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    आख़िरी पन्ना

    समीरा चतुर्वेदी १ काव्या के लिए किताबों की दुकान किसी मंदिर से कम नहीं थी। हर शनिवार दोपहर वह अपने बैग में एक नोटबुक और पेन रखकर मेट्रो से सीधे कनॉट प्लेस की उस संकरी गली में उतरती, जहाँ लकड़ी की अलमारियों और पुराने काग़ज़ की गंध से भरी वह छोटी-सी दुकान थी। बाहर से देखने पर वह दुकान किसी पुराने ज़माने की विरासत लगती—फीकी होती हुई नीली पेंट की दीवारें, दरवाज़े पर लटकता हुआ घंटी वाला परदा और अंदर जाते ही धूल और इतिहास की मिली-जुली खुशबू। काव्या को हमेशा लगता कि इस जगह पर किताबें सिर्फ़ पढ़ने के…