अनुभव तिवारी
१
सांझ की बेला में जब गंगा किनारे वाराणसी का दशाश्वमेध घाट धीरे-धीरे दीपों और मंत्रोच्चार से भरने लगता है, तो वहाँ का हर दृश्य किसी अलौकिक चित्र की तरह आँखों में उतरता है। सूरज का अंतिम प्रकाश गंगा की सतह पर सुनहरी आभा बिखेरता है और उसकी लहरें मानो उस प्रकाश को अपनी गोद में समेटने के लिए आपस में खेलती हुई झिलमिलाती हैं। घाट की सीढ़ियों पर भीड़ उमड़ आई है—कहीं श्रद्धालु अपने हाथों में फूल और दीये लिए खड़े हैं, कहीं विदेशी पर्यटक मंत्रमुग्ध होकर इस दृश्य को कैमरे में कैद कर रहे हैं, और कहीं छोटे-छोटे बच्चे ‘हर हर गंगे’ की पुकार लगाते हुए दीये बेच रहे हैं। पंडों की गूंजती हुई आवाज़ें, शंखनाद की ध्वनि और घंटियों की टनटनाहट मिलकर ऐसा वातावरण रचते हैं, जिसमें समय ठहर सा जाता है। इसी अद्भुत दृश्य के बीच, एक ओर से आती है आरती—दिल्ली विश्वविद्यालय की शोध छात्रा, जिसके मन में इतिहास और संस्कृति को जानने की गहरी प्यास है। उसके हाथ में एक डायरी है, जिसमें वह घाट की गतिविधियों और लोगों के भाव-भावनाओं को नोट कर रही है। उसके चेहरे पर पहली बार बनारस देखने की उत्सुकता झलक रही है, और आँखों में इस शहर के रहस्य और अध्यात्म को समझने का संकल्प। भीड़ में घिरी होने के बावजूद, वह अपने आप में डूबी हुई सी लगती है, जैसे हर ध्वनि, हर रंग और हर गंध को आत्मसात करने की कोशिश कर रही हो।
उसी समय दूसरी ओर से कबीर आता है—इलाहाबाद का रहने वाला एक युवा फोटोग्राफर, जो बचपन से ही कैमरे की आँख से दुनिया को देखना पसंद करता है। वह अपने कैमरे के लेंस से घाट पर चल रही गतिविधियों को कैद कर रहा है, और उसकी नज़रें बार-बार गंगा की लहरों पर ठहर जाती हैं, मानो उनमें किसी अनकही कहानी को पढ़ने की कोशिश कर रहा हो। कबीर के कैमरे में न सिर्फ़ छवियाँ बसती हैं बल्कि उन छवियों के पीछे छिपी संवेदनाएँ भी दर्ज हो जाती हैं, और यही उसकी कला को अलग पहचान देती है। वह अपने कैमरे के ज़रिए उस अलौकिक माहौल को पकड़ने की कोशिश कर रहा है—दीयों की लंबी कतारें जो पानी पर बह रही हैं, पंडों के हाथों में उठते दीपस्तंभ, और श्रद्धालुओं की आँखों में भक्ति की चमक। जब वह कैमरे को एक कोण से समायोजित करता है, तभी अचानक उसके फ़्रेम में एक चेहरा आ जाता है—वह चेहरा आरती का है। उसके माथे पर ढलती रोशनी का हल्का-सा स्पर्श, हाथ में खुली हुई डायरी और उसकी गंभीर नज़रें, यह सब कुछ मिलकर तस्वीर को खास बना देता है। कबीर क्षणभर के लिए कैमरा नीचे कर देता है, क्योंकि उसकी नज़रें उस चेहरे पर अटक जाती हैं। वह समझ नहीं पाता कि भीड़ में सैकड़ों चेहरों के बीच उसका ध्यान अचानक इसी एक चेहरे पर क्यों ठहर गया।
उधर आरती, जो अपने नोट्स में डूबी हुई थी, अनायास ही नज़र उठाकर चारों ओर देखती है और उसकी आँखें कुछ पल के लिए कबीर से टकरा जाती हैं। दोनों ही एक-दूसरे को बस कुछ सेकंड देखते हैं, बिना कुछ कहे और बिना कुछ समझे। यह एकदम अनजानेपन का क्षण था, लेकिन उसके भीतर कहीं एक हल्की-सी सरगर्मी छोड़ गया। दोनों ही उस नज़र को तुरंत ही भीड़ और माहौल के बीच खो जाने देते हैं, मानो यह मुलाक़ात कभी हुई ही न हो। आरती फिर से अपनी डायरी में लिखने लगती है, और कबीर दोबारा कैमरे के लेंस से दृश्य को कैद करने में लग जाता है। किन्तु इस क्षणिक परिचय ने दोनों के भीतर अनजाने ही एक अदृश्य धागा खींच दिया था। गंगा आरती अपने पूरे शबाब पर पहुँचती है—लहरों पर बहते दीयों की सुनहरी रोशनी, आसमान में गूंजता हुआ मंत्रोच्चार, और श्रद्धालुओं के चेहरों पर झलकती भक्ति की गहनता। इस पूरे दृश्य में वे दोनों फिर से भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं, लेकिन उनके दिलों में उस पहली झलक की हल्की सी चमक बाकी रह जाती है—एक ऐसी झलक, जो अजनबी होकर भी उन्हें कहीं न कहीं जोड़ चुकी थी। वाराणसी की इस शाम ने उनके जीवन में एक ऐसा क्षण अंकित कर दिया था, जिसकी गूँज आने वाले दिनों में धीरे-धीरे और गहरी होती जाएगी।
२
