Hindi - यात्रा-वृत्तांत

सफ़र की आवाज़ें

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संजय त्रिवेदी


भाग १ – प्रस्थान

दिल्ली की भरी-पूरी सड़कों पर उस सुबह एक अजीब-सी बेचैनी तैर रही थी। राहुल ने खिड़की से बाहर देखा—गाड़ियों का शोर, हॉर्न की चुभती आवाज़ें और लोगों की जल्दबाज़ी। यह सब कुछ उसके भीतर जैसे एक भारी बोझ बन चुका था। रात भर नींद नहीं आई थी। कॉर्पोरेट नौकरी की डेडलाइन्स, बॉस के सवाल और घर लौटने पर सन्नाटा—सबकुछ उसे थका चुका था। उस सुबह उसने अचानक तय किया कि अब और नहीं। उसने बैग उठाया, कुछ कपड़े ठूँसे, और बिना ज़्यादा सोचे कैब बुलाकर स्टेशन की ओर निकल पड़ा।

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की भीड़ हमेशा की तरह बेकाबू थी। प्लेटफ़ॉर्म पर चाय बेचने वालों की आवाज़ें, कुलियों की पुकार और भागते-भागते ट्रेनों में चढ़ते लोग। राहुल ने टिकट पहले ही बुक कर रखा था—हरिद्वार जाने वाली ट्रेन। क्यों हरिद्वार? शायद इसलिए कि उसे कहीं तो जाना था, और पहाड़ ही उसे खींच रहे थे। प्लेटफ़ॉर्म पर खड़े-खड़े उसने सोचा, “शहर से भागने का मतलब क्या है? क्या मैं सचमुच भाग रहा हूँ या अपने भीतर लौट रहा हूँ?” सवालों के जवाब उसे उस वक़्त नहीं मिले।

ट्रेन चली तो खिड़की के बाहर शहर धीरे-धीरे पीछे छूटता गया। ग्रे इमारतें, धुआँ, ट्रैफिक—सब धुंधला होता गया। बाहर खेत फैल गए, जिनमें पीली सरसों लहर रही थी। राहुल ने पहली बार एक लंबी साँस ली। उसे लगा जैसे सांसों पर से बोझ उतर रहा हो। डिब्बे में लोग अपने-अपने अंदाज़ में सफ़र को जी रहे थे—कोई अख़बार पढ़ रहा था, कोई चिप्स खा रहा था, कोई बच्चों के संग खेल रहा था। राहुल चुपचाप देखता रहा।

उसके सामने वाली सीट पर एक बुज़ुर्ग साधु बैठे थे। उनके हाथ में एक पुरानी थैली थी और आँखों में गहरी शांति। साधु ने राहुल की ओर देखकर मुस्कुराया। वह मुस्कान किसी अजनबी की नहीं, जैसे कोई पुराना परिचित हो। साधु ने धीरे से कहा, “सफ़र हमेशा बाहर का नहीं होता बेटा, अंदर का भी होता है।” राहुल चौंक गया। बिना किसी परिचय के साधु ने उसके मन की बात कह दी थी। उसने सिर झुकाकर हल्की मुस्कान दी।

जैसे-जैसे ट्रेन उत्तराखंड की ओर बढ़ रही थी, मौसम भी बदल रहा था। हवा ठंडी होने लगी, खिड़की से आती हवा में मिट्टी की गंध घुल गई। पहाड़ियों की धुँधली रेखाएँ दूर-दूर तक दिखाई देने लगीं। राहुल के भीतर जैसे कोई तार हिल गया। उसे लगा, “यही तो चाहिए था।”

हरिद्वार पहुँचते ही गंगा का प्रवाह उसकी आँखों में उतर आया। स्टेशन से बाहर निकलते ही घाटों का माहौल, संतों की टोलियाँ और हवा में घुला मंत्रोच्चार—सब मिलकर जैसे किसी और ही लोक में ले जाते हों। राहुल ने बैग कसकर पकड़ा और गंगा किनारे की ओर चल पड़ा।

शाम हो चुकी थी। हर-की-पौड़ी पर दीपों की कतारें गंगा की लहरों पर तैर रही थीं। आरती की घंटियों की आवाज़ें, लोगों की भीड़ और नदी की अनवरत धारा—सबकुछ उसे अपने भीतर बहा ले जा रहा था। राहुल ने पहली बार महसूस किया कि शायद वह यहाँ केवल पर्यटक बनकर नहीं आया है। यह सफ़र उसे भीतर से बदलने वाला है।

वह देर तक वहीं बैठा रहा। हवा में नमी थी, किन्तु उसके भीतर जैसे कोई आग जल रही थी—आत्म-खोज की, जीवन के अर्थ की। और तभी उसे पास में बैठे एक स्थानीय युवक ने आवाज़ दी—“भाईसाहब, कहीं आगे जाना हो तो मैं गाइड का काम करता हूँ।” राहुल ने उसकी ओर देखा। युवक की आँखों में उत्साह और सादगी थी। शायद यही उसका अगला पड़ाव था।

