Hindi - हास्य कहानियाँ

मकान मालिक vs किरायेदार

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चन्दन पांडेय


पुराने मोहल्ले की गलियाँ वैसे ही तंग और भीड़भाड़ से भरी थीं, जैसे किसी इतिहास की किताब का पीला पड़ चुका पन्ना। मकान मालिक शर्मा जी का घर भी उन जर्जर दीवारों के बीच एक ऐसा ही मकान था, जिसकी छत से सीलन की गंध आती थी और दीवारों पर पिछली बरसात के निशान अब भी जिद्दी दाग़ बनकर चिपके थे। मोहल्ले में सबको पता था कि शर्मा जी किराएदारों को लेकर बहुत सख़्त स्वभाव के हैं—“समय पर किराया दो और चैन से रहो” उनका नियम था। लेकिन मोहल्ले के नुक्कड़ पर उस दिन जब एक दुबली-पतली काया और हाथ में सामान से लदा रमेश नाम का युवक पहली बार दिखाई दिया, तो सबकी नज़रें उसी पर टिक गईं। वह अपने गले में झोला डाले, हाथ में एक पुराना सूटकेस पकड़े और आँखों में शहर में टिकने की उम्मीद लिए धीरे-धीरे शर्मा जी के मकान की ओर बढ़ा। मोहल्ले के बच्चे उसका मज़ाक उड़ाते हुए पीछे-पीछे चलने लगे और पड़ोस की औरतें खिड़की से झाँककर सोचने लगीं—“ये कौन नया मेहमान आया है?” रमेश ने शर्मा जी से मुलाक़ात की, बड़ी विनम्रता से झुककर सलाम किया और बताया कि वह पास के दफ़्तर में क्लर्क की नौकरी करता है और रहने के लिए जगह की तलाश में है। शर्मा जी ने थोड़ी देर तक उसकी शक्ल-ओ-सूरत को परखा, जैसे कोई वकील गवाह की सच्चाई-झूठ को तौल रहा हो, और फिर अनमने ढंग से बोले—“ठीक है, कमरा देख लो, लेकिन किराया हर महीने की पाँच तारीख से पहले चाहिए।” रमेश ने चौड़ी मुस्कान बिखेरते हुए हामी भर दी, मानो उसकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा बोझ उतर गया हो।

पहले ही दिन रमेश के तौर-तरीक़े ने शर्मा जी को थोड़ा असहज कर दिया। कमरे में घुसते ही उसने सामान फैलाना शुरू कर दिया—एक कोने में किताबों का ढेर, दूसरे कोने में बिस्तर का गट्ठर और खिड़की के पास रखी पुरानी साइकिल। उसे देखकर लग रहा था कि वह किसी तरह अपने जीवन की उलझनों को समेटकर यहाँ बसना चाहता है। लेकिन शर्मा जी की पैनी निगाहें बार-बार उसकी हरकतों पर टिक जातीं। जब रमेश ने कमरे का ताला लगाकर मोहल्ले की चाय की दुकान पर जाकर सबको अपने बारे में बताना शुरू किया—“भाई, मैं तो बड़ा ही ईमानदार आदमी हूँ, समय पर किराया दूँगा, सबका आदर करूँगा”—तो शर्मा जी को लगा जैसे यह आदमी जितना खुद को अच्छा दिखा रहा है, उतना है नहीं। अनुभव ने उन्हें सिखाया था कि जितना कोई खुद को ईमानदार बताता है, उतना ही उसकी बातों में कोई न कोई खोट ज़रूर होता है। लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा और मन ही मन सोचा—“देखते हैं, कब तक टिकता है।”

दिन ढलने के साथ-साथ रमेश की असली आदतें झलकने लगीं। जब मोहल्ले के लोग अपने-अपने घर लौट रहे थे, रमेश शर्मा जी के आँगन में खड़ा उनसे बातचीत करने लगा। बातों ही बातों में उसने इशारा कर दिया कि इस बार किराया देने में थोड़ा विलंब हो सकता है। उसका पहला बहाना था—“दरअसल बैंक बंद था, पैसे निकाल नहीं पाया। पर चिंता मत कीजिए, अगले हफ़्ते ज़रूर दे दूँगा।” शर्मा जी ने उसे घूरते हुए देखा और मन ही मन हँसे—“अरे वाह! अभी आया नहीं और बहाने शुरू!” रमेश ने मुस्कुराते हुए बात संभालने की कोशिश की और यह जताने लगा कि वह पढ़ाई भी कर रहा है, नौकरी भी कर रहा है, घर पर ज़िम्मेदारियाँ भी बहुत हैं, इसलिए कभी-कभी देर हो सकती है। उसने अपनी आवाज़ में इतनी मासूमियत घोल दी कि किसी को भी उस पर दया आ जाए, लेकिन शर्मा जी को ये मासूमियत खोखली लगी। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया, बस अपनी ऐनक सीधी की और भीतर चले गए। लेकिन उनके चेहरे पर छुपी हल्की मुस्कान बता रही थी कि उन्हें रमेश की चालाकी का अंदाज़ा हो चुका है और आगे इस खेल में दिलचस्पी भी आने वाली है।

