Hindi - प्रेतकथा

अटारी का खेल

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आकाश बर्मा


नए किरायेदार परिवार के आने के साथ ही उस हवेली जैसे पुराने घर में एक अनकहा जीवन लौट आता है। हवेली बरसों से वीरान पड़ी थी—उसकी दीवारों पर समय की परतें जम चुकी थीं, रंग उखड़कर झड़ चुके थे और खिड़कियों पर धूल और मकड़ी के जाले ऐसे चिपके थे जैसे वे घर की असली सजावट हों। इस पुरानेपन के बीच भी उस घर की एक अलग भव्यता थी, मानो समय के प्रवाह के बावजूद वह अब भी अपने शान और रहस्यमय ठाठ को बचाए हुए हो। परिवार ने जब पहली बार उस हवेली में कदम रखा तो उन्हें लगा कि वे किसी और ही दुनिया में आ गए हैं। माँ ने लंबी साँस भरते हुए कहा—“कितना बड़ा घर है, बच्चों को खेलने की कोई कमी नहीं होगी।” पिता ने मुस्कुराकर जवाब दिया, “हाँ, लेकिन यहाँ के हर कोने की सफाई में वक्त लगेगा।” और बच्चों की आँखों में तो एक अनजाना उत्साह और चमक तैर रही थी। जैसे ही घर के कमरे एक-एक कर खुलने लगे, वे दौड़ते-भागते हर कमरे का मुआयना करने लगे। पुराने लकड़ी के फर्नीचर, टूटी-फूटी आलमारी, लोहे की तिजोरी और चटकती हुई फर्श की लकड़ियाँ—ये सब बच्चों को उतना ही रोमांचक लग रहे थे जितना किसी कहानी की किताब का रहस्य। उन्हें हर कोना नया खेल का मैदान लगता और हर वस्तु किसी पहेली का हिस्सा।

धीरे-धीरे उनकी खोजबीन ऊपर की मंजिल तक पहुँची, जहाँ से सीढ़ियाँ और भी संकरी होती चली गईं और अंत में एक लकड़ी का तंग दरवाज़ा मिला। दरवाज़े पर पुरानी जंग लगी कुंडी और हैंडल को देखकर बच्चों के मन में एक साथ डर और उत्साह का मिश्रण दौड़ गया। सबसे छोटे बेटे ने डरते-डरते हैंडल घुमाया और दरवाज़ा कर्र-कर्र की आवाज़ के साथ खुल गया। सामने वही जगह थी जो हर पुराने घर में किसी न किसी कोने में होती है—अटारी। सीढ़ियाँ चढ़कर वे उस जगह पहुँचे तो उनकी नाक में धूल और पुरानी लकड़ी की गंध भर गई। धुंधले उजाले में टेढ़े-मेढ़े संदूक, टूटे-फूटे खिलौने, पुराने बक्से, पीले पड़े कागज़ और तिरछी रखी लकड़ी की कुर्सियाँ बिखरी पड़ी थीं। हर चीज़ पर धूल की मोटी परत थी और कुछ जगहों पर मकड़ी के जाले ऐसे लटके थे मानो किसी ने महीनों से वहाँ कदम न रखा हो। खिड़की की दरारों से छनकर आती हल्की रोशनी में अटारी किसी रहस्यमयी गुफा जैसी लग रही थी। बच्चों को वह जगह डरावनी तो लगी, लेकिन उस डर में भी एक अलग रोमांच था—मानो यहाँ छुपे किसी रहस्य की चाबी बस उन्हें ही खोजनी हो। बड़े बेटे ने हँसते हुए कहा, “यह तो हमारी नई खोज की जगह होगी, अब हमें छुपन-छुपाई खेलने के लिए किसी मैदान की ज़रूरत नहीं।”

इतना सुनते ही सबसे छोटी बेटी उछलकर बोली, “हाँ! चलो, यहीं से खेल शुरू करते हैं।” बाकी सब बच्चों ने भी उसकी बात का समर्थन किया और माहौल अचानक खेल-खेल में बदल गया। उन्होंने तय किया कि अटारी में छुपन-छुपाई खेलना अब से उनका नया नियम होगा। कमरे में बिखरे पुराने बक्से और संदूक उनके लिए छिपने की जगह बन गए। एक बच्चा आँखें बंद करके गिनती गिनने लगा, जबकि बाकी इधर-उधर बिखरकर अपने-अपने कोने ढूँढने लगे। लेकिन खेल के बीच ही सबसे छोटे बेटे की नज़र एक कोने में रखे अजीब से संदूक पर पड़ी, जिसकी सतह पर कुछ अजीब नक्काशी बनी हुई थी। धूल झाड़ते ही उसमें बने चिन्ह और भी साफ हो गए और वह संदूक बाकी सब सामान से अलग, किसी रहस्य की ओर इशारा करता प्रतीत हुआ। बच्चे को लगा जैसे यह संदूक खेल के लिए सबसे अच्छी छुपने की जगह होगी। उसने जल्दी से ढक्कन उठाया और अंदर घुस गया। बाहर गिनती पूरी हुई और खोजने वाला बच्चा सब जगह ढूँढने के बाद भी उसे न पा सका। अचानक अटारी में सन्नाटा छा गया, बच्चों की हँसी थम गई और सबकी आँखें उस संदूक पर टिक गईं। उन्हें लगा जैसे खेल-खेल में उन्होंने इस पुरानी अटारी में कोई ऐसा दरवाज़ा खोल दिया है जो सिर्फ़ छुपने-खोजने का खेल नहीं, बल्कि एक ऐसे रहस्य की शुरुआत है जो आने वाले दिनों में उनके जीवन को हमेशा के लिए बदल देगा।