उसने मुस्कुराकर हामी भर दी। सफ़र अब सचमुच शुरू हो चुका था।

भाग २ – पहाड़ की राह

 

सुबह की ठंडी हवा हरिद्वार के घाटों पर अब भी बह रही थी। राहुल ने रात वहीँ किसी सस्ते धर्मशाला में बिताई थी। कमरे की दीवारें पुरानी थीं, पंखा धीरे-धीरे चरमराता था, लेकिन खिड़की से आती गंगा की गंध और मंदिर की घंटियाँ उसे किसी महंगे होटल से भी ज़्यादा सुकून दे रही थीं। उसने सोचा—शायद सफ़र का असली आनंद आराम से नहीं, बल्कि इस साधारणपन में छिपा है।

सुबह-सुबह वह उसी युवक से मिला जिसने पिछली शाम गाइड बनने की बात कही थी। नाम था मोहन। साधारण-सा चेहरा, कंधे पर फटा-पुराना बैग और आवाज़ में आत्मविश्वास। मोहन बोला, “अगर आपको सचमुच पहाड़ों को जानना है तो बसों या टैक्सियों से नहीं, मेरे साथ पैदल चलिए। रास्ते कठिन होंगे, पर असली कहानियाँ वहीं मिलेंगी।”

राहुल ने बिना सोचे हामी भर दी। दोनों ने बस स्टैंड से ऋषिकेश की लोकल बस पकड़ी। बस पुरानी थी, खिड़कियों से हवा सीधे भीतर आ रही थी और हर झटके पर सब यात्री हँसते या चिल्लाते। राहुल ने महसूस किया कि दिल्ली की एसी कैबों से कहीं ज़्यादा जीवन यहाँ था।

बस ऋषिकेश पहुँची तो सामने गंगा का दूसरा रूप दिखा—यहाँ वह और उग्र, और चंचल थी। किनारे पर विदेशी पर्यटकों की भीड़ थी, कोई योग सीख रहा था, कोई ध्यान लगा रहा था। राहुल को यह सब देखकर एक अजीब-सी मिलन-भावना हुई—इतनी दूर से लोग भारत आते हैं आत्मा की तलाश में, और वह खुद अपने ही देश में यह खोज नए सिरे से कर रहा है।

मोहन ने कहा, “अब आगे पहाड़ शुरू होंगे। यहाँ से गाँव की राह पकड़ेंगे। आधा दिन चलना पड़ेगा, तभी असली उत्तराखंड मिलेगा।” राहुल ने बैग कसकर कंधे पर डाला और उसके पीछे चल पड़ा।

पहाड़ों की राह सँकरी थी, पगडंडियाँ टेढ़ी-मेढ़ी और दोनों ओर चीड़ और देवदार के पेड़ों की कतार। ऊपर से कभी-कभी बंदर टहनियों पर झूलते दिख जाते। दूर-दूर तक बर्फ़ की चोटियाँ धूप में चमक रही थीं। राहुल ने पहली बार महसूस किया कि वह सचमुच शहर की दीवारों से बाहर आ गया है।

चलते-चलते मोहन गाँवों की कहानियाँ सुनाता गया। “यहाँ के लोग कभी खेती करते थे, अब बहुत-से नीचे शहरों में काम ढूँढने चले गए। गाँव खाली हो रहे हैं, लेकिन त्योहारों के समय फिर से आबाद हो जाते हैं। पहाड़ की मिट्टी चाहे जितनी कठोर हो, यहाँ के लोग उतने ही मुलायम दिल वाले हैं।” राहुल ध्यान से सुनता रहा। उसे लगा यह सफ़र सिर्फ़ नज़ारे देखने का नहीं, बल्कि लोगों और उनकी ज़िंदगियों को समझने का है।

रास्ते में उन्हें एक बूढ़ी महिला मिली जो सिर पर लकड़ियों का गट्ठर लिए जा रही थी। पसीने से भीगी, पर चेहरे पर थकान नहीं। मोहन ने उसे नमस्ते की, और महिला ने मुस्कुराकर आशीर्वाद दिया। राहुल ने झुककर वही किया तो महिला ने कहा, “बेटा, पहाड़ पर चढ़ाई जितनी कठिन होगी, मंज़िल उतनी सुंदर होगी।” राहुल को लगा जैसे यह वाक्य सिर्फ़ रास्ते के लिए नहीं, बल्कि जीवन के लिए भी है।

दोपहर होते-होते दोनों एक छोटी चाय की दुकान पर रुके। मिट्टी के चूल्हे पर उबलती चाय, साथ में गरम आलू पराठे। राहुल ने ऐसा स्वाद पहले कभी महसूस नहीं किया था। मोहन हँसते हुए बोला, “यही है असली सफ़र का मज़ा, साहब। पेट भी भर गया, दिल भी।”

खाने के बाद जब दोनों फिर चले तो रास्ता और ऊँचा और कठिन होने लगा। राहुल के पाँव दर्द करने लगे, साँस तेज़ चलने लगी। लेकिन हर मोड़ पर जब नीचे गहरी घाटियाँ और ऊपर आसमान की नीली छतरी दिखाई देती, उसे लगता जैसे हर कदम के साथ वह किसी नए जीवन में प्रवेश कर रहा है।