दूसरी शाम वाराणसी का दशाश्वमेध घाट फिर से अपने पूरे वैभव के साथ जगमगाने लगा था। सूरज धीरे-धीरे क्षितिज के नीचे ढल रहा था और उसकी सुनहरी किरणें गंगा की सतह पर फैलकर उसे तरल सोने का रूप दे रही थीं। भीड़ पहले से भी ज़्यादा थी—श्रद्धालुओं के कदम, मंत्रोच्चार की गूँज, घंटियों की आवाज़ और दीयों की कतारें सब मिलकर फिर से वही अद्भुत दृश्य रच रहे थे। आरती इस बार भी अपनी डायरी के साथ घाट पर मौजूद थी, पर उसके मन में हल्की-सी बेचैनी थी, मानो कुछ अनजाना उसे खींच रहा हो। पिछली शाम देखे उस अजनबी चेहरे की स्मृति अनायास ही बार-बार उसके मन में लौट आती थी। वह खुद से कहती कि शायद यह केवल भीड़ के बीच एक आकस्मिक क्षण था, लेकिन उसके भीतर कहीं यह अहसास भी था कि वह क्षण साधारण नहीं था। वह सीढ़ियों पर बैठकर आसपास के दृश्य लिख रही थी, पर उसकी आँखें अनजाने ही बार-बार भीड़ में किसी को खोज रही थीं।
उधर कबीर भी उसी समय घाट पर पहुँचा था। उसके कैमरे का लेंस आज भीड़ और दीयों की छवियों की तलाश में घूम रहा था, पर उसका मन उतना स्थिर नहीं था जितना पहली शाम था। पिछली रात उसने कई तस्वीरें अपने लैपटॉप पर देखीं, पर उनमें से एक तस्वीर उसकी आँखों में अटकी रह गई—आरती की तस्वीर। उस तस्वीर में कोई अलौकिक बात थी, कोई अनकही गहराई जो बाकी तस्वीरों में नहीं थी। कबीर खुद को रोक नहीं पाया और उसी घाट पर लौट आया, मानो किसी अनजानी चाहत ने उसे पुकारा हो। जब उसने अपने कैमरे को भीड़ की ओर घुमाया, तो अचानक उसकी नज़र उसी चेहरे पर जाकर ठहर गई। आरती कुछ लिखने में मग्न थी, पर उसके चेहरे की शांति और आँखों की गंभीरता उसे फिर से आकर्षित कर रही थी। कबीर ने कैमरा नीचे किया, और बस कुछ पल के लिए उसे देखने लगा। उस भीड़ और शोरगुल के बीच भी जैसे उनके बीच एक अदृश्य मौन था, जो दोनों के दिलों में धीरे-धीरे पहचान का रूप ले रहा था।
आरती ने भी अचानक उसकी नज़रों का आभास किया और सिर उठाकर कबीर को देखा। यह कोई लंबी बातचीत नहीं थी, न कोई मुस्कान या संकेत, बस एक क्षण भर की नज़र थी। लेकिन उस नज़र में एक हल्की-सी पहचान थी, जैसे दोनों ही मान चुके हों कि वे अब बिल्कुल अजनबी नहीं रहे। उनकी आँखों में उस अदृश्य डोर का अहसास था, जो शायद गंगा आरती के पवित्र वातावरण ने बाँध दिया था। दोनों फिर से अपने-अपने कामों में लग गए—आरती अपनी डायरी लिखने में और कबीर कैमरे से तस्वीरें लेने में—लेकिन उनके मन में वह छोटी-सी मुलाक़ात देर तक गूँजती रही। दीयों की पंक्तियाँ एक बार फिर लहरों पर बह चलीं, मंत्रोच्चार की गूँज आसमान को छूने लगी, और गंगा के जल पर झिलमिलाती रोशनी ने सब कुछ आभामय कर दिया। इसी भीड़ के बीच वे दोनों फिर एक-दूसरे के पास होकर भी दूर रहे, बिना बोले ही एक अनकही पहचान की नींव रख गए, जैसे वाराणसी की गंगा उन्हें धीरे-धीरे करीब लाने का वादा कर रही हो।
३
तीसरी शाम गंगा किनारे का वातावरण हमेशा की तरह भव्य था, लेकिन आरती के लिए यह शाम कुछ अलग थी। वह घाट की सीढ़ियों से नीचे उतर रही थी, तभी अचानक एक भीड़भाड़ वाली गली में फँस गई। वाराणसी की संकरी गलियों का अपना ही अंदाज़ था—इधर-उधर से निकलते बैलगाड़ी वाले, फूलों की टोकरी लिए पुजारी, प्रसाद बेचते बच्चे और विदेशी पर्यटकों का रेला। आरती पहली बार इन संकरी गलियों में अकेली निकल पड़ी थी और पलभर के लिए ठिठक गई। तभी पीछे से आती हुई आवाज़ ने उसे राहत दी—“रुकिए, ये रास्ता थोड़ा उलझा हुआ है, मैं आपको बाहर तक पहुँचा देता हूँ।” आरती ने पलटकर देखा तो वही अजनबी चेहरा सामने था—कबीर। उसके हाथ में कैमरा था और कंधे पर बैग, पर आँखों में एक सहज आत्मीयता। आरती ने बिना कुछ कहे सिर हिलाया और उसके साथ चल पड़ी। रास्ते में कबीर ने गली के बारे में बताना शुरू किया—किस गली का क्या इतिहास है, किस मोड़ पर कौन-सी पुरानी कचौड़ी की दुकान मशहूर है, और कैसे यही संकरी गलियाँ वाराणसी की आत्मा हैं। आरती ध्यान से सुनती रही, कभी-कभी मुस्कुरा कर प्रतिक्रिया देती, और उसके मन में यह विचार कौंधता रहा कि अजनबियों के बीच इतनी जल्दी सहजता कैसे आ सकती है।