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अटारी में पुराने सामानों के बीच बच्चों ने तय किया कि अगर उन्हें यहाँ खेलना है तो कुछ नियम बनाने होंगे। सबसे बड़े बेटे ने कहा कि हर बार एक बच्चा “खोजने वाला” बनेगा और बाकी सब छुपेंगे, ताकि खेल और मज़ेदार बने। सबने तालियाँ बजाकर हामी भरी। खिड़की से छनकर आती धूप में उनकी आँखों में एक चमक थी, मानो इस हवेली ने उन्हें नया रहस्य और नया रोमांच दे दिया हो। उन्होंने जल्दी-जल्दी जगहें चुननी शुरू कीं—कोई पुराने संदूक के पीछे छिपा, कोई लकड़ी की कुर्सियों के नीचे घुसा, तो कोई परदों और जालों के बीच दुबक गया। गिनती शुरू हुई—“एक… दो… तीन…” और माहौल अचानक किसी रहस्यमयी खेल में बदल गया। हवा में पुरानी लकड़ी और सीलन की गंध तैर रही थी, और हर आवाज़ अटारी की दीवारों से टकराकर गूंज उठती थी। इस शोरगुल और हल्की हँसी के बीच अर्जुन नाम का बच्चा जल्दी से अटारी के एक कोने में रखे अजीब संदूक की तरफ बढ़ा। पिछली बार की तरह उसे वह संदूक अलग-सा लगा था, उसकी सतह पर नक्काशीदार निशान और जमी हुई धूल जैसे कोई अनकही कहानी कह रहे हों। उसने मन ही मन सोचा—“यहीं छिपना सबसे अच्छा होगा, कोई मुझे यहाँ नहीं ढूँढ पाएगा।” उसने संदूक का ढक्कन धीरे से उठाया, और अँधेरे में बिना झिझके भीतर समा गया।

गिनती पूरी होने के बाद खोजने वाला बच्चा इधर-उधर तलाश करने लगा। उसने पुराने बक्सों के पीछे, कुर्सियों के नीचे और परदों के बीच झाँककर देखा। एक-एक कर सब बच्चे मिलते गए, लेकिन अर्जुन कहीं नज़र नहीं आया। सबको लगा कि शायद वह बहुत चालाकी से छिपा है और खेल बढ़ता चला गया। धीरे-धीरे बच्चों की हँसी ठंडी पड़ने लगी, क्योंकि अब तक अर्जुन को ढूँढ पाना आसान होना चाहिए था। बड़े बेटे ने आवाज़ लगाई—“अर्जुन! निकल आओ, हमने हार मान ली।” पर कोई जवाब नहीं आया। फिर सबने मिलकर अटारी का隅隅 खोज डाला, हर संदूक और हर कोने में झाँका, लेकिन अर्जुन गायब था। यह खेल अचानक गंभीर हो गया। बच्चों के चेहरों पर घबराहट और डर उतरने लगा। उनकी साँसें तेज़ हो गईं और आँखों में चिंता तैर उठी। उसी पल अटारी में जैसे हवा भारी हो गई, खामोशी और गहरी। बच्चों को लगा मानो किसी ने उनकी हँसी और मासूमियत को निगल लिया हो। तभी बिना किसी आहट के संदूक का ढक्कन धीरे-धीरे चरमराकर खुला और अर्जुन खुद बाहर निकला। उसके कदम डगमगा रहे थे, उसकी त्वचा असामान्य रूप से पीली पड़ चुकी थी और उसकी आँखें खाली और निस्पंद लग रही थीं, मानो वे किसी गहरे अंधकार को देख चुकी हों।

बाकी बच्चे पहले तो चौंक उठे, फिर दौड़कर उसके पास पहुँचे। उन्होंने हिलाकर पूछा—“कहाँ थे तुम? हमने कितनी देर तक ढूँढा!” लेकिन अर्जुन ने कोई जवाब नहीं दिया। उसके होंठ काँप रहे थे, पर शब्द निकल नहीं रहे थे। उसकी साँसें असमान लय में चल रही थीं और वह जैसे अपने ही शरीर में खो गया हो। उसकी आँखों में चमक नहीं थी—बस खालीपन और ऐसा डर, जो शब्दों में नहीं कहा जा सकता। बच्चों ने सोचा कि शायद वह उन्हें डराने के लिए ऐसा कर रहा है, लेकिन जब उसने धीरे-धीरे उनकी ओर देखा तो उसकी आँखों की गहराई ने सबको सन्न कर दिया। उनमें न हँसी थी, न खेल का कोई उत्साह—बस एक सूनापन, जैसे उसने अटारी की दीवारों के पीछे छुपा कोई ऐसा दृश्य देख लिया हो जिसे देखने की इजाज़त किसी को न होनी चाहिए। बड़े बेटे ने उसका हाथ पकड़कर नीचे ले जाने की कोशिश की, पर अर्जुन की उंगलियाँ ठंडी और बर्फ जैसी थीं। बाकी बच्चे सहमकर खड़े रह गए। खेल जो महज़ मस्ती और रोमांच के लिए शुरू हुआ था, अचानक एक डरावने रहस्य का रूप ले चुका था। और सबसे भयावह यह था कि अर्जुन उनके बीच वापस तो आ गया था—पर वह वैसा अर्जुन अब नहीं था, जो खेल शुरू होने से पहले था।

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अगले दिन की सुबह हवेली के माहौल में अजीब-सी चुप्पी छाई रही। पिछली रात का खेल बच्चों के मन में डर और सवाल छोड़ गया था। अर्जुन अब भी चुप था, उसका चेहरा पीला और आँखें खोखली लग रही थीं, मानो नींद में भी किसी अंधेरे दृश्य को देखता रहता हो। बाकी बच्चे उसे देखकर असमंजस में थे—कभी सोचते कि वह उन्हें मज़ाक में डराने की कोशिश कर रहा है, तो कभी लगता कि उसके साथ सचमुच कुछ घटा है। लेकिन बच्चों की मासूम जिज्ञासा डर को पूरी तरह दबा नहीं पाई। शाम ढलते ही, जब अटारी की खिड़कियों से सुनहरी रोशनी छनकर धूल और जालों में उलझ रही थी, तो उनमें से किसी ने फुसफुसाकर कहा, “फिर से खेलें? शायद यह सिर्फ़ संयोग हो।” बाकी सब पहले झिझके, पर धीरे-धीरे उत्साह ने उन्हें जीत लिया। इस बार उन्होंने तय किया कि नियम में थोड़ा बदलाव होगा—‘खोजने वाला’ अर्जुन को ढूँढने जाएगा, क्योंकि वही बार-बार गायब होकर सबको परेशान कर रहा था। अर्जुन कुछ बोलता नहीं, बस खाली निगाहों से उन्हें देखता रहा, जैसे उसे पहले से पता हो कि आगे क्या होने वाला है। उसके इस खामोश हावभाव ने बच्चों के मन में और रहस्य भर दिया, पर खेल शुरू हो गया।