शाम तक वे एक छोटे-से गाँव पहुँचे। कुछ घर, धुएँ से उठती खुशबू, और लोग जो परायों को देखकर भी मुस्कुराते थे। मोहन ने कहा, “आज रात यहीं रहेंगे। कल और ऊपर जाना है।”

राहुल ने गहरी साँस ली। पहाड़ की हवा में थकान भी सुख जैसी लग रही थी। उसे लगा—यह राह लंबी है, कठिन है, लेकिन शायद यही उसे उसके भीतर के जवाबों तक ले जाएगी।

 

भाग ३ – गाँव की कहानियाँ

 

गाँव छोटा था, लेकिन उसमें जीवन की एक अलग ही लय थी। शाम उतर रही थी, और पहाड़ों की ढलानों पर सूरज की आख़िरी किरणें ऐसे बिखर रही थीं जैसे किसी ने आकाश पर सुनहरा रंग घोल दिया हो। राहुल गाँव के बीचोबीच खड़ा था, जहाँ कुछ बच्चे खेल रहे थे—कोई कंचे, कोई लकड़ी की छोटी-सी गाड़ी। उनके कपड़े साधारण थे, लेकिन आँखों में उत्साह उतना ही था जितना किसी बड़े शहर के बच्चों में।

मोहन ने राहुल को एक घर की ओर ले जाकर कहा, “यहीं रुकेंगे। यह मेरा दोस्त है, हमें ठहरने की जगह मिल जाएगी।” घर मिट्टी और पत्थरों से बना था, ऊपर स्लेट की छत। दरवाज़े से एक बुज़ुर्ग आदमी बाहर निकले। चेहरे पर झुर्रियाँ, पर आँखों में स्नेह। उन्होंने मोहन को पहचानते ही मुस्कुराकर गले लगाया और फिर राहुल की ओर देखा। “आइए, शहर से आए हैं न? अब पहाड़ का अतिथि हैं।”

घर के भीतर लकड़ी का छोटा कमरा था, जिसमें मिट्टी का चूल्हा जल रहा था। बुज़ुर्ग की पत्नी रोटियाँ बेल रही थीं और बगल में ताज़ा सब्ज़ियों की खुशबू हवा में घुल रही थी। राहुल ने सोचा—यहाँ लोग कितने कम में कितने संतुष्ट हैं। उसने चुपचाप बैठकर माहौल को आत्मसात किया।

खाना खाते समय बातचीत शुरू हुई। बुज़ुर्ग का नाम धरम सिंह था। उन्होंने कहा, “बेटा, यह गाँव पहले बहुत भरा-पूरा था। खेतों में गेंहूँ, मक्की, राजमा सब होता था। त्योहारों में ढोल-दमाऊँ बजते थे। पर अब आधे लोग शहर चले गए हैं रोज़गार की तलाश में। खाली घर रह गए हैं, और खेत सूख गए हैं।”

राहुल ने पूछा, “तो फिर आप लोग यहाँ क्यों टिके हैं?”
धरम सिंह ने गहरी साँस लेकर कहा, “क्योंकि यह हमारी जड़ है। मिट्टी छोड़ देंगे तो हम रहेंगे कहाँ? शहर जाकर नौकरियाँ मिल भी जाएँ, पर दिल हमेशा यहाँ लौटना चाहता है। पहाड़ भले कठिन हैं, पर हमें पहचान देते हैं।”

उनकी बातें सुनकर राहुल को लगा जैसे वह किसी किताब का पन्ना पढ़ रहा हो—इतनी सादगी, इतनी गहराई। तभी घर के बाहर से कुछ लोकगीत की आवाज़ें आने लगीं। गाँव के युवक-युवतियाँ अलाव के पास बैठकर गा रहे थे। गीतों में पहाड़ों की नदी, देवताओं की कथाएँ और प्रेम की छोटी-छोटी कहानियाँ थीं। राहुल मोहन के साथ वहाँ गया और देर तक सुनता रहा। गीतों की लय, ढोलक की थाप और पहाड़ों की खामोशी सब मिलकर एक जादू रच रहे थे।

गीत खत्म होने पर एक बुज़ुर्ग महिला ने राहुल की ओर इशारा किया और हँसते हुए बोली, “शहर वाले आए हैं, इनके लिए भी कुछ गाना चाहिए।” और सचमुच कुछ लड़कियाँ उसकी ओर देखकर एक चंचल गीत गाने लगीं। राहुल हड़बड़ा गया, लेकिन भीतर कहीं उसे अच्छा लगा—किसी अजनबी जगह पर भी लोग उसे अपना मान रहे थे।

रात जब सब सोने चले गए, तो आसमान में अनगिनत तारे चमक रहे थे। राहुल आँगन में बैठा देर तक आसमान देखता रहा। दिल्ली के धुएँ और रोशनी में उसने ऐसे तारे कभी नहीं देखे थे। मोहन पास बैठा था। उसने कहा, “देखा, शहर से कितनी अलग है यह ज़िंदगी। यहाँ समय धीरे चलता है, पर दिल जल्दी भर जाता है।”

