बनारस की तंग और घुमावदार गलियाँ जैसे अपने भीतर सदियों का इतिहास समेटे खड़ी थीं, जिनमें सुबह-सुबह की गंगा आरती की घंटियों की आवाज़ और अगरबत्तियों की महक हवा में तैरती रहती थी। लेकिन उस दिन की सुबह इन गलियों पर एक अजीब सन्नाटा छाया हुआ था। सूरज की पहली किरणें जैसे ही पुराने कच्चे मकानों की दीवारों पर पड़ीं, शहर में अफवाहों का तूफ़ान फैलने लगा—“चौखंबा मोहल्ले में एक व्यापारी का कत्ल हो गया।” लोगों की भीड़ उस घर के सामने जमा हो गई थी, जो शहर के सबसे पुराने कपड़ा कारोबारियों में से एक, लक्ष्मण प्रसाद का था। दरवाज़े के भीतर पुलिस की गाड़ियाँ खड़ी थीं, और सफेद चादर से ढका शव कमरे के बीचों-बीच पड़ा था। उसकी आँखें विस्फारित थीं, जैसे मरते वक्त उसने कुछ भयावह देखा हो। दीवार पर खून के छींटे फैले हुए थे, और फर्श पर बिखरे काँच के टुकड़े बता रहे थे कि संघर्ष हुआ होगा। लेकिन जो चीज़ सबसे चौंकाने वाली थी, वह घर के बाहर गली में पड़े सात लाल पगचिन्ह थे। वे पगचिन्ह गीले, खून जैसे रंग में डूबे हुए थे, और सीधे दरवाज़े तक आते थे, लेकिन आश्चर्य यह था कि भीतर जाने के बाद उनका कोई निशान नहीं था। यह रहस्य पुलिस और मोहल्ले के लोगों दोनों को डरा रहा था। कुछ लोग दबी आवाज़ में कह रहे थे, “ये इंसानी काम नहीं है… ये जरूर किसी तांत्रिक का खेल है। बनारस की मिट्टी में वैसे भी कितने रहस्य छिपे हैं, कौन जानता है यह हत्या किस पिशाच पूजा का हिस्सा हो।” मीडिया चैनलों के कैमरे चौक-चौराहों पर फैल गए थे, और रिपोर्टर अपनी-अपनी शैली में इस हत्याकांड को “लाल पगचिन्ह का रहस्य” बताने लगे।
इंस्पेक्टर राघव त्रिपाठी, जो शहर के सख़्त और तेज़-तर्रार अफ़सर माने जाते थे, घटनास्थल पर पहुंचे तो उनके माथे पर भी शिकनें उभर आईं। उन्होंने शव का मुआयना किया, आसपास की स्थिति को समझा, और फिर उन पगचिन्हों पर झुककर गौर से देखा। वे पगचिन्ह किसी सामान्य आदमी के नहीं लग रहे थे—कद और आकार में बिल्कुल बराबर, मानो मशीन से छपे हों। लेकिन मिट्टी और खून का मिश्रण उन्हें जीवंत बना रहा था। “पगचिन्ह घर के बाहर क्यों खत्म हो गए? अंदर कैसे गायब हो गए?” यह सवाल राघव के दिमाग़ में बार-बार गूंज रहा था। उन्होंने अपने सहयोगी से कहा, “किसी ने बड़ी सोच-समझ कर ये खेल रचा है, ताकि इसे अलौकिक दिखाया जा सके। लेकिन मैं जानता हूँ, हर रहस्य के पीछे इंसानी चाल छिपी होती है।” दूसरी तरफ़ मोहल्ले के लोग घर की छतों और खिड़कियों से झाँक रहे थे। किसी ने दबी आवाज़ में कहा, “ये तो वही हो सकता है जिसके बारे में पुरानी कहानियाँ हैं—सात पगचिन्हों वाला भूत, जो बदला लेने आता है।” तुरंत ही अफवाहें फैलने लगीं कि शायद लक्ष्मण प्रसाद ने किसी का धन हड़पा हो, या किसी पुराने दुश्मन की बद्दुआ उस पर भारी पड़ी हो। एक महिला ने रोते हुए बताया कि लक्ष्मण प्रसाद पिछले कुछ दिनों से बहुत बेचैन रहते थे, और बार-बार कहते थे कि कोई उनका पीछा कर रहा है। यह सुनकर राघव का मन और भी उलझ गया—क्या वाकई यह हत्या किसी अदृश्य साजिश का हिस्सा थी, या सिर्फ़ लोगों की कल्पनाओं का खेल?
शाम तक पूरा बनारस इस हत्या की चर्चा में डूब गया था। घाटों पर बैठे साधु-संत कहने लगे कि शहर में अशुभ समय लौट आया है। अख़बारों ने सुर्खियाँ बना दीं—“सात पगचिन्हों की दहशत।” टीवी चैनलों ने इसे तंत्र-मंत्र से जोड़ दिया, जिससे लोगों में डर और भी गहराने लगा। लेकिन इंस्पेक्टर राघव जानते थे कि डर के साये में सच और भी गहराई में छिप जाता है। उन्होंने लक्ष्मण प्रसाद के परिवार से पूछताछ शुरू की। परिवारजन काँपती आवाज़ में बताते रहे कि व्यापारी का कोई दुश्मन नहीं था, लेकिन कुछ महीनों से वह बार-बार पुराने खातों और हिसाब-किताब को लेकर परेशान रहते थे। राघव को लगा कि कहीं इस हत्या का धागा पुराने व्यापारिक विवादों से तो नहीं जुड़ा? लेकिन जैसे ही वे दरवाज़े से बाहर आए और उन सात लाल पगचिन्हों को देखा, उनके भीतर भी एक अजीब-सी बेचैनी उठी। ये पगचिन्ह साधारण नहीं थे—ये जैसे चेतावनी थे कि यह बस शुरुआत है। उन्होंने मन ही मन सोचा, “यह पहला पगचिन्ह है, आगे और होंगे।” गंगा किनारे की शाम उस दिन असामान्य थी, जहाँ आम तौर पर दीप और आरती का प्रकाश फैलता था, वहाँ अब लोगों के मन में डर का अंधकार था। यह हत्या सिर्फ़ एक जान लेने तक सीमित नहीं थी—यह एक खेल था, जो किसी ने शहर की आत्मा को झकझोरने के लिए शुरू किया था। और राघव समझ गए थे कि आने वाले दिनों में उन्हें सिर्फ़ एक हत्यारे से नहीं, बल्कि पूरे बनारस की दहशत से लड़ना होगा।
