आरव तिवारी भाग 1 – संगम किनारे की शुरुआत इलाहाबाद की शामें हमेशा से अनोखी रही हैं। जहाँ एक ओर संगम का किनारा अपने धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व से लोगों को आकर्षित करता है, वहीं दूसरी ओर सिविल लाइन्स और कटरा की गलियों में एक अलग ही ज़िंदगी धड़कती है। विश्वविद्यालय के सामने की चाय की दुकानों से लेकर लोकनाथ गली के ठेले तक, हर जगह अड्डे जमते हैं—जहाँ बातों का सिलसिला गंगा की धारा की तरह कभी रुकता नहीं। आरव, कहानी का नायक, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का शोध छात्र था। वह इतिहास पढ़ता था, लेकिन उसके दिल में इलाहाबाद की…
-
-
समीर चौहान भाग 1 — शुरुआत का सपना लखनऊ की पुरानी गलियों में सर्दी की धूप धीरे-धीरे उतर रही थी। आयुष वर्मा बालकनी में खड़े होकर चाय की भाप में खोया था। कप उसके हाथ में था, लेकिन दिमाग कहीं और। नौकरी में आज प्रमोशन मिला था, लेकिन दिल में कोई खुशी नहीं थी। दिल्ली की एक मल्टीनेशनल कंपनी में सीनियर मैनेजर बनना उसके कॉलेज के दोस्तों के लिए सपनों जैसी बात थी, मगर आयुष के लिए… ये बस एक और महीने का वेतन था, जो बैंक अकाउंट में जमा होकर ईएमआई और बिलों में गुम हो जाएगा। बालकनी से…
-
नवनीत विश्वास 1 हर सुबह जैसे मुंबई जागती है – गाड़ियों की आवाज़, लोकल ट्रेनों की घरघराहट, और भीड़ के कोलाहल में – उसी के साथ एक और दुनिया भी आँखें खोलती है: डब्बावालों की दुनिया। ये वो लोग हैं जो रोज़ लाखों लोगों के घर का खाना, सैकड़ों किलोमीटर दूर, बिना एक गलती के, समय पर पहुँचा देते हैं। नाथा पाटील, लगभग साठ साल के बुज़ुर्ग डब्बावाले, इस दुनिया के एक अनुभवी सिपाही हैं। सफेद नेहरू टोपी, हल्की झुर्रियों वाली मुस्कान, और आँखों में वर्षों का अनुभव। सुबह चार बजे उनकी नींद खुलती है, जैसे शरीर में कोई अलार्म…
-
सारिका शर्मा स्वादों का आगमन शहर की हलचल और तेज़ रफ्तार जीवन में एक तरह की थकान सी आ गई थी। लोग अपनी-अपनी दुनिया में खोए रहते, और शहर की गलियों में एक अजीब सा अकेलापन महसूस होता था। ऐसे में, आरण्य नामक युवक के लिए यह एक नई शुरुआत थी। वह एक सफल शेफ था, जिसने शहर के सबसे बड़े रेस्तरां में काम किया था। बड़े शेफ की भूमिका निभाते हुए, वह जानता था कि सच्ची कला सिर्फ व्यंजन बनाने में नहीं, बल्कि दिल से भोजन में भावना डालने में है। लेकिन एक दिन उसने महसूस किया कि वह…
-
कविता मेहरा भाग १ दिल्ली की सर्द सुबहें हमेशा कुछ छुपाए रखती हैं। कोहरे में लिपटी इमारतें, सड़क किनारे चाय की दुकानों से उठती भाप, और नेताओं की कारों के काफ़िले—इन सबके बीच कुछ ऐसा भी चलता है जो दिखाई नहीं देता, पर असर छोड़ता है। साउथ ब्लॉक के पीछे एक पुरानी बिल्डिंग है—’शंकर निवास’—जहाँ कभी एक मंत्री का परिवार रहता था, पर अब वहाँ रहस्यों की परछाइयाँ घूमती हैं। नेहा वर्मा, एक तेज़-तर्रार पत्रकार, ‘नव भारत आज’ चैनल की इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्टर है। ३२ साल की नेहा राजनीति की गलियों में सच खोजने की आदी हो चुकी थी। उसका काम…