राहुल ने सिर हिलाया। उसे लगा, यही कहानियाँ, यही लोग उसके सफ़र को अर्थ देंगे। पहाड़ सिर्फ़ नज़ारों का नहीं, आत्मा की गहराई का भी सफ़र है।

धीरे-धीरे नींद उसकी आँखों में उतर आई। और उसके भीतर एक आवाज़ गूँज रही थी—“यह सफ़र मंज़िल तक नहीं, भीतर तक ले जाएगा।”

 

भाग ४ – नदी और अजनबी

 

सुबह की पहली किरण जब पहाड़ों की चोटियों पर फैली तो गाँव का रंग ही बदल गया। धुंध धीरे-धीरे हट रही थी, और पक्षियों की आवाज़ें पूरे वातावरण को भर रही थीं। राहुल नींद से उठा तो बाहर बच्चे खेलते दिखे और औरतें पानी भरने जा रही थीं। मोहन पहले से तैयार खड़ा था। उसने कहा, “आज तुम्हें नदी दिखाता हूँ। यहाँ की नदी सिर्फ़ पानी नहीं, हमारी साँस है।”

दोनों पगडंडी से नीचे उतरने लगे। रास्ता घना और फिसलन भरा था। पेड़ों के बीच से छनकर आती धूप और दूर से आती कलकल की आवाज़ राहुल को खींच रही थी। आधे घंटे बाद वे उस जगह पहुँचे जहाँ नदी पत्थरों के बीच बह रही थी—नीला, पारदर्शी और तेज़। राहुल को लगा जैसे यह नदी सबकुछ धो देगी—थकान, चिंता, बोझ। उसने जूते उतारे और पानी में पाँव डाल दिए। ठंडक सीधी आत्मा तक उतर गई।

उसी समय उसने देखा, किनारे पर एक युवती बैठी थी। सुनहरे बाल, गोरा चेहरा, और हाथ में एक मोटी डायरी। वह शायद विदेशी थी। वह पानी को देख रही थी और कुछ लिख रही थी। मोहन ने धीरे से कहा, “यहाँ कई विदेशी आते हैं ध्यान और साधना के लिए। कुछ हफ़्तों तक रुकते हैं, कुछ महीनों तक।”

राहुल पहले झिझका, पर फिर उसके पास चला गया। “हाय,” उसने कहा। युवती ने मुस्कुराकर जवाब दिया, “हेलो। आप भी यहाँ खोज में आए हैं?” उसका हिंदी उच्चारण अजीब लेकिन प्यारा था। राहुल ने हँसकर कहा, “हाँ, शायद खुद को ढूँढने।”

उसका नाम एमा था। फ्रांस से आई थी। उसने बताया कि वह भारत घूमते-घूमते यहाँ आ गई और अब नदी किनारे ध्यान करती है। उसकी डायरी में उसने नदी के बहाव, गाँव के लोगों और अपने अनुभवों को दर्ज किया था। उसने राहुल को एक पन्ना पढ़कर सुनाया: यहाँ की नदियाँ सिर्फ़ पानी नहीं बहातीं, ये मन की गांठें खोलती हैं। शहरों में जो हम खो देते हैं, ये नदियाँ उसे लौटाती हैं।”

राहुल ने चुपचाप सुना। उसे लगा, जैसे एमा ने वही कहा जो वह खुद सोच रहा था पर शब्दों में नहीं कह पा रहा था।

मोहन ने हँसते हुए कहा, “देखा, साहब, पहाड़ पर अजनबी भी अपने जैसे लगते हैं। यहाँ कोई पराया नहीं।” एमा ने सिर हिलाकर सहमति जताई। उसने कहा, “मैंने यहाँ सीखा है कि सफ़र सिर्फ़ नक्शे पर नहीं होता। यह दिलों के बीच भी होता है।”

कुछ देर बाद तीनों नदी किनारे बैठकर बातें करते रहे। राहुल ने महसूस किया कि अलग-अलग देश, अलग भाषाएँ, अलग संस्कृतियाँ—फिर भी सबको जोड़ने वाला कुछ होता है। शायद यही प्रकृति की ताक़त है।

शाम लौटते समय राहुल ने पीछे मुड़कर नदी को देखा। उसे लगा, जैसे वह नदी सिर्फ़ पानी नहीं, बल्कि उसकी यात्रा की साथी बन गई है। और उस सफ़र में अब एक नया अजनबी भी शामिल था, जो अजनबी कम और परिचित ज़्यादा लग रहा था।

उस रात गाँव लौटकर जब वह आसमान देख रहा था तो सोच रहा था—क्या यह सफ़र केवल पहाड़ और घाटियों तक सीमित रहेगा, या उसके भीतर कोई नया रिश्ता भी जन्म ले रहा है?