गिनती का सिलसिला शुरू हुआ—“एक… दो… तीन…” और बाकी सब पुराने संदूक, बक्सों और जालों के पीछे छिप गए। खोजने वाले बच्चे ने आँखें खोलते ही सबसे पहले अर्जुन को ढूँढने की ठानी। वह धीरे-धीरे अटारी में घूमता रहा, पुराने फर्नीचर और ढेरों कागज़ात के बीच झाँकता रहा, लेकिन अर्जुन कहीं नहीं दिखा। हवा में एक अजीब-सी खामोशी थी, जिसमें कभी-कभी लकड़ी के चटकने और जाले हिलने की आवाज़ गूँज जाती। बाकी छुपे हुए बच्चे अपनी-अपनी जगह से चुपचाप देख रहे थे, उनके दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहे थे। अचानक एक हल्की-सी फुसफुसाहट पूरे कमरे में गूँजी, जैसे किसी ने बहुत धीमी आवाज़ में खोजने वाले का नाम पुकारा हो। खोजने वाला बच्चा ठिठककर खड़ा रह गया, उसकी आँखें संदूक वाले कोने पर टिक गईं, वही संदूक जिसमें पिछली बार अर्जुन छिपा था। वह धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ा, ढक्कन पर हाथ रखा और खोल दिया। लेकिन संदूक के अंदर कुछ भी नहीं था—सिर्फ़ अंधेरा और गहरी सीलन की गंध। उसी क्षण एक ठंडी हवा का झोंका चला और बच्चों को लगा कि अटारी का पूरा माहौल किसी अदृश्य शक्ति से काँप उठा हो। खोजने वाला बच्चा जैसे उस अंधेरे में समा गया और पलक झपकते ही गायब हो गया। बाकी बच्चों की आँखें फैल गईं, वे अपनी जगह से बाहर निकल आए और घबराकर एक-दूसरे का हाथ पकड़ लिया।

डर से सहमे बच्चों ने जोर-जोर से चिल्लाना शुरू किया—“दरवाज़ा खोलो! हमें बाहर जाने दो!” लेकिन तभी उन्हें एहसास हुआ कि अटारी का दरवाज़ा बाहर से अपने आप बंद हो चुका है। उन्होंने धक्का मारा, लातें मारीं, कुंडी को हिलाने की कोशिश की, मगर दरवाज़ा टस से मस नहीं हुआ। ऐसा लग रहा था जैसे किसी अदृश्य हाथ ने दरवाज़े को जाम कर दिया हो और उन्हें अंदर कैद कर लिया हो। उनकी चीखें हवेली की दीवारों में गूँजकर लौट आईं, पर बाहर तक कोई आवाज़ नहीं पहुँची। अर्जुन खामोश खड़ा सब देख रहा था, उसकी आँखें अब भी खाली थीं, और वह बच्चों के साथ दरवाज़ा धकेलने की कोशिश भी नहीं कर रहा था। उसकी यह उदासीनता बाकी सबको और डरा रही थी, मानो उसे पहले से सब पता हो। बच्चों को अब महसूस हुआ कि यह खेल महज़ खेल नहीं, बल्कि हवेली और अटारी का कोई छुपा रहस्य है, जो उन्हें एक-एक करके निगल रहा है। उनकी साँसें तेज़ हो रही थीं, दिल धड़कने की आवाज़ जैसे कानों में गूँज रही थी, और अंधेरा धीरे-धीरे और गहरा होता जा रहा था। अटारी के भीतर कैद ये मासूम अब उस रहस्य की गिरफ्त में थे, जिससे निकलना शायद उनके बस में नहीं था।

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अटारी के भीतर जैसे ही दरवाज़ा जाम होकर बंद हुआ, कमरे का माहौल और भी रहस्यमय और डरावना हो गया। धूल से भरे उस अंधेरे कोने में अचानक ऐसी आवाज़ें गूँजने लगीं जिन्हें सुनकर बच्चों की रूह काँप गई। कभी खिलखिलाती हँसी किसी अजनबी बच्चे की तरह कानों में उतरती, तो कभी सीढ़ियों पर किसी भारी पैरों की धपधप सुनाई देती। लकड़ी के बक्सों के बीच रखे पुराने खिलौने अचानक खड़खड़ाने लगे, मानो किसी ने उन्हें अपनी ठंडी उँगलियों से छेड़ा हो। कहीं से लोहे की चेन घिसटने की आवाज़ आई, तो कहीं किसी टूटे पियानो की बेसुरी धुन हवा में तैर गई। बच्चों ने एक-दूसरे का हाथ कसकर पकड़ लिया, उनके चेहरे डर से सफेद हो गए थे। हर आवाज़ उन्हें यह अहसास दिला रही थी कि वे अकेले नहीं हैं—इस अटारी में और भी कोई है, जो छिपकर उन्हें देख रहा है। खिड़की की दरार से आती चाँदनी में छायाएँ हिलती-डुलती नज़र आतीं, जैसे किसी अदृश्य खेल का हिस्सा हों। बच्चे अपने डर को छिपाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन उनकी काँपती साँसें और डरी हुई आँखें सब कुछ बयाँ कर रही थीं।

