शर्मिष्ठा दीक्षित
दिल्ली यूनिवर्सिटी के साउथ कैंपस में नए सत्र की चहल-पहल थी। अगस्त की उमस भरी सुबह, बादलों की ओट से झांकती धूप, और कॉलेज की पुरानी बिल्डिंग के गलियारे, सब कुछ जैसे किसी नई कहानी के लिए तैयार खड़ा था।
पहला साल, नया कॉलेज, नई किताबें, और अनगिनत अनजाने चेहरे। इन्हीं चेहरों में था आरव माथुर—काफी हद तक लड़कियों के बीच लोकप्रिय, लेकिन खुद को “सीरियस नहीं हूं” कहने वाला लड़का। आरव की आंखों में शरारत और दिल में कहानियों का समंदर था, जो आज तक किसी ने ठीक से पढ़ा नहीं था।
वो क्लास के पहले दिन ही दोस्तों के एक छोटे से ग्रुप का हिस्सा बन चुका था। कैंटीन में उसकी आवाज सबसे तेज़ गूंजती थी, और लाइब्रेरी—बस कहिए कि वहां उसका जाना केवल “गंभीर चेहरों” को छेड़ने के लिए होता था।
लेकिन सब कुछ तब बदल गया, जब उसने पहली बार सिया खन्ना को देखा।
वो दोपहर की बात थी। लाइब्रेरी में हल्की खामोशी थी, जो सिर्फ पन्नों की सरसराहट और पंखे की आवाज़ से टूट रही थी। आरव बस यूं ही, टाइमपास के इरादे से अंदर गया था, जब उसकी नज़र पड़ी उस लड़की पर जो दूसरी टेबल पर बैठी थी।
घुंघराले बालों को कसकर क्लच से बांधा गया था, एक सादा-सा कुर्ता और गले में झूलती किताबों की चेन वाली चाबी। उसकी आंखें किताब में गड़ी थीं—शायद Pride and Prejudice पढ़ रही थी। उसके चारों ओर जैसे एक शांत संसार था, जो बाकी दुनिया से कटा हुआ था।
आरव की नज़रें वहीं ठिठक गईं।
“कौन है ये?” उसने मन में सोचा।
वो लड़की कोई मॉडल जैसी नहीं दिख रही थी, ना कोई ग्लैमर था उसके अंदाज़ में। लेकिन उसमें कुछ था—एक ठहराव, एक गहराई, जैसे किसी पुराने गाने की धुन जो पहली बार सुनते ही दिल में उतर जाए।
आरव धीरे-धीरे उस टेबल की ओर बढ़ा। उसने किताबें उठाकर वही पास वाली सीट ले ली। मगर वो लड़की अपनी ही दुनिया में थी। उसे आरव की मौजूदगी का कोई असर नहीं हुआ।
अगले कुछ दिन तक यही सिलसिला चलता रहा। आरव रोज़ लाइब्रेरी जाता, सिया को देखता, कभी एक-दो किताबें उठाकर पढ़ने की कोशिश करता, पर असल में उसकी पूरी दिलचस्पी सिया के हावभाव में थी।
एक दिन जब सिया अपनी डायरी में कुछ नोट्स लिख रही थी, उसका पेन मेज़ से गिर गया। आरव तुरंत झुककर पेन उठा लाया।
“पुराना है, लेकिन स्टाइलिश,” उसने हँसते हुए कहा।
सिया ने पेन लेते हुए बिना मुस्कराए पूछा, “क्या मतलब?”
“मतलब कि… जैसे तुम्हारा अंदाज़।”
सिया ने भौंहे चढ़ाईं, “और तुम हो कौन?”
“आरव,” उसने जवाब दिया, “हिंदी ऑनर्स, सेकेंड टेबल से।”
“तो वहीं रहो,” कहकर सिया फिर किताब में खो गई।
आरव वहीं खड़ा रह गया, मुस्कुराते हुए।
“कम से कम उसने बात तो की,” उसने खुद से कहा।
उसी शाम, हॉस्टल की छत पर आरव लेटा आसमान की ओर देख रहा था। उसके आसपास दोस्त थे, लेकिन उसकी सोच किसी और ही ओर उड़ रही थी।
“आज तक बहुत सी लड़कियों से मिला हूँ,” उसने खुद से कहा, “पर ये… ये कुछ अलग है। इसकी आंखों में किताबों जैसी कहानियाँ हैं, जो धीरे-धीरे खुलती हैं।”
अगले दिन कॉलेज में इत्तेफ़ाक से दोनों का नाम एक ही ग्रुप प्रोजेक्ट में आ गया।
“क्या ये संयोग है या नियति?” आरव ने मज़ाक में कहा।
“मुझे प्रोजेक्ट पूरा करना है, बातें नहीं करनी,” सिया का जवाब आया।
“और मुझे सिर्फ बातें करनी हैं,” आरव ने मुस्कुराकर कहा।
सिया उसे घूरती रही, फिर किताबें उठाकर बोली, “ठीक है, लाइब्रेरी में मिलते हैं शाम 4 बजे। टाइम पर आना।”
आरव को ये ‘हाँ’ से कम नहीं लगा।
लाइब्रेरी की खामोशी फिर से उनके बीच गूंज रही थी। दोनों टेबल के दोनों छोर पर बैठे थे। सिया पूरी गंभीरता से नोट्स बना रही थी, और आरव उसे देखता हुआ सोच रहा था—“क्या ये लड़की कभी मुस्कराती नहीं है?”
अचानक सिया ने पूछा, “तुम्हारी रुचि क्या है?”
आरव चौंका, “मतलब?”
“मतलब पढ़ाई में क्या पसंद है?”
