श्रेयांशी वर्मा फिर से देखना वाराणसी की वो दोपहर वैसी ही थी जैसी होती है—धूल भरी, हल्की धूप से चकाचौंध, और गंगा की तरफ बहते हवा के छोटे-छोटे झोंकों के साथ एक ठहराव लिए। घाटों के पास बैठा आरव त्रिपाठी, अपनी डायरी की खाली पन्नियों को ताक रहा था, मानो शब्द कहीं खो गए थे। एक दशक से भी ज़्यादा समय हो गया, लेकिन उस शहर की गंध, वो पुराने पत्थर की दीवारें, वो किताबों की दुकानें—सब अभी भी वैसा ही था। बस एक चीज़ बदल गई थी—वो। संजना मिश्रा। वो अब भी उसी शहर में थी। वही गलियाँ, वही…
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सुरभि जब भी बारिश होती है, मेरी यादों की खिड़की अपने आप खुल जाती है। स्कूल की वो पुरानी इमारत, गीली ज़मीन से उठती मिट्टी की खुशबू, और एक लड़की—सादगी में लिपटी कोई कविता सी। उसका नाम था नेहा। और मेरा—अंशुमान। हम दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे—राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, जयपुर। क्लास १०-बी। मैं हमेशा पीछे की बेंच पर बैठता था, किताबों के बीच गुम, और वो हमेशा दूसरी लाइन की खिड़की के पास, बालों को क्लिप से बांधकर, कभी-कभी दूर आसमान में ताकती हुई। मुझे पहली बार जब उसके बारे में कुछ महसूस हुआ, वो इतिहास की…