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बनारस की गलियाँ अभी पहले कत्ल की गूंज से उबर भी नहीं पाई थीं कि अचानक दूसरी सुबह एक और सनसनीखेज़ खबर शहर को हिला गई—दशाश्वमेध घाट के पास एक पुराने पंडित जी, हरिदास शास्त्री, अपने ही घर में मृत पाए गए। उनका घर तंग गली में स्थित था, जहाँ लोग प्रायः पूजा-पाठ और कर्मकांड कराने के लिए आते-जाते रहते थे। सुबह सबसे पहले उनके शिष्य ने दरवाज़ा खटखटाया, लेकिन कोई जवाब न मिला। जब ज़बरदस्ती दरवाज़ा खोला गया तो अंदर का दृश्य देखकर सबकी साँसें थम गईं। पंडित जी फर्श पर पड़े थे, उनकी छाती पर गहरे ज़ख्म का निशान था, और चेहरा पीड़ा से विकृत। कमरे के कोने में बिखरे पड़े ग्रंथ, उलटे पड़े तांबे के पात्र और टूटा हुआ दीपक बता रहे थे कि हमलावर ने पूरी बर्बरता से वार किया था। लेकिन डर और रहस्य वहीं ठहर गया, जब बाहर गली में एक बार फिर वही सात लाल पगचिन्ह दिखाई दिए—एकदम ताज़ा, खून से भीगे हुए, जैसे किसी ने फिर वही संकेत छोड़ा हो। लोग घर से निकलने से डरने लगे। मंदिरों में बैठकर साधु अब जोर-जोर से कहने लगे कि “यह शहर पर आई किसी प्रेत की छाया है।” महिलाएँ बच्चों को अकेले बाहर भेजने से कतराने लगीं, और दुकानों के शटर समय से पहले गिरने लगे। धीरे-धीरे बनारस, जो अपनी भीड़, चहल-पहल और धार्मिक उल्लास के लिए प्रसिद्ध था, एक खौफ के शहर में बदलने लगा। लोग अब गंगा आरती तक जाने से डरने लगे, रात की गलियाँ सूनसान हो गईं, और हर मोड़ पर कानाफूसी सुनाई देने लगी—“अब किसकी बारी है?”
पुलिस पर जबरदस्त दबाव बढ़ गया था। पहला मामला तो वह किसी तरह संभाल भी रही थी, लेकिन दूसरी हत्या ने पूरे प्रशासन को हिलाकर रख दिया। मीडिया चैनल लगातार लाइव कवरेज करने लगे, और शहर की राजनीति भी इसमें कूद पड़ी। सरकार पर सवाल उठाए जाने लगे कि आखिर क्यों हत्यारा पुलिस की आँखों के सामने से निकल जाता है और हर बार सात लाल पगचिन्ह छोड़ जाता है। ऐसे में इंस्पेक्टर आदित्य सिंह को इस केस की कमान सौंपी गई। आदित्य अपनी तेज दिमाग़ी और अदम्य साहस के लिए जाने जाते थे। उनका मानना था कि “हर डर का इलाज सच है।” लेकिन इस बार उन्हें भी यह अहसास था कि मामला साधारण कत्ल का नहीं, बल्कि एक भयावह खेल का है। आदित्य अपनी टीम के साथ घटनास्थल पर पहुँचे। उन्होंने शव और पूरे कमरे का मुआयना किया। कमरे की टूटी वस्तुओं को देखते हुए उन्होंने तुरंत अनुमान लगाया कि पंडित जी और हत्यारे के बीच संघर्ष हुआ होगा। लेकिन फिर वही सवाल सामने आया—अगर यह सामान्य हत्यारा था तो पगचिन्ह भीतर क्यों गायब हो जाते हैं? आदित्य ने ध्यान से उन कदमों की तस्वीरें खिंचवाईं और नमूने इकट्ठे कराए। उनकी टीम ने पास-पड़ोस के घरों में जाकर पूछताछ की, लेकिन किसी ने कुछ नहीं देखा। अजीब बात यह थी कि हत्या गली के बीचों-बीच हुई और किसी को कुछ सुनाई नहीं दिया। आदित्य की नज़र अब इस मामले में फैली हुई अफवाहों पर भी थी। उन्होंने साफ़ कहा, “यह तंत्र-मंत्र नहीं है, यह इंसानी काम है। हत्यारा चाहता है कि लोग डरें और उसे कोई पकड़ न सके।” लेकिन यह कहकर भी वे खुद जानते थे कि जनता के मन में बैठा डर अब आसानी से मिटने वाला नहीं था।
शहर में अब दहशत की जड़ें गहरी होने लगीं। बनारस की वही गलियाँ, जिनमें पहले रात देर तक भजन-कीर्तन और मिष्ठान की दुकानों की रौनक रहती थी, अब अंधेरा घिरते ही सुनसान हो जातीं। घाटों पर बैठकर लोग सशंकित निगाहों से अजनबियों को देखते, मानो अगला हत्यारा उनके बीच ही छिपा हो। पंडित हरिदास शास्त्री की मौत ने शहर को और गहरे झकझोर दिया था क्योंकि वे न सिर्फ़ एक पूजनीय व्यक्ति थे, बल्कि धार्मिक आस्था का केंद्र भी थे। उनकी हत्या को लोग अब किसी दैवी संकेत से जोड़ने लगे। सोशल मीडिया पर भी चर्चाएँ फैल गईं—कोई इसे “काली शक्तियों की वापसी” बता रहा था, तो कोई “सात जन्मों का बदला।” आदित्य ने अपनी टीम को समझाया कि वे इस मामले को केवल सबूतों और तथ्यों के आधार पर ही देखें। उन्होंने फोरेंसिक रिपोर्ट मंगवाई, जिसमें साफ़ लिखा था कि पगचिन्ह खून और किसी लाल रंग के मिश्रण से बने थे। लेकिन सवाल यह था कि यह मिश्रण इतनी सटीकता से कैसे तैयार किया गया? और सबसे बड़ा रहस्य यह था कि हर बार सात ही पगचिन्ह क्यों छोड़े जा रहे थे। आदित्य ने शहर के पुराने रिकॉर्ड और फाइलें खंगालनी शुरू कीं, ताकि शायद किसी पुराने अपराध या बदले की कहानी से यह सुराग़ जुड़ सके। मगर इस बीच लोगों का डर और बढ़ता जा रहा था। अब हर घर के दरवाज़े पर लोग ताले लगाने लगे, और बनारस का चेहरा धीरे-धीरे एक ऐसे शहर में बदलने लगा था, जो अपनी सांसें थामे किसी आने वाले तूफ़ान का इंतज़ार कर रहा था। आदित्य जानते थे कि अगर जल्द ही हत्यारे का सुराग़ न मिला तो यह डर पूरे शहर को अपने कब्ज़े में ले लेगा। उनके लिए यह मामला अब सिर्फ़ अपराधी पकड़ने का नहीं रहा, बल्कि पूरे बनारस की आत्मा को बचाने का सवाल बन गया था।