घाट तक पहुँचते-पहुँचते दोनों के बीच हल्की-फुल्की बातचीत शुरू हो गई थी। कबीर ने मज़ाकिया अंदाज़ में कहा—“दिल्ली वालों को तो यहाँ की भीड़ देखकर ही दम घुटने लगता होगा, है न?” आरती ने हँसते हुए जवाब दिया—“हाँ, थोड़ा तो लगता है, लेकिन यही भीड़ तो असली वाराणसी है। इस शहर का इतिहास, इसकी संस्कृति, सब इसी गहमागहमी में छुपा है।” कबीर ने मुस्कुराकर सिर हिलाया और कहा—“बिल्कुल सही, और गंगा इस सबको अपने में समेटे हुए है। आप जहाँ से भी आते हों, उसकी धारा आपको अपने में बाँध लेती है।” इस पर आरती ने अपनी डायरी बंद करते हुए कहा—“मैं भी यही महसूस कर रही हूँ। जब-जब यहाँ आती हूँ, लगता है जैसे गंगा मुझे कुछ कहना चाहती है।” बातचीत के ये छोटे-छोटे टुकड़े धीरे-धीरे दोनों के बीच पुल बनाने लगे। कबीर ने बताया कि वह इलाहाबाद का है और बचपन से गंगा को अपने जीवन का हिस्सा मानता आया है। वहीं आरती ने अपनी रिसर्च के बारे में बात की—कैसे वह भारत की सांस्कृतिक धरोहर पर शोध कर रही है और क्यों वाराणसी उसके लिए एक अनिवार्य पड़ाव है। उनकी बातें सहज थीं, बिना किसी औपचारिकता के, जैसे दो पुराने परिचित अचानक फिर से मिले हों।
शाम गहराते-गहराते दोनों घाट की सीढ़ियों पर बैठ गए और सामने जलती हुई आरती का दृश्य देखने लगे। दीयों की कतारें धीरे-धीरे लहरों पर तैर रही थीं, और मंत्रोच्चार की गूंज पूरे वातावरण को आध्यात्मिक बना रही थी। इस माहौल में उनकी बातचीत और भी गहरी हो गई। कबीर ने कहा—“जानती हैं, मुझे हमेशा लगता है कि गंगा केवल एक नदी नहीं है, यह स्मृतियों का प्रवाह है। इसमें हर चेहरे, हर पीढ़ी, हर प्रार्थना की छाप है।” आरती ने उसकी ओर देखा और बोली—“और यही तो खासियत है इस शहर की। यहाँ आप अतीत और वर्तमान दोनों को एक साथ जी सकते हैं।” उस क्षण दोनों ही चुप हो गए, लेकिन उस चुप्पी में भी एक संवाद था। मानो शब्द अब आवश्यक नहीं रह गए थे, केवल साथ होना ही काफी था। कुछ देर बाद आरती ने मुस्कुराते हुए कहा—“तो अब मैं रास्ता नहीं भटकूँगी, क्योंकि लगता है मुझे यहाँ एक गाइड मिल गया है।” कबीर ने हँसकर जवाब दिया—“गाइड नहीं, बस एक साथी समझिए।” और इस सहज मज़ाक के साथ दोनों के बीच अनकही पहचान अब दोस्ती का रूप लेने लगी। उस रात वाराणसी की गंगा ने केवल आरती और कबीर को नहीं जोड़ा, बल्कि उनके जीवन में एक नई कहानी का आरंभ भी लिख दिया—शब्दों से शुरू हुई, मगर शायद बहुत आगे तक जाने वाली।
४
वाराणसी की सुबहें और शामें, दोनों ही घाटों पर अपनी अलग छटा बिखेरती हैं। चौथी शाम, जब आरती और कबीर फिर से दशाश्वमेध घाट पर मिले, तो अब उनके बीच अजनबीपन का पर्दा लगभग हट चुका था। भीड़ के बीच चलते हुए आरती ने कबीर से अपने शोध के बारे में खुलकर बात की। उसने बताया कि उसका विषय है—“गंगा आरती और उसकी सांस्कृतिक परंपरा।” उसके स्वर में उत्साह था, मानो यह केवल अकादमिक अध्ययन नहीं, बल्कि उसके दिल का भी हिस्सा हो। आरती ने कहा—“मैं जानना चाहती हूँ कि गंगा आरती सिर्फ़ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि पीढ़ियों से चली आ रही सांस्कृतिक धरोहर है, जिसने वाराणसी की पहचान बना दी है। इसके पीछे की कथाएँ, प्रतीक और यहाँ आने वाले लोगों की आस्था मुझे बहुत आकर्षित करती है।” कबीर ध्यान से उसकी बात सुन रहा था, और फिर मुस्कुराकर बोला—“तो आप सही जगह आई हैं। घाट केवल ईंट-पत्थर की सीढ़ियाँ नहीं हैं, बल्कि अनगिनत कहानियों का घर हैं। अगर आप चाहें, तो मैं आपको अपने कैमरे से खींची कुछ तस्वीरें दिखा सकता हूँ। शायद आपके शोध में मदद मिल जाए।”
कबीर ने अपने बैग से कैमरा निकाला और आरती को स्क्रीन पर तस्वीरें दिखाने लगा। हर तस्वीर जैसे एक कहानी कह रही थी—कहीं एक बूढ़ा साधु दीया जलाकर गंगा में प्रवाहित कर रहा था, कहीं छोटे बच्चे पानी में उतरकर खिलखिला रहे थे, कहीं आरती के दीपस्तंभ हाथों में उठाए पंडों के चेहरे चमक रहे थे। कबीर ने कहा—“इन तस्वीरों को लेते समय मैंने हमेशा यह महसूस किया कि गंगा केवल जल नहीं है, यह हर इंसान की भावनाओं को अपने में समेट लेती है। कोई यहाँ प्रार्थना लेकर आता है, कोई अपनी थकान धोने, और कोई बस इस नज़ारे को देखकर शांति पाने।” आरती ने कैमरे की ओर झुककर गहरी नज़र से तस्वीरें देखीं। उसकी आँखों में कौतूहल और भावनाओं का मिश्रण था। उसने धीरे से कहा—“इन छवियों में वही है जिसे मैं शब्दों में ढालने की कोशिश कर रही हूँ। शायद तस्वीरें और शब्द मिलकर ही इस शहर की सच्ची कहानी कह सकते हैं।” कबीर उसकी बात सुनकर चुप रहा, लेकिन भीतर से उसने महसूस किया कि किसी ने उसकी कला को पहली बार इतनी गहराई से समझा है।
