दिव्या चावला १ जून की एक नमी से भरी, भारी-सी रात थी। मुंबई की बारिश अपनी पूरी ताक़त के साथ बरस रही थी, सड़कें पानी से भर चुकी थीं और कहीं-कहीं रेल की पटरियों के नीचे पानी बहने की आवाज़ एक अजीब-सी लय बना रही थी। शहर के पुराने हिस्से में, लोहे का वह पुल खड़ा था जो एक सदी से भी ज़्यादा समय से स्थानीय ट्रेनों का भार उठाता आ रहा था। पुल के नीचे काले पानी का एक स्थायी पोखर बना रहता था, और चारों ओर दीवारों पर उग आई हरी काई, समय और नमी के मिलन की…