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इंस्पेक्टर आदित्य और उनकी टीम ने जैसे-जैसे दोनों हत्याओं की गहराई में उतरना शुरू किया, उन्हें एक अजीब-सा संयोग दिखाई दिया। लक्ष्मण प्रसाद और पंडित हरिदास शास्त्री, दोनों अलग-अलग जीवन जीने वाले और अलग-अलग क्षेत्रों में सम्मानित लोग थे, लेकिन तहकीकात के दौरान पुलिस को पता चला कि दोनों कभी एक ही मोहल्ले, चौक के पास, में रहते थे। यह जानकारी पुरानी नगर निगम की फाइलों और मतदाता सूची से मिली। आदित्य को यह बात बेहद दिलचस्प लगी क्योंकि शायद यह महज़ इत्तफ़ाक़ नहीं हो सकता। उन्होंने तुरंत दोनों के अतीत को खंगालने का आदेश दिया। धीरे-धीरे यह भी सामने आया कि लगभग बीस साल पहले मोहल्ले में किसी ज़मीन को लेकर बड़ा विवाद हुआ था, जिसमें कई परिवारों की दुश्मनियाँ जन्मी थीं। लोगों ने बताया कि लक्ष्मण प्रसाद और हरिदास शास्त्री उस विवाद में आमने-सामने खड़े थे। यह बात सुनकर आदित्य के दिमाग़ की बत्तियाँ जल उठीं—क्या यह हत्याएँ उसी पुराने विवाद से जुड़ी हैं? क्या यह कोई पुराना बदला है, जो इतने सालों बाद अब खून के धब्बों में लिखा जा रहा है? इस सुराग़ ने मामले की दिशा बदल दी। अब यह सवाल और गंभीर हो गया कि हत्यारा कोई अजनबी नहीं, बल्कि शायद वही है जो पीड़ितों के अतीत को जानता था, और उनके रिश्तों से भली-भाँति वाकिफ़ था।
आदित्य ने पीड़ितों के परिचितों और रिश्तेदारों से बातचीत की। लक्ष्मण प्रसाद का बेटा संजय बताने लगा कि पिता अक्सर पुराने मोहल्ले का ज़िक्र करते थे, लेकिन हर बार वह बात अधूरी छोड़ देते थे, जैसे किसी पुराने ज़ख्म को कुरेदना नहीं चाहते हों। वहीं हरिदास शास्त्री के एक पुराने शिष्य ने बताया कि शास्त्री जी का भी मोहल्ले से गहरा लगाव था, लेकिन वे हमेशा कहते थे, “उस मोहल्ले की गलियाँ कई रहस्य समेटे हैं, जिनके खुलने से कई जिंदगियाँ तबाह हो सकती हैं।” इन दोनों बयानों ने आदित्य के मन में शक और गहरा कर दिया। उन्होंने सोचा—क्या दोनों किसी ऐसे राज़ को छिपाए हुए थे, जो अब किसी को हत्यारा बनने पर मजबूर कर रहा है? पुलिस ने उन दिनों के अख़बार खंगाले तो पता चला कि विवादित ज़मीन पर कभी एक मंदिर और धर्मशाला बनाने की योजना थी, लेकिन उसमें हुए गबन और धोखाधड़ी के चलते काम रुक गया। कई परिवार एक-दूसरे पर आरोप लगाते रहे। इस कड़ी में कुछ और नाम भी सामने आए, जो अब शहर में अलग-अलग जगहों पर रहते थे। आदित्य ने महसूस किया कि हत्यारे की सूची शायद लंबी है, और यह कत्ल की सिलसिला आगे भी जारी रह सकता है। अब यह मामला केवल दो हत्याओं का नहीं रहा था, बल्कि यह शहर के पुराने जख्मों को कुरेदने और छुपे हुए सच को बाहर लाने की साज़िश में बदल चुका था।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल वही बना रहा—वह सात लाल पगचिन्ह कौन छोड़ रहा है और क्यों? क्या यह सिर्फ डर पैदा करने का तरीका है, या इसमें कोई प्रतीकात्मक संदेश छिपा है? आदित्य ने अपनी टीम को समझाया कि हत्यारा निश्चित रूप से दोनों पीड़ितों को जानता था, क्योंकि वह उनके अतीत और रिश्तों से वाकिफ़ है। यह संभावना भी थी कि हत्यारा उसी पुराने मोहल्ले का कोई व्यक्ति है, जो अब छाया बनकर लौट आया है। लेकिन समस्या यह थी कि इतने सालों बाद उस मोहल्ले के दर्जनों लोग अलग-अलग जगहों पर फैल चुके थे, और उनमें से किसी पर भी शक किया जा सकता था। पुलिस ने संदेह की सुई कुछ पुराने परिचितों पर डाली, लेकिन ठोस सबूत अभी भी हाथ से फिसल रहे थे। आदित्य जानते थे कि यह खेल हत्यारा बेहद चालाकी से खेल रहा है—वह चाहता है कि पुलिस सुराग़ ढूंढे, शक करे, लेकिन असली चेहरा न पकड़ सके। शहर में डर अब और गहरा हो चुका था। लोग कहते, “अगर हत्यारा सचमुच पुराना परिचित है तो वह हमारे बीच ही छिपा है, और किसी भी घर को अगली रात अपना निशाना बना सकता है।” यही खौफ बनारस को एक ऐसे शहर में बदल रहा था, जहाँ हर चेहरा अब शक के घेरे में था, और हर गली पुराने राज़ की तरह डरावनी लगने लगी थी।
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बनारस की घाटों की ठंडी सुबह में इस बार एक और सनसनीखेज़ खबर ने शहर को हिला दिया। दसाश्वमेध घाट की सीढ़ियों पर एक बुजुर्ग कवि, श्यामसुंदर मिश्र, मृत पाए गए थे। वह कवि न केवल साहित्यिक जगत में जाने जाते थे, बल्कि उनका नाम शहर की सांस्कृतिक धरोहर में भी सम्मानित था। सुबह-सुबह घाट पर सुबह की आरती की तैयारी चल रही थी कि कुछ नाविकों ने उनका शव पाया। कवि की मृत्यु का दृश्य देखकर नाविकों के चेहरे पर भय का भाव साफ़ झलक रहा था। शव के आसपास उनके लिखे नोटबुक, कलम और बिखरी हुई कविताएँ फैली हुई थीं। फर्श पर खून के छींटे उनके जीवन की आखिरी जद्दोजहद का प्रमाण दे रहे थे। लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात वही थी—घाट की सीढ़ियों पर फैले हुए सात लाल पगचिन्ह, जो खून से भीगे हुए दिखाई दे रहे थे। पगचिन्ह नदी की ओर जाते हुए अचानक गायब हो गए। इस दृश्य ने पुलिस और आम जनता दोनों को सकते में डाल दिया। आदित्य और उनकी टीम घटनास्थल पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि घाट पर जमा लोगों की भीड़ सुनसान गलियों की तरह डर से ठहर गई थी। घाटों की भीड़ और नाविकों की बातें साफ़ बता रही थीं कि शहर में अब भय ने गहरी जड़ें जमा ली हैं। लोग कहते, “पहले व्यापारी, फिर पंडित और अब कवि… यह कोई साधारण हत्यारा नहीं, यह तो पुरानी रंजिशों का खौफ है।”
