Bangla - ভূতের গল্প

मसान घाट की परछाईं

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अरुणा सहाय


अमावस्या की रात के आने से पहले ही गाँव का वातावरण बदलने लगता था। दिन में साधारण दिखने वाला यह गाँव जैसे ही अंधेरे में डूबने लगता, वैसे ही हर कोने में एक अनजाना डर उतर आता। बच्चे जब खेलते-खेलते नदी की ओर भागते तो बुज़ुर्ग अपनी डाँट और चेतावनी से उन्हें रोकते—“आज घर जल्दी लौट आओ, अमावस्या की रात है, मसान घाट से दूर रहना।” उनके स्वर में सिर्फ सख्ती नहीं होती, बल्कि एक गहरी चिंता और डर झलकता था, मानो वे खुद भी उन छायाओं से डरे हों जो रात ढलते ही गाँव के किनारे बसे उस श्मशान घाट पर उतरती थीं। यह चेतावनी कोई आज की नहीं थी, बल्कि पीढ़ियों से चली आ रही थी। बच्चे अक्सर सोचते कि आखिर मसान घाट पर ऐसा क्या होता है? लेकिन जब भी कोई बुज़ुर्ग उनके सवालों का जवाब देने की कोशिश करता, उसकी आवाज़ काँप जाती और वह कहता—“कुछ बातें जानकर भी न जानो, वही भला।” यही रहस्य बच्चों के मन में और गहरी जिज्ञासा भर देता था।

उस रात आसमान पर बादल घिरे थे और हवा में एक अजीब-सी ठंडक थी। चाँद की अनुपस्थिति ने अंधेरे को और गाढ़ा कर दिया था। गाँव की पगडंडियों पर झींगुरों की आवाज़ें भी धीमी पड़ गईं, मानो प्रकृति खुद किसी अनहोनी की आहट को महसूस कर रही हो। दूर नदी किनारे बसे मसान घाट की ओर देखने पर बस धुंध और अंधेरा नज़र आता, लेकिन कहते हैं कि जिसने भी साहस कर वहाँ झाँका, उसने एक औरत की परछाईं देखी—सफ़ेद साड़ी में लिपटी, अस्त-व्यस्त बालों वाली, जिसकी चाल धुएँ की तरह बहती हुई-सी लगती थी। कुछ कहते, वह चुपचाप बैठी रहती और दूर बहते पानी को निहारती; कुछ कहते, वह हर आने-जाने वाले पर ऐसी नज़र डालती कि शरीर का खून जम जाए। लेकिन उस रात, जब गाँव के कुछ जिज्ञासु लड़के डरते-डरते छिपकर घाट की ओर बढ़े, तब पहली बार पाठकों को उसकी धुंधली झलक दिखती है। वे पेड़ों की ओट से देखते हैं—एक औरत की आकृति, जो मानो आधी ज़मीन पर और आधी धुंध में तैर रही हो। उसके चेहरे का कोई आकार स्पष्ट नहीं, बस एक धुंधली छवि, लेकिन उसकी आँखें—वे दो जलते अंगारों जैसी चमकती प्रतीत होतीं, जैसे अंधेरे को भेदकर सीधे आत्मा तक पहुँच जाएँ।

लड़कों के दिल की धड़कन इतनी तेज़ हो गई कि उन्हें लगा पूरा जंगल सुन रहा है। किसी ने फुसफुसाकर कहा, “चलो, वापस चलते हैं,” लेकिन उनके कदम ज़मीन से जैसे चिपक गए। तभी अचानक हवा का एक तेज़ झोंका आया, और धुंध हिलने लगी। उस औरत की आकृति भी धीरे-धीरे फीकी पड़ने लगी, मानो धुआँ आसमान में विलीन हो रहा हो। लेकिन विलीन होने से पहले उसने सिर घुमाकर सीधे उनकी ओर देखा—या शायद उनका भ्रम था, पर उस नज़र में ऐसा कुछ था जिसने बच्चों की आत्मा को हिला दिया। वे चीखते हुए गाँव की ओर भागे और पीछे मुड़कर देखने की हिम्मत किसी ने नहीं की। रात भर गाँव में फुसफुसाहट होती रही—किसने क्या देखा, औरत कौन थी, क्या वह सचमुच आत्मा थी या बस धुंध का खेल? लेकिन बुज़ुर्गों की आँखों में वह डर अब और गहरा हो गया था। उन्होंने बस इतना कहा—“जिसका दाह-संस्कार अधूरा रह गया हो, वह चैन से नहीं सोता। अमावस्या की रातें उसकी होती हैं।” और पाठक समझ जाते हैं, यह बस शुरुआत है—अमावस्या की आहट, जो आगे चलकर पूरे गाँव के लिए भय और रहस्य का स्रोत बनने वाली है।