इसके बाद दोनों ने ठान लिया कि शाम को केवल दशाश्वमेध घाट तक ही सीमित नहीं रहेंगे। वे नाव पकड़कर अन्य घाटों की ओर निकल पड़े। गंगा के जल पर बहती नाव और उसके चारों ओर फैली पीली रोशनी मानो किसी और दुनिया का एहसास करा रही थी। कबीर ने नाव की ओर इशारा करके कहा—“वह सामने है मणिकर्णिका घाट, जहाँ जीवन और मृत्यु दोनों साथ-साथ चलते हैं।” आरती ने ध्यान से देखा, उसकी आँखों में गंभीरता उतर आई। फिर वे पंचगंगा घाट, अस्सी घाट और अन्य छोटे-बड़े घाटों से गुज़रे। हर घाट पर अलग-अलग दृश्य थे—कहीं विद्यार्थी भजन गा रहे थे, कहीं साधु ध्यान में लीन थे, कहीं विदेशी पर्यटक ताली बजाकर लोकगीत सुन रहे थे। आरती बार-बार अपनी डायरी में नोट्स लिखती और कबीर समय-समय पर तस्वीरें खींचता। इस तरह चलते-चलते दोनों के बीच संवाद और भी गहरा होता गया। अब वे केवल घाटों की कहानियाँ ही नहीं बाँट रहे थे, बल्कि अपनी दुनिया के बारे में भी बता रहे थे। आरती ने कबीर को दिल्ली की व्यस्त गलियों, अपनी यूनिवर्सिटी और किताबों से भरी लाइब्रेरी के बारे में बताया, जबकि कबीर ने इलाहाबाद की गंगा-यमुना की संगम कहानियाँ और अपने बचपन की यादें साझा कीं। उस नाव की धीमी रफ्तार पर उनकी बातें बहती चली गईं, और वाराणसी की रात ने उन दोनों को एक ऐसी साझेदारी की ओर बढ़ा दिया जहाँ शोध और तस्वीरें ही नहीं, बल्कि दिल और समझ भी एक-दूसरे से जुड़ने लगे थे।
५
पाँचवीं शाम गंगा के घाट पर वही जाना-पहचाना दृश्य था, लेकिन आरती और कबीर के लिए यह शाम किसी अनकही बेचैनी का संकेत लेकर आई थी। दोनों घाट की सीढ़ियों पर बैठकर गंगा आरती की तैयारियाँ देख रहे थे। पंडों के हाथों में जलते दीपस्तंभ, घंटियों की टन-टन और आसमान में गूँजते मंत्रोच्चार से पूरा वातावरण एक अद्भुत ऊर्जा से भर गया था। कबीर अपने कैमरे से दीयों की पंक्तियाँ कैद कर रहा था और आरती अपनी डायरी में नोट्स ले रही थी, लेकिन उनके बीच मौन की परत इस बार ज़्यादा गहरी थी। थोड़ी देर बाद आरती ने अचानक धीमी आवाज़ में कहा—“कल मैं यहाँ नहीं आ पाऊँगी।” यह वाक्य सुनते ही कबीर की उँगलियाँ कैमरे पर ठिठक गईं। उसने धीरे से उसकी ओर देखा, मानो यह सुनकर उसके भीतर कुछ खाली-सा हो गया हो। वह कुछ कहना चाहता था, लेकिन शब्द जैसे होंठों तक पहुँचकर थम गए। गंगा की लहरें भी उस क्षण मानो उसकी चुप्पी को प्रतिध्वनित कर रही थीं।
आरती ने उसकी चुप्पी को भाँप लिया और हल्की मुस्कान के साथ उसकी ओर झुकते हुए बोली—“लेकिन परसों हम यहीं मिलेंगे, गंगा आरती के वक्त। वादा रहा।” उसके होंठों से निकले इन शब्दों ने मानो उस पल की उदासी को दूर कर दिया। कबीर की आँखों में हल्की-सी चमक लौटी, हालांकि उसने अब भी कोई लंबा जवाब नहीं दिया। उसने केवल सिर हिलाकर हामी भरी और कैमरे को फिर से गंगा की ओर मोड़ दिया। पर उसकी नज़रों में अब गंगा की झिलमिलाती लहरें नहीं, बल्कि वह वादा चमक रहा था जो आरती ने किया था। आरती ने भी यह महसूस किया कि उसने पहली बार अनजाने ही इस रिश्ते को एक नाम दे दिया है—एक वादा, एक प्रतीक्षा, एक मुलाक़ात की पक्की नींव। दोनों के बीच उस क्षण शब्दों की ज़रूरत नहीं थी। गंगा के किनारे बैठकर यह मौन ही उनकी भावनाओं को अभिव्यक्त कर रहा था।
आरती ने डायरी बंद की और दीयों की कतारों को लहरों पर बहते हुए देखने लगी। उसकी आँखों में हल्की-सी चमक थी, जैसे यह शहर अब केवल उसके शोध का हिस्सा नहीं रहा, बल्कि उसकी निजी यात्रा का भी अहम अध्याय बन चुका हो। कबीर ने धीरे से कैमरा नीचे रखा और उसकी ओर देखा। उनकी आँखें मिलीं—उसमें कोई वादा लिखा था, कोई आशा, कोई गहराता रिश्ता। भीड़ के शोर, मंत्रोच्चार की गूँज और जलते दीयों के बीच यह क्षण मानो केवल उनका अपना था। आरती ने दोबारा मुस्कुराते हुए कहा—“तो तय रहा, परसों मिलेंगे।” कबीर ने इस बार धीरे से कहा—“हाँ, वादा रहा।” और उस छोटे-से संवाद ने उनके रिश्ते को एक नया अर्थ दे दिया। गंगा की लहरों ने उस वादे को अपनी गोद में समेट लिया, जैसे वह जानती हो कि इन दो आत्माओं की कहानी अब आगे बढ़ने वाली है। उस रात घाट से लौटते समय दोनों अलग-अलग रास्तों पर चले गए, पर उनके दिलों में गंगा किनारे हुआ वह वादा एक दीपक की तरह जलता रहा, जो आने वाले कल के अंधेरे को रोशन करता रहा।