“कहानियाँ। और… लोग।”
“लोग?” सिया ने थोड़ी दिलचस्पी दिखाते हुए पूछा।
“हाँ। लोग खुद एक कहानी होते हैं। कुछ खुली किताब की तरह, कुछ अधूरी डायरी जैसे।”
सिया ने पहली बार उसकी ओर देखकर हल्की सी मुस्कान दी। “दिलचस्प जवाब है,” उसने कहा।
उस शाम आरव को लग रहा था जैसे उसने कोई युद्ध जीत लिया हो।
रात को अपनी डायरी में सिया ने लिखा—
“वो लड़का अजीब है… लेकिन शायद मैं थोड़ी देर उससे बात करना चाहती थी।”
और आरव? वो तो अब रोज़ वही वक्त, वही टेबल, वही किताबें और वही मुस्कान ढूंढ रहा था।
कभी-कभी ज़िंदगी कुछ खास लोगों को हमारे सामने यूं ही रख देती है—बिना किसी भूमिका के, बिना किसी योजना के। पर उनकी मौजूदगी ही धीरे-धीरे कहानी का आधार बन जाती है।
सिया और आरव की कहानी भी उसी तरह, एक किताब के गिरे हुए पन्ने से शुरू हुई थी… जहाँ कोई कहानी पूरी तरह से लिखी नहीं गई थी—बस इंतज़ार में थी।
***
कॉलेज के पहले महीने की हलचल अब धीरे-धीरे स्थिर होने लगी थी। फॉर्मलिटीज़, ओरिएंटेशन, फ्रेशर्स—सब निपट चुका था। अब बारी थी असली पढ़ाई और प्रोजेक्ट्स की, जिनसे ज़्यादातर छात्रों को असली डर लगता था।
आरव के लिए तो ये सब और भी मुश्किल था। वो किताबों से ज्यादा दिलचस्पी लोगों में रखता था। असाइनमेंट और प्रेज़ेंटेशन उसके लिए कॉलेज की सबसे उबाऊ चीज़ें थीं। लेकिन इस बार हालात थोड़े अलग थे—उसके ग्रुप में सिया खन्ना थी।
“इस बार बचना मुश्किल है, सर,” नील ने मज़ाक में कहा।
“सिया के सामने कोई ‘चलता है’ नहीं चलेगा।”
और सच यही था। सिया हर चीज़ को परफेक्ट तरीके से करना चाहती थी। उसका काम करने का तरीका सख्त, लेकिन साफ़ था।
ग्रुप प्रोजेक्ट का टॉपिक था: “भारतीय समाज में लैंगिक असमानता और कॉलेज स्तर पर उसकी छवि।”
लाइब्रेरी में मीटिंग तय हुई। चार लोगों का ग्रुप—लेकिन असल में पूरी स्क्रिप्ट सिया ने ही संभाली हुई थी।
आरव दस मिनट लेट पहुँचा।
“तुम्हें समय का कोई एहसास नहीं?”
सिया की आँखों में नाराज़ी थी।
“थोड़ा ट्रैफिक था,” आरव ने ढीले अंदाज़ में कहा।
“दिल्ली में ट्रैफिक नहीं होगा तो क्या गुलाब जामुन गिरेगा सड़क पर?”
“मज़ाक मत करो, ये सीरियस प्रोजेक्ट है। बाकी सब लोग टाइम पर आते हैं,” सिया ने झुंझलाकर कहा।
“बाकी सब मैं नहीं हूँ,” आरव ने मुस्कराते हुए कहा।
“बस, यही बात है। तुम बाकियों जैसे होते तो शायद काम आसान होता।”
सिया ने ये बात कह तो दी, लेकिन खुद को थोड़ी सख्त लगी।
आरव चुपचाप बैठ गया। वो नाराज़ नहीं हुआ, पर पहली बार उसकी आंखों में हल्की टीस थी।
काम शुरू हुआ। सिया ने सबको रोल बांट दिए। उसने आरव को इंटरव्यू पार्ट संभालने को कहा—कॉलेज में लड़के-लड़कियों के अनुभवों पर आधारित छोटी बातचीत।
आरव ने झट से कहा,
“ये तो मज़ेदार होगा। लेकिन अगर मैं कुछ एक्स्ट्रा एड कर दूँ तो बुरा मत मानना। मैं स्क्रिप्ट में थोड़ा फ्लेवर लाना चाहता हूँ।”
“ये कोई फिल्म की स्क्रिप्ट नहीं है,” सिया ने कहा।
“ये रिसर्च है। सीरियस टोन रखो।”
“अच्छा बाबा, तुम जैसी कहोगी वैसा करूँगा,” आरव ने सिर झुकाकर कहा और फिर आंख मार दी।
सिया का चेहरा थोड़ा गर्म हुआ, लेकिन उसने खुद को संयत रखा।
अगले कुछ दिनों तक दोनों का तालमेल अजीब तरह का था। एक ओर टकराव, दूसरी ओर धीरे-धीरे बढ़ता संवाद।
आरव ने जो इंटरव्यू रिकॉर्ड किए, उनमें उसके अंदाज़ की झलक साफ दिखती थी—थोड़ी हँसी, थोड़ी गहराई, और ढेर सारा अपनापन।
सिया ने जब क्लिप सुनीं, तो शुरुआत में वो नाखुश हुई।
“ये बहुत कैज़ुअल है। हम कोई कॉमेडी शो नहीं बना रहे,” उसने कहा।
लेकिन फिर एक क्लिप में एक लड़की का जवाब आया:
“कॉलेज में लड़कों से डर नहीं लगता, लेकिन प्रोफेसरों से सवाल पूछने में आज भी हिचक होती है।”
सिया कुछ पल चुप रही। उसकी आंखों में हल्की चमक आई।
“यहाँ… यहाँ तुमने कुछ सही पकड़ा है,” उसने स्वीकारा।
आरव ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया,
“मतलब मैं पास हो गया?”
“अभी सिर्फ इंटरनल असेसमेंट में,” सिया बोली, लेकिन पहली बार उसके स्वर में मज़ाक की हल्की झलक थी।
उनकी बातचीत अब थोड़ी सहज होने लगी थी। क्लास के बाद कभी-कभी दोनों कैंटीन की ओर जाते, चाय लेकर स्क्रिप्ट पर चर्चा करते। सिया ने महसूस किया कि आरव दिखावा करता है कि उसे परवाह नहीं, लेकिन असल में वो काम के प्रति गंभीर है—बस उसका तरीका अलग है।
आरव ने महसूस किया कि सिया का कठोर लहजा एक कवच है, जिसे उसने खुद को दुनिया से बचाने के लिए पहना है।
एक दिन प्रोजेक्ट की मीटिंग के बाद, सिया लाइब्रेरी से बाहर निकल रही थी कि तेज़ बारिश शुरू हो गई।
आरव वहीं खड़ा था, छतरी लेकर।
“ले जाओ, नहीं तो तुम्हारी किताबें भीग जाएँगी,” उसने कहा।
सिया हिचकिचाई।
“और तुम?”