गाँव की पुरानी चौपाल में, जहाँ पीढ़ियों से लोग एकत्र होकर बातें करते आए थे, उसी जगह अमावस्या की रात के अगले दिन गाँव के लोग जमा हुए। बच्चों की घबराई बातें अब सबके कानों तक पहुँच चुकी थीं, और लोग जानना चाहते थे कि सच क्या है। वहाँ गाँव का बूढ़ा पंडित भी बैठा था—सफ़ेद धोती-कुर्ता, झुर्रियों से भरा चेहरा, आँखों में अजीब-सा बोझ। जब उससे पूछा गया कि आखिर हर अमावस्या की रात मसान घाट पर औरत की छाया क्यों दिखती है, तो उसने एक गहरी साँस ली और धीमी आवाज़ में कहना शुरू किया। उसकी आवाज़ में कंपन था, मानो वह किसी पुरानी याद को कुरेद रहा हो। उसने कहा—“यह सब कोई झूठी बातें नहीं हैं, बेटा। कई साल पहले, जब तुम में से बहुत से लोग पैदा भी नहीं हुए थे, इसी घाट पर एक अजीब घटना घटी थी। एक औरत की चिता अधूरी रह गई थी… और तभी से वह आत्मा बेचैन है।” चौपाल पर सन्नाटा छा गया। बच्चे भी खेलना भूलकर ध्यान से सुनने लगे, और बड़े-बूढ़ों के चेहरे पर एक भय की छाया फैल गई।

पंडित जी ने आगे बताया कि वह औरत गाँव की ही थी, लेकिन उसका जीवन कष्टों से भरा था। उसका पति परदेश चला गया था और लौटकर कभी नहीं आया। लोग कहते हैं, वह अकेली औरत गाँव में कई सालों तक अपमान और तानों का बोझ झेलती रही। कुछ उसे अशुभ मानते, कुछ उस पर टोने-टोटके का इल्ज़ाम लगाते। अंततः एक दिन उसकी मृत्यु हो गई, और उसके अंतिम संस्कार की ज़िम्मेदारी गाँव के लोगों पर आ पड़ी। उसी रात अमावस्या थी, और चिता तैयार की गई थी मसान घाट पर। लोग मंत्रोच्चार करने लगे, लकड़ियों को आग लगाई गई, धुएँ की लपटें उठीं और सबको लगा कि कर्मकांड पूरा हो जाएगा। लेकिन तभी, जैसे प्रकृति खुद उसके विरुद्ध खड़ी हो गई हो, तेज़ आँधी चलने लगी। आसमान पर काले बादल छा गए, और देखते ही देखते चिता की लपटें बुझ गईं। लोग डर के मारे एक-दूसरे को ताकते रह गए। कुछ ने कहा कि फिर से आग लगाओ, लेकिन जैसे ही किसी ने कोशिश की, लकड़ियाँ गीली हो चुकी थीं, और आग पकड़ने से इनकार कर रही थीं। तभी किसी ने चिल्लाकर कहा—“शव कहाँ है?” सबने नज़रें दौड़ाईं, और देखा कि चिता पर कोई शव पड़ा ही नहीं था। वह औरत का शरीर, जो अभी कुछ क्षण पहले तक सभी की आँखों के सामने था, अचानक हवा में गायब हो गया।

उस घटना ने पूरे गाँव को हिला दिया। लोग रातों-रात घाट छोड़कर भाग आए और सुबह तक कोई वहाँ लौटने की हिम्मत न कर सका। जब सूरज निकला और साहसी लोगों का एक दल दोबारा घाट पर पहुँचा, तो वहाँ केवल आधी जली लकड़ियाँ और राख थी, लेकिन शव का कोई निशान नहीं। किसी ने कहा कि शायद जानवर ले गए होंगे, पर ऐसा कैसे संभव था जब चारों ओर इतनी भीड़ थी? किसी ने कहा कि वह औरत मरकर भी जी उठी होगी और चली गई। पंडित जी ने अपनी काँपती आवाज़ में कहा—“शव का गायब होना ही उसकी आत्मा की बेचैनी का कारण बना। अधूरी चिता, अधूरा संस्कार… और अमावस्या की रात, जब आत्माएँ सबसे शक्तिशाली होती हैं। तभी से हर अमावस्या को उसकी परछाईं वहाँ दिखाई देती है। वह अपने अपूर्ण संस्कार की तलाश में है। उसका शरीर तो मिट्टी को नहीं मिला, और आत्मा को अग्नि का शुद्धिकरण नहीं। सोचो, कैसी वेदना होगी उस आत्मा की।” पंडित की बातों ने चौपाल पर बैठे हर व्यक्ति को सन्न कर दिया। बच्चों की आँखों में डर उतर आया, और बड़ों के दिल में एक पुराना भय फिर से जाग उठा। और इसी के साथ पाठक समझते हैं कि यह रहस्य साधारण नहीं—यह एक ऐसी आत्मा की कथा है, जो अपूर्ण चिता और गायब होते शव के कारण आज तक मुक्त नहीं हो सकी।