इसी बीच अर्जुन ने धीरे-धीरे बोलना शुरू किया। उसकी आवाज़ में अब मासूमियत नहीं थी, बल्कि एक अजीब-सी कठोरता और रहस्य झलक रहा था। वह बार-बार दोहराने लगा—“खेल पूरा करना पड़ेगा… नहीं तो कोई बाहर नहीं जा पाएगा।” बाकी बच्चों ने हैरानी से उसकी ओर देखा। “तुझे कैसे पता?” उनमें से एक ने काँपते हुए पूछा। अर्जुन की आँखें अब भी खाली थीं, पर उनमें एक अजीब-सी चमक तैर रही थी। वह बोला—“अटारी ने मुझे बताया है। जब मैं गायब हुआ था, तब मैं वहीं गया था जहाँ यह खेल असली है। हम सब सिर्फ मोहरे हैं। जब तक खेल पूरा नहीं होगा, दरवाज़ा नहीं खुलेगा।” उसके शब्द सुनकर बाकी बच्चों की रीढ़ में ठंडी सिहरन दौड़ गई। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि अर्जुन मज़ाक कर रहा है या उसने सचमुच कुछ ऐसा अनुभव किया है जिसे वे कल्पना भी नहीं कर सकते। उनकी साँसें भारी हो गईं, और दिल धड़कने की आवाज़ जैसे पूरे कमरे में गूँज रही थी।

अचानक एक कोने में रखा लकड़ी का घोड़ा अपने आप हिलने लगा, उसके पहिए चूँ-चूँ की आवाज़ करने लगे। उसी पल एक गुड़िया, जिसका चेहरा टूटा हुआ था, ज़मीन पर गिरकर खुद-ब-खुद खड़ी हो गई और उसकी काँच जैसी आँखें सीधे बच्चों की ओर टिक गईं। सब बच्चे चीख पड़े और अर्जुन की ओर देखने लगे, जैसे उससे उम्मीद कर रहे हों कि वह कुछ समझाए। अर्जुन ने सिर्फ़ इतना कहा—“ये सब खेल का हिस्सा है। अगर छुपने और ढूँढने का सिलसिला पूरा नहीं होगा, तो वे हमें यहीं कैद कर लेंगे।” उसकी बातें सुनकर बच्चों की रगों में खून जैसे जम गया। उन्होंने कोशिश की दरवाज़ा फिर से धकेलने की, लेकिन दरवाज़ा अब पत्थर की दीवार जैसा अचल हो चुका था। बाहर जाने का कोई रास्ता नहीं था। हवा में परछाइयों की आहट गहरी होती जा रही थी, और हर खिलखिलाहट, हर धपधप, हर खड़खड़ाहट इस बात का इशारा कर रही थी कि इस अटारी में कुछ ऐसा छिपा है, जो उनसे खेल रहा है और उन्हें धीरे-धीरे अपनी गिरफ्त में ले रहा है। बच्चे अब समझ गए थे कि यह खेल सामान्य नहीं—बल्कि उस रहस्यमयी हवेली का एक अंधकारमय सच है, जिसमें उनकी मासूमियत हमेशा के लिए फँस सकती है।

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अटारी में गूँजती रहस्यमयी आवाज़ों और अर्जुन की रहस्यमय बातों से डरे-सहमे बच्चों ने अचानक एक कोने में पड़े पुराने लकड़ी के बक्से पर नज़र डाली। बक्सा आधा टूटा हुआ था, उसकी लकड़ियाँ समय की मार से चटक चुकी थीं और उस पर मोटी धूल की परत जमी थी। जैसे ही बच्चों ने उसे धकेलकर खोला, अंदर से सीलन की गंध और बासी कागज़ों की बू हवा में फैल गई। उस ढेर में कपड़ों के चिथड़े, पीले पड़ चुके कागज़ और टूटे खिलौने रखे थे। लेकिन सबसे ऊपर एक मोटी-सी डायरी पड़ी थी, जिसके कवर पर अब भी धुंधले सुनहरे अक्षरों में “माया” नाम लिखा था। बच्चों ने काँपते हाथों से डायरी उठाई, उसकी जिल्द झड़ रही थी, पन्ने पुराने और नाज़ुक हो चुके थे। जैसे ही पहला पन्ना खोला गया, उस पर साफ़-साफ़ लिखा था—“यह मेरी कहानी है, मैं माया हूँ, और यह हवेली कभी मेरी हँसी से गूँजती थी।” बच्चों ने साँस रोककर पढ़ना शुरू किया, मानो उस डायरी में उनकी अपनी स्थिति का जवाब छिपा हो।

माया ने लिखा था कि वह दशकों पहले इसी हवेली में अपने परिवार के साथ रहती थी। उसके पास भी दोस्त थे, जो आए दिन इस अटारी में खेला करते थे। वे सब छुपन-छुपाई खेलना बहुत पसंद करते थे—वही खेल, जो अब ये बच्चे खेल रहे थे। डायरी में लिखा था कि अटारी उन्हें हमेशा अजीब लगती थी, क्योंकि यहाँ रात होते ही खिलखिलाहट और फुसफुसाहट गूँजती थी। लेकिन बचपन का जोश और जिज्ञासा उन सबको रोक नहीं पाता था। माया ने लिखा—“एक दिन हम सबने तय किया कि इस अटारी में सबसे बड़ा खेल खेलेंगे। हर बार कोई एक खोजेगा और बाकी छुपेंगे।” उसकी लिखावट में जैसे डर धीरे-धीरे उतरने लगता था, क्योंकि आगे लिखा था—“पहले-पहल सब ठीक था, लेकिन धीरे-धीरे मेरे दोस्त गायब होने लगे। पहले एक, फिर दूसरा, फिर तीसरा… हर बार वे कहते कि वे अर्जुन की तरह संदूक या अंधेरे कोनों में छिपे हैं, पर जब ढूँढने की बारी आई तो वे कभी लौटकर नहीं आए।” डायरी पढ़ते-पढ़ते बच्चों की साँसें तेज़ हो गईं। उनकी आँखों के सामने अर्जुन की खाली निगाहें और दूसरे बच्चे का गायब हो जाना घूमने लगा। माया की लिखावट और उनकी हकीकत एक जैसी लग रही थी।