६
छठी शाम घाट पर गंगा आरती की तैयारियाँ हमेशा की तरह हो रही थीं, लेकिन इस बार आरती और कबीर की बातचीत किसी और गहराई की ओर बढ़ रही थी। दोनों घाट की सीढ़ियों पर थोड़ी दूरी बनाकर बैठे थे, किन्तु उनके बीच का संवाद धीरे-धीरे मौन की खाई को पाट रहा था। मंत्रोच्चार और घंटियों की आवाज़ के बीच कबीर ने अचानक अपनी नज़रें गंगा की ओर टिकाते हुए कहना शुरू किया—“जानती हो, मैंने अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़ दी थी। मेरे घर वाले चाहते थे कि मैं इंजीनियर बनूँ, एक स्थिर नौकरी करूँ, लेकिन मेरा मन कभी किताबों और गणनाओं में नहीं लगा। कैमरा हाथ में आते ही मुझे लगा कि यही मेरा रास्ता है, लेकिन इसके लिए बहुत कुछ छोड़ना पड़ा। मेरे परिवार ने इसे पसंद नहीं किया, उन्हें लगता था कि यह कोई स्थायी भविष्य नहीं है। कई बार सोचा कि हार मान लूँ, लेकिन गंगा किनारे बैठकर कैमरा उठाने पर मुझे हमेशा एक नई ताक़त मिली। यही वजह है कि आज भी जब भी उलझन में होता हूँ, तो घाट पर आ जाता हूँ।” कबीर के स्वर में कहीं हल्की पीड़ा थी, कहीं गर्व, और कहीं एक गहरी ईमानदारी। आरती चुपचाप सुनती रही, उसकी आँखों में समझ और सम्मान दोनों झलक रहे थे।
कबीर की बातें सुनकर आरती ने भी अपनी ओर से दिल की गांठें खोलनी शुरू कीं। उसने कहा—“मेरा परिवार हमेशा से चाहता था कि मैं घर पर रहूँ, पढ़ाई पूरी करके जल्दी शादी कर लूँ। लेकिन मैंने जब रिसर्च का रास्ता चुना, खासकर इस तरह के विषय पर, तो उन्हें यह सब बेमतलब लगा। उन्हें लगता है कि ये सब पुराने जमाने की बातें हैं, जिनका आज की ज़िंदगी से कोई लेना-देना नहीं। कई बार मुझे सुनना पड़ा कि मैं घर की ‘परंपराओं’ से दूर जा रही हूँ। शायद यही वजह है कि मैं यहाँ, इस शहर में अकेली हूँ। कभी-कभी अकेलापन बहुत चुभता है, लेकिन जब गंगा के किनारे आती हूँ तो लगता है कि मेरी चुप्पी को कोई सुन रहा है।” आरती के स्वर में भी एक थरथराहट थी, मानो यह पहली बार था जब उसने किसी अजनबी के सामने अपने मन की गहराई को बेपर्दा किया हो। कबीर ने उसकी ओर देखा, और दोनों की नज़रें मिलीं। उन नज़रों में न दया थी, न सवाल, बस एक गहरी समझ और मौन का सहारा।
उस शाम घाट पर बहती हवा, दीयों की लौ और गंगा की लहरें जैसे उनकी बातचीत की गवाह बन गईं। दोनों के मन की परतें खुलती चली गईं और हर परत के नीचे एक साझा एहसास था—संघर्ष, अकेलापन और अपने-अपने सपनों के लिए लड़ने की जिद्द। आरती ने धीमे से कहा—“शायद हम दोनों ही किसी न किसी तरह से अपने परिवार की उम्मीदों से अलग रास्ता चुन आए हैं।” कबीर ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया—“और शायद इसी वजह से हम यहाँ, इस घाट पर बैठे हैं। गंगा ने हमें सुना, समझा और जोड़ा।” दोनों के बीच अब केवल परिचय या दोस्ती नहीं थी, बल्कि एक अनकहा अपनापन भी था, जो धीरे-धीरे उनके दिलों को करीब ला रहा था। गंगा आरती की गूँजते स्वर और लहरों पर तैरते दीपक मानो इस नए जुड़ाव को आशीर्वाद दे रहे थे। उस रात जब दोनों घाट से लौटे, तो उनके भीतर यह एहसास और गहरा था कि उनकी कहानियाँ अब अलग-अलग नहीं, बल्कि एक-दूसरे से गुंथ चुकी हैं।
७
आरती को वह संदेश उस शाम मिला जब गंगा किनारे की हवा में हल्की ठंडक उतर रही थी और आरती के दीप धीरे-धीरे बहते हुए लहरों के साथ दूर जा रहे थे। दिल्ली से आया ईमेल छोटा था लेकिन गहरा असर डाल गया—“अगले हफ़्ते प्रोजेक्ट रिपोर्ट के लिए आपकी मौजूदगी ज़रूरी है।” वह लंबे समय से वाराणसी की गलियों, घाटों और मंदिरों में अपनी रिसर्च में खोई रही थी, लेकिन उसकी पेशेवर ज़िम्मेदारियाँ उसे फिर से अपने पुराने संसार की ओर खींच रही थीं। संदेश पढ़ते ही उसके चेहरे पर एक हल्की चिंता उभर आई। कबीर, जो पास ही खड़ा था और गंगा की ओर टकटकी लगाए देख रहा था, ने आरती की आँखों में अचानक उतर आई बेचैनी को महसूस किया, पर वह कुछ पूछ न सका। आरती के भीतर सवालों का तूफ़ान था—क्या यह यात्रा अब समाप्त हो जाएगी? क्या गंगा की यह आस्था, इन शामों की यह आरती, और कबीर की यह चुप्पी अब केवल याद बनकर रह जाएगी? वह समझ नहीं पा रही थी कि उसका दिल क्यों इतना भारी हो गया है, जबकि दिल्ली लौटना तो उसके लिए हमेशा घर लौटने जैसा ही था। शायद क्योंकि इस बार यहाँ उसने केवल शोध या किताबों से नहीं, बल्कि एक इंसान से जुड़कर कुछ नया महसूस किया था।