रामू और मोहन के अनुभव ने पूरे गाँव को हिला दिया। उन्होंने जो देखा था, उसे सुनकर लोगों की रीढ़ में सिहरन दौड़ गई। कोई कहता, “यह लड़कों की कल्पना है,” तो कोई मानता कि वे सचमुच उस आत्मा के सामने जा पहुँचे थे। लेकिन ठीक उसी रात के बाद गाँव में अजीब घटनाएँ शुरू होने लगीं। सबसे पहले गाँव के मवेशी बीमार पड़ गए। जो गायें और बकरियाँ रोज़ चरागाह में खुशी-खुशी दौड़तीं, वे अचानक सुस्त पड़ गईं, खाने से मुँह मोड़ने लगीं। सुबह खेतों से लौटने वाले किसान देखते कि जिन पशुओं को वे स्वस्थ छोड़ गए थे, वे अब ज़मीन पर पड़ी कराह रहे हैं। कई दिनों में दूध सूख गया और मवेशियों की आँखों में एक अजीब-सी पीड़ा उतर आई। गाँव के वैद्य ने तरह-तरह की जड़ी-बूटियों का प्रयोग किया, लेकिन कोई असर नहीं हुआ। तभी किसी ने धीमे स्वर में कहा—“यह सब उस औरत की आत्मा का असर है। अधूरे संस्कार का गुस्सा अब पूरे गाँव पर उतर रहा है।” यह बात सुनकर लोग और भयभीत हो उठे।

लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई। धीरे-धीरे घरों में भी विचित्र घटनाएँ होने लगीं। लोग सुबह उठते तो देखते कि उनके आँगन, चौखट और कभी-कभी बिस्तर पर भी राख की पतली परत जमी है। किसी ने सोचा कि शायद धूल होगी, लेकिन राख की गंध अलग थी—जली हुई लकड़ियों और गीले धुएँ जैसी। और यह राख केवल उन्हीं घरों में मिलती, जिनके लोग कभी मसान घाट की ओर गए हों या जिनके पूर्वज उस अधूरे दाह-संस्कार में शामिल रहे हों। औरतें डर के मारे बच्चों को घर से बाहर निकलने नहीं देतीं। रात में कई लोगों ने अपने सपनों में वही सफेद साड़ी वाली औरत देखी—कभी वह राख में लिपटी चिता के पास खड़ी होती, कभी अधूरे मंत्रों को दोहराती। गाँव की बूढ़ी औरतें कहने लगीं कि पंडित के बताए अनुसार मंत्रोच्चार भी अधूरे रह गए थे उस दिन, और शायद इसी कारण आत्मा का क्रोध अब गाँव पर मंडरा रहा है।

गाँव का माहौल बदल गया। हर ओर एक अनजाना डर और बेचैनी फैल गई। लोग अपने दरवाज़े समय से पहले बंद कर लेते, बच्चे बाहर खेलना भूल गए। खेतों में काम करने का उत्साह मर गया क्योंकि हर ओर मौत और बीमारी का साया दिखने लगा। गाँव के पुजारी ने पंचायत में कहा—“जब तक आत्मा को शांति नहीं मिलेगी, ये घटनाएँ रुकेंगी नहीं। अधूरे मंत्र पूरे किए बिना उसका क्रोध शांत नहीं होगा।” लेकिन सवाल यह था कि अधूरे संस्कार पूरे कैसे किए जाएँ, जब शव ही लापता है? इस सवाल ने सबको गहरे संकट में डाल दिया। लोग एक-दूसरे से फुसफुसाने लगे कि शायद आत्मा खुद आकर अपने संस्कार पूरे करवाना चाहती है। रामू और मोहन, जिन्होंने उसे देखा था, अब गाँववालों की नज़रों में गवाह बन चुके थे। उनकी आँखों में अब भी उस रात की भयावह झलक बसी हुई थी। और सब समझने लगे थे कि यह कोई साधारण आत्मा नहीं—यह एक अधूरी चिता और अधूरे मंत्रों से बँधी हुई छाया है, जो अब हर रात अपने गुस्से से पूरे गाँव को जला रही है।

गाँव का डर अब केवल बीमार पशुओं और घरों में गिरती राख तक सीमित नहीं रहा था। एक शाम, जब सूरज ढल चुका था और खेतों से लौटने की आहट धीरे-धीरे कम हो रही थी, तभी खबर फैली कि चौधरी की बेटी सुहानी गायब हो गई है। सुहानी चंचल और जिद्दी किशोरी थी, जिसे गाँव की पगडंडियों पर घूमना, नदी किनारे खेलना बहुत भाता था। लेकिन उस दिन वह देर शाम तक वापस नहीं लौटी। उसकी माँ पहले तो समझी कि वह सहेलियों के घर होगी, लेकिन जब रात गहराने लगी और कहीं से कोई पता नहीं चला, तो परिवार बेचैन हो उठा। गाँव के कुछ लड़के बताने लगे कि उन्होंने उसे आखिरी बार घाट की ओर जाते देखा था, मानो वह किसी को ढूँढने या कुछ देखने गई हो। यह सुनते ही पूरे गाँव में खलबली मच गई, क्योंकि घाट का नाम लेते ही लोगों के मन में वही औरत की परछाईं और अधूरी चिता की दहशत उभर आती थी। रातों-रात लोग टिमटिमाती मशालें लेकर खोज में निकले, लेकिन धुंध से ढका घाट और भी डरावना लग रहा था। वहाँ किसी इंसानी उपस्थिति का कोई निशान न था—बस गीली राख और कुछ अजीब-सी गंध, जैसे जली हुई लकड़ी और सड़े फूलों की मिली-जुली बदबू।