शाम का आसमान जब धीरे-धीरे अंधकार से भर गया और मोहल्ले के बच्चे गली में क्रिकेट खेलते-खेलते लौट गए, रमेश अपने कमरे की खिड़की से बाहर झाँकता हुआ सोचने लगा कि इस शहर में रहना कितना मुश्किल है। उसकी आँखों में भविष्य की बेचैनी थी, लेकिन उसके होंठों पर वही बहाना देने वाली आदत की हल्की-सी मुस्कान भी। दूसरी ओर शर्मा जी अपने बरामदे में बैठकर हुक़्का गुड़गुड़ाते हुए रमेश के बारे में सोच रहे थे—“ये किरायेदार दिखने में तो सीधा है, लेकिन मुझे लगता है कि इसकी जेब से किराया निकालना आसान नहीं होगा।” मोहल्ले की हवा में उस रात एक अजीब-सा रोमांच घुल गया था। हर कोई सोच रहा था कि आने वाले दिनों में मालिक और किरायेदार की यह जोड़ी मोहल्ले में खूब हंगामा करने वाली है। और यहीं से शुरू होती है वह कहानी, जिसमें बहानों की मशीन बने किरायेदार और चालाकी में माहिर मकान मालिक के बीच रोज़-रोज़ की जंग हँसी-ठिठोली और तमाशे का नया किस्सा रचने वाली थी।

महीने की पाँच तारीख़ आते ही शर्मा जी के कान खड़े हो जाते थे। उनकी आदत थी कि सुबह चाय पीते ही किरायेदारों के दरवाज़े पर दस्तक दे आते और बड़े तमीज़ से याद दिलाते—“भाई साहब, किराया देना है।” इस बार भी उन्होंने यही किया। रमेश दरवाज़ा खोलते ही ऐसे चौंका जैसे कोई चोर पकड़ लिया गया हो। चेहरे पर बनावटी मासूमियत और आँखों में हल्की घबराहट थी। उसने तुरंत अपने माथे पर हाथ मारा और बोला—“अरे शर्मा जी, आपसे क्या छुपाना! कल ही मेरा पर्स बाजार में चोरी हो गया। उसमें सारा पैसा रखा था किराए का। मैंने सोचा था आज आपको खुद आकर बता दूँगा।” शर्मा जी का चेहरा सुनते ही ढीला पड़ गया। उन्होंने गंभीरता से रमेश को ऊपर से नीचे तक देखा और कुछ पल चुप रहे। मोहल्ले का नियम था कि कोई भी किरायेदार अगर सच में परेशानी में हो तो सब लोग मदद के लिए तैयार रहते थे। इसीलिए शर्मा जी ने तुरंत उसे डाँटने के बजाय सहानुभूति जताई और बोले—“अरे, यह तो बहुत बुरा हुआ। पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई?” रमेश ने झूठी लाचारी का अभिनय करते हुए सिर हिलाया—“जी, लेकिन आप जानते हैं, पुलिस वाले ऐसे मामलों में कहाँ ध्यान देते हैं! कह दिया कि मिल जाएगा तो बता देंगे।” उसकी आवाज़ में इतनी बेचारगी घुली थी कि आसपास खड़े दो-तीन पड़ोसी भी सोचने लगे कि बेचारा रमेश सच में मुसीबत में फँस गया है।

शाम तक रमेश मोहल्ले का हीरो बन चुका था। चाय की दुकान पर बैठकर उसने लंबी-लंबी कहानियाँ सुनाईं—कैसे जेबकतरे ने भीड़ में उसका पर्स खींच लिया, कैसे उसने शोर मचाया, लोग इकट्ठे हुए, और कैसे वह बेचारा खाली हाथ घर लौट आया। हर कहानी में वह थोड़ी-सी नाटकीयता डाल देता—“अरे भाई, सोचो, उसमें सिर्फ किराए का पैसा ही नहीं, मेरी बहन के कॉलेज की फीस भी रखी थी।” यह सुनते ही सबकी सहानुभूति और गहरी हो जाती। लेकिन शर्मा जी, जिनका अनुभव किरायेदारों के बहानों से भरा हुआ था, भीतर-ही-भीतर मुस्कुराते रहे। वे सोच रहे थे—“चलो, पहला बहाना शुरू हो गया। देखते हैं खेल कहाँ तक जाता है।” उन्होंने रमेश को उस दिन कुछ नहीं कहा और चुपचाप अपने बरामदे में बैठकर तमाशा देखते रहे। रमेश भी समझ रहा था कि इस बार उसका बहाना चल गया है और अब कम-से-कम पंद्रह दिन की मोहलत तो मिल ही जाएगी। उसके चेहरे पर आत्मसंतोष की हल्की-सी चमक थी, जैसे किसी खिलाड़ी ने पहली चाल सफलतापूर्वक खेल दी हो।