कबीर का मन भी असमंजस में था। उसने कभी खुद को किसी के लिए रोककर नहीं देखा था, लेकिन आरती के साथ बिताए इन दिनों ने उसे भीतर से बदल दिया था। हर शाम गंगा आरती के समय उसका मन बेक़रार रहता था कि वह आरती को देखे, उससे बातें करे, और उस चुप्पी में भी कुछ साझा करे जो शब्दों से कहीं गहरी थी। लेकिन अब जब आरती ने धीरे से उसे बताया कि उसे दिल्ली लौटना है, तो उसका दिल एकदम खाली-सा हो गया। उसने कोशिश की कि वह अपने चेहरे पर मुस्कान बनाए रखे और सामान्य लगे, लेकिन भीतर से वह टूट रहा था। “दिल्ली कब तक के लिए?” उसने साधारण-सा प्रश्न किया, पर उसके स्वर में छुपी आशंका आरती ने महसूस कर ली। वह मुस्कुराई, लेकिन वह मुस्कान अधूरी थी। “अभी तो कुछ तय नहीं है, लेकिन प्रोजेक्ट बहुत बड़ा है… शायद महीनों लग जाए।” यह सुनकर कबीर चुप रह गया। दोनों के बीच अचानक एक लंबा सन्नाटा उतर आया, जैसे गंगा की लहरें भी उनकी चुप्पी को सुन रही हों। उस क्षण दोनों को लगा कि वे एक-दूसरे से बहुत कुछ कहना चाहते हैं, पर शब्द उनके बीच तक पहुँच ही नहीं पा रहे।
उस रात दोनों अलग-अलग लौटे, लेकिन दोनों के मन में एक ही डर था—क्या यह मुलाक़ात बस यहीं तक थी? आरती अपने कमरे में बैठी देर तक सोचती रही कि कबीर ने कुछ क्यों नहीं कहा, जबकि वह उसकी आँखों में साफ़ देख सकती थी कि वह उसे रोकना चाहता है। वहीं कबीर अपने छोटे से घर में लेटे-लेटे सोचता रहा कि क्यों उसने दिल की बात जुबान पर नहीं लाई, क्यों उसने आरती को यह नहीं बताया कि गंगा की आरती से भी ज्यादा उजाला उसे उसकी उपस्थिति से मिलता है। शायद वह डर रहा था—डर इस बात का कि कहीं आरती उसकी बातों को हल्के में न ले, या कहीं यह बंधन उसके जाने के बाद और गहरा दुख न दे। सुबह जब दोनों फिर घाट पर मिले, तो सामान्य दिखने की कोशिश की, लेकिन उनकी आँखों में छुपी बेचैनी और दूरी की आहट दोनों ही महसूस कर रहे थे। वह आहट जैसे अनजाने में कह रही थी कि समय अब बदल रहा है, और हो सकता है उनकी राहें भी बदल जाएँ। पर इस अधूरेपन में भी एक उम्मीद छुपी थी—शायद अगली मुलाक़ात में वे अपने दिल की बातें कहने का साहस जुटा पाएँगे।
८
सुबह की सुनहरी धूप जब घाट की सीढ़ियों पर उतर रही थी, आरती ने अपने बैग को धीरे-धीरे समेटते हुए मन को बहुत भारी महसूस किया। उसका मन बार-बार पीछे की ओर खिंच रहा था, जहाँ गंगा के किनारे बिताई गई हर शाम, हर बातचीत और हर चुप्पी की स्मृतियाँ थीं। कबीर उसके पास चुपचाप खड़ा था, जैसे कुछ कहना चाहता हो पर शब्द गले में अटक गए हों। आरती ने उसकी ओर देखा, उसकी आँखों में वह अनकहा भाव साफ़ पढ़ लिया जो कई दिनों से उनके बीच मंडरा रहा था। वह मुस्कुराई, लेकिन उस मुस्कान में विदाई की टीस छुपी हुई थी। वह धीरे से बोली—“कबीर, मुझे जाना होगा, लेकिन मैं चाहती हूँ कि तुम हर शाम यहाँ आओ। गंगा आरती केवल एक पूजा नहीं है, यह हमारे दिलों का रिश्ता है। जब तक मैं लौटूँगी, तुम यहाँ रहना, मैं भी वहीं तुम्हें याद करूँगी।” यह कहते हुए उसकी आँखें हल्की-सी नम हो गईं, जैसे गंगा की लहरों में घुली हुई नमी उसकी आत्मा तक पहुँच गई हो। कबीर ने कुछ नहीं कहा, बस उसकी ओर गहरी नज़रों से देखा, मानो उस वादे को अपने दिल की गहराइयों में सुरक्षित रख रहा हो। उस क्षण आरती को लगा कि भले ही दूरी उन्हें अलग कर दे, लेकिन यह वादा एक अदृश्य डोर की तरह उन्हें जोड़कर रखेगा।
कबीर के भीतर उस वादे ने एक नई आस्था जगा दी। उसने कभी जीवन में किसी रिश्ते को इतना गहराई से महसूस नहीं किया था। आरती की बातों ने उसके दिल में एक स्थायी जगह बना ली थी, और अब वह हर शाम गंगा आरती में न केवल आस्था से, बल्कि आरती की याद से भी जुड़ने वाला था। उसे लगा मानो गंगा की धारा ही इस वादे की साक्षी बन गई है, और उस धारा की तरह यह रिश्ता भी अनंत तक बहेगा। जब आरती विदा लेकर जाने लगी, तो कबीर ने बस इतना कहा—“तुम्हारा वादा मेरे लिए प्रार्थना जैसा है, मैं हर शाम यहाँ रहूँगा।” उसकी आवाज़ धीमी थी लेकिन दृढ़, जैसे उसने भीतर ही भीतर किसी गहरी प्रतिज्ञा को स्वीकार कर लिया हो। आरती ने उसकी बात सुनकर अपने कदम आगे बढ़ाए, लेकिन हर कदम के साथ उसका दिल पीछे की ओर मुड़-मुड़कर देखना चाहता था। वह जानती थी कि दिल्ली की भीड़भाड़, शोर और ज़िम्मेदारियों में यह सन्नाटा और यह अपनापन खोजना आसान नहीं होगा, लेकिन इस एक वादे ने उसे दिलासा दिया कि कहीं न कहीं, गंगा किनारे, कबीर उसकी याद में खड़ा होगा।