पुलिस ने तुरंत कवि के परिचितों और परिवार से पूछताछ शुरू की। आदित्य और उनकी टीम ने देखा कि श्यामसुंदर मिश्र का नाम पहले दो मृतकों के अतीत में कई बार उभरता है। धीरे-धीरे यह बात सामने आई कि तीनों के बीच वर्षों पुरानी कोई अनसुलझी रंजिश थी। बीस साल पहले उसी मोहल्ले में एक भूमि विवाद हुआ था, जिसमें लक्ष्मण प्रसाद, हरिदास शास्त्री और श्यामसुंदर मिश्र सभी के परिवार जुड़े हुए थे। उस समय कुछ संपत्ति के वितरण और मंदिर निर्माण को लेकर मतभेद हुए थे, जिनके चलते उनके बीच गहरी खटास पैदा हो गई थी। स्थानीय लोग बताते हैं कि विवाद का असर धीरे-धीरे शांति से समाप्त हुआ, लेकिन घाव कभी पूरी तरह भर नहीं पाए। आदित्य ने यह महसूस किया कि हत्यारा शायद इसी पुराने विवाद को भुनाने की योजना बना रहा है। उसने अपनी टीम को निर्देश दिया कि वह उन परिवारों और मोहल्ले के पुराने दस्तावेज़ों को खंगाले, ताकि यह पता लगाया जा सके कि यह रंजिश किस हद तक अब भी जीवित है। कवि की हत्या ने मामले की गंभीरता और बढ़ा दी थी क्योंकि अब यह सिर्फ़ व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं रही, बल्कि शहर की सांस्कृतिक और सामाजिक धरोहर पर भी हमला बन गई थी।
घाट पर शव का मुआयना करने के दौरान आदित्य ने पगचिन्हों का बार-बार निरीक्षण किया। हर बार यही सवाल उनके दिमाग़ में घूम रहा था—ये पगचिन्ह क्यों छोड़े जा रहे हैं और इनका उद्देश्य क्या है? उन्होंने फोरेंसिक टीम को पगचिन्हों के नमूने दिए। रिपोर्ट में पता चला कि खून और लाल रंग का मिश्रण हर बार समान था, जिससे यह प्रतीत होता था कि हत्यारा पूरी योजना के साथ काम कर रहा है। वहीं, घाट के पुराने नौकायन रिकॉर्ड और स्थानीय लोगों के बयान से यह भी सामने आया कि हत्यारा शायद कवि के रोज़मर्रा के रास्तों और आदतों से भी वाकिफ़ था। आदित्य ने महसूस किया कि हत्यारा अब डर पैदा करने के साथ-साथ शहर को मानसिक दहशत में भी डालना चाहता है। तीनों मरे हुए लोग अब केवल अपने जीवन के लिए ही नहीं, बल्कि उस पुरानी दुश्मनी की कहानी और रहस्यमय पगचिन्हों की श्रृंखला का हिस्सा बन चुके थे। बनारस की गलियाँ, घाट और मोहल्ले अब खौफ के घेरे में थे, और आदित्य जानते थे कि अगर इस रहस्य का पता नहीं चला तो हत्यारा और भी आगे बढ़ सकता है। इस तीसरे वार ने शहर की हवा में एक स्थायी भय पैदा कर दिया, और आदित्य के लिए यह स्पष्ट हो गया कि यह कत्ल केवल शुरूआत थी—अब उन्हें जल्द ही इस रहस्य को सुलझाना होगा, वरना बनारस की आत्मा उस खौफ में हमेशा के लिए फंस सकती है।
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बनारस की सुबह अब पहले जैसी नहीं रही। घाटों की आरती की घंटियों और मंदिरों की गूंज के बीच, शहर की गलियाँ अब किसी भयावह सन्नाटे में डूब चुकी थीं। लोग अपने घरों की खिड़कियों से बाहर झाँकते, लेकिन गली की ओर कदम बढ़ाने से डरते। पिछले तीन कत्लों ने पहले ही शहर के मनोबल को हिला दिया था, और अब एक नया संकेत लोगों के दिलों में डर भरने लगा। सुबह-सुबह कुछ नागरिकों ने देखा कि शहर की प्रमुख दीवारों पर बड़े-बड़े लाल रंग से संदेश लिखे गए थे—“सात कदम और न्याय।” यह चेतावनी सीधे लोगों के सामने थी, मानो हत्यारा खुद शहर में घूम रहा हो और हर किसी को यह बता रहा हो कि अगला निशाना कोई भी हो सकता है। आदित्य और उनकी टीम तुरंत घटनास्थल पर पहुँची। उन्होंने देखा कि यह संदेश केवल पेंट से लिखा गया नहीं था; उसमें खून जैसा लाल रंग भी मिला हुआ था, जो पिछले पगचिन्हों से मिलते-जुलते थे। पुलिस ने तुरंत इसे आपात स्थिति घोषित कर दिया। शहर की सुरक्षा बढ़ा दी गई, लेकिन जनता के मन में डर अब चरम पर पहुँच चुका था। लोग धीरे-धीरे घरों में रहने लगे, बच्चों को बाहर खेलने नहीं जाने देते थे, और मंदिरों में भी पहले जैसी भीड़ नहीं रही।