लेकिन अगले ही दिन सुबह का नज़ारा बिल्कुल अलग था। रमेश मोहल्ले में इतराता हुआ निकला। हाथ में एक चमचमाता हुआ नया मोबाइल था और कान में सफेद इयरफ़ोन। बच्चे उसके पीछे दौड़ते हुए चिल्ला रहे थे—“अरे वाह, नया मोबाइल!” पड़ोसी औरतें खिड़की से झाँककर एक-दूसरे को देख हँसने लगीं। शर्मा जी ने जैसे ही यह दृश्य देखा, उनके माथे पर बल पड़ गए। वे मन ही मन बुदबुदाए—“अरे वाह! कल तक तो पर्स चोरी हो गया था, पैसे लुट गए थे, और आज हाथ में नया मोबाइल? यह तो कुछ ज़्यादा ही चालाक निकला।” उन्होंने रमेश को वहीं रोककर पूछा—“अरे भाई, ये मोबाइल कहाँ से आया? कल तो कह रहे थे जेबकतरों ने पर्स मार लिया!” रमेश ज़रा भी नहीं हड़बड़ाया। उसने तुरंत एक और बहाना गढ़ डाला—“अरे शर्मा जी, यह तो मेरे दोस्त ने उधार दिला दिया है। पुराना मोबाइल खराब हो गया था न, तो काम ही नहीं चल रहा था। क्या करूँ, मजबूरी थी।” उसने इतनी सफ़ाई से कहा कि कोई भी साधारण आदमी विश्वास कर ले। लेकिन शर्मा जी जानते थे कि यह सफ़ाई बस चालाकी का दूसरा रूप है। उन्होंने मुस्कुराते हुए सिर हिलाया और सोचा—“भई, यह किरायेदार बड़ा दिलचस्प खिलाड़ी है। मुझे भी अब खेल थोड़ा चालाकी से खेलना होगा।”

अब मोहल्ले का माहौल और भी मजेदार हो चुका था। बच्चे रमेश को “पर्स चोर” कहकर चिढ़ाने लगे और दुकान पर बैठने वाले लोग उसके बहाने सुनकर हँसी दबाने लगे। किसी को लगता कि रमेश सच बोल रहा है, तो किसी को उसकी बातें एकदम बनावटी लगतीं। लेकिन असली तमाशा तो शर्मा जी और रमेश के बीच चल रहा था। शर्मा जी ने तय कर लिया कि अब हर महीने किराया माँगते समय रमेश के बहाने का इंतज़ार करेंगे, जैसे कोई दर्शक थिएटर में नई कॉमेडी देखने जाता है। रमेश भी अब निश्चिंत था कि उसका पहला बहाना काम कर गया और आगे भी वह अपनी चतुराई से खेल जीत सकता है। दोनों के बीच यह चालाकी का खेल शुरू हो चुका था, जो मोहल्ले की गलियों में आने वाले दिनों में हँसी-ठिठोली का सबसे बड़ा किस्सा बनने वाला था।

रमेश के नए मोबाइल ने शर्मा जी के भीतर एक चिंगारी जगा दी थी। उन्हें लगा कि यह किरायेदार अगर बहानेबाज़ी में माहिर है, तो मालिक भी कोई कम नहीं। कई सालों का अनुभव उन्हें यही सिखा चुका था कि किरायेदार से सीधे-सीधे पैसे माँगने से वह हाथ नहीं आता; उल्टा चालाकी और तरकीब से उसे नचाना पड़ता है। एक रात शर्मा जी अपने बरामदे में चारपाई पर लेटे-लेटे सोचते रहे—“किराया तो देगा नहीं, पर पक्का जेब में पैसे हैं। चलो, अब इसे समझाना होगा कि मालिक से चालाकी करना इतना आसान नहीं।” अगले ही दिन उन्होंने अपनी योजना पर अमल शुरू कर दिया। सुबह-सुबह वह पाइपलाइन के पास गए और खुद अपनी पुरानी रिंच से थोड़ा-सा जोड़ ढीला कर दिया। जैसे ही नल खुलता, पानी चारों तरफ़ छपाछप करता। फिर उन्होंने गेट का ताला भी ऐसा घुमाया कि बंद तो हो जाए, लेकिन खोलते समय पचास बार चाभी घुमानी पड़े। शाम तक रमेश जब थका-हारा दफ़्तर से लौटा और नल खोलकर देखा तो पूरा आँगन तालाब बन गया। ऊपर से गेट का ताला खोलने में उसे पसीना आ गया। वह हाँफता हुआ शर्मा जी के पास पहुँचा—“अरे मालिक, यह सब क्या हो गया? नल भी खराब और ताला भी अटका हुआ!”

शर्मा जी ने बड़े धीरज से हुक्का गुड़गुड़ाते हुए गर्दन हिलाई और बोले—“अरे भाई रमेश, यही तो मैं कह रहा था, यह पुराना मकान है, इसमें मरम्मत पर खर्च बहुत आता है। तुम्हारे रहते तो यह खर्चा और भी बढ़ गया है। देखो, अब नल ठीक कराना पड़ेगा, ताला बदलना पड़ेगा। और यह सब खर्चा तो मकान मालिक अकेला थोड़े ही उठाएगा? किरायेदार को भी हिस्सा देना पड़ता है। वैसे भी तुमने इस महीने अभी तक किराया दिया नहीं है। अब उसमें यह मरम्मत का खर्चा भी जोड़ना पड़ेगा।” रमेश का चेहरा सुनते ही उतर गया। वह समझ नहीं पा रहा था कि यह अचानक नया खेल कहाँ से आ गया। कल तक तो बात सिर्फ़ पर्स चोरी की थी, और आज अचानक मरम्मत का हिसाब-किताब! उसने घबराकर कहा—“लेकिन शर्मा जी, यह तो आपकी ज़िम्मेदारी है, मकान मालिक की! किरायेदार क्यों पैसा देगा?” शर्मा जी ने अपनी ऐनक ठीक करते हुए जवाब दिया—“अरे भाई, यही तो अनुभव सिखाता है। मकान किराए पर लेते हो तो सुविधा भी तो चाहिए। और सुविधा की कीमत होती है। अब ये खर्चा जोड़कर ही किराया देना पड़ेगा।” उनकी आवाज़ में एक ऐसी दृढ़ता थी, जिसने रमेश को अंदर तक हिला दिया।