 

भाग ५ – अलाव की रात

 

गाँव की उस शाम में एक अलग ही रौनक थी। पहाड़ों पर दिन जल्दी ढल जाता है, और सूरज के पीछे छिपते ही ठंडी हवाएँ उतर आती हैं। गाँव के बीचोंबीच खुले आँगन में लकड़ियाँ जमा की गईं। मोहन ने राहुल से कहा, “आज रात अलाव होगा। हर यात्री, हर मेहमान यहाँ की रात को याद रखता है।”

धीरे-धीरे सब लोग जुटने लगे। बच्चे, बूढ़े, औरतें—सब अपनी-अपनी कहानियाँ और गीत लेकर। लकड़ियाँ सुलगाई गईं, और देखते ही देखते आग की लपटें ठंडी हवा को चीरकर ऊपर उठीं। चारों तरफ़ रोशनी का घेरा बन गया। राहुल पहली बार इस तरह गाँव के बीच किसी सामूहिक उत्सव में शामिल हो रहा था।

मोहन ने उसकी ओर देखकर कहा, “यहाँ अलाव सिर्फ़ ठंड भगाने के लिए नहीं, यह हमारी आत्माओं को जोड़ने के लिए है।” राहुल ने देखा—लोगों के चेहरे उस आग की लपटों में चमक रहे थे, और हर मुस्कान सच्ची थी।

पहले बच्चों ने गीत गाए—पर्वत देवताओं और ऋतुओं के बारे में। फिर युवाओं ने नृत्य किया, ढोलक की थाप पर उनके कदम थिरकते रहे। राहुल को लगा जैसे वह किसी और ही समय में पहुँच गया है, जहाँ शहर का शोर, तनाव और भागदौड़ सब मिट चुके हैं।

कुछ देर बाद एमा भी आई। हाथ में वही डायरी थी। उसने आग के पास बैठते हुए कहा, “क्या मैं कुछ पढ़ सकती हूँ?” सबने उत्सुकता से हामी भरी। उसने अंग्रेज़ी में कुछ पंक्तियाँ पढ़ीं, जिन्हें मोहन ने तुरंत हिंदी में अनुवाद किया—
आग हमें याद दिलाती है कि अंधेरे में भी रोशनी संभव है। और जब लोग साथ बैठते हैं, तो अकेलापन पिघल जाता है।”

राहुल ने देखा, गाँव वाले उसकी बातों को समझकर मुस्कुरा रहे थे। अजनबी होकर भी वह सबकी अपनी बन गई थी।

फिर बारी आई धरम सिंह की। उन्होंने अपनी पुरानी यादें सुनाईं—कैसे पहले इस गाँव में शादियों के समय अलाव के चारों ओर पूरी रात गीत चलते थे, कैसे पहाड़ की ठंडक को हँसी और नृत्य हराते थे। उनकी आँखों में नमी थी, लेकिन स्वर में गर्व भी।

धीरे-धीरे माहौल और गहरा होता गया। आग की चटकती आवाज़, गीतों की लय और पहाड़ों की खामोशी मिलकर जैसे कोई जादू रच रहे थे। राहुल खुद को खो चुका था। उसे लगा—यह सिर्फ़ गाँव का उत्सव नहीं, यह उसकी आत्मा का उत्सव है।

रात गहरी होने लगी। सब लोग धीरे-धीरे अपने घरों की ओर लौटे, लेकिन आग की लपटें अब भी जल रही थीं। राहुल आख़िर में वहीं बैठा रहा। मोहन और एमा भी उसके साथ थे। तीनों ने कुछ देर बिना बोले आग को देखा। उस खामोशी में जैसे सब सवालों के जवाब छिपे थे।

राहुल ने सोचा—यह सफ़र केवल उसका अकेला सफ़र नहीं रहा। इसमें अब लोग, कहानियाँ, और रिश्ते शामिल हो चुके हैं। और शायद यही सफ़र की असली आवाज़ें हैं।

 

भाग ६ – खोए हुए मंदिर की राह

 

सुबह गाँव पर हल्की धूप उतर आई थी। रात का अलाव अब राख बन चुका था, लेकिन उसकी गर्माहट राहुल के दिल में अभी भी धड़क रही थी। वह देर तक सो नहीं पाया था—अलाव के गीत, एमा की लिखी पंक्तियाँ और धरम सिंह की कहानियाँ उसके भीतर बार-बार गूंज रही थीं।

मोहन ने उस सुबह नई योजना बनाई। उसने कहा, “आज हम पहाड़ के उस पार जाएँगे। वहाँ एक पुराना मंदिर है—अब आधा खंडहर हो चुका है। लोग कहते हैं, वह मंदिर समय के साथ खो गया, लेकिन उसकी राह अब भी आत्मा को सुकून देती है।”

राहुल और एमा दोनों तैयार हो गए। रास्ता और भी कठिन था। पगडंडियाँ सँकरी, किनारे गहरी खाई। ऊपर पेड़ों की मोटी परत, और नीचे बहती नदी की गरजती आवाज़। तीनों धीरे-धीरे चलते रहे। मोहन बीच-बीच में कहानियाँ सुनाता रहा—कैसे उस मंदिर में कभी बड़े मेले लगते थे, कैसे लोग दूर-दूर से देवता का आशीर्वाद लेने आते थे।