इंस्पेक्टर आदित्य ने अपने सहयोगियों के साथ दीवारों पर लिखे संदेश का विश्लेषण करना शुरू किया। उनके अनुभव बता रहे थे कि यह कोई सामान्य खतरा नहीं है; यह किसी व्यक्ति का गहरा व्यक्तिगत प्रतिशोध था। आदित्य ने समझा कि यह हत्यारा केवल कत्ल करना ही नहीं चाहता, बल्कि शहर की जनता और पुलिस के मन में भय पैदा करना चाहता है। उन्होंने पुराने मामलों की जांच फिर से शुरू की, और यह साफ़ हो गया कि तीनों मरे हुए लोग—व्यापारी, पंडित और कवि—किसी समय एक ही मोहल्ले और विवाद में जुड़े थे। अब यह संभावना बन रही थी कि हत्यारा उसी पुराने विवाद का हिस्सा रहा हो, और वर्षों बाद यह प्रतिशोध लेने पर उतारू हो गया था। पुलिस ने मोहल्ले के पुराने लोगों से भी पूछताछ की। कुछ लोगों ने बताया कि यह संदेश देखकर ऐसा लग रहा था जैसे हत्यारा अपनी चाल और नियोजित प्रतिशोध के बारे में सबको बताना चाहता हो। आदित्य ने तुरंत टीम को निर्देश दिए कि हर संभावित मार्ग और हर संदिग्ध को कड़ी निगरानी में रखा जाए, क्योंकि हत्यारे ने अब यह स्पष्ट कर दिया था कि वह अपनी योजना में सार्वजनिक भय और संदेशों का इस्तेमाल कर रहा है।
शहर में दहशत अब चरम पर थी। दुकानें समय से पहले बंद होने लगीं, लोग रात में गलियों से गुजरने से डरते थे, और सोशल मीडिया पर हर तरफ़ चर्चाएँ होने लगीं—कोई कह रहा था कि यह हत्यारा किसी पुराने तंत्र-मंत्र का जानकार है, तो कोई मान रहा था कि यह केवल इंसानी प्रतिशोध है। आदित्य ने अपने दिमाग़ को शांत रखने की कोशिश की। उन्हें पता था कि अब केवल सुराग़ और तथ्य ही हत्यारे तक पहुँचने का रास्ता बताएंगे। उन्होंने पगचिन्हों की तस्वीरें, खून के नमूने और दीवार पर लिखे संदेश का गहराई से विश्लेषण किया। उनकी टीम ने पाया कि संदेश में प्रयुक्त लाल रंग और पगचिन्हों में इस्तेमाल किया गया रंग एक ही था, जो यह साबित कर रहा था कि यह वही हत्यारा है। आदित्य ने शहर की सुरक्षा बढ़ा दी, और अपने भीतर यह संकल्प लिया कि वह इस प्रतिशोध की परछाई को ढूँढ निकालेंगे। लेकिन यह भी साफ़ था कि हत्यारा अब केवल अपने लक्ष्य तक ही सीमित नहीं था; उसने पूरे शहर को अपनी मौत की परछाई में ढक दिया था। बनारस की गलियाँ, घाट और मोहल्ले अब उस भय से गूँज रहे थे जिसे केवल इंस्पेक्टर आदित्य ही समाप्त कर सकते थे।
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बनारस की गलियाँ अब सिर्फ़ धूप और हवाओं से नहीं, बल्कि डर और शक़ से भी भर गई थीं। इंस्पेक्टर आदित्य और उनकी टीम जैसे-जैसे हत्याओं के सुराग़ तलाशते गए, उन्हें एक और चौंकाने वाला तथ्य सामने आया। पहले तीन पीड़ित—व्यापारी लक्ष्मण प्रसाद, पंडित हरिदास शास्त्री और कवि श्यामसुंदर मिश्र—कभी एक ही मोहल्ले के सात दोस्तों के हिस्से थे। यह सात दोस्त अपने समय में मोहल्ले की छोटी-छोटी घटनाओं और मज़बूत पारिवारिक रिश्तों में गहरे जुड़े हुए थे, लेकिन एक घटना ने उनके जीवन को हमेशा के लिए बदल दिया। करीब पंद्रह साल पहले, मोहल्ले में एक निर्दोष युवक के साथ बड़ा धोखा हुआ था। सातों दोस्तों ने मिलकर उसे फंसाया, उसकी संपत्ति हड़प ली और उसके परिवार को अपमानित किया। उस समय मोहल्ले के लोग इसे बस एक आपसी विवाद और गलतफहमी समझकर भुला दिए, लेकिन वास्तव में यह धोखा इतनी गहरी चोट छोड़ गया कि उस निर्दोष व्यक्ति या उसके परिवार का गुस्सा वर्षों तक दबा रहा। आदित्य ने इस तथ्य को सामने लाते ही महसूस किया कि हत्यारा अब उस पुराने धोखे की साज़िश का हिसाब ले रहा है। यह सिर्फ़ व्यक्तिगत प्रतिशोध नहीं था, बल्कि एक अधूरी न्याय की लड़ाई बन गई थी, जिसे पूरा करने के लिए हत्यारा सात लाल पगचिन्ह और खौफ का इस्तेमाल कर रहा था।
जांच में यह भी पता चला कि यह सात दोस्त अब अलग-अलग हिस्सों में रह रहे थे, लेकिन उनके बीच पुराने विवाद और गुप्त अपराध की यादें अब भी कहीं छिपी हुई थीं। आदित्य ने पुराने अभिलेख और मोहल्ले की परंपराओं को खंगाला और पाया कि हर पीड़ित ने अपने जीवन में कई बार उस घटना का जिक्र किया, कभी डर और कभी पछतावे में। यह साफ़ हो गया कि हत्यारा उन सभी की कमजोरियों और पुराने अपराध की यादों को जानता था। आदित्य ने टीम के साथ मिलकर मोहल्ले के पुराने रहस्यों की एक सूची तैयार की। उन्होंने देखा कि तीनों पीड़ितों की मौत के तरीके और स्थान, पगचिन्ह और संदेश—सभी कुछ दर्शा रहे थे कि हत्यारा न केवल प्रतिशोध ले रहा है, बल्कि प्रतीकात्मक संदेश भी दे रहा है। यह सात दोस्तों की कहानी अब शहर के हर कोने में एक भयावह चेतावनी बन गई थी। आदित्य ने महसूस किया कि हत्यारा बेहद चालाक है—वह पुराने अपराधों और रिश्तों को गहराई से समझता है और उसे धीरे-धीरे उजागर कर रहा है।
