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    दुपट्टा और स्टेथोस्कोप

    अन्वी शर्मा १ लखनऊ मेडिकल कॉलेज की सुबह हमेशा अलग होती थी—कभी नीले आसमान में सूरज की तेज़ धूप सीधी इमारतों की सफ़ेद दीवारों पर पड़कर चमक उठती, तो कभी बरामदों में टंगे नीले-हरे कोट और सफ़ेद लैब कोट हवा में झूलते रहते। उस सुबह कैंपस में एक अलग ही हलचल थी, क्योंकि नए बैच की कक्षाएँ शुरू हो रही थीं। हॉस्टल से निकलती लड़कियों के समूहों में हंसी-ठिठोली और लड़कों के बीच किताबें और नोट्स के बोझ तले दबे चेहरे—हर जगह एक ताजगी का माहौल था। इन्हीं चेहरों के बीच नायरा खान थी—दूसरे साल की मेडिकल स्टूडेंट, लेकिन नई…

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    आख़िरी पन्ना

    समीरा चतुर्वेदी १ काव्या के लिए किताबों की दुकान किसी मंदिर से कम नहीं थी। हर शनिवार दोपहर वह अपने बैग में एक नोटबुक और पेन रखकर मेट्रो से सीधे कनॉट प्लेस की उस संकरी गली में उतरती, जहाँ लकड़ी की अलमारियों और पुराने काग़ज़ की गंध से भरी वह छोटी-सी दुकान थी। बाहर से देखने पर वह दुकान किसी पुराने ज़माने की विरासत लगती—फीकी होती हुई नीली पेंट की दीवारें, दरवाज़े पर लटकता हुआ घंटी वाला परदा और अंदर जाते ही धूल और इतिहास की मिली-जुली खुशबू। काव्या को हमेशा लगता कि इस जगह पर किताबें सिर्फ़ पढ़ने के…

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    रात की रौशनी में तुम

    तृषा तनेजा १ धुंध से भरी उस सुबह में, पहाड़ों का रंग नीला नहीं था—वह कुछ धुंधला, कुछ राखी था, जैसे नींद से आधे जागे किसी ख्वाब के किनारे खड़े हों। चित्रधारा नामक इस छोटे से पहाड़ी कस्बे में पहली बार कदम रखते ही दक्ष सहगल को लगा मानो किसी भूली हुई याद की गलियों में लौट आया हो। स्टेशन से लेकर गांव के ऊपरी छोर तक पहुँचने वाली पतली पगडंडी के दोनों ओर देवदार के ऊँचे वृक्ष उसकी यात्रा के साथी बने हुए थे। उसके ट्रैवल बैग से लटकता कैमरा हर छाया को पकड़ने को उतावला था, पर उसके…

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    गुलाबी दुपट्टा

    ईशा पांडेय १ दिल्ली की एक उमस भरी दोपहर थी। चारों ओर ट्रैफिक का शोर, कारों के हॉर्न और मोबाइल फोन की लगातार बजती घंटियाँ करण वर्मा की चेतना को कुंद कर रही थीं। अपने ऑफिस के कांच लगे स्टूडियो में बैठा वह बार-बार कैमरे की लेंस से बाहर झांक रहा था — जैसे कोई रास्ता खोज रहा हो भाग जाने का। करण एक प्रसिद्ध फ़ोटोग्राफर था, जिसे शहरी जीवन, फैशन शोज़, विज्ञापन और मॉडलों की ज़िंदगी को लेंस में उतारने में महारत हासिल थी। पर अब वह इस चकाचौंध से थक गया था। हाल ही में एक डॉक्यूमेंट्री शूट…

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    धूप के टुकड़े

    अन्वेषा सिन्हा १ निहारिका की दुनिया बहुत सीमित थी—एक पुराना, ऊँची छतওয়ाला कमरा जिसमें मोटे-मोटे परदे हर खिड़की को ढँके रखते थे, और दीवारों पर हल्की नमी और एक अधूरी राग की गूँज बसी रहती थी। दिल्ली के बांग्ला साहिब रोड के पुराने इलाके में स्थित उस मकान की छत पर कभी-कभी धूप उतनी बेधड़क आ जाती कि पर्दे के भीतर भी उसका सुनहरा स्पर्श टपकने लगता, और तब निहारिका की आंखें अनायास सिकुड़ जातीं। उसके पास अपनी पीड़ा का नाम था—”फोटोफोबिया”—एक ऐसा डर जो सिर्फ आंखों से नहीं, भीतर की आत्मा से जुड़ा था। वह उजाले से भागती थी,…

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    उस रात जब चाँद मुस्कुराया

    वेदिका शर्मा बमुश्किल शाम के साढ़े सात बजे होंगे जब आयरा सेन नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुँची। प्लेटफॉर्म पर हलचल थी, लेकिन वह खुद किसी दूसरी लय में थी—धीमी, शांत और थोड़ी खोई हुई। पीठ पर कैमरा बैग और हाथ में एक काले रंग की डायरी थामे वो आगे बढ़ रही थी, जैसे किसी दृश्य को नहीं, बल्कि किसी याद को पकड़ना चाहती हो। उसकी ट्रेन—काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस—रात 8:00 बजे रवाना होने वाली थी। वह S3 कोच तक पहुँची और अपनी खिड़की वाली सीट पर बैठ गई। खिड़की का शीशा टूटा हुआ था, लेकिन उसे कोई शिकायत नहीं थी।…

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    रंग तेरे मेरे बीच

    चयनिका श्रीवास्तव जयपुर की पुरानी गलियों में बसे एक शांत मोहल्ले में, हल्के नीले रंग का एक छोटा-सा स्टूडियो था जहाँ से हर शाम एक अनकही ख़ामोशी और रंगों की सोंधी महक बाहर आती थी। वहाँ बैठती थी इशिता वर्मा—नेत्रहीन, मगर भावनाओं से भरी एक चित्रकार, जो रंगों को अपनी उंगलियों की नमी और हवा की कंपन से पहचानती थी। उसके पास रंगों की दृष्टि नहीं थी, पर एक अनोखी शक्ति थी—हर रंग की भावना को महसूस करने की। स्टूडियो में बिखरे कैनवासों पर वह अपने भीतर के संसार को उतारती थी—कभी आंधी की तरह, तो कभी बारिश के बूंदों…