चलते-चलते राहुल के भीतर एक अजीब शांति उतर रही थी। शहर में वह अक्सर सोचता था कि हर कदम किसी लक्ष्य की ओर होना चाहिए। लेकिन यहाँ हर कदम अपने आप में एक अनुभव था—रास्ता ही मंज़िल जैसा।

दो घंटे की कठिन चढ़ाई के बाद वे एक चट्टान पर पहुँचे। वहाँ से दूर मंदिर की आकृति दिख रही थी। पत्थरों से बना, आधा टूटा, और बेलों से ढका हुआ। जैसे प्रकृति ने उसे फिर से अपनी गोद में ले लिया हो। राहुल ने पहली बार किसी खंडहर को इतना जीवित देखा।

मंदिर के पास पहुँचकर उन्होंने देखा—दीवारों पर पुराने चित्र अब भी बने थे। देवताओं की आकृतियाँ, लोककथाओं के दृश्य, और कहीं-कहीं धुंधले अक्षर। एमा ने चुपचाप अपनी डायरी खोली और उन चित्रों की रेखाएँ उतारने लगी। उसने कहा, “ये खंडहर भी ज़िंदा हैं। ये हमें बताते हैं कि समय सब कुछ बदल सकता है, पर यादें मिटा नहीं सकता।”

मोहन ने राहुल की ओर देखा और बोला, “लोग कहते हैं यहाँ आकर दिल हल्का हो जाता है। क्योंकि यह मंदिर हमें सिखाता है कि कुछ भी हमेशा नहीं रहता—ना दुःख, ना सुख। बस सफ़र चलता रहता है।”

राहुल ने आँखें बंद कीं। उसे लगा, उसके भीतर जमा हुई सारी थकान, डर और उलझन धीरे-धीरे बह रही हैं। मंदिर की खामोशी उसके भीतर उतर रही थी।

शाम होते-होते जब वे लौटने लगे, तो आकाश पर लालिमा फैल चुकी थी। पहाड़ों के पीछे सूरज ढल रहा था और हवा और ठंडी हो रही थी। राहुल ने पीछे मुड़कर मंदिर को आख़िरी बार देखा। उसे लगा—यह केवल खंडहर नहीं, बल्कि उसके सफ़र का नया पड़ाव है।

वह मुस्कुराया। और पहली बार उसे महसूस हुआ कि शायद उसका यह सफ़र उसे सचमुच भीतर तक बदल रहा है।

 

भाग ७ – बारिश और आत्मकथा

 

गाँव लौटते-लौटते आकाश अचानक घिर आया था। बादल पहाड़ों की चोटियों से उतरकर नीचे फैल गए और हवा में एक अजीब नमी भर गई। राहुल ने मोहन से पूछा, “बारिश होगी क्या?” मोहन हँसकर बोला, “यहाँ मौसम का भरोसा नहीं। कभी भी बदल जाता है। लेकिन पहाड़ की बारिश से डरना मत, यह डराती नहीं, सिखाती है।”

कहते ही तेज़ बूँदें गिरने लगीं। पहले कुछ हल्की, फिर अचानक मूसलाधार। तीनों पास के एक छोटे लकड़ी के घर की ओर भागे। दरवाज़े पर एक बुज़ुर्ग महिला मिलीं, उन्होंने बिना कुछ पूछे भीतर बुला लिया। यह पहाड़ का सबसे बड़ा गुण था—अजनबियों को भी अपना मान लेना।

घर छोटा था, लेकिन भीतर गर्माहट थी। कोने में जलता चूल्हा, दीवार पर लटकी लालटेन और खिड़की से आती बारिश की ध्वनि। राहुल ने खिड़की से बाहर देखा—पेड़ झूम रहे थे, नदी और प्रचंड हो गई थी, और आकाश बिजली से बार-बार जगमगा रहा था।

बुज़ुर्ग महिला ने सबको चाय दी। गरम चाय की भाप और अदरक की खुशबू ने सर्दी को जैसे तुरंत पिघला दिया। चुपचाप बैठते-बैठते एमा ने अपनी डायरी खोली। उसने कहा, “बारिश में लिखना सबसे आसान होता है। क्योंकि बारिश शब्दों को बहा ले जाती है।”

उसने राहुल से पूछा, “क्या तुम कभी लिखते हो?” राहुल मुस्कुराया, “नहीं। मैं बस सोचता हूँ, लेकिन लिख नहीं पाता।” एमा ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा, “फिर आज से लिखना शुरू करो। सफ़र केवल देखने का नहीं, दर्ज करने का भी होता है।”

उसके शब्द राहुल के भीतर कहीं गहरे उतर गए। उसने पास रखी पुरानी कॉपी उठाई और पहली बार लिखने की कोशिश की—
बारिश पहाड़ पर सिर्फ़ मिट्टी नहीं भिगोती, यह दिल को भी नरम बना देती है। मैं अब समझ रहा हूँ कि भागना हल नहीं है। रुककर सुनना, देखना और महसूस करना ही जीवन है।”

मोहन ने पढ़कर कहा, “वाह! यही तो है सफ़र की आत्मकथा। हर यात्री जब लौटता है, तो अपने साथ कहानियाँ नहीं, बल्कि एक किताब ले जाता है—जो उसके दिल पर लिखी जाती है।”