सुहानी की गुमशुदगी ने गाँव की हवा को और भी भारी कर दिया। उसकी माँ बार-बार रोती और चिल्लाती, “मेरी बेटी को वह चुड़ैल खा गई!” जबकि उसके पिता गुस्से और डर से काँपते हुए पंचायत में बोले—“अब और चुप बैठने का वक्त नहीं है। पहले जानवर, फिर राख, और अब हमारी बेटियाँ तक सुरक्षित नहीं रहीं।” चौपाल में बैठे लोग एक-दूसरे का चेहरा देखते रह गए। किसी की हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि खुले शब्दों में उस औरत की आत्मा का ज़िक्र करे, लेकिन सबके मन में एक ही नाम घूम रहा था—वही मसान घाट की परछाईं। कुछ औरतें कहने लगीं कि पिछले दो-तीन दिनों से उन्होंने रात को घाट की ओर से किसी लड़की की चीख जैसी आवाज़ सुनी है। एक बुज़ुर्ग ने बताया कि उसने धुंध में एक साया देखा था, जो पहले तो किसी किशोरी जैसा लगा, लेकिन कुछ ही पलों में वह साया सफेद साड़ी वाली औरत में बदल गया। यह सुनकर लोगों के रोंगटे खड़े हो गए। किसी ने यह भी फुसफुसाया कि शायद आत्मा को अधूरी चिता की जगह कोई नया शरीर चाहिए, और वह अपने साथ सुहानी को खींच ले गई।

गाँव अब पूरी तरह भय के शिकंजे में था। रात होते ही हर घर में लोग दरवाज़े और खिड़कियाँ कसकर बंद कर लेते, दीपक बुझाकर बच्चों को अपने पास सुलाते। कोई अकेले बाहर निकलने की हिम्मत नहीं करता। लेकिन जितना डर बढ़ता, उतनी ही बेचैनी भी फैलती कि आखिर सुहानी का क्या हुआ। उसके माता-पिता हर सुबह उम्मीद से उठते कि शायद वह लौट आएगी, लेकिन हर शाम उनकी आँखों से आँसू बहते रहते। गाँववालों ने मिलकर तय किया कि इस बार वे पुजारी और तांत्रिकों की मदद लाएँगे, क्योंकि अब मामला इंसानी समझ से बाहर जा चुका है। सबको लगने लगा कि मसान घाट की वह आत्मा अब सिर्फ अधूरे संस्कार के कारण भटकती नहीं—बल्कि वह जीवितों को भी अपने अधूरे संसार में खींचने लगी है। और इस तरह, सुहानी की रहस्यमय गुमशुदगी ने पूरे गाँव को उस भयानक सच्चाई के और भी करीब पहुँचा दिया, जिसका सामना अब टाला नहीं जा सकता था।

सुहानी की गुमशुदगी के बाद गाँव की खामोशी और भी गहरी हो गई थी। हर कोई भयभीत था, लेकिन उसी बीच एक युवा नायक—आरव (या नायिका—आप चाहे तो कल्पना करें) ने ठान लिया कि अब इस रहस्य का सामना करना ही होगा। आरव बचपन से ही सवाल पूछने वाला, निर्भीक स्वभाव का था। दूसरों की तरह अंधविश्वास से डरकर भागना उसके स्वभाव में नहीं था। उसने तय किया कि वह सीधे उस परछाईं से संवाद करेगा, ताकि पता चल सके कि आखिर उसका उद्देश्य क्या है। अमावस्या न होते हुए भी एक रात वह अकेले मशाल लेकर मसान घाट की ओर निकल पड़ा। धुंध घनी थी, लेकिन उसके भीतर का डर धीरे-धीरे साहस में बदलता जा रहा था। जैसे ही वह घाट के करीब पहुँचा, हवा का तापमान अचानक गिर गया और आसपास का माहौल इतना सन्नाटा ओढ़ चुका था कि अपने दिल की धड़कन भी कानों में गूंजने लगी। तभी उसने देखा—धुंध के बीच वही परछाईं उभर रही है, सफेद साड़ी में, आधी चिता के पास बैठी हुई। उसकी आँखें अंगारों-सी चमक रही थीं, लेकिन इस बार उनमें सिर्फ गुस्सा नहीं, बल्कि एक दर्द की झलक भी थी।

