सार्थक अग्रवाल भाग 1 — पुरानी हवेली का दरवाज़ा शाम की आख़िरी रोशनी छोटे से कस्बे शिवपुर की सड़कों पर रेंगते-रेंगते पतली हो रही थी जब अर्जुन ने बस से उतरकर अपना बैग कंधे पर डाला और चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई; स्टेशन नहीं, बस अड्डा भी ठीक से नहीं—एक खुला सा चौराहा, दो चाय की टिन की दुकानों के बीच से पराठे की घी वाली गंध, और दूर क्षितिज पर काली होती रेखा, जिसके पीछे वह हवेली थी जिसके बारे में शहर में फुसफुसाहटें चलती थीं; उसके मोबाइल में नोट्स खुले थे—“शिवपुर, पुरानी हवेली, मालिक: ठाकुर हरिराम सिंह (1892–1947), कथाएँ:…
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अनुराग मिश्रा हवेली की घंटी पुराना दिल्ली दरवाज़ा रात के बादलों में घुलकर एक फीकी आकृति बन गया था, और उसके पीछे से चलती संकरी गलियाँ अपने-अपने नाम भूलकर बस एक ही लय में सांस ले रही थीं—धीमी, टुकड़ों में टूटी, जैसे बहुत पुरानी घड़ी की टिक-टिक; उन्हीं गलियों में उस रात मुकुल चला आ रहा था, बैग में छोटा रिकॉर्डर, जैकेट की जेब में नोटबुक, और फ़ोन की स्क्रीन पर चमकती एक अजीब-सी सूचना: “12:17. सुनोगे तो समझोगे.” यह मैसेज उसे एक अनजान हैंडल से रोज़ाना पिछले तीन दिनों से मिल रहा था—घंटी की इमोजी के साथ—और आज उसने…
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राघवेंद्र मिश्रा १ रात के बारह बजे थे। शहर की गलियों में सन्नाटा पसरा हुआ था। लेकिन उस सन्नाटे को चीरती हुई हवेली नंबर २१ से एक अजीब सी आवाज़ आ रही थी—कभी दरवाज़े के चरमराने की, तो कभी किसी के कराहने की। यह हवेली कभी मिश्रा परिवार की शान हुआ करती थी, लेकिन अब यह वीरान और खंडहर में तब्दील हो चुकी थी। हवेली के चारों ओर उग आए कंटीले पेड़ और सूखे पत्तों का ढेर उसे और डरावना बना देता था। आज भी उसी हवेली से धुआँ उठता दिखाई दे रहा था। मोहल्ले वालों का कहना था कि…