शहर में इस रहस्य और खौफ ने लोगों की जिंदगी को उलझा दिया था। घाट, गलियाँ, और मोहल्ले अब केवल अपने रोज़मर्रा के कामों के लिए नहीं बल्कि डर के कारण लोगों की नजरों में रहस्यमय और खतरनाक बन गए थे। जनता में हर किसी के बीच संदेह और शंका फैल गई थी। कौन सुरक्षित है, कौन अगला निशाना हो सकता है—यह सवाल हर किसी के मन में था। इंस्पेक्टर आदित्य ने खुद महसूस किया कि इस मामले का केवल कानून और पुलिस की रणनीति ही समाधान नहीं दे सकती; उसे अब उन पुराने रिश्तों, पुराने अपराधों और अधूरी न्याय की कहानी को समझना होगा। उन्होंने तय किया कि अब इस रहस्य को सुलझाने के लिए उन्हें सात दोस्तों के बीच छुपे राज़, पुराने विवाद और मृतकों के अतीत को बारीकी से खंगालना होगा। हर कदम पर उनके सामने यह स्पष्ट हो गया कि यह कत्ल केवल इंसानी प्रतिशोध का मामला नहीं है, बल्कि यह खून और रिश्तों का जाल है, जो धीरे-धीरे शहर की आत्मा को अपने भीतर खींच रहा है। बनारस अब केवल गंगा और मंदिरों का शहर नहीं रहा; यह भय, रहस्य और पुराने अपराधों की परछाइयों से भरा एक खतरनाक शहर बन चुका था।
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बनारस की गलियाँ अब डर और अनिश्चितता के अंधकार में ढकी हुई थीं। इंस्पेक्टर आदित्य और उनकी टीम ने पहले तीन हत्याओं के सुराग़ जुटाए थे, लेकिन अब अचानक दो और मौतों की खबर ने पूरे शहर को हिला दिया। चौथा शिकार, एक प्रतिष्ठित व्यापारी का रिश्तेदार, अपने घर में मृत पाया गया, जबकि पाँचवाँ शिकार, एक पुराने मोहल्ले की बुजुर्ग महिला, अपने कमरे में खून से सना हुआ मिला। दोनों घटनाओं में वही लाल रंग के सात पगचिन्ह स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे थे। यह देखकर आदित्य को समझ में आया कि हत्यारा अब सिर्फ़ व्यक्तिगत प्रतिशोध ही नहीं ले रहा, बल्कि पुलिस को सीधी चुनौती दे रहा है। हर कत्ल के साथ उसका संदेश और स्पष्ट होता जा रहा था—“मैं खेल रहा हूँ, और तुम मुझे पकड़ नहीं पाओगे।” शहर की जनता अब घरों में छुपकर रहने लगी थी। बाजारों में कम भीड़ थी, घाटों पर लोग समय से पहले लौट रहे थे और रात के समय किसी भी गली में अकेले निकलना असंभव लग रहा था। इस दहशत ने पुलिस पर भी दबाव बढ़ा दिया, क्योंकि हर नया शिकार यह दिखा रहा था कि हत्यारा बेहद चालाक और योजनाबद्ध है। आदित्य ने टीम के साथ रात-दिन की पहरेदारी बढ़ा दी, लेकिन यह महसूस किया कि हत्यारा हर कदम पर उन्हें चकमा दे रहा है, हर कत्ल एक बार फिर पुराने विवाद और अधूरी न्याय की कहानी से जुड़ा हुआ था।
जांच के दौरान यह स्पष्ट हो गया कि सात दोस्तों में अब तक पाँच की मौत हो चुकी थी। बची हुई दो ज़िंदगियों की सुरक्षा अब पुलिस की सबसे बड़ी प्राथमिकता बन गई थी। आदित्य ने तुरंत उनके घरों और रास्तों की निगरानी बढ़ाई, उनके रोज़मर्रा के कामों को ट्रैक करने के लिए टीम को अलग-अलग पोस्ट पर तैनात किया। लेकिन हत्यारा इतना चालाक था कि वह हर बार गुप्त तरीके से अपनी योजना को अंजाम दे रहा था। चौथे और पाँचवें शिकार की घटनाओं में पता चला कि हत्यारा अब भूतपूर्व मोहल्ले के पुराने दस्तावेज़ों, अतीत की कहानियों और मृतकों के व्यक्तिगत जीवन के रहस्यों का पूरा उपयोग कर रहा था। आदित्य ने अपनी टीम को स्पष्ट आदेश दिए कि कोई भी सुराग़ अनदेखा न किया जाए और हर पुराना मित्र, रिश्तेदार या पड़ोसी के संभावित हत्यारे बनने की संभावना पर ध्यान दिया जाए। शहर में अब लोगों के मन में यह सवाल घूम रहा था—क्या पुलिस बची हुई दो ज़िंदगियों को बचा पाएगी, या हत्यारा अपने अधूरे प्रतिशोध को पूरा करेगा? आदित्य के लिए यह केवल अपराध को सुलझाने की लड़ाई नहीं थी, बल्कि शहर की आत्मा को बचाने और उस भय को खत्म करने की चुनौती भी थी।
लेकिन जैसे-जैसे हत्यारा अपने खेल को तेज कर रहा था, शहर में दहशत चरम पर पहुँच गई। लोग कहते, “अब केवल दो ही बचे हैं, और हत्यारा उन्हें निशाना बनाने वाला है।” आदित्य ने महसूस किया कि हत्यारे की चालें अब अधिक उग्र और योजनाबद्ध हो चुकी हैं। लाल पगचिन्हों और चेतावनी संदेशों के साथ, हत्यारा अब स्पष्ट रूप से यह दिखा रहा था कि वह किसी भी समय अगली हत्या को अंजाम दे सकता है। टीम ने बची हुई दो ज़िंदगियों को अलग-अलग स्थानों पर छुपाया और पूरी सुरक्षा बढ़ा दी, लेकिन आदित्य को यह भी पता था कि हत्यारा हर जगह से आगे निकलने की कोशिश कर रहा है। शहर के लोग अब अपनी ही गलियों में डर के साये में जी रहे थे, और हर नजरें पुलिस और हत्यारे की ओर थीं। आदित्य ने मन ही मन यह संकल्प लिया कि चाहे कुछ भी हो, वह बची हुई दो ज़िंदगियों को किसी भी हालत में सुरक्षित रखेंगे और हत्यारे को पकड़कर उसके अधूरे प्रतिशोध की कहानी को खत्म करेंगे। बनारस अब केवल अपने घाट और मंदिरों के लिए नहीं, बल्कि इस खौफनाक खेल के लिए भी जाना जाने लगा था, और आदित्य की टीम पर इसका भार और भी बढ़ गया था।
