१ राजस्थान की तपती दोपहर में जब रेत के ढेर सुनहरी चमक बिखेर रहे थे, उसी समय वीरेंद्र राठौड़ अपने सफर की थकान झेलते हुए गाँव में पहुँचा। गाँव छोटा था, लेकिन सदियों पुराने किलेनुमा घरों और मिट्टी के झोपड़ों से भरा हुआ। हर गली से गुजरते हुए उसे महसूस होता कि लोग उसे एक अजीब नज़र से देख रहे हैं—जैसे उसकी पहचान उनसे अलग हो, जैसे उसका मक़सद उन्हें पहले ही मालूम हो। गाँव के चौपाल पर बैठे बूढ़े धीरे-धीरे आपस में फुसफुसाते, और बच्चे डरते-डरते उसके बैग को देखते, मानो किसी अनजाने यात्री का सामान हमेशा रहस्य से…
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प्रताप श्रीवास्तव १ लखनऊ विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी की सबसे ऊपरी मंज़िल पर, जहाँ किताबों पर धूल की मोटी परत जम चुकी थी, वहीं एक कोने में बैठा था इतिहास विभाग का शोधार्थी विवेक मिश्रा। बाहर बारिश की बूँदें खिड़की की काँच पर थपकी दे रही थीं, लेकिन विवेक की आंखें जमी थीं उस पुराने नक्शे पर जिसे वह पिछले दो घंटे से उलट-पलट कर रहा था। नक्शा 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय का था—लखनऊ की गलियाँ, कोठियाँ, और हवेलियाँ उसमें चिन्हित थीं। अचानक उसकी नज़र एक धुँधले से नाम पर पड़ी—”रौशन मंज़िल”। ना किसी इतिहास की किताब में इसका…
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रथिन गुप्ता अंधविश्वास की धरती लखनऊ की हलचल भरी गलियों और चमकती सड़कों से निकलते समय पावन त्रिपाठी के दिल में एक अजीब सी बेचैनी थी। पत्रकारिता और ब्लॉगिंग की दुनिया में वह नाम तो कमा चुका था, लेकिन उसकी आत्मा को हमेशा कुछ अनछुए रहस्यों की तलाश रहती थी, जो लोगों की जुबां पर किस्सों की शक्ल में ज़िंदा होते हैं, लेकिन जिनकी सच्चाई किसी ने जानने की हिम्मत नहीं की। उसके हाथ में उसकी नोटबुक थी, जिस पर लिखा था – “काले पानी की हवेली – एक अनकही दास्तान”। उसने कई रातें इस हवेली के बारे में पढ़ने,…