“मैं तो भीगने के लिए ही बना हूँ,” उसने मुस्कराते हुए कहा।
सिया ने छतरी ली, और पहली बार कुछ पल बिना बोले उसे देखा।
“थैंक यू,” उसने धीमे स्वर में कहा।
उस रात, सिया ने अपनी डायरी में लिखा:
“आरव… समझना आसान नहीं है उसे। वो बेफिक्र दिखता है, पर लोगों की बातें बहुत ध्यान से सुनता है।”
वहीं आरव ने अपने फोन में नोट लिखा:
“उसने थैंक यू कहा। प्रगति हो रही है।”
प्रोजेक्ट पूरा होते-होते उनके बीच के रिश्ते में एक नया आयाम जुड़ चुका था।
टकराव अब संवाद बन चुका था। तकरार अब समझ में बदल रही थी।
शायद यही पहला कदम था उस दोस्ती की ओर, जो वक्त के साथ कोई और नाम ले सकती थी…
***
कॉलेज का पहला सेमेस्टर धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ चुका था। क्लासेज़, असाइनमेंट्स, और डिपार्टमेंटल इवेंट्स के बीच ज़िंदगी अब एक लय में चलने लगी थी। लेकिन सिया और आरव की कहानी अब उस लय से बाहर निकलकर एक अलग ही धुन पर बजने लगी थी—धीमी, मधुर और कहीं-न-कहीं मन को छूने वाली।
प्रोजेक्ट खत्म हो चुका था, ग्रेड्स भी अच्छे आ गए थे। लेकिन उसका असर उनके रिश्ते पर सबसे ज़्यादा पड़ा था। दोनों अब सिर्फ “ग्रुप पार्टनर” नहीं थे। अब वो साथ में क्लास के बाद लाइब्रेरी जाते, कैंटीन में एक ही टेबल शेयर करते, और कभी-कभी कॉम्पिटीशन के लिए टीम भी बनाते।
एक दिन कैंपस फेस्ट की तैयारी के दौरान, सिया ने अचानक कहा,
“मुझे नाटक में भाग लेना है, लेकिन डायरेक्शन में।”
आरव ने तुरंत जवाब दिया,
“तो मैं हीरो बन जाऊं? वैसे भी, तुम मुझे बहुत ‘डायरेक्ट’ करती हो।”
सिया ने हँसते हुए कहा,
“तुमसे एक्टिंग करवा पाना किसी युद्ध जितने जैसा होगा।”
“पर जीत तो हमेशा तुम्हारी ही होती है,” आरव ने धीरे से कहा।
उस एक पल में सिया चुप हो गई। उसकी आंखें आरव की आंखों से मिलीं—कुछ कहने जैसा, पर फिर वो पल गुजर गया।
कॉलेज का सांस्कृतिक उत्सव ‘रागवेश’ अब नज़दीक था। पूरे कैंपस में रंग-बिरंगी सजावट, उत्साह और हलचल का माहौल था।
आरव और सिया दोनों को अलग-अलग कार्यक्रमों में व्यस्त रहना पड़ा, लेकिन फेस्ट के तीसरे दिन शाम को दोनों एक ही जगह मिल गए—कॉफी स्टॉल के पास।
सिया की आँखों के नीचे थकावट साफ झलक रही थी।
“कॉफी?” आरव ने पूछा।
“डबल शुगर,” सिया ने कहा, “आज बहुत थक गई हूँ।”
**”तुम हर चीज़ में परफेक्शन चाहती हो, इसलिए।”
“और तुम हर चीज़ को हँसी में उड़ा देते हो,”** सिया ने मुस्कराते हुए जवाब दिया।
दोनों हँस पड़े।
वो शाम उनके लिए खास बन गई। भीड़ के बीच, संगीत की आवाज़ में, कॉफी के दो कपों के बीच कुछ ऐसा था जो पहले कभी नहीं था—सहजता।
अगले हफ्ते कॉलेज ट्रिप का ऐलान हुआ—जयपुर दो दिन, पुष्कर एक दिन।
पूरे डिपार्टमेंट में हर्ष का माहौल था।
सिया ने पहले मना किया, लेकिन प्रोफेसर के कहने पर मान गई।
आरव तो नाम लिखवाने वालों में सबसे पहला था।
बस में दोनों की सीट पास नहीं थी, लेकिन जैसे ही पहला ब्रेक पड़ा, आरव सीधा सिया के पास जा पहुंचा।
“तुम्हें लगता है इस ट्रिप से क्या मिलेगा?” उसने पूछा।
“शायद कुछ शांति। एक ब्रेक। किताबें, क्लासेज़ और घर के बीच खुद को भूल सी जाती हूँ,” सिया ने जवाब दिया।
“तुम्हें ढूंढ़ने वाला कोई है क्या?”
सिया चौंकी।
“मतलब?”
“मतलब… किसी को ज़रूरत है क्या तुम्हारी वैसी जैसी तुम असल में हो?”
सिया कुछ पल चुप रही।
“शायद मैं खुद भी नहीं जानती कि असल में मैं कौन हूँ।”
जयपुर के हवा महल, आमेर किला और बाज़ारों की रंगीनियों के बीच सिया कुछ हल्की-सी लग रही थी। वो ज़्यादा मुस्करा रही थी, ज़्यादा खुलकर बातें कर रही थी। आरव दूर से उसे देखता, और कभी-कभी पास जाकर कोई चुटकुला सुनाकर हँसा देता।
पुष्कर के आखिरी दिन की शाम, पूरे ग्रुप ने झील के किनारे बैठकर गिटार और गानों का छोटा सा सत्र रखा।
आरव ने गिटार उठाया और धीरे-धीरे गुनगुनाया—
“तेरे नाम सा कुछ…”
सिया ने चौंककर उसकी ओर देखा। वो गाना उसने कभी नहीं सुना था।
“अपना लिखा है?” उसने पूछा।
“शायद तुम्हारे लिए,” आरव ने मुस्कराकर कहा।
उस रात, सिया बहुत देर तक झील की ओर देखती रही।
ट्रिप से लौटने के बाद दोनों के बीच अब एक सहज रिश्ता बन चुका था। दोस्ती में कोई औपचारिकता नहीं बची थी। वो अब एक-दूसरे को पढ़ने लगे थे—बिना किताबों के।
कभी-कभी सिया खुद मैसेज करके पूछती,
“कैंटीन चलो?”
और आरव सिर्फ एक शब्द भेजता—”चलो।”
एक दिन कैंटीन में बैठकर सिया ने पूछा,
“तुम कभी गंभीर क्यों नहीं होते?”
“क्योंकि मुझे डर लगता है कि अगर गंभीर हो गया तो जो मैं हूँ वो खो दूँगा,” आरव ने ईमानदारी से कहा।
“पर जो तुम हो, वो शायद किसी को बहुत पसंद है,” सिया ने अनजाने में कह दिया।
दोनों के बीच कुछ पल चुप्पी रही, लेकिन वो चुप्पी बोझिल नहीं थी—बल्कि उसमें कोई मिठास थी।
सिया की डायरी अब अक्सर भरी रहने लगी थी। हर दिन कुछ न कुछ आरव से जुड़ा होता—उसकी बातें, उसके जोक्स, उसका गाना, उसकी मुस्कान।
वहीं आरव के फोन में एक प्लेलिस्ट बन चुकी थी—”Siya’s Smile”
हर गाना उसे उसकी सादगी की याद दिलाता।
कॉलेज लाइफ में कई दोस्त बनते हैं, कई आते हैं और चले जाते हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जो धीरे-धीरे दिल की ज़मीन पर घर बना लेते हैं—बिना शोर, बिना इज़हार।
सिया और आरव अब दोस्त थे, लेकिन दोनों के दिल में एक हल्का-सा संशय था—
“क्या ये सिर्फ दोस्ती है?”