-
विनय प्रताप सिंह भाग 1 लखनऊ की वह रात सर्द नहीं थी, लेकिन शहर के सियासी गलियारों में एक अजीब ठंडक फैल चुकी थी। विधानसभा के बाहर अचानक बिजली चली गई। पूरे परिसर में अंधेरा छा गया, जैसे किसी ने जानबूझकर समय को रोक दिया हो। मुख्यमंत्री यशवर्धन त्रिपाठी की कार का काफिला ज़रा देर के लिए ठिठका, फिर सुरक्षा की तैनाती दोगुनी कर दी गई। मुख्यमंत्री का चेहरा भावहीन था, पर उनके माथे पर पहली बार चिंता की महीन लकीरें उभरी थीं। उसी समय सचिवालय की चौथी मंज़िल से एक छोटी सी फाइल ग़ायब हो गई। उसका नाम था—ऑपरेशन…
-
सिया वर्मा भाग 1: DM से Destiny तक “Poetry is dead, bro,” अर्जुन ने कहा और अपने लैपटॉप का स्क्रीन बंद कर दिया। “Then why are you still liking sad quotes at 2AM?” समृद्धि ने चुटकी ली और उसके हाथ से फोन छीन लिया। वो दोनों Instagram के एक ऑनलाइन पोएट्री लाइव सेशन पर मिले थे—एक accidental like ने चैट की शुरुआत करवाई थी। समृद्धि, Delhi University की final year की student थी, psychology major, और poems लिखने का जुनून उसकी insomnia की सबसे प्यारी दोस्त बन चुका था। आर्यन, एक Mumbai वाला introvert था, जो ज़्यादा बोलता नहीं था…
-
अनिरुद्ध तिवारी भाग १: खामोशी की हलचल धरणपुर की सुबहें शांत होती थीं—कम से कम बाहर से देखने पर। लेकिन जो लोग सत्ता के गलियारों में रहते थे, उन्हें मालूम था कि यहां की चुप्पी अक्सर किसी तूफान से पहले की खामोशी होती है। चुनाव छह महीने दूर थे, पर मुख्यमंत्री सुरेश राजे का चेहरा जैसे पहले ही हार मान चुका था। काले घेरे उनकी आंखों के नीचे गहराते जा रहे थे और पार्टी के भीतर बगावत की आवाज़ें तेज़ होने लगी थीं। इसी बीच धरणपुर के जिला कलेक्टर राघव त्रिपाठी को एक गुप्त चिट्ठी मिली। सफेद लिफाफा, बिना किसी…
-
मिथिला शर्मा भाग 1: पहले शो का दीवाना पंकज को शहर के पुराने सिनेमाघर “रूपसागर टॉकीज” से बेहद प्यार था। वो वही सिनेमाघर था जहां उसकी पहली फिल्म लगी थी — शाहरुख खान की “कुछ कुछ होता है।” उम्र तब सिर्फ नौ साल थी, लेकिन उस दिन से जो रिश्ता बना परदे से, वो आज भी टूटा नहीं। हर शुक्रवार की सुबह, जब बाकी लोग ऑफिस या कॉलेज की तैयारियों में उलझे होते, पंकज अपने बैग में पानी की बोतल, एक पुराना टिकट का कवर और एक छोटी सी डायरी लेकर रूपसागर की ओर निकल पड़ता। उसका सपना था —…
-
अमित वर्मा भाग 1 मुरादाबाद का जून महीना हमेशा कुछ न कुछ लेकर आता था। कभी धूल भरी आंधी, कभी बिना मौसम के बादल और कभी एकदम अचानक बारिश। उस दिन भी ऐसा ही हुआ। मैं अपनी स्कूटी लेकर ऑफिस से लौट रहा था जब अचानक आसमान फट पड़ा। बारिश की बूंदें ऐसी गिर रही थीं जैसे किसी ने ऊपर से बाल्टी भर के पानी उड़ेल दिया हो। मैं भागकर सामने वाले पुराने पेड़ के नीचे खड़ा हो गया। वहीं बगल में एक चाय की दुकान थी, नाम लिखा था—”काका की चाय, 1982 से”। दुकान उतनी ही पुरानी लग रही…