बाहर बारिश अब भी हो रही थी, लेकिन भीतर राहुल के लिए एक नई शुरुआत हो चुकी थी। उसने महसूस किया कि शायद वह अब केवल यात्री नहीं रहा, अब वह लेखक बनने की राह पर भी चल पड़ा है।

उस रात जब बारिश थमी और तारे फिर से आसमान में लौटे, राहुल ने सोचा—यह सफ़र अब केवल बाहर का नहीं, बल्कि भीतर का भी है। और यह आत्मकथा आगे उसके हर कदम के साथ बढ़ती जाएगी।

भाग ८ – धाम की यात्रा

 

बारिश के बाद की सुबह कुछ और ही थी। पहाड़ धुले-धुले लग रहे थे, हरियाली और गहरी हो गई थी और हवा में मिट्टी की भीनी गंध तैर रही थी। गाँव के लोग मानते थे कि ऐसी बारिश के बाद अगर कोई यात्रा शुरू की जाए, तो वह शुभ होती है। शायद इसी वजह से मोहन ने उस दिन नया प्रस्ताव रखा—“आज हम पास के धाम चलेंगे। यह यात्रा कठिन है, लेकिन आत्मा को सबसे गहरा सुकून वहीं मिलता है।”

राहुल और एमा दोनों तैयार हो गए। पहाड़ की संकरी राहों पर चलते हुए वे गाँव से दूर निकलने लगे। रास्ता और भी ऊँचाई की ओर जाता था। चारों ओर देवदार और बुरांश के पेड़, जिनके फूलों ने पगडंडी को लाल और गुलाबी रंगों से भर दिया था। राहुल को हर कदम पर लगता कि प्रकृति किसी उत्सव में शामिल है और वह उसी उत्सव का हिस्सा बन गया है।

रास्ते में मोहन ने बताया, “इस धाम को लोग ‘देवस्थान’ कहते हैं। कहते हैं यहाँ देवता खुद उतरकर आते हैं। जब वार्षिक मेला लगता है, तो पूरा इलाका गीतों और घंटियों से गूंज उठता है। लेकिन बाकी समय यहाँ गहरी खामोशी होती है।”

चढ़ाई कठिन थी। कई बार राहुल को लगता कि अब और नहीं चला जाएगा। लेकिन हर बार जब नीचे गहरी घाटियाँ और ऊपर बर्फ़ से ढकी चोटियाँ दिखतीं, तो उसके कदम फिर से बढ़ जाते। एमा भी चुपचाप चल रही थी, बीच-बीच में वह अपनी डायरी खोलकर कुछ लिखती। राहुल ने उससे पूछा, “क्या लिख रही हो?” एमा मुस्कुराकर बोली, “यात्रा के हर मोड़ पर कुछ नया सीख मिलती है। मैं उसे काग़ज़ पर बाँध लेती हूँ ताकि भूल न जाऊँ।”

आख़िरकार दोपहर होते-होते वे धाम पहुँचे। सामने पत्थरों से बना एक विशाल मंदिर था। दरवाज़े पर घंटियाँ हवा में बज रही थीं और भीतर दीपक जल रहे थे। चारों ओर एक गंभीर सन्नाटा था, जैसे पहाड़ खुद प्रार्थना कर रहे हों।

राहुल ने भीतर जाकर देखा—दीवारों पर उकेरी गई मूर्तियाँ, पुराने दीपदान और एक गहरी सुगंध। उसने आँखें बंद कीं और भीतर कुछ माँगने की बजाय केवल आभार व्यक्त किया। उसे लगा, अब तक का पूरा सफ़र उसे इसी क्षण तक लाया है।

मोहन ने धीरे से कहा, “यहीं समझ आता है कि सफ़र क्यों ज़रूरी है। यहाँ आकर हमें एहसास होता है कि हम कितने छोटे हैं और जीवन कितना विशाल।”

मंदिर के बाहर बैठते समय एमा ने कहा, “मैंने दुनिया के कई मंदिर देखे हैं, लेकिन यहाँ का सन्नाटा सबसे ज़्यादा बोलता है। यह जगह हमें सिखाती है कि कभी-कभी ख़ामोशी ही सबसे बड़ी प्रार्थना होती है।”

राहुल ने सिर हिलाया। उसे लगा, उसकी आत्मा सचमुच हल्की हो रही है। जिस भारीपन के साथ वह दिल्ली से निकला था, वह अब धीरे-धीरे बह रहा है।

संध्या ढल रही थी। मंदिर की घंटियाँ गूंज रही थीं और दूर आकाश में तारे उभरने लगे थे। राहुल ने सोचा—यह धाम केवल देवताओं का घर नहीं, बल्कि उसके भीतर जन्म ले रहे नए इंसान का भी घर है।

 

भाग ९ – विदाई की आहट

 

धाम की उस यात्रा ने राहुल के भीतर कुछ बदल दिया था। लौटते समय उसके कदम हल्के लग रहे थे, मानो कोई बोझ उतर गया हो। लेकिन जैसे-जैसे गाँव नज़दीक आने लगा, एक अजीब-सी कसक दिल में उठी। क्या यह सफ़र सचमुच ख़त्म होने वाला है?