***
जनवरी की सर्द हवाएं दिल्ली को ढक चुकी थीं। कॉलेज के गलियारों में ऊनी शॉल, गर्म चाय और हाथों में पकड़े नोट्स के बीच सर्दियों का एक अलग ही जादू था। इसी मौसम में कॉलेज ट्रिप के बाद सिया और आरव की दोस्ती एक मुकम्मल रंग ले चुकी थी। अब वे एक-दूसरे के दिन का हिस्सा थे—नियमित, ज़रूरी और सुकूनदायक।
लेकिन दोनों के दिलों में कुछ ऐसा भी था, जो शब्दों में नहीं आ पाया था।
आरव की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वो सिया को लेकर गंभीर था—काफी ज्यादा। उसकी बातें, उसकी हँसी, यहां तक कि उसकी चुप्पी भी आरव के दिन का हिस्सा बन चुकी थी। लेकिन अब सवाल यह था कि क्या सिया भी वैसा ही कुछ महसूस करती थी?
नील ने एक दिन आरव से सीधा पूछा,
“तो फिर कब बोलेगा उससे?”
आरव ने गहरी साँस ली,
“डर लगता है। कहीं वो दूर हो गई तो?”
“अगर बात नहीं की, तो भी दूर हो सकती है। और तब पछताने का कोई फायदा नहीं होगा,” नील ने साफ कहा।
कॉलेज में Literature Society की तरफ़ से एक Open Mic Poetry Night का आयोजन हुआ। आरव ने नाम दिया—सिर्फ इसलिए क्योंकि सिया ऑर्गेनाइजिंग टीम में थी।
शाम की शुरुआत कैंडल लाइट और धीमी जज़ म्यूज़िक के साथ हुई। माहौल भावनात्मक था। कविता, संगीत, और टुकड़ों में बिखरे जज़्बातों से भरा हुआ।
आरव ने स्टेज पर चढ़कर एक कविता सुनाई—
“तेरी खामोशी की आवाज़ से,
हर रोज़ एक नज़्म बुनता हूँ।
तू कुछ कहे ना कहे,
तेरे नाम सा कुछ महसूस होता है…”
सिया की आंखें एक पल को ठहर गईं। बाकी लोग तालियाँ बजा रहे थे, लेकिन उसका मन कहीं और था।
कार्यक्रम के बाद आरव सीधा सिया के पास गया।
“अच्छी थी?” उसने पूछा।
“बहुत,” सिया ने कहा।
“पर वो आख़िरी लाइन… किसी के लिए थी?”
आरव ने कुछ पल उसकी आंखों में देखा,
“हाँ। उसके लिए जो बिना कहे बहुत कुछ कह जाती है।”
सिया ने हल्का-सा मुस्कराया, लेकिन कुछ बोली नहीं। शायद वो जवाब जानती थी, लेकिन उस पर भरोसा नहीं कर पा रही थी।
कुछ दिन बाद, कॉलेज पिकनिक का प्लान बना। जगह थी—दमदमा लेक, दिल्ली से दो घंटे की दूरी पर। सर्दी की धूप में बसी झील, और चारों ओर हरे मैदानों की खूबसूरती।
वहाँ, दोपहर के वक्त जब सब अपने-अपने ग्रुप में मस्ती कर रहे थे, आरव सिया को झील के किनारे ले आया।
“तुमसे कुछ कहना है,” आरव ने गंभीरता से कहा।
सिया थोड़ी चौंकी।
“तुम्हारे साथ बिताया हर दिन… वो मेरे लिए सिर्फ दोस्ती नहीं था। मुझे नहीं पता तुम्हें क्या लगता है, लेकिन मैं हर रोज़ तुम्हें देखकर बेहतर महसूस करता हूँ।
मैं तुम्हें पसंद करता हूँ, सिया। बहुत। शायद प्यार भी करने लगा हूँ।”
कुछ पल के लिए जैसे समय थम गया। झील की लहरें चलती रहीं, लेकिन हवा रुक-सी गई।
सिया चुप रही। उसकी आंखों में हल्की सी नमी थी, पर वो मुस्कराने की कोशिश कर रही थी।
“आरव… मैं जानती थी शायद एक दिन तुम ये कहोगे। और ये भी जानती हूँ कि तुम झूठ नहीं बोल रहे। लेकिन मैं… मैं अभी तैयार नहीं हूँ।”
आरव का चेहरा थोड़ा उतर गया, लेकिन उसने जबरन मुस्कान बनाए रखी।
“कोई बात नहीं। मैं सिर्फ अपने दिल की बात कहनी चाहता था। बाकी तुम पर है। दोस्त रहना चाहो, तो हमेशा रहूँगा। अगर चुप रहना चाहो, तो भी समझूँगा।”
सिया ने धीरे से उसका हाथ थामा,
“मैं चुप नहीं रहना चाहती। लेकिन मुझे थोड़ा वक्त दो। मेरे अंदर कुछ अधूरे पन्ने हैं जिन्हें पहले पढ़ना है।”
वापसी की बस में दोनों साथ नहीं बैठे। लेकिन दूरी में भी एक अजीब-सा अपनापन था।
आरव खिड़की से बाहर देखते हुए सोच रहा था,
“कभी-कभी, प्यार इज़हार से ज्यादा इंतज़ार में सुंदर होता है।”
वहीं सिया अपनी डायरी में लिख रही थी—
“आज आरव ने जो कहा, वो शायद पहली बार था जब किसी ने मुझे ऐसे देखा जैसे मैं हूं। लेकिन क्या मैं खुद को देखने के लिए तैयार हूँ?”
उस दिन के बाद, कुछ बदल गया था।
बातचीत कम हो गई थी, लेकिन मौन ज़्यादा गहरा हो गया था।
मिलना-जुलना थोड़ा सिमट गया था, लेकिन दिलों में हलचल और बढ़ गई थी।
सिया खुद से लड़ रही थी—अपने अतीत, अपने डर और उस प्यार से जिसे वो महसूस तो कर रही थी, पर स्वीकार नहीं कर पा रही थी।
कुछ रिश्तों को शब्दों की ज़रूरत नहीं होती, वो नज़रों, खामोशियों और इंतज़ार में पलते हैं।
आरव अब हर दिन वही कर रहा था—इंतज़ार।
कभी एक ‘Hi’ के मैसेज का, कभी एक मुस्कान का, कभी एक हल्के से इशारे का…
***
जनवरी की सर्द हवाएं दिल्ली को ढक चुकी थीं। कॉलेज के गलियारों में ऊनी शॉल, गर्म चाय और हाथों में पकड़े नोट्स के बीच सर्दियों का एक अलग ही जादू था। इसी मौसम में कॉलेज ट्रिप के बाद सिया और आरव की दोस्ती एक मुकम्मल रंग ले चुकी थी। अब वे एक-दूसरे के दिन का हिस्सा थे—नियमित, ज़रूरी और सुकूनदायक।
लेकिन दोनों के दिलों में कुछ ऐसा भी था, जो शब्दों में नहीं आ पाया था।
आरव की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वो सिया को लेकर गंभीर था—काफी ज्यादा। उसकी बातें, उसकी हँसी, यहां तक कि उसकी चुप्पी भी आरव के दिन का हिस्सा बन चुकी थी। लेकिन अब सवाल यह था कि क्या सिया भी वैसा ही कुछ महसूस करती थी?
नील ने एक दिन आरव से सीधा पूछा,
“तो फिर कब बोलेगा उससे?”