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बनारस की गलियाँ अब किसी खौफनाक खेल का मैदान बन चुकी थीं। इंस्पेक्टर आदित्य ने अपनी टीम के साथ तय किया कि वह अब हत्यारे को पकड़ने के लिए एक नकली योजना बनाएंगे। उन्होंने बची हुई दो ज़िंदगियों की सुरक्षा के लिए सुरक्षा प्रबंधों को दोगुना कर दिया और शहर के कुछ हिस्सों में जाल बिछा दिया। आदित्य जानते थे कि हत्यारा बेहद चालाक है और हर कदम पर पुलिस को चुनौती दे रहा है। उन्होंने पूरे मोहल्ले की निगरानी बढ़ा दी, हर मोड़ पर छुपे कैमरे लगाए और कुछ सुरागों को विशेष रूप से हत्यारे के लिए छोड़ा ताकि वह फंस सके। यह योजना सिर्फ़ बची हुई दो ज़िंदगियों को सुरक्षित रखने के लिए नहीं थी, बल्कि हत्यारे को खुद अपनी चाल में उलझाने और गलियों में जाल में फंसाने के लिए तैयार की गई थी। आदित्य की टीम ने घाटों, तंग गलियों और पुराने मकानों में कड़ी निगरानी रखी। लेकिन यह केवल सुराग़ जुटाने का खेल नहीं था—यह मानसिक युद्ध भी था, जहाँ हत्यारे की चाल और पुलिस की रणनीति आमने-सामने थीं।
जाल तैयार करने के बाद भी आदित्य को पता था कि हत्यारा आसानी से किसी भी योजना को भांप सकता है। शहर में हर कदम पर उनका पीछा करना और हर गलियों को सुरक्षित बनाना आसान नहीं था। जैसे ही आदित्य ने जाल की शुरुआत की, हत्यारा तुरंत अपनी योजना के अनुसार प्रतिक्रिया देने लगा। गलियों में अचानक अजीब-सी हलचल, बिना आवाज़ के पैरों की आहट और छायाओं का खेल शहरवासियों को डराने लगा। बनारस के लोग रात में अपने घरों से निकलने से डरने लगे। आदित्य ने देखा कि हत्यारा हर बार सुराग़ छोड़कर उन्हें भ्रमित कर रहा है। पगचिन्ह और संदेश अब केवल चेतावनी नहीं रह गए थे, बल्कि हत्यारे की चाल और तेज़ी का प्रमाण बन गए थे। आदित्य खुद महसूस कर रहे थे कि यह जाल केवल हत्यारे की प्रतीक्षा कर रहा था, लेकिन वह कितना चालाक है यह अनुमान लगाना मुश्किल था। शहर के हर कोने में भय का माहौल था। लोग अब केवल सुरक्षित रहना चाहते थे, और इंस्पेक्टर आदित्य के लिए यह चुनौती केवल अपराध को सुलझाने की नहीं, बल्कि पूरे शहर की आत्मा को बचाने की थी।
जाल और पीछा अब सीधे आमने-सामने की लड़ाई में बदल गया। आदित्य और उनकी टीम हर मोड़ पर हत्यारे की चाल का अनुमान लगाकर उसे फंसाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन हत्यारा हर बार उनका एक कदम आगे निकल जाता। गलियों में पीछा, भागमभाग और रहस्यमयी सुरागों के बीच बनारस सिहर उठा। आदित्य ने अपने भीतर यह तय कर लिया कि अब कोई गलती बर्दाश्त नहीं होगी; हत्यारा चाहे जितना चालाक क्यों न हो, उसे पकड़ा जाएगा। उन्होंने टीम को लगातार संदेश भेजे, हर गलियों और छुपे रास्तों की जानकारी साझा की और हत्यारे की हर चाल पर नजर रखी। बनारस के लोग अब पूरी तरह भय और उत्सुकता के मिश्रण में जी रहे थे—कौन बचेगा, कौन पकड़ा जाएगा, और हत्यारा आखिरकार कब अपनी चाल में फँस जाएगा। आदित्य जानते थे कि यह खेल अब चरम पर है, और उनका धैर्य, अनुभव और चालाकी ही इस जटिल जाल को सफलता की ओर ले जा सकती है। हर कदम पर शहर सिहर रहा था, लेकिन आदित्य के मन में यह विश्वास था कि अंततः सत्य और न्याय की जीत होगी, और बनारस को इस खौफनाक परछाई से मुक्ति मिलेगी।
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बनारस की गलियाँ अब एक तरह की खौफनाक सन्नाटे में डूबी हुई थीं। इंस्पेक्टर आदित्य और उनकी टीम ने अपनी सारी रणनीति और जाल बिछा दिए थे, लेकिन हत्यारा हर बार उनकी योजना को चुनौती देता हुआ दिखाई दे रहा था। तीसरे कत्ल के बाद से लगातार चार मौतों के बाद अब वह अपने अंतिम शिकार की ओर बढ़ चुका था। यह शिकार कोई और नहीं बल्कि उस मोहल्ले का वही व्यक्ति था, जो वर्षों पहले उन सात दोस्तों द्वारा किए गए धोखे का प्रत्यक्ष हिस्सा था। इंस्पेक्टर आदित्य ने महसूस किया कि अब मामला केवल अपराध का नहीं रह गया है; यह अतीत की अधूरी न्याय की कहानी बन चुकी थी। हर कदम पर हत्यारे के निशान—सात लाल पगचिन्ह—शहर में भय और दहशत का प्रतीक बन चुके थे। आदित्य ने अपनी टीम के साथ पूरे मोहल्ले और घाट की निगरानी कड़ी कर दी थी। घाट, गलियाँ और तंग रास्ते अब सिर्फ़ एक भूले-बिसरे खेल का मैदान नहीं रहे थे, बल्कि हर मोड़ पर हत्यारे और पुलिस के बीच मानसिक और शारीरिक टकराव का प्रतीक बन गए थे।
जैसे ही हत्यारा अपने अंतिम शिकार के करीब पहुँचा, आदित्य ने महसूस किया कि यह खेल अब चरम सीमा पर पहुँच चुका है। उन्होंने बची हुई दो ज़िंदगियों को सुरक्षित स्थानों पर छिपा दिया और हर गली में पुलिस की टीम को तैनात किया। लेकिन हत्यारा इतनी सावधानी और चतुराई से काम कर रहा था कि हर जाल, हर नज़रबंदी, और हर सुराग उसे आसानी से भांप लेता था। अंततः घाट के पास, उसी जगह जहाँ पहले कई रहस्यमयी कत्ल हुए थे, हत्यारा अपने अंतिम शिकार के सामने प्रकट हुआ। उस शिकार का चेहरा देखते ही आदित्य और उनकी टीम की आँखों में चौंक और भय दोनों साफ दिखाई दिए। यह वही व्यक्ति था, जिसने वर्षों पहले निर्दोष पिता के जीवन को तबाह कर दिया था। धीरे-धीरे सच सामने आया—यह हत्यारा उस निर्दोष व्यक्ति का बेटा था, जिसे सालों पहले सात दोस्तों ने झूठे आरोपों में फँसा कर बर्बाद कर दिया था। हत्यारे के खून के आँसू, उसके लंबे समय से दबाए गए गुस्से और अधूरी न्याय की पीड़ा ने इस खौफनाक खेल को जन्म दिया था।