गाँव लौटते ही सबने उनका स्वागत किया। धरम सिंह ने मुस्कुराकर कहा, “देखा बेटा, अब चेहरे पर चमक है। सफ़र ने तुम्हें थकाया नहीं, तुम्हें नया बना दिया है।” राहुल ने उनकी ओर देखते हुए महसूस किया कि वह सही कह रहे हैं।

शाम को जब सब लोग फिर से अलाव के पास जुटे, तो माहौल अलग था। इस बार गीतों में उत्सव कम, विदाई की आहट ज़्यादा थी। राहुल जानता था कि जल्द ही उसे लौटना होगा—दिल्ली, नौकरी और वही पुरानी दिनचर्या। लेकिन अब सब कुछ वैसा नहीं रहेगा।

एमा पास बैठी थी। उसने कहा, “मैं भी जल्द ही फ्रांस लौट जाऊँगी। लेकिन यह जगह… यह लोग… यह सफ़र, मेरे साथ हमेशा रहेंगे।” उसने अपनी डायरी से एक पन्ना फाड़कर राहुल को दिया। उस पर लिखा था—
सफ़र मंज़िल नहीं देता, सफ़र हमें नया इंसान देता है। जब तुम लौटोगे, तो वही नहीं रहोगे जो निकले थे।”

राहुल ने पन्ना सँभालकर रख लिया। वह कुछ कहना चाहता था, लेकिन शब्द उसके पास नहीं थे। मोहन ने दोनों की ओर देखा और मुस्कुराकर बोला, “विदाई से मत डरना। पहाड़ हमेशा लौटने वालों का इंतज़ार करते हैं।”

रात को आसमान तारों से भरा था। राहुल देर तक आँगन में बैठा रहा। उसने सोचा—शहर की भागदौड़ और तनाव अब भी वहीं होंगे, लेकिन उसके भीतर यह गाँव, यह सफ़र, यह लोग हमेशा ज़िंदा रहेंगे। शायद यही उसकी असली पूँजी है।

धीरे-धीरे नींद उतर आई, लेकिन दिल के किसी कोने में यह एहसास गहराता रहा कि विदाई अब दूर नहीं। और हर विदाई अपने साथ नई शुरुआत की आहट भी लाती है।

 

भाग १० – वापसी और वादा

 

सुबह गाँव पर फिर वही हल्की धूप फैली थी, लेकिन इस बार राहुल का दिल भारी था। बैग पैक करने की आवाज़ ही उसे चुभ रही थी। मोहन दरवाज़े पर खड़ा था, आँखों में वही सहज मुस्कान, लेकिन भीतर छिपा स्नेह साफ़ झलक रहा था। एमा भी तैयार थी—उसके हाथ में अब भी वही डायरी थी, जिसके पन्नों में उसने न जाने कितनी कहानियाँ कैद कर ली थीं।

धरम सिंह और उनकी पत्नी ने जाते समय आँचल से राहुल के माथे पर हाथ रखा। “बेटा, लौटकर ज़रूर आना। पहाड़ छोड़ने वालों को हमेशा पुकारते हैं।” राहुल की आँखें भर आईं। उसने सिर झुकाकर प्रणाम किया और सोचा—ये लोग शायद उसे परिवार की तरह ही मान चुके हैं।

गाँव से निकलते समय पगडंडी पर हर मोड़ जैसे कोई स्मृति छोड़ रहा था—अलाव की रात, नदी की धारा, मंदिर की खामोशी और बारिश की वो दोपहर। हर दृश्य अब उसके भीतर गहराई तक दर्ज हो चुका था।

बस स्टैंड पर पहुँचकर राहुल ने मोहन और एमा की ओर देखा। “तुम दोनों के बिना यह सफ़र अधूरा होता,” उसने धीमे स्वर में कहा। मोहन ने हँसते हुए उसका कंधा थपथपाया, “सफ़र कभी अधूरा नहीं होता, बस अगली राह की ओर ले जाता है।” एमा ने उसे डायरी का आख़िरी पन्ना थमाया। उस पर लिखा था—
वापसी भी सफ़र का हिस्सा है। क्योंकि वहीं से अगली यात्रा शुरू होती है।”

ट्रेन चल पड़ी। खिड़की से बाहर पहाड़ धीरे-धीरे पीछे छूटने लगे। राहुल ने आख़िरी बार उन चोटियों को देखा और मन ही मन वादा किया—वह लौटेगा। न केवल पहाड़ों में, बल्कि अपने भीतर भी।

दिल्ली की भीड़ और शोर अब भी वही थे, लेकिन राहुल अब वही इंसान नहीं रहा। उसके भीतर अब पहाड़ों की शांति, गाँव की कहानियाँ और नदी की आवाज़ बस चुकी थी। वह जानता था, जब-जब जीवन उसे थकाएगा, वह इन स्मृतियों में लौट आएगा।

सफ़र ख़त्म नहीं हुआ था। यह तो बस एक वादा था—अपने भीतर लौटते रहने का।

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