आरव ने गहरी साँस ली,
“डर लगता है। कहीं वो दूर हो गई तो?”
“अगर बात नहीं की, तो भी दूर हो सकती है। और तब पछताने का कोई फायदा नहीं होगा,” नील ने साफ कहा।
कॉलेज में Literature Society की तरफ़ से एक Open Mic Poetry Night का आयोजन हुआ। आरव ने नाम दिया—सिर्फ इसलिए क्योंकि सिया ऑर्गेनाइजिंग टीम में थी।
शाम की शुरुआत कैंडल लाइट और धीमी जज़ म्यूज़िक के साथ हुई। माहौल भावनात्मक था। कविता, संगीत, और टुकड़ों में बिखरे जज़्बातों से भरा हुआ।
आरव ने स्टेज पर चढ़कर एक कविता सुनाई—
“तेरी खामोशी की आवाज़ से,
हर रोज़ एक नज़्म बुनता हूँ।
तू कुछ कहे ना कहे,
तेरे नाम सा कुछ महसूस होता है…”
सिया की आंखें एक पल को ठहर गईं। बाकी लोग तालियाँ बजा रहे थे, लेकिन उसका मन कहीं और था।
कार्यक्रम के बाद आरव सीधा सिया के पास गया।
“अच्छी थी?” उसने पूछा।
“बहुत,” सिया ने कहा।
“पर वो आख़िरी लाइन… किसी के लिए थी?”
आरव ने कुछ पल उसकी आंखों में देखा,
“हाँ। उसके लिए जो बिना कहे बहुत कुछ कह जाती है।”
सिया ने हल्का-सा मुस्कराया, लेकिन कुछ बोली नहीं। शायद वो जवाब जानती थी, लेकिन उस पर भरोसा नहीं कर पा रही थी।
कुछ दिन बाद, कॉलेज पिकनिक का प्लान बना। जगह थी—दमदमा लेक, दिल्ली से दो घंटे की दूरी पर। सर्दी की धूप में बसी झील, और चारों ओर हरे मैदानों की खूबसूरती।
वहाँ, दोपहर के वक्त जब सब अपने-अपने ग्रुप में मस्ती कर रहे थे, आरव सिया को झील के किनारे ले आया।
“तुमसे कुछ कहना है,” आरव ने गंभीरता से कहा।
सिया थोड़ी चौंकी।
“तुम्हारे साथ बिताया हर दिन… वो मेरे लिए सिर्फ दोस्ती नहीं था। मुझे नहीं पता तुम्हें क्या लगता है, लेकिन मैं हर रोज़ तुम्हें देखकर बेहतर महसूस करता हूँ।
मैं तुम्हें पसंद करता हूँ, सिया। बहुत। शायद प्यार भी करने लगा हूँ।”
कुछ पल के लिए जैसे समय थम गया। झील की लहरें चलती रहीं, लेकिन हवा रुक-सी गई।
सिया चुप रही। उसकी आंखों में हल्की सी नमी थी, पर वो मुस्कराने की कोशिश कर रही थी।
“आरव… मैं जानती थी शायद एक दिन तुम ये कहोगे। और ये भी जानती हूँ कि तुम झूठ नहीं बोल रहे। लेकिन मैं… मैं अभी तैयार नहीं हूँ।”
आरव का चेहरा थोड़ा उतर गया, लेकिन उसने जबरन मुस्कान बनाए रखी।
“कोई बात नहीं। मैं सिर्फ अपने दिल की बात कहनी चाहता था। बाकी तुम पर है। दोस्त रहना चाहो, तो हमेशा रहूँगा। अगर चुप रहना चाहो, तो भी समझूँगा।”
सिया ने धीरे से उसका हाथ थामा,
“मैं चुप नहीं रहना चाहती। लेकिन मुझे थोड़ा वक्त दो। मेरे अंदर कुछ अधूरे पन्ने हैं जिन्हें पहले पढ़ना है।”
वापसी की बस में दोनों साथ नहीं बैठे। लेकिन दूरी में भी एक अजीब-सा अपनापन था।
आरव खिड़की से बाहर देखते हुए सोच रहा था,
“कभी-कभी, प्यार इज़हार से ज्यादा इंतज़ार में सुंदर होता है।”
वहीं सिया अपनी डायरी में लिख रही थी—
“आज आरव ने जो कहा, वो शायद पहली बार था जब किसी ने मुझे ऐसे देखा जैसे मैं हूं। लेकिन क्या मैं खुद को देखने के लिए तैयार हूँ?”
उस दिन के बाद, कुछ बदल गया था।
बातचीत कम हो गई थी, लेकिन मौन ज़्यादा गहरा हो गया था।
मिलना-जुलना थोड़ा सिमट गया था, लेकिन दिलों में हलचल और बढ़ गई थी।
सिया खुद से लड़ रही थी—अपने अतीत, अपने डर और उस प्यार से जिसे वो महसूस तो कर रही थी, पर स्वीकार नहीं कर पा रही थी।
कुछ रिश्तों को शब्दों की ज़रूरत नहीं होती, वो नज़रों, खामोशियों और इंतज़ार में पलते हैं।
आरव अब हर दिन वही कर रहा था—इंतज़ार।
कभी एक ‘Hi’ के मैसेज का, कभी एक मुस्कान का, कभी एक हल्के से इशारे का…
***
दूरी और दर्द
मौसम ने करवट ली थी। सर्दी अब अलविदा कहने को थी, और दिल्ली की हवा में वसंत की हल्की-सी खुशबू घुलने लगी थी। लेकिन आरव और सिया के बीच जो ठंडक आई थी, वो वक़्त की धूप से भी नहीं पिघल रही थी।
सिया ने कहा था, “मुझे वक्त चाहिए…”
आरव ने वो वक्त दिया—बिना किसी शिकायत, बिना किसी सवाल के।
लेकिन जब आप हर दिन किसी की आंखें तलाशते हैं और हर मोड़ पर उसकी आवाज़ ढूंढ़ते हैं, तो चुप्पी भी एक शोर बन जाती है।
कॉलेज में अब फेस्ट सीज़न दोबारा लौट आया था।
हर दिन कोई ना कोई प्रतियोगिता, कोई नया आयोजन।
पर इस बार आरव का उत्साह कहीं गायब था।
नील ने एक दिन टोका,
“तू इतना चुप क्यों हो गया है यार? वो तो तुझसे बात भी नहीं करती अब ठीक से…”
आरव ने फीकी मुस्कान दी,
“शायद मेरी मोहब्बत उसे बोझ लगी।”
“या शायद वो खुद से लड़ रही हो,” नील ने शांत स्वर में कहा।
सिया भी इस दूरी से अनजान नहीं थी। वो हर रोज़ आरव को देखती—क्लास में, कैंटीन में, लाइब्रेरी में।
पर अब वो नज़रें मिलाने से बचती थी।
उसकी डायरी की एक पंक्ति:
“जो पास था, अब उसकी मौजूदगी में भी एक खालीपन है।”
वो खुद से कई सवाल करती—
क्या वो आरव को खो रही है?