शहर में यह रहस्य उजागर होते ही हर जगह खामोशी और सन्नाटा छा गया। आदित्य ने महसूस किया कि अब केवल हत्यारे को पकड़ना ही न्याय का असली कदम होगा। उस हत्यारे का हर कत्ल, हर लाल पगचिन्ह और हर संदेश केवल व्यक्तिगत प्रतिशोध नहीं था; यह उस पीड़ा और आंसुओं का प्रतीक था, जो उसके पिता को झेलनी पड़ी थी। आदित्य ने अपनी टीम के साथ पूरी ताकत और चतुराई लगाकर हत्यारे को घेर लिया। गलियों में पीछा, भागमभाग और मानसिक युद्ध अब अपने चरम पर पहुँच गया। अंत में हत्यारे ने स्वीकार किया कि उसका मकसद केवल उन अपराधियों को उनके किए का मूल्य चुकाना था। शहर की जनता ने जब यह कहानी सुनी, तो उन्होंने महसूस किया कि बनारस की गलियों, घाटों और मोहल्लों में जो भय और रहस्य फैला था, उसका मूल कारण वर्षों पुराना न्याय का अधूरा खेल था। आदित्य ने यह संकल्प लिया कि अब इस अधूरी कहानी को पूरी तरह न्याय के दायरे में लाना होगा, ताकि बनारस फिर से केवल अपनी संस्कृति, गलियों और गंगा की रौनक के लिए जाना जाए, न कि भय और खौफ के लिए।
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बनारस की गलियाँ, घाट और घाटियों की पुरानी दीवारें अब खामोशी और सन्नाटे में डूब चुकी थीं। इंस्पेक्टर आदित्य ने अपनी पूरी टीम के साथ घाट के पास अंतिम जाल बिछा दिया था, यह जानते हुए कि हत्यारा अब अपने सातवें शिकार और अंतिम कदम की ओर बढ़ रहा है। शहर की हवा में तनाव और भय की गहनता स्पष्ट महसूस की जा सकती थी। घाट के आसपास के लोग और नाविक भी अपने घरों में छिपे हुए थे, और केवल गंगा की लहरों की आवाज़ अब शहर की दबी दबी साँसों के बीच सुनाई दे रही थी। आदित्य ने अपने भीतर यह संकल्प लिया कि अब कोई भी गलती बर्दाश्त नहीं होगी; हत्यारे को पकड़ना ही अंतिम लक्ष्य था। घाट की सीढ़ियों पर तैनात पुलिस और छुपे हुए सुराग़ इस बात की गवाही दे रहे थे कि अब संघर्ष का समय आ गया है। आदित्य के दिमाग़ में हत्यारे की चाल, पिछले कत्लों का तरीका और लाल पगचिन्हों की मानसिक छाया घूम रही थी। हर कदम पर हत्यारा उन्हें चुनौती दे रहा था, और आदित्य जानते थे कि अब यह केवल एक शारीरिक मुकाबला नहीं बल्कि मानसिक और भावनात्मक लड़ाई भी बन चुकी थी।
जैसे ही हत्यारा घाट पर प्रकट हुआ, उसकी आँखों में वर्षों की पीड़ा, क्रोध और अधूरी न्याय की आग झलक रही थी। आदित्य ने तुरंत उसे रोकने की कोशिश की, लेकिन हत्यारा पहले से तैयार और चौकस था। घाट की संकरी गलियों में दौड़, पीछा और मानसिक टकराव जारी रहा। हत्यारे का हर कदम, उसका हर मूव यह दर्शा रहा था कि वह केवल अपने पिता की अधूरी न्याय की कहानी को पूरा करना चाहता था। आदित्य ने उसे समझाने की कोशिश की कि अब घातक रास्ता सही नहीं है, लेकिन हत्यारे की मानसिक अवस्था इतनी गहरी थी कि वह केवल अंतिम कदम पर ही शांति पा सकता था। गंगा की ठंडी लहरें जैसे उनकी सांसों और दिल की धड़कनों को सुन रही थीं। हर क्षण में आदित्य को यह डर था कि अगर हत्यारे को अभी नहीं रोका गया, तो अंतिम शिकार और भी अनहोनी का शिकार हो सकता है। घाट की सीढ़ियों पर दौड़ते हुए दोनों—इंस्पेक्टर और हत्यारा—एक दूसरे के सामने आ गए, और अंतिम टकराव की घड़ी आ पहुँची।
अंततः हत्यारे ने अपने सातवें कदम को पूरा किया। आदित्य ने फायरिंग की, और हत्यारा या तो पुलिस की गोली से गिर गया या गंगा की लहरों में समा गया—शहर के लोग केवल खून और पानी के मिलन के दृश्य को देख पाए। घाट पर खड़ी भीड़ और नाविक इस दृश्य को सिहरते हुए देख रहे थे। शहर को अब हत्यारे की सच्चाई पता चल चुकी थी—उसका मकसद व्यक्तिगत प्रतिशोध और पिता के अधूरी न्याय की कहानी को पूरा करना था। लेकिन गंगा की लहरें इस सवाल को छोड़ गईं कि क्या वाकई इंसाफ हुआ या यह केवल एक खौफनाक खेल का अंत था। आदित्य ने अपने भीतर यह समझा कि न्याय हमेशा साफ़ और सरल नहीं होता; कभी-कभी वह समय, पीड़ा और प्रतिशोध के जटिल जाल से गुजरकर ही सामने आता है। बनारस की गलियाँ अब धीरे-धीरे अपनी पुरानी रौनक में लौटने लगीं, लेकिन घाट की लहरें, हवाओं की सरसराहट और शहर की दीवारों पर गहरी खामोशी यह याद दिलाती रही कि कभी-कभी सत्य और न्याय की कहानी जितनी सुंदर होती है, उतनी ही दर्दनाक भी होती है। इंस्पेक्टर आदित्य ने शहर की ओर देखा, गंगा की शांत लहरों को महसूस किया और यह जाना कि अब वह अपने काम में सफल हुआ, लेकिन गंगा की गवाही हमेशा इस सवाल को बनाए रखेगी—क्या वाकई इंसाफ हो गया, या केवल अधूरी कहानियाँ और खौफ बाकी रह गए?
समाप्त