रमेश को लगा कि उसका बहाना उल्टा उसी पर भारी पड़ गया है। पूरे दिन वह सोचता रहा कि कैसे इस नई चाल का जवाब दे। लेकिन जैसे ही वह मोहल्ले की दुकान पर बैठा, लोगों ने पहले ही उसे घेर लिया—“अरे रमेश भाई, सुना है नल फूट गया, गेट अटक गया? मालिक तो अब तुमसे मरम्मत का खर्च भी वसूलेंगे!” सब हँसने लगे। रमेश को शर्मिंदगी भी हुई और गुस्सा भी। उसे लगने लगा कि शर्मा जी उसकी नाक कटवाने पर तुले हैं। अगली सुबह उसने खुद ताला खोलने की कोशिश की, लेकिन आधा घंटा चाभी घुमाने के बाद भी ताला जाम ही रहा। नल चालू किया तो पानी की धार सीधी उसकी शर्ट पर गिरी और वह पूरी तरह भीग गया। हारकर उसे शर्मा जी के पास जाना पड़ा। शर्मा जी ने मुस्कुराते हुए कहा—“देखो रमेश, यही सब मैंने कहा था। अब इसको ठीक कराने के लिए मिस्त्री बुलाना पड़ेगा और उसका खर्चा तुमसे ही वसूला जाएगा।” रमेश दाँत पीसकर रह गया। उसने मन ही मन सोचा—“यह बूढ़ा तो मुझसे भी ज़्यादा चालाक निकला। अगर मैंने बहाना बनाया था तो इसने तो पूरा खेल ही पलट दिया।”

शाम तक रमेश की परेशानी बढ़ गई। मिस्त्री आया, उसने पाइपलाइन कस दी, ताला बदल दिया और मोटी रकम माँग ली। शर्मा जी ने पूरी रकम अपनी जेब से दी, लेकिन तुरंत रजिस्टर खोलकर उसमें लिख लिया—“मरम्मत खर्च: किरायेदार से वसूला जाएगा।” रमेश ने देखा तो उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसने धीरे से विरोध किया—“लेकिन मालिक, यह तो आपका खर्च है…” शर्मा जी ने मुस्कुराकर कहा—“भाई, मकान मालिक भी कोई मूर्ख नहीं होता। जब किरायेदार चालाकी दिखाता है, तो मालिक को भी सबक सिखाना पड़ता है। अब देखो, तुम्हारा बहाना मुझे याद है। पर्स चोरी हुआ, पैसा नहीं है। लेकिन मोबाइल खरीदने का पैसा था। चलो ठीक है, अब मोबाइल कम देखना और किराया व मरम्मत का खर्चा जल्द देना।” शर्मा जी के व्यंग्य भरे लहजे ने रमेश को चुप करा दिया। वह कमरे में जाकर सोचने लगा—“ये तो शुरूआत है। अगर हर बार बहाना बनाया तो यह मालिक मुझसे दोगुना वसूल लेगा।” मोहल्ले में अब चर्चा होने लगी थी—“किरायेदार और मालिक दोनों ही कमाल के खिलाड़ी हैं। असली मज़ा तो अब आएगा।” और इस तरह रमेश की बहानेबाज़ी और शर्मा जी की पलटवार की चालाकी ने कहानी को और मजेदार मोड़ पर ला खड़ा किया।

रमेश की बहानेबाज़ी का सिलसिला अब चरम पर पहुँच चुका था। किराया तो उसने बड़ी मुश्किल से टाल दिया था और मरम्मत के खर्चे में उलझकर परेशान हो गया था, मगर उसकी आदतें सुधरने वाली नहीं थीं। इस बार जब बिजली का बिल आया, तो वह इसे भी बचाने का बहाना ढूँढने लगा। मोहल्ले के लोग जब अपने-अपने घर का बिल चुका रहे थे, रमेश बड़ी बेफ़िक्री से दुकान पर बैठकर हुक्के के धुएँ के साथ गप्पें हाँक रहा था। शाम को शर्मा जी जब बिल की रसीद लेकर उसके कमरे के बाहर पहुँचे, तो रमेश ने दरवाज़ा खोला और बड़ी गंभीर आवाज़ में बोला—“अरे शर्मा जी, यह बिल तो ग़लत आया है। मीटर ही खराब है, उतनी बिजली मैंने जलायी ही नहीं। देख लीजिए, यह तो सीधा-सीधा लूट है।” उसकी आवाज़ में इतनी बनावटी हैरानी और गुस्सा था कि कोई भी पहली नज़र में सोचता कि वाकई इसके साथ धोखा हुआ है। शर्मा जी ने ऐनक उतारकर आँखें मलीं और ठंडी साँस भरते हुए बोले—“अच्छा! तो अब बिजली विभाग भी तुम्हारे खिलाफ़ साज़िश कर रहा है? कल तक पर्स चोरी, परसों मरम्मत, और आज मीटर खराब। वाह रमेश बाबू, तुम्हारे बहाने भी बिजली की तरह रोज़ नए-नए चमकते रहते हैं।” रमेश ने तुरंत पलटकर कहा—“नहीं मालिक, सच कह रहा हूँ। मीटर तेज़ भाग रहा है। आप चाहें तो खुद देख लीजिए।”