उस दिन जब आरती ट्रेन में बैठी और वाराणसी की धुँधली होती तस्वीरें खिड़की से देखने लगी, तो उसके भीतर अजीब-सी शांति और उदासी दोनों एक साथ उमड़ पड़ीं। दूसरी ओर कबीर घाट पर बैठा देर तक गंगा की लहरों को देखता रहा। हर लहर उसे आरती की बात याद दिला रही थी—“हर शाम की गंगा आरती हमें जोड़ती रहेगी।” उसने आँखें बंद कीं और पहली बार महसूस किया कि दूरी हमेशा बिछड़ना नहीं होती, कभी-कभी यह मन की गहराइयों में रिश्ते को और गाढ़ा कर देती है। उसके दिल में अब कोई डर नहीं था, केवल एक दृढ़ यक़ीन था कि यह वादा उसकी ज़िंदगी को अर्थ देगा। उस शाम जब सूरज धीरे-धीरे गंगा की गोद में उतर रहा था और आरती की घंटियों की गूँज आसमान में फैल रही थी, कबीर ने खुद को उस भीड़ के बीच अकेला महसूस नहीं किया। उसे लगा मानो आरती सचमुच वहीं है, उसकी आँखों में, उसकी साँसों में, और उस हर रोशनी में जो दीपों से निकलकर गंगा की धार में तैर रही थी। वह जान गया था कि यह रिश्ता अब उसके जीवन की सबसे पवित्र धड़कन बन चुका है।
९
कई महीनों की दूरी, ज़िम्मेदारियों और शहर की भागदौड़ के बाद जब आरती ने एक बार फिर वाराणसी की धरती पर कदम रखा, तो उसके भीतर एक अजीब-सी धड़कन तेज़ हो गई। ट्रेन से उतरते ही उसे महसूस हुआ कि यह शहर केवल एक जगह नहीं है, बल्कि उसकी आत्मा का हिस्सा बन चुका है। उसने अपने बैग को कंधे पर टाँगा और ऑटो में बैठकर सीधे दशाश्वमेध घाट की ओर बढ़ गई। रास्ते में गली-कूचों की वही परिचित खुशबू, पान की दुकानों की मीठी गंध, और मंदिरों की घंटियों की आवाज़ उसके कानों में गूँजने लगी। हर मोड़ पर उसे लगा कि वह समय पीछे की ओर बह रहा है, उसे उन्हीं क्षणों में पहुँचा रहा है जब वह पहली बार कबीर से मिली थी। शाम का सूरज ढल रहा था और गंगा किनारे हजारों दीपक सजाए जा रहे थे। आरती ने जैसे ही घाट पर कदम रखा, उसकी नज़र सीधी उसी जगह गई जहाँ कभी उसने वादा किया था—और वहाँ, भीड़ के बीच, कबीर खड़ा था। कैमरा उसके हाथ में था, उसकी नज़रें गंगा पर टिकी हुई थीं, लेकिन उसके चेहरे पर वह धैर्य झलक रहा था, जो केवल किसी सच्चे इंतज़ार से आ सकता था।
आरती कुछ पल के लिए वहीं रुक गई, उसकी साँसें जैसे थम गईं। उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि महीनों बाद भी कबीर हर शाम यहाँ आता रहा होगा। उसकी आँखों में आँसू तैरने लगे, और वह धीरे-धीरे भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़ी। कबीर को जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने चेताया हो, उसने कैमरे से आँखें हटाईं और अचानक आरती को देखा। उस पल दोनों की आँखों में वही खुशी और भावुकता छलक पड़ी, जिसे शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता था। कबीर का चेहरा चमक उठा, उसकी आँखों में एक लंबा इंतज़ार और अचानक मिली राहत दोनों झलक रहे थे। वह कुछ कहना चाहता था, लेकिन गला रुँध गया। आरती उसके सामने खड़ी थी, हल्की मुस्कान लिए, और वह मुस्कान मानो उन सारे महीनों की दूरी को मिटा रही थी। आरती ने धीमे स्वर में कहा—“तुम सच में यहीं थे, हर शाम?” कबीर ने सिर झुकाकर कहा—“हाँ, हर शाम… जैसे वादा किया था।” यह सुनते ही आरती की आँखों से आँसू ढलक गए। उसने महसूस किया कि उसका यह लौटना केवल एक शहर में वापसी नहीं, बल्कि उस रिश्ते में वापसी थी जिसे उन्होंने गंगा की लहरों और दीपों की गवाही में जन्म दिया था।