आखिरी पन्नों पर शब्द काँपते हुए लिखे थे, जैसे माया खुद डरते-डरते ये लिख रही हो। उसमें लिखा था—“अब मैं अकेली रह गई हूँ। सब दोस्त गायब हो गए। मैंने अटारी के दरवाज़े को खटखटाया, चीखी, चिल्लाई, लेकिन दरवाज़ा कभी नहीं खुला। हर रात खिलौनों की खड़खड़ाहट और परछाइयों की आहट तेज़ होती जा रही है। मुझे लगता है कोई हमें खेल में बाँध चुका है। यह खेल कभी खत्म नहीं होता… कभी नहीं।” उसके बाद पन्ना खाली था, मानो वहीं उसकी कहानी अचानक थम गई हो। बच्चों ने एक-दूसरे की ओर देखा—डरे हुए, सिहरते हुए, और आँखों में यह सवाल लिए कि क्या वे भी माया और उसके दोस्तों की तरह इस खेल का हिस्सा बन चुके हैं? अर्जुन अब भी खामोश खड़ा था, लेकिन उसके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान उभर आई थी—एक ऐसी मुस्कान, जो और भी डरावनी थी। हवेली की अटारी अब उन्हें सिर्फ़ जगह नहीं लग रही थी, बल्कि किसी अंधेरे खेल का अखाड़ा लग रही थी, जिसमें माया की चेतावनी बार-बार गूँज रही थी—“खेल कभी खत्म नहीं होता…”

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डायरी पढ़ने के बाद अटारी में सन्नाटा छा गया, लेकिन वह सन्नाटा साधारण नहीं था—उसमें हर शब्द की गूँज, हर वाक्य का डर और हर अधूरी पंक्ति की खामोशी तैर रही थी। बच्चों ने महसूस किया कि जिस खेल को वे अब तक छुपन-छुपाई समझ रहे थे, वह दरअसल किसी साधारण मनोरंजन का हिस्सा नहीं बल्कि एक गहरी, शापित रस्म है। यह हवेली खेल का अखाड़ा नहीं बल्कि एक कैदखाना है, जहाँ हर बार वही सिलसिला दोहराया जाता है—बच्चों का छुपना, खोजने वाले का गायब होना और अंतहीन परछाइयों में समा जाना। बच्चों के चेहरों पर खौफ़ उतरा हुआ था। उनमें से सबसे छोटा बच्चा रोने लगा, जबकि बाकी के मन में भी वही सवाल था—“क्या हमारा भी यही अंजाम होगा?” तभी अर्जुन ने धीरे से अपनी आवाज़ उठाई। उसकी आँखों में वह खालीपन अब और गहरा हो गया था। उसने काँपते स्वर में कहा—“यह खेल एक शाप है। जब मैं पहली बार गायब हुआ था, तब मैं उस जगह गया था जहाँ यह खेल असली रूप में चलता है। वहाँ कोई रोशनी नहीं थी, सिर्फ़ परछाइयों से बनी गलियाँ थीं, जो मुझे अनजाने रास्तों की ओर खींच रही थीं। मैं उन गलियों में भटकता रहा और हर तरफ़ बच्चों की चीखें सुनाई देती रहीं। वे सब मदद माँग रहे थे, लेकिन कोई उन्हें सुनने वाला नहीं था।”

बच्चे अर्जुन की बातें सुनकर सहम गए। उनकी साँसें तेज़ होने लगीं, जैसे दिल की धड़कनें पूरे कमरे में गूँज रही हों। अर्जुन की आवाज़ भारी होती चली गई—“वहाँ मैंने उन चेहरों को भी देखा, जो हमारे जैसे ही थे, पर उनमें कोई जान नहीं थी। वे हँस रहे थे, लेकिन उनकी हँसी डर से भरी थी। हर छाया, हर गली, हर अंधेरा उस खेल का हिस्सा था। और हर बार जब कोई ‘खोजने वाला’ बनता है, वह उन्हीं गलियों में खींच लिया जाता है। बाहर लौटकर आना आसान नहीं होता, मैं तो बस किसी तरह बच निकला था… शायद इसलिए कि खेल ने मुझे अभी पूरा नहीं निगला।” अर्जुन ने अपनी मुट्ठियाँ कस लीं, उसकी साँसें भारी हो रही थीं। बाकी बच्चे हतप्रभ होकर उसकी ओर देखते रहे। उनकी आँखों में अब यह साफ़ था कि अर्जुन के साथ कुछ अलौकिक हुआ था और उसका अनुभव मात्र डर नहीं, बल्कि सच्चाई थी। अटारी का हर कोना अब उन्हें उन परछाइयों का दरवाज़ा लगने लगा, जहाँ से कोई लौटकर नहीं आता।

अर्जुन ने अचानक सिर झुकाकर धीरे से कहा—“मुझे लगता है कि अब मेरी बारी फिर से आने वाली है। मैंने उस जगह से अधूरा लौटकर गलती की है। खेल मुझसे पूरा करवाना चाहता है।” उसके शब्द सुनकर बाकी बच्चों की रगों में खून जम गया। अटारी में खड़खड़ाहट और धपधप की आवाज़ें तेज़ हो गईं, जैसे कोई अदृश्य शक्ति उनकी हर बात सुन रही हो। पुराने खिलौनों की हिलचाल फिर शुरू हो गई और टूटी गुड़िया की काँच जैसी आँखें एक बार फिर सीधे उनकी ओर टिक गईं। बच्चों ने दरवाज़ा धकेलने की कोशिश की, मगर वह पहले की तरह अडिग खड़ा रहा। अब उन्हें साफ़-साफ़ एहसास हो गया कि वे सब एक ऐसे श्राप का हिस्सा बन चुके हैं, जिसमें उनकी मासूमियत कैद कर दी गई है। अर्जुन की आँखें धुंधली होती जा रही थीं, उसका चेहरा और ज़्यादा पीला पड़ चुका था। उसने बाकी बच्चों को देखते हुए कहा—“तुम सब तैयार रहो… अगर खेल पूरा नहीं हुआ, तो हम सब यहीं हमेशा के लिए रह जाएँगे।” उसकी आवाज़ अब इंसानी नहीं, बल्कि अंधेरे से उठती किसी गूँज जैसी लग रही थी। अटारी की हवा और भारी हो गई, और बच्चों ने जाना कि खेल अब अपनी असली और भयावह शक्ल लेने वाला है।