शर्मा जी के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान तैर गई। उन्होंने सोचा कि अब इस किरायेदार को उसी के खेल में मात देने का समय आ गया है। उन्होंने जानबूझकर कोई बहस नहीं की और गंभीरता से सिर हिलाते हुए कहा—“ठीक है, अगर तुम्हें लगता है कि मीटर गड़बड़ है, तो कल ही बिजली विभाग वालों को बुला लेंगे। वे आकर देख लेंगे कि असलियत क्या है।” रमेश को लगा कि उसने बाज़ी मार ली है। उसने राहत की साँस ली और सोचा कि विभाग वाले आएँगे तो मीटर की जाँच करेंगे, दो-चार नंबर घुमाकर कह देंगे कि गड़बड़ी है, और फिर बिल कम हो जाएगा। लेकिन वह यह भूल गया कि शर्मा जी किसी खेल में इतने आसान से नहीं हारते। अगले ही दिन सुबह शर्मा जी वाकई बिजली विभाग के दो कर्मचारियों को अपने घर ले आए। मोहल्ले में हड़कंप मच गया। बच्चे उनके पीछे-पीछे दौड़े, औरतें खिड़की से देखने लगीं—“अरे वाह, अब तो रमेश की खैर नहीं।”

रमेश को जैसे ही पता चला कि बिजली वाले सचमुच आ गए हैं, उसके होश उड़ गए। वह घबराहट में कमरे से बाहर आया और झूठी आत्मविश्वास से बोला—“अरे भई, देख लो। मैंने तो पहले ही कहा था कि मीटर खराब है।” कर्मचारी मीटर की जाँच करने लगे। उन्होंने सील खोली, तारों को देखा और कुछ गणना की। थोड़ी देर बाद उनमें से एक हँसते हुए बोला—“भाई साहब, मीटर बिल्कुल सही है। उल्टा आपके घर में तो ज़रूरत से ज़्यादा लोड चल रहा है। पंखा दिन-रात घूम रहा है, बल्ब भी लगातार जलते रहते हैं। ऊपर से आपने नया मोबाइल खरीदा है, उसे भी चार्ज पर लगाते हो। बिल तो सही ही बना है।” यह सुनते ही रमेश का चेहरा फीका पड़ गया। मोहल्ले के बच्चे ठहाका मारकर हँस पड़े और पड़ोसनें मुस्कुराते हुए फुसफुसाईं—“अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे।” शर्मा जी हुक्का पीते हुए बगल में खड़े थे। उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा—“क्यों रमेश बाबू, अब तो यक़ीन हो गया? मीटर भी ठीक है, बिल भी ठीक है। अब बहाना कौन-सा नया ढूँढोगे?”

रमेश शर्मिंदगी से पानी-पानी हो गया। उसने धीरे से बड़बड़ाया—“असल में… मैंने सोचा कि शायद…” लेकिन उसकी आवाज़ खुद उसके कानों तक साफ़ नहीं पहुँची। शर्मा जी ने वहीं पर बिल का हिसाब-किताब खुलवाया और रमेश से सख़्ती से कहा—“देखो भाई, किरायेदार का मतलब यह नहीं कि हर महीने नया बहाना बनाओ। यह मोहल्ला है, सब देखते हैं। अब इस बिल का पैसा भी समय पर चुकाओगे, वरना मीटर कट जाएगा और फिर अंधेरे में बैठकर मोबाइल की रोशनी में बहाने गढ़ना पड़ेगा।” यह सुनते ही मोहल्ले में ठहाके गूँज उठे। रमेश सिर झुकाकर कमरे में चला गया और बिस्तर पर बैठकर माथा पकड़ लिया। उसे अब एहसास हुआ कि शर्मा जी कोई साधारण मकान मालिक नहीं, बल्कि असली चालबाज़ हैं। उसकी बहानेबाज़ी को हर बार रंगे हाथ पकड़ लिया जाएगा। बाहर मोहल्ले में चर्चा गर्म थी—“अब तो मालिक और किरायेदार की यह जंग देखने लायक होगी।” और इस तरह बिजली के बिल का खेल रमेश के लिए एक और शिकस्त साबित हुआ, जबकि शर्मा जी के आत्मविश्वास और चालाकी की जीत ने पूरे मोहल्ले का मनोरंजन कर दिया।

शर्मा जी और रमेश के बीच का किराया-युद्ध धीरे-धीरे पूरे मोहल्ले का मुख्य आकर्षण बन गया था। अब हालात ऐसे थे कि गली की औरतें शाम को सब्ज़ी वाले से सब्ज़ी लेने से पहले खड़ी होकर सबसे ताज़ा गपशप यही करती थीं—“आज रमेश ने क्या नया बहाना मारा?”, “शर्मा जी ने अबकी बार कौन सा पलटवार किया?”। चाय की दुकान पर बैठे बुज़ुर्ग तक इस मुद्दे पर चर्चा करते रहते। कोई कहता, “भाई, किरायेदार तो बड़ा चालाक निकला!”, तो कोई हंसकर जोड़ देता, “और मालिक भी किसी खच्चर से कम नहीं है!”। धीरे-धीरे मोहल्ले का माहौल ऐसा हो गया था कि लोग शाम की दहलीज़ पर बैठकर इन दोनों के बीच की नोकझोंक का इंतज़ार करने लगे। मानो जैसे कोई सीरियल चल रहा हो और अगले एपिसोड का रोमांच सबको खींच लाता हो।