आरव ने काँपती आवाज़ में कहा, “तुम कौन हो? गाँववालों को क्यों सताती हो? सुहानी कहाँ है?” उसका स्वर धुंध में खोता-सा गया, लेकिन परछाईं ने धीरे-धीरे सिर उठाया। हवा एकदम ठहर गई, मानो पूरा वातावरण उस संवाद को सुनने के लिए तैयार हो गया हो। औरत की आवाज़ आई—न धीमी, न तेज़, बल्कि ऐसी गूँज जैसी जो सीधे आत्मा में उतर जाए। उसने कहा, “मैं इस गाँव की ही थी… मेरा जीवन तानों और अकेलेपन में गुज़रा। मृत्यु आई तो लगा अब शांति मिलेगी, लेकिन वह भी पूरी न हो सकी। मेरी चिता बुझ गई, और मेरा शरीर लापता हो गया। अधूरे संस्कारों ने मेरी आत्मा को बंधन में बाँध दिया। मैं मुक्त नहीं हो सकी।” उसकी आँखों से जैसे राख टपक रही थी। आरव ने हिम्मत कर दोबारा पूछा, “लेकिन तुम लोगों को क्यों डराती हो? गाँव में बीमारियाँ क्यों फैलीं?” उस परछाईं ने गहरी साँस ली और बोली, “मैं डराना नहीं चाहती थी। लेकिन मेरा दर्द, मेरा अधूरा कर्म—वह राख बनकर हर घर में गिरने लगा। मेरा गुस्सा और दुख ही इस भय का कारण है। मैं किसी को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहती, पर मेरी आत्मा का बोझ पूरे गाँव पर उतर रहा है।”

यह सुनकर आरव के भीतर सहानुभूति उमड़ी। उसे एहसास हुआ कि यह औरत कोई दानवी आत्मा नहीं, बल्कि एक बेबस आत्मा है, जो अधूरे संस्कारों के कारण कैद हो गई है। उसने धीरे से कहा, “अगर तुम्हारी मुक्ति का रास्ता अधूरा दाह-संस्कार है, तो हम उसे पूरा करेंगे। हमें बताओ, हम क्या करें?” औरत की परछाईं ने उसकी ओर देखा, उसकी आँखों की अग्नि अब कुछ शांत हो चुकी थी। उसने कहा, “मेरी चिता की राख अब भी इस घाट पर बिखरी है। मेरे लिए फिर से मंत्रोच्चार करो, अग्नि दो, और प्रार्थना करो कि मेरी आत्मा को शांति मिले। जब तक यह अधूरा संस्कार पूरा नहीं होगा, मैं अमावस्या की हर रात भटकती रहूँगी और गाँववालों को सताती रहूँगी।” इतना कहकर उसकी छवि धीरे-धीरे धुंध में विलीन होने लगी। आरव वहीं खड़ा रहा, उसके भीतर डर और करुणा का अजीब मिश्रण उमड़ रहा था। अब उसे पता था कि गाँव के संकट का हल अंधविश्वास या भागने में नहीं, बल्कि उस अधूरी आत्मा को उसका हक दिलाने में है। यह संवाद उसके जीवन का सबसे बड़ा मोड़ था, और अब वह जान चुका था कि असली युद्ध डर से नहीं, बल्कि उस आत्मा की मुक्ति के लिए लड़ना होगा।

आरव और गाँववालों ने उस परछाईं से संवाद कर सत्य जानने की ठानी थी, और इसके बाद धीरे-धीरे पुराने दस्तावेज़ और बुज़ुर्गों की यादें उजागर होने लगीं। गाँव के सबसे पुराने रिकॉर्ड में एक कहानी दर्ज थी, जिसे समय के साथ भूलाया जा चुका था। पता चला कि वह औरत वास्तव में गाँव के ही एक बड़े ज़मींदार की विधवा थी। कई साल पहले उसकी शादी हुई थी, लेकिन उसका पति समय से पहले मृत्यु को प्राप्त हो गया। गाँव की परंपरा और कुछ ज़मींदारी के नियमों के चलते उसे सती होने के लिए दबाव डाला गया। उसने शुरू में विरोध किया, लेकिन दबाव इतना था कि उसके आसपास के लोग और समाज भी उसके खिलाफ हो गए। अंततः उस रात उसकी चिता घाट पर तैयार की गई, और लोगों ने सोचा कि इसे जला कर परंपरा पूरी कर दी जाएगी। लेकिन जैसे ही आग लगा, अचानक हवा ने तेज़ रुख बदला और चिता की लपटें बुझ गईं। इस घटना के बाद न तो शव मिला, न ही आग पूरी तरह जली। यही कारण था कि उसकी आत्मा अधूरी परंपरा और अधूरी चिता के बोझ के साथ भटकती रही।