या खुद से डर कर दूर भाग रही है?
एक दिन कॉलेज के Annual Seminar में सिया और आरव दोनों को रिपोर्टिंग टीम में रखा गया। महीनों बाद पहली बार दोनों को साथ एक काम में जुटना पड़ा।
पहली मीटिंग में, जब दोनों आमने-सामने आए, तो एक अजीब-सी चुप्पी हवा में फैल गई।
“हाय,” आरव ने धीरे से कहा।
“हाय…” सिया ने जवाब तो दिया, लेकिन आंखें झुकी रहीं।
मीटिंग खत्म हुई। बाकी लोग जा चुके थे।
आरव उठकर जाने लगा, लेकिन फिर रुक गया।
“क्या इतनी दूर चले गए हम कि एक दूसरे से ठीक से देख भी नहीं सकते?”
सिया चुप रही।
“तुमने वक्त माँगा था, दिया मैंने। लेकिन अब जो खामोशी है, वो किसी फैसले से बड़ी लगती है।”
सिया की आँखों में नमी थी।
“मैं डरी हुई हूँ, आरव। मेरी ज़िंदगी में पहले भी लोग आए… और गए। मैं फिर से टूटना नहीं चाहती।”
“मैं उन्हें नहीं जानता, लेकिन मैं तुम्हें जानता हूँ। और मेरा इरादा जाने वालों में से नहीं है, सिया।”
वो बस चुप खड़ी रही।
आरव आगे कुछ कहे उससे पहले ही उसने कहा,
“मुझे अभी भी नहीं पता कि मैं क्या चाहती हूँ। लेकिन मैं ये जानती हूँ कि तुम्हारी दूरी… तकलीफ़ देती है।”
उस शाम दोनों साथ कैंटीन नहीं गए। कोई चाय की प्याली साझा नहीं हुई। लेकिन दिलों में कुछ दरवाज़े हल्के से खुलने लगे थे।
कुछ दिनों बाद, सिया अचानक क्लास से बाहर आकर सीधा लाइब्रेरी की ओर गई। वहाँ आरव अकेला बैठा था—खिड़की के पास, किसी किताब को पलटते हुए।
सिया ने सामने की कुर्सी खींची और बैठ गई।
“किताबें पढ़ना शुरू कर दिया?” उसने पूछा।
आरव चौंका, फिर हल्के से मुस्कराया।
“अब जब तुम नहीं पढ़ा रही, तो खुद ही पढ़ना पड़ता है।”
सिया की आँखों में शरारत भरी थी, पर दिल अब भी उलझा हुआ।
“आरव,” उसने धीरे से कहा,
“क्या हम फिर से दोस्त बन सकते हैं?”
आरव ने कुछ पल उसकी ओर देखा।
“क्या हमने कभी होना छोड़ा?”
उनका रिश्ता अब एक नए मोड़ पर था। न इज़हार था, न इनकार।
बस एक धीमी-सी शुरुआत, जिसमें शब्दों से ज़्यादा मौन का महत्व था।
कभी-कभी वो फिर से साथ बैठते, कुछ देर बातें करते, लेकिन अब हर बात के पीछे छुपा होता था एक डर—कि कहीं फिर से सब बिखर न जाए
एक शाम, सिया ने अपने रूम की बालकनी से सूरज को ढलते देखा।
उसने डायरी उठाई और लिखा:
“आरव लौट आया है… या शायद मैं लौट आई हूँ।
रिश्तों को समय देना आसान होता है,
लेकिन उन्हें संभालना… हिम्मत मांगता है।
मैं अब हिम्मत जुटा रही हूँ।”
आरव अब फिर से वही मुस्कुराता हुआ लड़का था, लेकिन उसकी आँखों में अब एक इंतज़ार साफ़ झलकता था।
हर रोज़ वो सोचता—
“क्या आज वो कुछ कहेगी?”
और हर शाम सोचता—
“शायद कल…”
कभी-कभी दो लोग पास होकर भी बहुत दूर होते हैं।
और कभी दूर होकर भी एक-दूसरे के बहुत करीब।
सिया और आरव… अब दोनों को यह समझ आने लगा था—
प्यार सिर्फ इज़हार नहीं, इंतज़ार भी होता है।
और कभी-कभी… वो सबसे गहरी बात होती है जो दिल में कह दी जाती है, पर जुबां तक नहीं आती।
***
मार्च की नर्म धूप ने कैंपस को फिर से जगा दिया था। पेड़ों की पत्तियाँ लौट आई थीं, और फूलों में वसंत का रंग उतरने लगा था।
ऐसा लगता था जैसे मौसम सिर्फ पेड़-पौधों के लिए नहीं, दिलों के लिए भी बदल रहा हो।
आरव और सिया की दुनिया में भी धीरे-धीरे वसंत उतरने लगा था। अब वे फिर से साथ देखे जाने लगे थे—लाइब्रेरी में, कैंटीन की उस पुरानी कोने वाली टेबल पर, जहाँ एक वक्त हँसी गूंजा करती थी।
पर इस बार उनकी मुस्कुराहट में समझदारी थी—वक़्त ने दोनों को परखा था, और अब दोनों ने एक-दूसरे को थोड़ा और गहराई से जान लिया था।
एक दोपहर, कैंपस में ‘फोटो वॉक’ का आयोजन हुआ। कॉलेज के फ़ोटोग्राफ़ी क्लब ने छात्रों को खुले कैंपस में फोटोज़ खींचने का मौका दिया।
आरव ने भी कैमरा उठाया—सिर्फ इसलिए नहीं कि उसे फोटोग्राफी पसंद थी, बल्कि इस बहाने वो सिया के साथ कुछ वक्त बिता सकता था।
“तुम फोटोज़ लेते हो?” सिया ने हैरानी से पूछा।
“तुम पर नज़रें टिकी हों, तो कौन नहीं लेता,” आरव ने मुस्कराकर जवाब दिया।
सिया झेंप गई।
“सीरियसली!”