पड़ोस की औरतें अक्सर अपनी खिड़की से झांककर देखती रहतीं कि कब रमेश और शर्मा जी आमने-सामने होंगे। जब भी गली में थोड़ी ऊँची आवाज़ सुनाई देती, तो सब अपने-अपने काम छोड़कर बाहर झांकने लगते। रमेश अगर गेट से बाहर निकलता और शर्मा जी तुरंत उसे पकड़कर कुछ कहते, तो थोड़ी ही देर में दस-बीस लोगों की भीड़ खड़ी हो जाती। कोई ठहाके लगाता, कोई सलाह देने लगता—“अरे शर्मा जी, आप किराया एडवांस में ले लीजिए”, “रमेश भैया, आप तो पूरा फिल्मी बहानेबाज़ हो!”। मोहल्ले के बच्चे भी पीछे नहीं थे। वे रमेश का मज़ाक उड़ाते हुए गली में गाना गाते—“किराया देना मुश्किल है, बहाना बनाना आसान है!”। कुछ तो घर की दीवारों पर चॉक से कार्टून भी बना देते—एक तरफ रमेश को खाली जेब लिए दिखाते, तो दूसरी तरफ शर्मा जी को गुस्से से लाल।

हालात इतने मजेदार हो गए कि गली में जब कोई मेहमान आता, तो लोग बड़े गर्व से कहते, “हमारे मोहल्ले में तो रोज़-रोज़ कॉमेडी शो चलता है।” मेहमान जिज्ञासु होकर पूछते—“कौन सा शो?”, तो जवाब मिलता—“अरे वही, मालिक और किरायेदार का!”। धीरे-धीरे यह तमाशा आसपास के मोहल्लों तक भी चर्चा का विषय बन गया। लोग यहाँ तक कहने लगे कि शर्मा जी और रमेश की कहानी पर अगर कोई थिएटर वाला नाटक बना दे, तो हाउसफुल हो जाए। वहीं, रमेश कभी-कभी शर्मिंदा हो जाता, लेकिन अपने हाजिरजवाब अंदाज़ से सबको हंसा देता। एक दिन तो उसने सबके सामने कहा—“भाईसाब, अगर मैं किराया समय पर दे दूँ तो आप सबके गपशप का मज़ा चला जाएगा!” और यह सुनकर पूरा मोहल्ला हँसी से लोटपोट हो गया।

लेकिन इस हंसी-ठिठोली के पीछे कहीं न कहीं असली तनाव भी छिपा हुआ था। शर्मा जी सोचते थे कि किराया उनकी मेहनत की कमाई है, कोई भी इसे हल्के में क्यों ले? वहीं रमेश की परेशानी यह थी कि मोहल्ले की नजरों में अब उसकी छवि “बहानेबाज़” की बन गई थी। फिर भी, दोनों की इस खट्टी-मीठी नोकझोंक से मोहल्ले में रौनक सी बनी रहती। बच्चे, बड़े, औरतें, मर्द—सब इस तमाशे के दर्शक थे और इस वजह से गली कभी उदास नहीं लगती थी। लोग कहते—“दूसरे मोहल्लों में टीवी देखना पड़ता है, पर हमारे यहाँ तो लाइव शो है!”। इस तरह, “मालिक vs किरायेदार” का यह ड्रामा धीरे-धीरे सिर्फ उनका व्यक्तिगत मामला नहीं रहा, बल्कि पूरे मोहल्ले की सामूहिक मनोरंजन सभा बन गया।

रमेश अब तक अलग-अलग बहाने बनाकर किराया टालता रहा था, लेकिन उसे धीरे-धीरे एहसास हुआ कि केवल टालमटोल से काम नहीं चलेगा। शर्मा जी भी उसके चालाकियों का जवाब चालाकी से देने लगे थे, और अब पूरा मोहल्ला उनके झगड़े को तमाशा समझने लगा था। रमेश ने सोचा कि अगर उसे यहाँ टिके रहना है तो अब उसे नया हथियार अपनाना होगा—खुद को पीड़ित बनाना। उसने योजना बनाई कि इस बार किराया देने से पहले ही घर की तमाम कमियों को गिनाकर शर्मा जी को दोषी ठहराना है। शाम को जब शर्मा जी आँगन में बैठे अखबार पढ़ रहे थे, रमेश अचानक उनके सामने आकर गंभीर आवाज़ में बोला—“शर्मा जी, किराया घटाइए। यह घर रहने लायक ही नहीं है। दीवारों में सीलन टपकती है, पंखा ऐसा शोर करता है जैसे रेलगाड़ी निकल रही हो, और छत से पानी टपकने की संभावना हर बरसात में बनी रहती है। आप कहते हैं किराया दो, लेकिन इतनी खराब हालत के घर का किराया तो आधा होना चाहिए।” यह सुनकर शर्मा जी का अखबार हाथ से गिर गया और चेहरे पर एक लंबी हंसी दौड़ गई।