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अटारी में बिताए गए घंटों के बाद बच्चों का साहस धीरे-धीरे अपने चरम पर पहुँच गया। अर्जुन के चेतावनी भरे शब्दों और हवेली के अजीब माहौल ने उनकी जिज्ञासा को और भी तीव्र कर दिया। वे अब तय कर चुके थे कि खेल की रहस्यमयी गहराई को समझना ही उनकी प्राथमिकता होगी। इसी खोज में उनकी नजर एक पुरानी, धूल से जमी हुई लकड़ी की पट्टी पर गई, जो दीवार के कोने में बड़ी असामान्य ढंग से लगी हुई थी। बच्चों ने देखा कि वह दरवाज़ा आम अटारी के दरवाज़ों से बिल्कुल अलग था—छोटा, बिना हैंडल का और लगभग दीवार के रंग का। सबसे बड़े बेटे ने डरते-डरते उसे धक्का दिया और दरवाज़ा चरमराते हुए खुल गया। उनके सामने एक संकरी, अंधेरी गली जैसी जगह खुली, जो अटारी के बाकी हिस्सों से पूरी तरह अलग महसूस हो रही थी। भीतर की हवा गीली और ठंडी थी, और कमरे में प्रवेश करते ही उनके कदमों की आवाज़ उन पर छा गई। जैसे ही उन्होंने आगे बढ़ना शुरू किया, उन्होंने महसूस किया कि दीवारें किसी पुराने डर और त्रासदी की गवाही दे रही थीं। धूल और मकड़ी के जालों के बीच अचानक लाल निशान दिखाई दिए—बच्चों के हाथों के निशान, खून से सने हुए, जो किसी पुरानी घटनाओं की कहानी बयाँ कर रहे थे।

जैसे-जैसे वे कमरे के बीच तक पहुँचे, दीवारों पर और भी भयावह दृश्य सामने आए। वहां खून से लिखे गए नाम थे, जिनमें वे नाम थे जिनका उल्लेख माया की डायरी में किया गया था। पहले बच्चे चौंक गए, फिर धीरे-धीरे उनकी आँखें चौड़ी हो गईं। वे समझ गए कि जो बच्चे गायब हुए, उनकी गाथा अभी तक इस अटारी में जीवित थी। हर नाम के पास छोटे-छोटे निशान बने थे, जैसे किसी ने उन्हें आखिरी बार उस कमरे में खड़ा किया और फिर भाग गया। अर्जुन खामोश होकर उन नामों को देख रहा था, उसकी आँखों में भय और पहचान दोनों झलक रहे थे। बच्चे धीरे-धीरे उस कमरे की भूतिया महक और खून की गंध में घिरते चले गए। कमरे की गहराई में जाने के साथ दीवारों से धीमी आवाज़ें आने लगीं—धीमी, खुरदरी, लेकिन स्पष्ट रूप से मानवीय—“मेरी बारी… अब तुम्हारी बारी…”। आवाज़ें बच्चों के कानों में धीरे-धीरे गूँज रही थीं, मानो उनके खून में उतर रही हों। हर कदम पर उनके दिल की धड़कन तेज़ हो रही थी, और उनके पैरों तले जमीन जैसे कांप रही हो।

भय और जिज्ञासा के मिश्रण में बच्चे धीरे-धीरे कमरे के बीच तक पहुँचे। वहां पाई गई खून से भरी दीवारें, हाथों के निशान और माया के डायरी में वर्णित लापता बच्चों के नामों की मौजूदगी ने उन्हें हिलाकर रख दिया। अर्जुन ने फुसफुसाकर कहा—“यह वही जगह है जहां मैंने गायब होते समय देखा था, और यह वही आवाज़ें हैं जिनकी चेतावनी मैंने सुनी थी। अब यह खेल हमें अपनी गिरफ्त में लेने वाला है। अगर हम ध्यान नहीं देंगे, तो हम भी उनके नामों में जुड़ जाएंगे।” बच्चों ने देखा कि दीवारों के किनारों पर छोटे-छोटे दरारें हल्की-सी रोशनी फेंक रही थीं, और उन दरारों से कभी-कभी अदृश्य परछाइयाँ गुजरती हुई प्रतीत हो रही थीं। चीखों का कमरा, जिसकी दीवारों पर बच्चों के खून के निशान थे और जो डायरी में बताए गए लापता बच्चों से भरा हुआ था, अब उन्हें अपनी गहराई में खींच रहा था। वहाँ का हर साया, हर आवाज़ और हर खामोशी उन पर दबाव डाल रही थी। बच्चे समझ चुके थे कि वे अब केवल देखने वाले नहीं हैं—वे उस खेल के हिस्से बन चुके हैं, जिसकी समाप्ति किसी ने नहीं देखी थी। कमरे की हर गूँजती चीख और हर हलचल उन्हें यह याद दिला रही थी कि खेल की सच्चाई सिर्फ़ साहस से नहीं, बल्कि किसी अदृश्य शक्ति की पकड़ से जुड़ी है, और उनकी बारी जल्दी ही आने वाली थी।

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अटारी के अंधेरे कमरे और चीखों की गूँज के बीच बच्चों का साहस अब टूटने के कगार पर था। अर्जुन की खाली निगाहें, दीवारों पर खून से सने नाम और माया की डायरी में दर्ज भयावह घटनाएँ—सब मिलकर उनके मन में भय और निराशा की दीवारें खड़ी कर रही थीं। लेकिन इसी डर के बीच उनमें एक अजीब-सी हिम्मत भी जाग उठी। सबसे छोटे बच्चे ने काँपते स्वर में कहा—“हमें डरकर भागना नहीं चाहिए। हम एक-दूसरे को अकेला नहीं छोड़ेंगे।” इस शब्दों ने जैसे बच्चों के मन में एक नई उम्मीद जगा दी। उन्होंने आपस में कसम खाई कि चाहे जो भी हो, वे एक-दूसरे से बिछेंगे नहीं और मिलकर इस रहस्यमयी खेल और हवेली के शाप को तोड़ने की कोशिश करेंगे। उनकी आँखों में अब भय के साथ-साथ दृढ़ निश्चय और दोस्ती की चमक भी थी। अर्जुन, जो पहले डर और रहस्य में खोया था, अब उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने को तैयार था। वे धीरे-धीरे अटारी में फैल रहे अंधकार और परछाइयों की आहट के बीच खड़े होकर यह तय कर चुके थे कि अब केवल भागना समाधान नहीं होगा।

