• Hindi - प्रेम कहानियाँ

    रात की रौशनी में तुम

    तृषा तनेजा १ धुंध से भरी उस सुबह में, पहाड़ों का रंग नीला नहीं था—वह कुछ धुंधला, कुछ राखी था, जैसे नींद से आधे जागे किसी ख्वाब के किनारे खड़े हों। चित्रधारा नामक इस छोटे से पहाड़ी कस्बे में पहली बार कदम रखते ही दक्ष सहगल को लगा मानो किसी भूली हुई याद की गलियों में लौट आया हो। स्टेशन से लेकर गांव के ऊपरी छोर तक पहुँचने वाली पतली पगडंडी के दोनों ओर देवदार के ऊँचे वृक्ष उसकी यात्रा के साथी बने हुए थे। उसके ट्रैवल बैग से लटकता कैमरा हर छाया को पकड़ने को उतावला था, पर उसके…

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    आत्म-खोज का सफर

    शिवानी कश्यप इशा रेड्डी अपने मुंबई स्थित उच्च-मूल्य वाले फ्लैट की खिड़की से बाहर देख रही थी, जहाँ से शहर का विस्तृत आकाश नजर आता था। कभी इस शहर ने उसे अपने सपनों के रंग दिए थे, लेकिन अब यह शहर उसे एक बंद पिंजरे जैसा महसूस होने लगा था। वाहनों का शोर, लोगों की भाग-दौड़, और निरंतर दौड़ते हुए जीवन ने उसे पूरी तरह से थका दिया था। वह एक सफल करियर में थी, प्रतिष्ठित कंपनी में काम कर रही थी, जहां उसकी हर पहचान थी, लेकिन इन सबके बावजूद, उसे अंदर से एक खालीपन महसूस हो रहा था।…

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    धूप के टुकड़े

    अन्वेषा सिन्हा १ निहारिका की दुनिया बहुत सीमित थी—एक पुराना, ऊँची छतওয়ाला कमरा जिसमें मोटे-मोटे परदे हर खिड़की को ढँके रखते थे, और दीवारों पर हल्की नमी और एक अधूरी राग की गूँज बसी रहती थी। दिल्ली के बांग्ला साहिब रोड के पुराने इलाके में स्थित उस मकान की छत पर कभी-कभी धूप उतनी बेधड़क आ जाती कि पर्दे के भीतर भी उसका सुनहरा स्पर्श टपकने लगता, और तब निहारिका की आंखें अनायास सिकुड़ जातीं। उसके पास अपनी पीड़ा का नाम था—”फोटोफोबिया”—एक ऐसा डर जो सिर्फ आंखों से नहीं, भीतर की आत्मा से जुड़ा था। वह उजाले से भागती थी,…

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    साँझ की रोशनी में गोवा

    मायूरी शंकर माया ने मुंबई की व्यस्त और तनावपूर्ण जिंदगी से थक कर गोवा जाने का फैसला किया था। वह एक कॉर्पोरेट पेशेवर थी, जो अपने काम में हमेशा डूबी रहती थी। हर दिन की भागदौड़, मीटिंग्स और डेडलाइन्स ने उसे मानसिक और शारीरिक थकावट का शिकार बना दिया था। वह किसी तरह अपने कार्यों को पूरा करती, लेकिन अंदर ही अंदर वह महसूस कर रही थी कि वह अपनी जिंदगी को खोती जा रही है। पिछले कुछ दिनों से उसकी आंखों में एक अजीब सी थकान थी, और मन में खालीपन महसूस हो रहा था। एक दिन उसने अचानक…

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    लौट चलें हेमकुंड

    निशा अरोरा एक दिल्ली के उस सुबह की धूप बेहद सामान्य थी—उजली, लेकिन भावना से शून्य। अद्वैता शर्मा की खिड़की से छनकर आती रोशनी जैसे उसका चेहरा नहीं, उसकी पुरानी आदतों पर गिर रही थी। साढ़े सात बजे का अलार्म बंद कर वह वैसा ही उठी जैसे हर दिन, मैकेनिक की तरह। कॉफी मशीन चालू, बाथरूम की टाइल्स पर नंगे पाँव चलना, और टेबल पर बिखरे केस फाइल्स को एक नज़र देखना—जैसे उसने ज़िंदगी को स्वचालित मोड पर डाल रखा हो। लेकिन आज कुछ अलग था। उसकी आँखें एक जगह पर अटक गईं थीं—बुकशेल्फ़ के ऊपरी कोने पर रखी वो…

