सोनल शर्मा पहली रात बसेरिया में प्राची मिश्रा की कार धूल उड़ाती हुई जब बसेरिया गांव के छोर पर पहुँची, तब शाम के साढ़े पाँच बज रहे थे। चारों ओर पीली रोशनी में नहाया खेत, सूखी घास की सरसराहट और दूर कहीं पीपल के पेड़ पर बैठे कौवे की कांव-कांव। उसने कार से उतरते हुए कैमरा और बैग उठाया, मोबाइल की लो बैटरी का नोटिफिकेशन नजरअंदाज़ किया, और अपनी डायरी जेब में खिसका ली। दिल्ली से करीब आठ घंटे की दूरी पर स्थित बसेरिया अब बस एक नाम भर रह गया था। कभी गुलजार रहा ये गांव अब जैसे साँसें…
-
-
अनामिका चौधरी पटना यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में उस दिन कुछ अजीब सा सन्नाटा था। रीतू ने अपनी डायरी में अंतिम लाइन लिखी—“लोककथाओं में सिर्फ डर नहीं होता, इतिहास भी छिपा होता है।” उसे अगले सप्ताह फील्ड वर्क के लिए सुभाषपुर जाना था—बिहार के बरौनी ज़िले का एक छोटा-सा गाँव, जहाँ आज़ादी से पहले के ज़मींदारों की हवेलियाँ अब खंडहर बन चुकी थीं। लेकिन उसका असली मकसद था—“भूतहिया कुआँ”। उस कुएँ की कथा सुनकर ही उसका रिसर्च टॉपिक तय हुआ था। कहा जाता था कि हर साल सावन की पहली अमावस्या की रात, उस सूखे कुएँ से एक औरत की कराह…