डायरी के पन्नों में माया ने स्पष्ट रूप से लिखा था कि इस खेल को रोकने का केवल एक ही तरीका है—सभी बच्चे बिना हारे और बिना किसी के गायब हुए, खेल को छोड़कर अटारी से बाहर निकलें। यही नियम उस शापित खेल की कुंजी थी। लेकिन चुनौती यह थी कि हर बार कोई-न-कोई गायब हो जाता और खेल अधूरा रह जाता। यह खेल मानो अपनी गति और नियम स्वयं तय करता था, और बच्चों को मजबूर करता था कि वे लगातार सतर्क रहें। अब बच्चों ने अपनी रणनीति बनाई। वे एक-दूसरे के हाथ पकड़कर चलते, कभी पीछे मुड़कर नहीं देखते, और हर कोने में छुपी परछाइयों और गूँजती आवाज़ों से सावधान रहते। उन्होंने तय किया कि कोई भी अकेला नहीं जाएगा, चाहे अंधेरा कितना भी गहरा और डर कितना भी बड़ा क्यों न हो। अटारी की खामोशी और खड़खड़ाहट उनके लिए डरावनी थी, लेकिन उन्होंने अपनी दोस्ती और एक-दूसरे के प्रति विश्वास को अपनी ताकत बनाया।

धीरे-धीरे, बच्चों ने अनुभव किया कि डर और रहस्य जितना भी गहरा हो, एकजुट रहकर वे उसका सामना कर सकते हैं। अर्जुन बार-बार फुसफुसा रहा—“अगर हम साथ हैं, तो शायद यह खेल हमें अपने अधूरे चक्र में नहीं फंसा पाएगा।” बाकी बच्चों ने उसे विश्वास दिलाया कि वे अब केवल अकेले नहीं हैं। उन्होंने अपनी दोस्ती की कसम खाई—भले ही हवा में खड़खड़ाहट गूंजती रहे, खिलौनों की खड़खड़ाहट और परछाइयों की आहट लगातार उनके कानों में घुमती रहे, वे एक-दूसरे को छोड़कर नहीं भागेंगे। उन्होंने धीरे-धीरे अटारी की ओर बढ़ना शुरू किया, हाथों में हाथ डाले, पसीने और डर के बावजूद साहस के साथ। बच्चों के लिए अब यह खेल केवल छुपन-खोज का नहीं रह गया था; यह दोस्ती, विश्वास और एकजुटता की परीक्षा बन गया था। उनके दिलों में अब डर के साथ-साथ उम्मीद की लौ भी जल रही थी—शायद उनके साहस, दोस्ती और कसम से यह शाप तोड़ने में कामयाबी मिल सकती है।

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अटारी में पहले से ही घने अंधेरे और गूँजती आवाज़ों के बीच, बच्चों ने आखिरी बार खेल शुरू करने का फैसला किया। सबसे छोटा बच्चा, जिसका नाम रोहन था, इस बार ‘खोजने वाला’ बनता है। उसकी छोटी-सी आवाज़ में निहित उत्साह और डर दोनों झलक रहे थे। जैसे ही उसने गिनती शुरू की—“एक… दो… तीन…”—अटारी का माहौल अचानक बदल गया। पुराने खिलौनों से उठती खड़खड़ाहटें अब जीवित लग रही थीं। धूल में डूबी गुड़ियाँ जैसे उनकी ओर हाथ बढ़ा रही थीं, लकड़ी के घोड़े अपने पहियों पर घूमने लगे और परछाइयाँ मानो सचमुच बच्चों के चारों ओर घूमने लगीं। हर धपधप, हर फुसफुसाहट और हर चीख अब वास्तविक प्रतीत हो रही थी। अटारी की दीवारें जैसे खिंचकर उनके चारों ओर एक बंद कमरे का आकार ले रही थीं, और हर कोने में कुछ न कुछ हिलता और गूंजता नजर आ रहा था। बच्चों के दिल धड़कने लगे, उनकी साँसें तेज़ हो गईं, और वे समझ गए कि यह खेल अब सिर्फ़ मनोरंजन नहीं बल्कि उनके लिए अस्तित्व की परीक्षा बन चुका है।

जैसे ही रोहन ने खोजने की ओर कदम बढ़ाया, खिलौनों और परछाइयों की दुनिया और भी जीवंत हो गई। गुड़ियाँ अब उनकी ओर झुककर चीखने लगीं, लकड़ी के घोड़े जैसे दौड़ते हुए बच्चों को रोकने का प्रयास कर रहे थे, और दीवारों से अचानक अजीब-सी आकृतियाँ उभरने लगीं—कुछ मानव जैसे, कुछ जानवर जैसे, और कुछ पूरी तरह अकल्पनीय। हर कदम पर बच्चों को महसूस हो रहा था कि उनका पीछा सिर्फ़ परछाइयाँ ही नहीं बल्कि अटारी के स्वयं के रहस्य और शापित शक्तियाँ कर रही हैं। उनके चारों ओर की हवा भारी और सघन हो गई, मानो हर वस्तु, हर ध्वनि और हर परछाई उनकी हिम्मत की परीक्षा ले रही हो। बच्चे एक-दूसरे का हाथ कसकर पकड़कर आगे बढ़ रहे थे, डर और साहस का मिश्रण उनके चेहरे पर साफ़ झलक रहा था। अर्जुन खामोश खड़ा था, पर उसकी निगाहें रोहन पर टिक गई थीं—जैसे कोई अनुभव उसे बता रहा हो कि यह अंतिम क्षण है, और अब खेल अपनी पूर्ण परिणति पर पहुँचने वाला है।

