अरुणा सहाय अमावस्या की रात के आने से पहले ही गाँव का वातावरण बदलने लगता था। दिन में साधारण दिखने वाला यह गाँव जैसे ही अंधेरे में डूबने लगता, वैसे ही हर कोने में एक अनजाना डर उतर आता। बच्चे जब खेलते-खेलते नदी की ओर भागते तो बुज़ुर्ग अपनी डाँट और चेतावनी से उन्हें रोकते—“आज घर जल्दी लौट आओ, अमावस्या की रात है, मसान घाट से दूर रहना।” उनके स्वर में सिर्फ सख्ती नहीं होती, बल्कि एक गहरी चिंता और डर झलकता था, मानो वे खुद भी उन छायाओं से डरे हों जो रात ढलते ही गाँव के किनारे बसे…
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अनुराग मिश्रा हवेली की घंटी पुराना दिल्ली दरवाज़ा रात के बादलों में घुलकर एक फीकी आकृति बन गया था, और उसके पीछे से चलती संकरी गलियाँ अपने-अपने नाम भूलकर बस एक ही लय में सांस ले रही थीं—धीमी, टुकड़ों में टूटी, जैसे बहुत पुरानी घड़ी की टिक-टिक; उन्हीं गलियों में उस रात मुकुल चला आ रहा था, बैग में छोटा रिकॉर्डर, जैकेट की जेब में नोटबुक, और फ़ोन की स्क्रीन पर चमकती एक अजीब-सी सूचना: “12:17. सुनोगे तो समझोगे.” यह मैसेज उसे एक अनजान हैंडल से रोज़ाना पिछले तीन दिनों से मिल रहा था—घंटी की इमोजी के साथ—और आज उसने…