श्रेयांशी वर्मा फिर से देखना वाराणसी की वो दोपहर वैसी ही थी जैसी होती है—धूल भरी, हल्की धूप से चकाचौंध, और गंगा की तरफ बहते हवा के छोटे-छोटे झोंकों के साथ एक ठहराव लिए। घाटों के पास बैठा आरव त्रिपाठी, अपनी डायरी की खाली पन्नियों को ताक रहा था, मानो शब्द कहीं खो गए थे। एक दशक से भी ज़्यादा समय हो गया, लेकिन उस शहर की गंध, वो पुराने पत्थर की दीवारें, वो किताबों की दुकानें—सब अभी भी वैसा ही था। बस एक चीज़ बदल गई थी—वो। संजना मिश्रा। वो अब भी उसी शहर में थी। वही गलियाँ, वही…
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कविता प्रधान मुंबई की बारिश किसी पुराने फ़िल्मी गीत की तरह होती है — धीमी, भीगी, और दिल में उतरती हुई। शहर की रफ्तार थोड़ी थम जाती है, पर दिलों की धड़कनें तेज़ हो जाती हैं। जुहू चौपाटी की रेत उस दिन भीगी हुई थी, हवा समंदर से नमक चुराकर ला रही थी, और आसमान का रंग एक भूले-बिसरे वादे जैसा धुंधला था। मैं अर्जुन, एक फ्रीलांस फोटोग्राफर, जो हर बारिश में अपने कैमरे के पीछे कुछ अधूरी कहानियाँ तलाशता है। उस दिन भी मैं घर से निकला था बिना किसी तय मंज़िल के, बस एक उम्मीद लिए कि शायद…