आरव मिश्र पर्व 1: घाटों का सवेरा बनारस की सुबह का कोई मुकाबला नहीं। यह शहर जिस तरह हर दिन की शुरुआत करता है, वैसा और कहीं नहीं होता। जैसे ही पहली किरण गंगा पर गिरती है, शहर की गलियाँ धीरे-धीरे जागने लगती हैं। रात की निस्तब्धता टूटकर धीरे-धीरे जीवन की चहचहाहट में बदल जाती है। अस्सी घाट की ओर जाती तंग गलियों में दूधवालों की आवाज़ गूँजने लगती है—“दूध ले लो, ताज़ा दूध…”। कहीं कोई दरवाज़ा खुलता है, कोई आँगन से झाड़ू लगाता है। गलियों की दीवारें, जिन पर कभी रंग-बिरंगे पोस्टर चिपके थे, अब धुँधली छायाओं की तरह…
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अदिति राठी भाग 1: मुलाक़ात पन्ना की सर्दी में धूप एक वरदान जैसी लगती थी। स्कूल की छत पर बिछी टाट की चटाइयों पर बच्चे बैठकर चित्र बना रहे थे—सूरज, पेड़, झोपड़ी, और किसी कोने में एक मंदिर की घंटियां। रेवती चौहान बीच में खड़ी, बच्चों की तस्वीरों पर झुकती, तारीफ़ करती और कभी-कभी पेंसिल हाथ में लेकर कोई रेखा ठीक कर देती। उसकी चुन्नी कंधे से खिसकती रहती थी, और वो बार-बार उसे एक ही अंदाज़ में पीछे सरका देती थी। जैसे उसकी ज़िंदगी में सब कुछ इसी दोहराव के भीतर समाहित था—शांत, व्यवस्थित, और बंधा हुआ। उसी दोपहर,…