शर्मा जी ने पहले तो रमेश की बात को मजाक समझा और कहा—“अरे भाई, इतने साल से यह घर खड़ा है, तुम पहले किराया तो समय पर दो, मरम्मत का काम मैं करवा दूँगा।” लेकिन रमेश कहाँ हार मानने वाला था। उसने बड़े नाटकीय अंदाज़ में घर की टूटी-फूटी चीज़ों की लिस्ट बना डाली। उसने पड़ोसियों के सामने भी जोर-जोर से बोलना शुरू कर दिया—“देखिए सब लोग, मैं यहाँ रहने के लिए पैसे दे रहा हूँ, और बदले में मुझे मिल रही है दीवारों की नमी, टूटे ताले और शोरगुल वाला पंखा। क्या यह इंसाफ है?” मोहल्ले वाले जो पहले सिर्फ हंसी-मज़ाक के लिए खड़े होते थे, अब आधे-आधे बंट गए। कुछ रमेश का पक्ष लेने लगे—“सही तो कह रहा है, मकान मालिक को जिम्मेदारी लेनी चाहिए।” वहीं कुछ लोग शर्मा जी का बचाव करने लगे—“किरायेदार तो हर बार नया बहाना ढूंढता है, यह तो साफ चालाकी है।” इस तरह मामला केवल किराए का नहीं रहा, बल्कि मोहल्ले में बहस का नया मुद्दा बन गया।

रमेश ने अपनी चाल और भी चतुराई से खेली। उसने एक दिन खुद ही दीवार की सीलन पर चूना पोत दिया और फिर मोहल्ले की औरतों को बुलाकर दिखाने लगा—“देखिए, यह सब मुझे ही करना पड़ता है। किराए में कटौती क्यों न हो?” बच्चे भी अब उसका मजाक उड़ाते हुए कहते—“रमेश अंकल ने तो खुद को मोहल्ले का इंजीनियर बना लिया।” वहीं रमेश ने शर्मा जी को हर बार ताना मारना शुरू कर दिया—“आप मकान मालिक हैं, लेकिन जिम्मेदारी निभाना तो दूर, उल्टा मुझसे पूरा किराया वसूलना चाहते हैं।” शर्मा जी की झुंझलाहट अब गुस्से में बदल रही थी, लेकिन मोहल्ले की भीड़ के सामने कुछ कह नहीं पा रहे थे। रमेश को लग रहा था कि उसकी रणनीति सफल हो रही है। उसने तो यहां तक धमकी दे डाली कि अगर किराया कम नहीं हुआ, तो वह मोहल्ले के पंचायत में शिकायत करेगा और सबके सामने शर्मा जी की पोल खोलेगा।

लेकिन शर्मा जी भी पुराने खिलाड़ी थे। उन्होंने रमेश की हरकतों को गौर से देखा और मन ही मन ठान लिया कि अबकी बार जवाब और भी जोरदार होगा। उन्हें समझ आ गया था कि रमेश सिर्फ किराया टालना नहीं चाहता, बल्कि अब तो उल्टा दबाव डालकर कम किराया देने का बहाना ढूंढ रहा है। शर्मा जी के चेहरे पर हल्की मुस्कान लौट आई, क्योंकि उन्हें भरोसा था कि जल्द ही रमेश का यह नया हथियार भी उन्हीं पर उल्टा पड़ेगा। दूसरी ओर मोहल्ले के लोग अब इस ‘किराया कटौती ड्रामा’ का बेसब्री से अगला मोड़ देखने के इंतजार में थे। कुछ को रमेश का पीड़ित बनना मजेदार लग रहा था, तो कुछ शर्मा जी के पलटवार का अंदाज़ा लगाने में लगे थे। गली फिर एक बार थियेटर बन चुकी थी, और दर्शक अपनी सीटें संभालकर अगले सीन का इंतज़ार कर रहे थे।

अब तक रमेश के बहाने मोहल्ले में चर्चा का विषय बन चुके थे। कोई कहता कि वह ‘बहानेबाज़ी का उस्ताद’ है, तो कोई कहता कि शर्मा जी भी उसे उसी की भाषा में जवाब देना जानते हैं। लेकिन इस बार शर्मा जी ने तय कर लिया था कि खेल अब और लंबा नहीं खिंचेगा। उन्होंने कानूनी ढंग से रमेश को घेरने की सोची। एक सुबह जब मोहल्ले के लोग अपने-अपने दरवाज़े खोलकर झाड़ू-बुहारी कर रहे थे, तो सबने देखा कि रमेश के घर के गेट पर एक बड़ा-सा नोटिस चिपका है। उस पर साफ लिखा था—“यदि आगामी सात दिनों में बकाया किराया अदा नहीं किया गया, तो मकान तुरंत खाली करना होगा।” मोहल्ले के बच्चे ज़ोर-ज़ोर से वह नोटिस पढ़ने लगे और औरतें हंसते हुए कहने लगीं—“लो भई, अब तो मालिक ने चाल चल दी है।” रमेश जब बाहर आया और नोटिस देखा, तो उसका चेहरा उतर गया। लेकिन वह भी कहाँ चुप बैठने वाला था; उसने तुरंत अपनी ‘सहानुभूति कार्ड’ की फाइल खोल ली।

