आधी रात का चाँद वाराणसी की गलियाँ वैसे तो दिन-रात लोगों से भरी रहती हैं लेकिन शाम होते ही उनमें एक अजीब-सी खामोशी उतर आती है, मानो सदियों पुरानी इमारतें खुद अपनी कहानियाँ सुनाने लगती हों। उन्हीं गलियों में रहती थी समीरा, उम्र मात्र बाईस, आँखों में अनगिनत राग और दिल में अधूरी ख्वाहिशों का कोलाहल। वह बनारस घराने की तालीम ले रही थी, सुबह की ठंडी हवा में उसका सुर और तानपुरे की गूँज मिलकर मोहल्ले का वातावरण बदल देती थी। लेकिन उसके भीतर हमेशा एक दुविधा रहती—क्या कभी वह अपने संगीत से पहचान बना पाएगी या परिवार की…