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    ठाकुर का आख़िरी भोज

    १ अगस्त की उमस भरी दोपहर थी, जब हवेली के पुराने दरवाज़े पर पीतल की घंटी तीन बार बजी और नौकरों ने बड़े हॉल में गूँजती आवाज़ में ऐलान किया—“ठाकुर साहब का फरमान! इस बरस सालाना भोज का आयोजन पूरे ठाठ-बाट से होगा।” यह खबर जैसे ही हवेली के भीतर पहुँची, आँगन में बैठी ठाकुराइन सावित्री देवी की आँखों में हल्की सी चमक आई, वहीं बरामदे में पान चबाते बड़े बेटे दिवाकर ने भौंहें सिकोड़ लीं। गाँव में ये सालाना भोज कभी ठाठ-बाट की पहचान था, लेकिन पिछले दस सालों से बंद पड़ा था—कुछ लोग कहते थे ठाकुर साहब की…