“हां। चलो, तुम्हारी एक तस्वीर लूँ—बिलकुल वैसे जैसे तुम हो, बिना पोज़ के।”
सिया ने पहले मना किया, लेकिन फिर मान गई।
वो एक पीपल के पेड़ के नीचे खड़ी थी, आँखें बंद, हल्की हवा उसके बालों से खेल रही थी।
आरव ने क्लिक किया।
“कैसी आई?” सिया ने उत्सुकता से पूछा।
आरव ने कैमरा दिखाया।
“ऐसी जैसे तुम हो—थोड़ी उलझी, थोड़ी शांत… और पूरी अपनी।”
अब उनके बीच बातचीत फिर से बहने लगी थी—सहज, स्थिर और सच्ची।
कभी सिया उसे अपने पापा के पुराने रेडियो की बातें सुनाती,
तो कभी आरव उसे अपने अधूरे गीतों की धुन सुनाता।
एक दिन कैंटीन में चाय पीते हुए सिया ने कहा,
“मुझे नहीं पता आगे क्या होगा… लेकिन तुम्हारे साथ बीता हर लम्हा मुझे बेहतर बनाता है।”
आरव ने उसकी ओर देखा।
“कभी-कभी जो रिश्ता शब्दों से शुरू नहीं होता, वो सबसे गहरा होता है।”
कॉलेज में Literature Fest की तैयारी चल रही थी। इस बार थीम थी—”Unspoken”
हर साल की तरह इस बार भी अंत में एक Stage Play रखा गया था, और डायरेक्टर चुनी गई थीं—सिया।
पर जब उसने स्क्रिप्ट लिखनी शुरू की, तो हर संवाद में अनजाने ही कोई एक नाम आ जाता—आरव।
प्लॉट था:
दो दोस्त—जो एक-दूसरे से प्यार करते हैं, लेकिन कभी कह नहीं पाते।
वक्त उन्हें दूर ले जाता है, फिर किसी मोड़ पर दोबारा मिलाता है।
और तब, एक चुप्पी सब कुछ कह जाती है।
आरव ने स्क्रिप्ट पढ़ी तो पूछा,
“ये हमारी कहानी है ना?”
सिया चुप रही।
“तो क्या इस बार मंच पर जो होगा, वो असल ज़िंदगी में भी होगा?”
सिया ने गहरी साँस ली।
“मुझे अब डर नहीं लगता, आरव।”
“किससे?”
“तुमसे… इस रिश्ते से… और उस सच्चाई से जो हमने दोनों ने जिया है।”
फेस्टिवल की शाम—स्टेज पर रोशनी, दर्शकों की भीड़, और पर्दे के पीछे धड़कते दिल।
नाटक खत्म हुआ—तालियों की गूंज के साथ।
लेकिन असली क्लाइमैक्स तब हुआ जब आरव मंच पर गया और माइक उठाया।
“यह कहानी जो आपने देखी, वो सिर्फ एक कहानी नहीं थी। ये मेरे लिए एक अहसास है… एक लड़की के लिए, जो मेरी ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत हिस्सा है।”
सिया दर्शकों के बीच खड़ी थी—आंखों में चमक, दिल में धड़कन और होंठों पर एक थरथराती मुस्कान।
“सिया, मैं तुम्हारे साथ फिर से वही दोस्ती चाहता हूँ… लेकिन इस बार, उसमें थोड़ा प्यार मिला कर।”
पूरा ऑडिटोरियम तालियों से गूंज उठा।
सिया मंच की ओर बढ़ी।
आरव ने पूछा,
“क्या अब डर नहीं लगता?”
सिया ने मुस्कराकर कहा,
“अब लगता है… कि अगर तू नहीं रहा तो क्या होगा।”
उस पल में, दोनों के बीच की सारी खामोशियाँ पिघल गईं।
दूरी खत्म हुई। दर्द पीछे छूट गया।
जो अधूरा था, अब पूरा हो चला था।
कभी-कभी ज़िंदगी कुछ ऐसे मोड़ लाती है जहाँ दिल की खामोशियाँ जुबां से ज़्यादा बोलने लगती हैं।
सिया और आरव अब उन खामोशियों को पढ़ना सीख चुके थे।
प्यार इज़हार से आगे बढ़ चुका था—अब वो दिनचर्या का हिस्सा बन चुका था।
न कोई दिखावा, न शर्तें।
बस दो लोग, जो एक-दूसरे के साथ बेहतर हो जाते थे।
कॉलेज का फाइनल ईयर चल रहा था।
प्लेसमेंट, इंटरनशिप, फ्यूचर प्लान्स—हर किसी की ज़िंदगी में अचानक गंभीरता आ गई थी।
आरव एक एडवरटाइजिंग फर्म में इंटर्नशिप कर रहा था। उसका ज्यादातर समय ऑफिस में और मीटिंग्स में बीतने लगा था।
सिया रिसर्च असिस्टेंटशिप के लिए तैयारी कर रही थी। उसकी फाइलों, किताबों और लैपटॉप के बीच आरव की जगह थोड़ी सिमट गई थी।
पर रिश्ते की खूबसूरती यही थी—दूरी थी, पर दरार नहीं।
कम बातचीत थी, पर भरोसा पूरा।
एक शाम, दोनों कॉलेज की पुरानी लाइब्रेरी में मिले।
एक ही मेज पर बैठे, दोनों अपनी-अपनी चीज़ों में उलझे हुए।
थोड़ी देर बाद, सिया ने किताब बंद की।
“आरव, हम बदल तो नहीं रहे?”
आरव ने उसकी तरफ देखा, हल्के से मुस्कुराया।
“बदल रहे हैं… लेकिन साथ में। शायद यही सही तरीका है बड़ा होने का।”
सिया ने उसकी बात पर सिर झुका दिया।
“डर लगता है कभी-कभी… कि कहीं ये प्यार भी बाकी चीज़ों की तरह खो न जाए।”
“अगर खो गया, तो शायद वो प्यार था ही नहीं।
पर अगर साथ रहकर भी आज़ादी महसूस हो रही है,
तो समझ लो, हम सही राह पर हैं।”
अगले हफ्ते कॉलेज में Farewell Function हुआ।
लड़कियाँ पारंपरिक साड़ियों में, लड़के कुर्ता-पजामा या सूट में।
हर तरफ तस्वीरें, हँसी, गले लगना और आँखों में छिपे आँसू थे।
सिया हल्के नीले रंग की सिल्क साड़ी में आई थी।
आरव उसे देखता रह गया—बिना कुछ कहे।
“क्या देख रहे हो?” सिया ने पूछा।
“जिससे प्यार किया, उसे उसकी सबसे खूबसूरत शक्ल में देख रहा हूँ,” आरव ने कहा।
सिया का चेहरा गुलाबी हो गया।
“अब तुम भी लाइन मारने लगे हो?”
“नहीं, बस अपने सच को दोहरा रहा हूँ,” उसने जवाब दिया।
फेयरवेल के आख़िरी हिस्से में, प्रोफेसर घोषाल ने एक बात कही—
“ज़िंदगी की दौड़ में रिश्ते पीछे न छूट जाएं।
करियर, डिग्री, सपने—सब ज़रूरी हैं।
पर किसी को पकड़ कर चलना सीखना भी उतना ही ज़रूरी है।”
सिया की नज़रें आरव से मिलीं।
आरव ने धीमे से उसका हाथ थामा—लोगों के बीच, खुलेआम।
ये इज़हार नहीं था।
ये एक वादा था।
अब दोनों के रास्ते तय हो रहे थे।
आरव को मुंबई में नौकरी मिल गई थी—एक बड़ी एजेंसी में।
सिया को दिल्ली में एक प्रतिष्ठित रिसर्च प्रोजेक्ट मिला था।
“तो अब हम दो शहरों में?” सिया ने एक शाम पूछा।
“हाँ… दो शहर, एक रिश्ता,” आरव ने कहा।
“सच कहूँ तो डर लग रहा है,” सिया ने धीरे से कहा।
“मुझे भी। लेकिन डर का मतलब ये नहीं कि हम रुक जाएं। इसका मतलब ये है कि कुछ सच में बहुत कीमती है, जिसे हम खोना नहीं चाहते।”
विदाई का दिन आ गया।
आरव की फ्लाइट अगली सुबह थी।
रात को दोनों कॉलेज के गेट के पास बैठे—जहाँ पहली बार उनकी ठीक से बात हुई थी, उस पुराने पीपल के पेड़ के नीचे।
“याद है जब तुमने कहा था—’तुम्हारी तस्वीर वैसे लूंगा जैसे तुम हो’?” सिया ने पूछा।
“हाँ।”
“अब भी वैसी ही लगती हूँ?”