जैसे ही यह सत्य गाँववालों के सामने आया, लोगों में एक अजीब-सी घबराहट और शर्म की भावनाएँ जाग उठीं। अब केवल भय नहीं, बल्कि पछतावा भी उनके दिल में उतर आया। जो लोग उस समय वहाँ मौजूद थे या जिन्होंने घटना की कहानियाँ सुनाई थीं, वे अब समझ गए कि उनके समाज ने उस औरत के जीवन और मृत्यु के अधिकार को छीना। रामू और मोहन, जिन्होंने पहले केवल डर और जिज्ञासा के कारण घाट पर गए थे, अब इस सच्चाई को सुनकर स्तब्ध रह गए। वे सोचने लगे कि कितनी निर्दयता से मानवीय संवेदनाओं को दरकिनार किया गया और कैसे इस अधूरी चिता ने वर्षों तक गाँव को भय में रखा। बुज़ुर्ग पंडित ने भी कहा, “जब सत्य सामने आता है, तो भय अपने आप खत्म नहीं होता, लेकिन समझ आता है कि क्यों आत्मा भटकती रही। यह अधूरा कर्म ही उसकी पीड़ा और हमारी भयभीत रातों का कारण है।”

इस खुलासे ने गाँव के लोगों को एक नया दृष्टिकोण दिया। अब वे जानते थे कि भय और रहस्य केवल अंधविश्वास नहीं, बल्कि अतीत की अन्यायपूर्ण घटनाओं की प्रतिध्वनि थी। युवाओं में, विशेषकर आरव में, यह जागृति हुई कि अब केवल आत्मा से संवाद करना ही पर्याप्त नहीं है; इसे शांति देने के लिए वास्तविक समाधान की आवश्यकता है। अधूरी चिता को पूरा करना, उचित मंत्रोच्चार करना, और उसकी स्मृति को सम्मान देना अब जरूरी हो गया था। गाँव के लोग एकजुट हुए, पुराने नियमों और कड़वाहट से ऊपर उठकर उन्होंने तय किया कि अब वे उसे न्याय देंगे। इस सत्य के उजागर होने के साथ ही गाँव में भय और रहस्य का स्वरूप बदल गया—यह अब सिर्फ डर नहीं, बल्कि एक अधूरी कहानी की सच्चाई थी, जिसे समाप्त करना सभी की जिम्मेदारी बन गई। इस क्षण ने पाठक को भी यह एहसास दिलाया कि कभी-कभी भूत-प्रेत के रहस्य भी मानवीय अन्याय और अधूरे कर्मों का परिणाम होते हैं, और समाधान सिर्फ भय के सामने झुकने में नहीं, बल्कि सत्य और न्याय की राह अपनाने में है।

सत्य के उजागर होने के बाद भी गाँव के लोगों का भय कम नहीं हुआ था। कुछ बुज़ुर्ग और धनाढ्य परिवारों के लोग मानते थे कि इस आत्मा का प्रकोप उनके लिए अभिशाप बन चुका है और इसे किसी भी कीमत पर भगाना ही बेहतर होगा। वे सोचने लगे कि अगर तांत्रिक बुला लिया जाए और उस आत्मा को भगाने के लिए किसी तरह के जादू-टोना किया जाए, तो उनकी रातें सुरक्षित हो सकती हैं। गाँव की पंचायत में कुछ लोग विरोध करने लगे, लेकिन डर और गुस्से की वजह से उनकी आवाज़ दब गई। अंततः एक प्रसिद्ध तांत्रिक को बुलाया गया, जिसे लोग अतीत में कई आत्माओं को शांत करने में सफल मानते थे। यह तांत्रिक, जिसकी उम्र अधिक थी और अनुभव बड़ी संख्या में आत्माओं के साथ था, पूरे अनुष्ठान की तैयारी करने लगा। उसने मंदिर से मंत्र और जड़ी-बूटियों के मिश्रण के साथ पूरे घाट को घेरे में ले लिया। गाँववालों में उत्सुकता और डर दोनों की मिली-जुली भावनाएँ थी—कोई उम्मीद कर रहा था कि यह समाधान लाएगा, तो कोई डर रहा था कि अगर असफल रहा तो परिणाम और भी भयावह हो सकते हैं।

जैसे ही तांत्रिक ने अनुष्ठान आरंभ किया, हवा अचानक और ठंडी हो गई। धुंध घनी हो गई और घाट के चारों ओर अजीब-सी हलचल शुरू हो गई। तांत्रिक ने मंत्रों का उच्चारण तेज़ कर दिया, लकड़ियाँ और पत्तियाँ जलाईं, और कई प्रकार के धार्मिक प्रतीक बनाए, लेकिन औरत की परछाईं इस बार केवल दिखाई नहीं दी, बल्कि उसकी उपस्थिति महसूस की जा रही थी। उसकी आँखों की अंगार जैसी चमक तांत्रिक की आँखों में सीधे उतर रही थी। कुछ क्षणों के बाद तांत्रिक ने महसूस किया कि उसके सभी प्रयास बेकार हैं। जितना अधिक वह शक्ति लगाता, उतनी ही आत्मा और अधिक क्रोधित होती जा रही थी। उसकी आवाज़ें अब केवल शांत नहीं थीं, बल्कि धुंध और हवा के साथ गूंजने लगीं, जैसे समूचे वातावरण को हिला रही हों। गाँव के लोग अपने स्थानों पर काँप रहे थे, किसी के होंठ हिल नहीं रहे थे, लेकिन मन में डर इतना बढ़ गया था कि कोई भी आगे बढ़कर मदद करने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था।

