निशा अरोरा एक दिल्ली के उस सुबह की धूप बेहद सामान्य थी—उजली, लेकिन भावना से शून्य। अद्वैता शर्मा की खिड़की से छनकर आती रोशनी जैसे उसका चेहरा नहीं, उसकी पुरानी आदतों पर गिर रही थी। साढ़े सात बजे का अलार्म बंद कर वह वैसा ही उठी जैसे हर दिन, मैकेनिक की तरह। कॉफी मशीन चालू, बाथरूम की टाइल्स पर नंगे पाँव चलना, और टेबल पर बिखरे केस फाइल्स को एक नज़र देखना—जैसे उसने ज़िंदगी को स्वचालित मोड पर डाल रखा हो। लेकिन आज कुछ अलग था। उसकी आँखें एक जगह पर अटक गईं थीं—बुकशेल्फ़ के ऊपरी कोने पर रखी वो…