जैसे-जैसे खोज आगे बढ़ी, बच्चों ने महसूस किया कि अटारी की परछाइयाँ और चीखें अब उन्हें अलग नहीं कर सकतीं। हर परछाई, हर अजीब आकृति और हर गूँजती आवाज़ उनके चारों ओर एक अंतिम नृत्य कर रही थी। लेकिन बच्चों ने अपनी दोस्ती और साहस को मजबूती से पकड़ा हुआ था। रोहन ने धीरे-धीरे पूरे अटारी में घूमते हुए सभी को खोजा और हर बार उन्हें एक-दूसरे के पास खड़ा किया। बच्चों ने तय किया कि वे खेल को अधूरा नहीं छोड़ेंगे, चाहे अटारी की परछाइयाँ कितनी भी भयानक क्यों न हों। जैसे ही आखिरी बच्चे को खोजा गया, अटारी का अंधेरा अचानक शांत हुआ। परछाइयाँ गायब हो गईं, खिलौने फिर से निर्जीव हो गए और दीवारों की चीखें रुक गईं। बच्चे अब समझ गए कि उन्होंने मिलकर खेल की शर्त पूरी कर दी है—वे एकजुट रहे, किसी को अकेला नहीं छोड़ा और अंततः शापित खेल को समाप्त कर दिया। अटारी में अब जो सन्नाटा था, वह डर का नहीं, बल्कि विजय और राहत का सन्नाटा था—उनकी दोस्ती, साहस और विश्वास ने उस शाप को तोड़ दिया था, और हवेली ने उन्हें अंततः छोड़ दिया था।

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अटारी में बिताए गए अनगिनत भयभीत घंटों और आखिरी खोज की परिणति के बाद, बच्चे अब अपनी अंतिम कोशिश करने के लिए तैयार थे। उन्होंने देखा कि पुराने लकड़ी के दरवाज़े और खिड़कियों के माध्यम से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है। दिलों में डर और साहस के मिश्रण के साथ, वे एक-दूसरे का हाथ पकड़कर धीरे-धीरे उस दरवाज़े की ओर बढ़े। जैसे ही उन्होंने दरवाज़े को जोर से धक्का दिया, लकड़ी चरमराई और दरवाज़ा टूटकर खुल गया। धूल और बासी हवा के झोंके उनके चेहरे पर पड़े, और आख़िरकार वे अंधेरे अटारी से बाहर निकलकर उस हवेली की सीढ़ियों पर पहुँच गए। नीचे पहुँचते ही उन्होंने राहत की साँस ली, यह सोचकर कि शायद अब वे सुरक्षित हैं। लेकिन जैसे ही उन्होंने गिनती की—एक… दो… तीन…—तो उन्हें महसूस हुआ कि उनमें से एक हमेशा के लिए गायब है। बच्चों के चेहरे पर सन्नाटा छा गया। उनकी आँखों में डर और अविश्वास दोनों झलक रहे थे। हर किसी ने देखा कि अर्जुन भी काँप रहा है, उसका चेहरा पीला पड़ चुका था, और वह कुछ कहने की कोशिश कर रहा था, लेकिन आवाज़ फुसफुसाती हुई हवा में खो गई।

बचे हुए बच्चे जब नीचे घरवालों और माता-पिता के पास पहुंचे, उन्हें लगा कि अब उन्हें सुरक्षित हाथों में हैं। पर अटारी से आने वाली परछाइयों की आहट, दीवारों की खड़खड़ाहट और पुरानी गुड़ियों की गूँज उनकी पीठ पीछे एक भयानक चेतावनी दे रही थी। अचानक उन्हें ऊपर अटारी से वही डरावनी, धीमी और गूँजती आवाज़ सुनाई दी—“एक… दो… तीन…”। जैसे ही यह आवाज़ उनके कानों में गूँजी, बच्चों के पैरों के नीचे की जमीन थर्राई। उनके दिल की धड़कनें इतनी तेज़ हो गईं कि उन्हें लगा कि उनका साहस अब भी अटारी में फंसा हुआ है। वहाँ कोई नहीं दिखाई दे रहा था, लेकिन यह स्पष्ट था कि खेल अभी खत्म नहीं हुआ। यह आवाज़ मानो कह रही थी कि अटारी का शाप अभी भी जीवित है और अगला शिकार चुना जा चुका है। बच्चों ने एक-दूसरे की ओर देखा—उनकी आँखों में डर, सहम और एक अजीब-सी अनिश्चितता थी।

हवेली की तलहटी में खड़े हुए बच्चे धीरे-धीरे पीछे मुड़कर अटारी की ओर देखने लगे। बाहर की रोशनी में अटारी का अंधेरा अभी भी गहरा और रहस्यमयी लग रहा था। उनका शरीर थक चुका था, पर मन और आत्मा उस रहस्य में अभी भी फंसी थी। उनकी दोस्ती, साहस और आपसी विश्वास ने उन्हें एक क्षणिक राहत दी थी, लेकिन यह भी स्पष्ट था कि खेल अपनी अधूरी परंपरा और शाप के साथ अभी भी वहाँ मौजूद था। जैसे ही वे धीरे-धीरे नीचे उतरते गए, ऊपर से वही धीमी गिनती का स्वर उनकी आत्माओं में गूँजता रहा—“एक… दो… तीन…”। कहानी यहीं समाप्त होती है, एक ऐसा अंत जो पाठक के मन में डर और अनिश्चितता दोनों छोड़ जाता है। यह संकेत देता है कि खेल अभी भी जारी है, और अटारी के अंधेरे कोनों में अगला शिकार तैयार है—शायद वही बच्चे, शायद कोई नया अनजान शिकार। बच्चों ने देखा कि साहस, दोस्ती और एकजुटता शाप को रोक सकती है, लेकिन खेल की अधूरी परंपरा अभी भी हवेली के अंधेरे में जीवित है, जो किसी भी समय फिर से उन्हें या किसी और को अपनी गिरफ्त में ले सकता है।

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