श्रेयांशी वर्मा फिर से देखना वाराणसी की वो दोपहर वैसी ही थी जैसी होती है—धूल भरी, हल्की धूप से चकाचौंध, और गंगा की तरफ बहते हवा के छोटे-छोटे झोंकों के साथ एक ठहराव लिए। घाटों के पास बैठा आरव त्रिपाठी, अपनी डायरी की खाली पन्नियों को ताक रहा था, मानो शब्द कहीं खो गए थे। एक दशक से भी ज़्यादा समय हो गया, लेकिन उस शहर की गंध, वो पुराने पत्थर की दीवारें, वो किताबों की दुकानें—सब अभी भी वैसा ही था। बस एक चीज़ बदल गई थी—वो। संजना मिश्रा। वो अब भी उसी शहर में थी। वही गलियाँ, वही…
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कविता राठौर दिल्ली विश्वविद्यालय की उस पुरानी लाइब्रेरी में जैसे समय ठहर गया था। दीवारों पर किताबों की महक और खिड़की से आती धूप की एक पतली परत उन पन्नों पर गिरती, जिनमें जाने कितनी कहानियाँ कैद थीं। आरव वहाँ रोज़ आता था—शायद किताबों से ज़्यादा खामोशी से मिलने। लेकिन उस दिन सब कुछ बदल गया। वो एक मेज़ के कोने पर बैठी थी, सफेद सूती सलवार-कुर्ते में, उसके बालों की लटें माथे पर बार-बार गिरतीं और वो बिना परवाह किए बस पढ़ती जाती। उसके सामने खुली थी “साहिर लुधियानवी की शायरी”, और उसकी आँखों में जैसे हर शब्द समा…