तृषा तनेजा १ धुंध से भरी उस सुबह में, पहाड़ों का रंग नीला नहीं था—वह कुछ धुंधला, कुछ राखी था, जैसे नींद से आधे जागे किसी ख्वाब के किनारे खड़े हों। चित्रधारा नामक इस छोटे से पहाड़ी कस्बे में पहली बार कदम रखते ही दक्ष सहगल को लगा मानो किसी भूली हुई याद की गलियों में लौट आया हो। स्टेशन से लेकर गांव के ऊपरी छोर तक पहुँचने वाली पतली पगडंडी के दोनों ओर देवदार के ऊँचे वृक्ष उसकी यात्रा के साथी बने हुए थे। उसके ट्रैवल बैग से लटकता कैमरा हर छाया को पकड़ने को उतावला था, पर उसके…
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विवेक शर्मा जयपुर की सर्दियों में जब गुलाबी हवाएं हवेली की पुरानी खिड़कियों से टकराती थीं, उस समय गोयल परिवार के आँगन में गहमागहमी थी। हल्के गुनगुने धूप में बैठे बुज़ुर्ग चाय पीते हुए किसी बड़े फैसले की चर्चा कर रहे थे, और रसोई से आती मसालों की खुशबू माहौल को और आत्मीय बना रही थी। अंशिका अपने कमरे की बालकनी में खड़ी सब देख रही थी, जैसे वह दृश्य का हिस्सा होते हुए भी अलग थी। उसकी माँ, विनीता गोयल, बार-बार नीचे से उसे बुला रही थीं लेकिन अंशिका की नजरें आसमान में उड़ते कबूतरों में उलझी थीं। पिछले…