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    धागों के उस पार – एक रामेश्वरम यात्रा

    नीलय मेहता अनिरुद्ध सेनगुप्ता ने स्टेशन पर रुकती उस ट्रेन को देखा तो कुछ देर तक बस खड़ा रहा, जैसे कोई अंतर्मन उसे रोक रहा हो या शायद वही धक्का दे रहा हो जिसकी उसे वर्षों से तलाश थी। चेन्नई एগ्मोर से रामेश्वरम जाने वाली वह रात की ट्रेन उसके लिए किसी साधारण सफ़र का ज़रिया नहीं थी—वह एक ऐसा दरवाज़ा थी, जो उसे उसके भीतर की किसी गूंजती आवाज़ तक ले जाने वाली थी। टिकट खिड़की पर लंबी लाइन, प्लेटफॉर्म की गंध, खड़खड़ाती ट्रॉली और चायवालों की पुकार—यह सब अनिरुद्ध को परिचित सा लगा लेकिन उस दिन हर आवाज़…

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    लौटते कदम

    प्रणव शुक्ला दिल्ली की वो सर्द रात थी, जब शहर की इमारतें किसी नीरव कैदखाने जैसी लगती थीं। सड़कें रोशनी से जगमगा रही थीं, लेकिन उस रोशनी में भी अजीब-सा अंधकार फैला था — ऐसा अंधकार, जो दिल को चीरता चला जाए। आर्यन अपने ऑफिस की 25वीं मंज़िल की खिड़की से उस शहर को निहार रहा था, जो कभी उसके सपनों का हिस्सा था, और अब उसे सपनों का कफन जैसा लगने लगा था। एयरपोर्ट रोड की गाड़ियाँ, मेट्रो की गड़गड़ाहट, और दूर-दूर तक दिखती गगनचुंबी इमारतें — सब जैसे उसकी आत्मा पर बोझ बन गई थीं। दिन भर की…

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    रंग तेरे मेरे बीच

    चयनिका श्रीवास्तव जयपुर की पुरानी गलियों में बसे एक शांत मोहल्ले में, हल्के नीले रंग का एक छोटा-सा स्टूडियो था जहाँ से हर शाम एक अनकही ख़ामोशी और रंगों की सोंधी महक बाहर आती थी। वहाँ बैठती थी इशिता वर्मा—नेत्रहीन, मगर भावनाओं से भरी एक चित्रकार, जो रंगों को अपनी उंगलियों की नमी और हवा की कंपन से पहचानती थी। उसके पास रंगों की दृष्टि नहीं थी, पर एक अनोखी शक्ति थी—हर रंग की भावना को महसूस करने की। स्टूडियो में बिखरे कैनवासों पर वह अपने भीतर के संसार को उतारती थी—कभी आंधी की तरह, तो कभी बारिश के बूंदों…

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    लद्दाख की वो आखिरी चाय

    विशाल सक्सेना एक दिल्ली की उस सुबह में कुछ अजीब सी खामोशी थी—न ज़्यादा कोहरा, न ही सूरज की चमक। एक मद्धम सी उदासी अर्जुन के कमरे की दीवारों पर रेंग रही थी जैसे पिछली रात की नींद में किसी ने कुछ अधूरा छोड़ दिया हो। दीवार पर लटकी कैलेंडर की तारीखें टेढ़ी हो चुकी थीं, और खिड़की के बाहर किसी ट्रैफिक सिग्नल की पीली रौशनी में बत्तखों की कतार जैसी आवाज़ें आती रहीं। अर्जुन की अलमारी के दरवाज़े खुले थे, एक ओर उसके कैमरे की काली बैग रखी थी जिसमें एक जीवन भर की यात्रा की प्यास भरी हुई…