झुका कर ऐसे निकल जाते हैं जैसे आँखें मिलाना कोई अपराध…
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निहार राठौड़ राजगढ़ स्टेशन पर शाम के पाँच बज चुके थे, लेकिन उस छोटे से प्लेटफ़ॉर्म पर वक्त ठहरा हुआ लगता था। धूल से सनी पीली बेंचें, खामोश ट्रैक, और स्टील के पुराने खंभों पर टिमटिमाती मटमैली बत्तियाँ—सबकुछ जैसे किसी भूतपूर्व समय की तस्वीर हो। अर्जुन ठाकुर, तीस वर्ष का एक तेज़-तर्रार स्वतंत्र पत्रकार, दिल्ली से यहाँ सिर्फ एक मकसद लेकर आया था—ठाकुर हवेली के रहस्य को उजागर करना। उसके हाथ में एक पुराना, हल्का पीला लिफ़ाफा था, जिसमें केवल एक पंक्ति लिखी थी: “कमरा नंबर 9 को फिर से खोला जाना चाहिए। मेरा सच अब भी वहाँ बंद है।”…