उस शाम की गंगा आरती दोनों के लिए पहले जैसी नहीं थी। जब पुजारियों ने दीप उठाए और मंत्रोच्चार की गूँज आसमान में फैल गई, तो आरती और कबीर की आत्माएँ भी उस लहरों के साथ बहने लगीं। भीड़ में खड़े होकर भी वे केवल एक-दूसरे को देख पा रहे थे। आरती को लगा मानो समय थम गया हो और यह पल किसी अनंत कहानी का हिस्सा बन गया हो। कबीर ने धीरे से कहा—“मैंने कई तस्वीरें लीं इन महीनों में, लेकिन हर तस्वीर में मुझे तुम्हारा चेहरा दिखता था।” आरती मुस्कुराई और बोली—“और मैं हर शाम आँखें बंद करके यही सोचती थी कि तुम यहीं खड़े होगे।” दोनों की बातें दीपों की रोशनी और गंगा की लहरों के बीच खोती-सी जा रही थीं, लेकिन उनके दिलों में वह वादा और भी मजबूत हो चुका था। उस शाम घाट पर केवल आरती और कबीर ही नहीं मिले, बल्कि उनकी प्रतीक्षा, उनकी आस्था और उनका विश्वास भी एक-दूसरे से जुड़ गया। वाराणसी की गंगा ने फिर से उनके रिश्ते को अपनी धारा में समेट लिया, और अब दोनों जान चुके थे कि यह मिलन सिर्फ़ एक संयोग नहीं, बल्कि नियति का लिखा हुआ था।
१०
शाम की लालिमा गंगा की लहरों पर सुनहरी चादर बिछा रही थी। दशाश्वमेध घाट दीपों से जगमगा रहा था, और हजारों श्रद्धालुओं की साँसों में एक ही लय थी—मंत्रोच्चार और घंटियों की गूँज। पुजारियों के हाथों में उठते हुए दीप, गंगा की गोद में बहते असंख्य ज्योति-पुष्प और आकाश की ओर उठती हुई धुएँ की लकीरें मानो धरती और स्वर्ग को जोड़ रही थीं। इसी पवित्र क्षण में, कबीर और आरती भीड़ के बीच खड़े होकर एक-दूसरे की ओर मुड़े। महीनों की दूरी, अनकही भावनाएँ और अनगिनत यादें उस एक पल में सिमट आईं। कबीर ने धीरे से अपना हाथ बढ़ाया, और आरती ने बिना झिझके उसे थाम लिया। उनके स्पर्श में कोई वादा छुपा नहीं था, बल्कि पूरी आस्था और विश्वास खुलकर सामने आ गया था। उस स्पर्श ने उन्हें एहसास कराया कि वे अब केवल आरती के दर्शक या कैमरे के फ्रेम नहीं रहे, बल्कि एक-दूसरे की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुके हैं। आरती की आँखों में आँसू चमक रहे थे, लेकिन वह मुस्कुरा रही थी, और कबीर की नज़रों में एक गहरी शांति थी, मानो उसने वर्षों से जिस पल की प्रतीक्षा की थी, वह अब सामने खड़ा हो।
गंगा की लहरें धीरे-धीरे घाट की सीढ़ियों को छू रही थीं, जैसे इस मिलन की गवाही दे रही हों। दीपों की रोशनी उनके चेहरों पर पड़ रही थी, और दोनों ने महसूस किया कि यह क्षण केवल उनका नहीं है, बल्कि खुद गंगा ने उन्हें अपनी धारा में बाँध लिया है। कबीर ने धीमे स्वर में कहा—“हमारे बीच जो भी दूरी थी, वह अब गंगा में बह गई है।” आरती ने उसकी ओर देखते हुए जवाब दिया—“और अब जो भी होगा, वह इसी धारा की तरह अनंत और पवित्र होगा।” यह सुनते ही उनके भीतर एक गहरी निश्चिंतता उतर आई। दोनों जानते थे कि रिश्ते केवल मुलाक़ातों से नहीं, बल्कि वादों से जीते जाते हैं, और आज उन्होंने जो वादा किया है, वह किसी मंदिर की शपथ से कम नहीं। आरती को लगा कि उसकी शोध यात्रा ने उसे केवल गंगा आरती का सांस्कृतिक महत्व ही नहीं समझाया, बल्कि यह भी सिखाया कि जीवन में कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो अनायास ही परंपरा और आस्था की तरह बन जाते हैं। कबीर को लगा कि उसके कैमरे ने चाहे हजारों तस्वीरें कैद की हों, लेकिन यह पल उसके दिल की स्मृति में किसी तस्वीर से कहीं अधिक स्थायी रहेगा।
आरती और कबीर उस भीड़ में खड़े होकर देर तक मंत्रों की ध्वनि में खोए रहे, लेकिन उनके भीतर की खामोशी में एक नया जीवन जन्म ले रहा था। गंगा के सामने उन्होंने न कोई प्रतिज्ञा ली, न कोई बड़ा वचन, बस एक साधारण-सा हाथ पकड़ना ही उनके लिए पर्याप्त था, क्योंकि उसमें वह स्थायित्व था जो शब्दों से परे होता है। दीपों की लौ की तरह उनका रिश्ता भी अब जल उठा था, और घंटियों की गूँज में उनकी धड़कनों का संगीत घुल चुका था। आरती ने महसूस किया कि वह अब केवल शोध छात्रा नहीं रही, बल्कि कबीर की जीवन-यात्रा की सहभागी बन चुकी है। कबीर ने महसूस किया कि वह अब केवल एक फोटोग्राफर नहीं, बल्कि आरती की दुनिया का हिस्सा है, जिसे कैमरे से परे जीना होगा। जब आरती ने उसके हाथ को थोड़ा और कसकर थामा, तो कबीर ने गहरी साँस लेते हुए आसमान की ओर देखा। उसे लगा मानो गंगा ने, दीपों ने, और इस पवित्र आरती ने उनके रिश्ते को आशीर्वाद दिया है। उस क्षण दोनों समझ गए कि गंगा की तरह उनका रिश्ता भी अब अनंत, अडिग और पवित्र हो चुका है—एक ऐसा वादा, जिसे समय और दूरी कभी तोड़ नहीं पाएँगे।
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