तांत्रिक की असफलता ने गाँव के विश्वास को झकझोर कर रख दिया। लोग समझ गए कि यह कोई साधारण आत्मा नहीं है, जिसे जादू-टोने से नियंत्रित किया जा सके। उसकी क्रोधपूर्ण ऊर्जा अब केवल अधूरी चिता और अधूरे संस्कार से उत्पन्न नहीं, बल्कि उसके पीड़ित जीवन की यादों और अन्याय से भी पोषित हो चुकी थी। औरत की परछाईं धीरे-धीरे पूरे घाट में फैल गई, उसकी उपस्थिति इतनी शक्तिशाली और गहरी थी कि आसपास की हवा में भी ठंडक और भय घुल गया। तांत्रिक खुद काँप रहा था, और उसने हार मानकर गाँववालों से कहा कि यह केवल भौतिक उपायों से नहीं शांति पा सकती। गाँववालों ने महसूस किया कि अब केवल भगाने की कोशिश करना मूर्खता होगी; जो कुछ भी करना है, उसे समझदारी, संवेदना और उचित संस्कार के माध्यम से करना होगा। यह घटना गाँव के लोगों के मन में यह सिखा गई कि डर और क्रोध से भरी शक्ति केवल और अधिक भय और विनाश ही लाती है, और अगर असली समाधान चाहिए तो उसे समझ, सम्मान और न्याय के मार्ग से ही ढूँढा जा सकता है।

गाँव में तांत्रिक की असफलता और औरत की क्रोधपूर्ण उपस्थिति ने हर किसी के मन में डर और बेचैनी पैदा कर दी थी, लेकिन आरव ने अब भीतर से ठान लिया कि भय और पागलपन के बजाय समझ और साहस ही समाधान है। उसने गाँववालों के सामने कहा कि अब हमें केवल आत्मा को भगाने या डर के सामने झुकने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, बल्कि उसे उसका हक दिलाना होगा। आरव ने सबको समझाया कि अधूरा संस्कार ही उसकी पीड़ा का कारण है, और जब तक उसे अंतिम सम्मान नहीं मिलेगा, न तो आत्मा शांति पाएगी और न ही गाँव। इस बार आरव अकेला नहीं, बल्कि कुछ भरोसेमंद गाँववालों के साथ तैयारी में जुटा। उन्होंने घाट पर पुराने दस्तावेजों और पंडित जी से प्राप्त मंत्रों का अध्ययन किया, लकड़ियाँ इकट्ठा कीं और विधि के अनुसार आवश्यक सामग्री तैयार की। अमावस्या की रात पास आई, और धुंध फिर घनी हो गई, लेकिन इस बार आरव के भीतर भय नहीं, बल्कि साहस और संवेदना की लपटें जल रही थीं।

रात का समय आते ही आरव और साथियों ने घाट की ओर बढ़ना शुरू किया। हर कदम पर धुंध ने उनके चारों ओर की दुनिया को छुपा दिया था, लेकिन उनका मन दृढ़ था। जब वे घाट पहुँचे, तो वही सफेद साड़ी वाली परछाईं लकड़ियों के ढेर के पास बैठी थी, उसकी आँखों में अब भी आग की चमक थी, लेकिन वह अब गुस्से के बजाय प्रतीक्षा में लग रही थी। आरव ने धीरे-धीरे लकड़ियों पर अग्नि प्रज्वलित की और मंत्रों का उच्चारण शुरू किया। धुंध में लपटें उठीं, और आग की रोशनी में परछाईं की आकृति और स्पष्ट हो गई। यह दृश्य अत्यंत भयावह और मार्मिक था—धुएँ और आग के बीच उसकी पीड़ा, क्रोध और उम्मीद सभी झलक रहे थे। आरव ने मंत्रों के साथ-साथ अपनी संवेदनाओं को भी प्रकट किया, आत्मा को यह संदेश देने के लिए कि अब उसे न्याय मिलेगा और उसकी पीड़ा को समझा गया है। धीरे-धीरे परछाईं ने हाथ उठाए और जैसे स्वीकार कर लिया हो कि अब उसका अधूरा कर्म पूरा किया जा रहा है।

