अनुराग मिश्रा हवेली की घंटी पुराना दिल्ली दरवाज़ा रात के बादलों में घुलकर एक फीकी आकृति बन गया था, और उसके पीछे से चलती संकरी गलियाँ अपने-अपने नाम भूलकर बस एक ही लय में सांस ले रही थीं—धीमी, टुकड़ों में टूटी, जैसे बहुत पुरानी घड़ी की टिक-टिक; उन्हीं गलियों में उस रात मुकुल चला आ रहा था, बैग में छोटा रिकॉर्डर, जैकेट की जेब में नोटबुक, और फ़ोन की स्क्रीन पर चमकती एक अजीब-सी सूचना: “12:17. सुनोगे तो समझोगे.” यह मैसेज उसे एक अनजान हैंडल से रोज़ाना पिछले तीन दिनों से मिल रहा था—घंटी की इमोजी के साथ—और आज उसने…
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आरव मिश्र पर्व 1: घाटों का सवेरा बनारस की सुबह का कोई मुकाबला नहीं। यह शहर जिस तरह हर दिन की शुरुआत करता है, वैसा और कहीं नहीं होता। जैसे ही पहली किरण गंगा पर गिरती है, शहर की गलियाँ धीरे-धीरे जागने लगती हैं। रात की निस्तब्धता टूटकर धीरे-धीरे जीवन की चहचहाहट में बदल जाती है। अस्सी घाट की ओर जाती तंग गलियों में दूधवालों की आवाज़ गूँजने लगती है—“दूध ले लो, ताज़ा दूध…”। कहीं कोई दरवाज़ा खुलता है, कोई आँगन से झाड़ू लगाता है। गलियों की दीवारें, जिन पर कभी रंग-बिरंगे पोस्टर चिपके थे, अब धुँधली छायाओं की तरह…