“अब और भी ज्यादा अपनी लगती हो,” आरव ने कहा।
“कभी दूर जाओगे तो क्या करोगे?”
“तुम्हारा गाया हुआ हर गाना फोन में है, तुम्हारी भेजी तस्वीरें दीवार पर होंगी, और तुम्हारा नाम दिल में। तुम जाओ या रहो—तुम मेरी ज़िंदगी में रहोगी।”
सिया की आंखों में आँसू आ गए।
“अब कोई डर नहीं लगता, आरव। अब बस यकीन है।”
अगले दिन एयरपोर्ट पर, सिया ने उसे गले लगाया।
“जा रहे हो, पर साथ ले जा रहे हो मुझे।”
“और मैं रह गया हूँ, पर तुमसे बंधा हुआ,” आरव ने कहा।
वो चले गए—अपने-अपने शहरों, अपने-अपने सपनों की ओर।
पर रिश्ते वहीं रुके रहे—जहाँ दोनों ने साथ चलना सीखा था।
***
समय की रफ्तार तेज़ थी, पर रिश्तों की गहराई उससे कहीं ज़्यादा।
सिया दिल्ली में शोध कार्य में जुटी थी—नई किताबें, नए प्रोफेसर, और अनगिनत प्रेज़ेंटेशन्स।
आरव मुंबई में अपना करियर गढ़ रहा था—क्रिएटिव टीम, क्लाइंट्स और डेडलाइंस।
दिन गुजरते रहे… हफ्ते… फिर महीने।
पर हर शाम एक फोन कॉल, हर सुबह एक “गुड मॉर्निंग” मैसेज, और हर वीकेंड एक लंबा वीडियो कॉल—इन सबने दूरी को नज़दीकी में बदल दिया।
प्यार अब एक आदत बन चुका था।
साथ न होकर भी, दोनों हर चीज़ में एक-दूसरे को ढूंढ़ते थे।
एक दिन, बारिश की एक हल्की दोपहर में सिया ने अपनी डायरी खोली।
वो वही डायरी थी, जिसमें पहली बार उसने आरव को लेकर उलझनें लिखी थीं।
आज उसने उसमें लिखा—
> “आरव अब सिर्फ एक नाम नहीं रहा,
वो मेरी सोच, मेरी ख़ामोशियाँ, और मेरी मुस्कान का हिस्सा बन चुका है।
हम भले ही दो शहरों में हैं,
लेकिन जब भी कुछ अच्छा होता है… मैं उसी को बताना चाहती हूँ।
जब कुछ बुरा होता है… मैं उसी के कंधे की तलाश करती हूँ।
शायद यही तो प्यार है—उसका होना, हर चीज़ में।”
मुंबई में, एक दिन आरव ने सिया को एक नोटबुक भेजी—उसमें उसकी लिखी गईं सभी कविताएँ थीं, जो उसने कभी सिया के लिए लिखी थीं, पर कभी सुनाई नहीं थीं।
आखिरी पन्ने पर सिर्फ एक पंक्ति थी—
“तू कहती है, तेरा नाम कुछ ख़ास नहीं।
पर मेरी हर नज़्म में तेरा नाम सा कुछ होता है।”
सिया देर तक वो पंक्तियाँ पढ़ती रही।
वो मुस्कुरा रही थी… आँसू बहा रही थी… और कुछ तय कर रही थी।
कुछ हफ्तों बाद, एक शनिवार की सुबह, आरव अपने घर के दरवाज़े पर पहुंचा, थका-हारा ऑफिस से लौटा था।
दरवाज़ा खोलते ही सामने सिया को देखकर उसकी आँखें हैरानी से भर गईं।
“तू… यहाँ?”
“हाँ,” सिया ने मुस्कराते हुए कहा।
“बिना बताए आना था। एक जरूरी बात कहनी थी।”
“क्या?”
“चलो, बैठते हैं।”
कॉफ़ी मग हाथ में लेकर, दोनों बालकनी में बैठे।
“मैं थक गई हूँ, आरव,” सिया ने कहा।
“हर वीकेंड गिनते हुए, हर कॉल पर रुकते हुए, हर बार तुम्हें मिस करते हुए।”
आरव शांत था।
उसके मन में सैकड़ों विचार चल रहे थे।
“मैं अब हर सुबह तुम्हारे पास उठना चाहती हूँ।
हर शाम तुम्हारी थकान सुनकर ही सोना चाहती हूँ।
क्या हम… एक शहर, एक छत, एक ज़िंदगी बाँट सकते हैं?”
आरव ने कुछ पल उसे देखा… फिर धीरे से उसका हाथ थाम लिया।
“मैं हर दिन ये सोचता था कि तुम कब कहोगी ये बात… और आज तुमने कह दिया।”
कुछ महीनों बाद, दिल्ली में एक छोटी-सी शादी हुई—बिना ज़्यादा शोरगुल, सिर्फ कुछ खास लोगों के बीच।
सिया गुलाबी बनारसी साड़ी में थी।
आरव ने हल्के क्रीम रंग का कुर्ता पहना था।
मंडप के नीचे, जब दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में देखा, तो सिर्फ एक बात समझ आई—
इसी को कहते हैं घर।
अब वे एक ही अपार्टमेंट में रहते हैं—छोटी-सी बालकनी में दो कुर्सियाँ, बीच में एक टेबल, और उस पर रखी चाय की प्यालियाँ।
सिया अब एक कॉलेज में लैक्चरर है, और आरव एक क्रिएटिव डायरेक्टर।
काम बहुत है, लेकिन शिकायत नहीं।
थकान होती है, पर तकरार नहीं।
ज़िंदगी भाग रही है, पर साथ थमा हुआ है।
कभी-कभी आरव अब भी कहता है—
“तू अब भी वैसी ही लगती है—थोड़ी उलझी, थोड़ी शांत, और पूरी मेरी।”
सिया हँसती है, और कहती है—
“और तू अब भी मेरी कविताओं का पहला अक्षर है।
कहानी अब खत्म नहीं होती,
बल्कि अब हर दिन एक नई कहानी बनती है।
कभी हँसी की, कभी बहस की,
कभी चुप्पियों की…
और हर बार—
तुम्हारे नाम सा कुछ… उसमें ज़रूर होता है।