अग्नि की लपटों ने चिता को पूरी तरह जला दिया और मंत्रों का प्रभाव हवा में गूंजता रहा। अचानक, घाट पर ठहराव और धुंध में एक हल्की शांति का अहसास हुआ। परछाईं की आकृति धीरे-धीरे फीकी पड़ने लगी, उसकी आँखों की आग अब बुझ रही थी, और चेहरे पर हल्की-सी शांति की छाया उतर गई। आरव ने महसूस किया कि आत्मा अब मुक्त हो गई है; उसका दर्द समाप्त हो गया और अधूरी चिता का बंधन टूट चुका है। गाँव के लोग, जो दूर से देख रहे थे, अब आश्चर्य और राहत से भर उठे। उन्होंने समझा कि भय, शाप या जादू-टोना कभी समाधान नहीं ला सकते—सच्चाई और सम्मान ही किसी भी अधूरी कथा को पूर्ण कर सकते हैं। आरव ने घाट से वापसी करते हुए देखा कि न केवल परछाईं शांत हो गई थी, बल्कि घाट और गाँव की हवा में भी एक नई ऊर्जा और शांति का अनुभव हो रहा था। यह क्षण न केवल आत्मा की मुक्ति का था, बल्कि गाँव के लोगों के लिए भी चेतना का प्रतीक बन गया—भय के आगे झुकने की बजाय सत्य और साहस के साथ खड़े रहने की शक्ति का।

अग्नि प्रज्वलित होने के कुछ ही क्षणों बाद, घाट पर एक अद्भुत दृश्य देखने को मिला। आरव और गाँववाले चिता के पास खड़े थे, मंत्रों का उच्चारण कर रहे थे और धीरे-धीरे उन्होंने महसूस किया कि वह सफेद साड़ी वाली परछाईं अब गुस्से और पीड़ा के बजाय शांति में बदल रही है। पहले तो उसकी आकृति हिल रही थी, जैसे कोई हल्की हवा उसे इधर-उधर धकेल रही हो, लेकिन आग की गर्मी और मंत्रों की गूँज के साथ वह स्थिर हो गई। उसकी आँखों की आग अब बुझ चुकी थी, और चेहरे पर जो डर और दर्द की परछाई थी, वह धीरे-धीरे शांत मुस्कान में बदल गई। आरव ने देखा कि उसकी छवि आग की लपटों में घुलने लगी, धुंध में मिलकर अब एक चमकदार रोशनी का रूप ले रही थी। यह विलयन न केवल उसकी आत्मा का था, बल्कि उसके अधूरे जीवन और संस्कार के बोझ का भी समापन था। गाँव के लोग खड़े होकर देखते रहे, उनकी आँखों में डर, आश्चर्य और राहत के भाव एक साथ बिखरे हुए थे।

जैसे-जैसे परछाईं विलीन हुई, घाट पर सन्नाटा छा गया। अब तक जो हवा में डर, क्रोध और अधूरी पीड़ा का कंपन था, वह धीरे-धीरे शांत होने लगा। लकड़ियों की राख अब केवल राख बनकर रह गई थी, और आग की गर्मी ने धुंध को भी धीरे-धीरे दूर कर दिया। आरव ने महसूस किया कि यह क्षण केवल एक भूत या आत्मा की मुक्ति का नहीं था, बल्कि गाँव की पुरानी यादों, अपराधों और अधूरी कथाओं का भी समापन था। लोग धीरे-धीरे घाट के पास आए और उस स्थान को निहारने लगे, जहाँ पहले केवल भय और रहस्य का घेरा था। अब वहाँ एक अजीब-सी शांति थी, मानो प्रकृति और अतीत दोनों ने गहरी साँस ली हो। बच्चे अपने माता-पिता के हाथ पकड़े धीरे-धीरे पास आए और देखा कि वह जगह अब केवल एक सामान्य घाट जैसी प्रतीत हो रही थी, लेकिन हवा में अभी भी हल्की-सी रहस्यमय भावना थी, जो यह याद दिलाती थी कि कभी यहाँ अदृश्य शक्तियाँ सक्रिय थीं।

गाँव के लोग अब समझ चुके थे कि उनका श्राप समाप्त हो गया है। पशु स्वस्थ हो गए, घरों में गिरती राख अब नहीं थी, और अमावस्या की रातें पहले जैसी भयावह नहीं थीं। फिर भी, मसान घाट हमेशा रहस्यमय बना रहा। लोग अब वहाँ जाते तो देखते कि हवा में एक हल्का ठंडापन और धुंध अभी भी महसूस होती है, और कभी-कभी दूर से सफेद साड़ी का अंश दिखाई दे जाता है—लेकिन अब वह भयभीत करने के लिए नहीं, बल्कि अतीत की याद दिलाने के लिए। आरव ने घाट को देखते हुए महसूस किया कि कुछ रहस्य हमेशा रहेंगे, लेकिन उनके समाधान का साहस ही मानवता और न्याय का प्रतीक है। गाँववालों ने समझा कि डर और भय केवल असत्य और अंधविश्वास से उत्पन्न नहीं होते, बल्कि कभी-कभी वे अधूरी कथाओं और अन्यायपूर्ण घटनाओं का परिणाम होते हैं। परछाईं के विलयन के साथ ही एक नया अध्याय शुरू हुआ—जहाँ मसान घाट रहस्य और अतीत की यादों का प्रतीक था, लेकिन अब वह भय और श्राप का नहीं, बल्कि सीख और साहस का प्रतीक बन गया।

समाप्त

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