रमेश मोहल्ले के लोगों को जमा करके बड़ी मासूमियत से बोला—“देखिए, आप सब मेरे गवाह हैं। मैं जान-बूझकर किराया नहीं रोकता। पर क्या करूँ? मेरी माँ बीमार हैं, उनकी दवाई का खर्चा बहुत बढ़ गया है। पिछले महीने ही डॉक्टर को बड़ी रकम देनी पड़ी।” उसने इतना कहा ही था कि कुछ लोग उसके प्रति सहानुभूति दिखाने लगे। लेकिन शर्मा जी, जो सामने ही खड़े थे, व्यंग्य से बोले—“अरे वाह! बीमार माँ का बहाना, और उसी समय नया मोबाइल, नया सूट और पिज़्ज़ा की पार्टी भी?” भीड़ में ठहाका गूंज उठा। रमेश थोड़ी देर के लिए झेंप गया, पर तुरंत दूसरा पत्ता खोला—“अरे शर्मा जी, मोबाइल तो ऑफिस की ज़रूरत थी। वैसे भी नौकरी पर से निकालने की धमकी मिल रही है, अगर समय पर अपग्रेड न करूँ तो काम कैसे चलेगा?” यह सुनकर कुछ लोग उसके समर्थन में सिर हिलाने लगे। रमेश ने देखा कि सहानुभूति का असर हो रहा है, तो उसने तीसरा बहाना भी जोड़ दिया—“और हाँ, मेरी बहन की शादी भी है अगले महीने, कुछ तो खर्च बचाकर रखना पड़ता है न।”

अब मोहल्ला पूरी तरह ‘बहाना-सभा’ में बदल गया। औरतें खुसर-पुसर करने लगीं—“बेचारे की बहन की शादी है।” वहीं बच्चे फिर मज़ाक उड़ाने लगे—“शादी, नौकरी, बीमारी—रमेश अंकल के पास हर बार नया बहाना है।” शर्मा जी भी अब रमेश की नाटकीयता देखकर हँसी रोक नहीं पा रहे थे। उन्होंने ठंडी सांस लेकर कहा—“रमेश जी, अगर आपके पास इतना ही खर्च है तो आपको पहले से सोचना चाहिए था कि किराया देने की क्षमता है या नहीं। मकान मालिक कोई परोपकारी संस्था नहीं होता। हमें भी खर्च चलाना पड़ता है।” रमेश तुरंत पलटकर बोला—“मगर इंसानियत नाम की भी कोई चीज़ होती है, शर्मा जी। हर बार पैसों का हिसाब-किताब नहीं चलता, कभी दिल भी देखना चाहिए।” उसकी इस ‘भावनात्मक अपील’ ने मोहल्ले के कुछ लोगों को फिर सोच में डाल दिया।

लेकिन इस बार शर्मा जी पीछे हटने को तैयार नहीं थे। उन्होंने सबके सामने गंभीर स्वर में कहा—“मोहल्ले के सभी लोगों को गवाह बनाकर कह रहा हूँ—अगर रमेश जी ने एक हफ्ते में बकाया किराया अदा नहीं किया, तो उन्हें यह मकान खाली करना होगा। बहाने चाहे कितने ही बड़े क्यों न हों, मकान मालिक और किरायेदार का रिश्ता सिर्फ किराए से चलता है।” रमेश ने फिर भी अपनी दुखभरी कहानियाँ सुनाकर सहानुभूति बटोरने की कोशिश की, लेकिन शर्मा जी का नोटिस अब मोहल्ले में चर्चा का केंद्र बन चुका था। लोग इंतज़ार करने लगे कि अगले सात दिनों में असलियत क्या सामने आएगी—क्या रमेश किराया देगा, या सच में मकान खाली करेगा? माहौल में सस्पेंस घुल चुका था, और गली का यह ‘लाइव शो’ अब क्लाइमैक्स की ओर बढ़ रहा था।

शर्मा जी अब रमेश की लगातार बहानेबाज़ी और चालाकियों से पूरी तरह तंग आ चुके थे। गली में हर रोज़ किराए की चर्चा मोहल्लेवालों का मनोरंजन भले ही बन रही थी, लेकिन उनके लिए यह सिरदर्द से कम नहीं था। आखिरकार एक दिन गुस्से से लाल होकर शर्मा जी ने रमेश के सामने ऐलान कर दिया—“बस बहुत हो गया! अब अगर किराया नहीं मिला तो मैं सीधे अदालत जाऊँगा। वहाँ जाकर देखेंगे कि कानून क्या कहता है।” यह सुनते ही मोहल्ले में हलचल मच गई। औरतें चौखट पर खड़ी होकर कानाफूसी करने लगीं—“अरे अब तो मामला कोर्ट तक पहुँच गया!” बच्चे सड़क पर खेलते-खेलते यह खबर एक-दूसरे तक पहुँचा रहे थे। रमेश ने चेहरे पर थोड़ी देर के लिए गंभीरता का भाव लाया, लेकिन अगले ही पल मुस्कुराते हुए बोला—“शर्मा जी, आप अदालत जाने की बात कर रहे हैं? मुझे डराने की कोशिश मत कीजिए। मेरे एक अच्छे दोस्त वकील हैं, और उन्हें किरायेदार कानून रटकर याद है। अदालत में तो मेरा ही पलड़ा भारी रहेगा।” रमेश की यह आत्मविश्वास भरी घोषणा सुनकर मोहल्ले के लोग फिर हँसने लगे।

अब शुरू हुई असली जुबानी जंग। शर्मा जी ने गुस्से में उंगली उठाते हुए कहा—“कानून मकान मालिक की मेहनत और हक़ का भी संरक्षण करता है। किराया नहीं दोगे तो चाहे कोई भी वकील आ जाए, घर खाली करना ही पड़ेगा।” रमेश ने तुरंत चालाकी से जवाब दिया—“अरे नहीं शर्मा जी, आपको शायद पता नहीं, किरायेदार कानून बहुत मजबूत है। किरायेदार को जब तक मजबूरी है, तब तक मकान मालिक एकतरफा मकान खाली नहीं करा सकता। और फिर आप पर तो केस भी बन सकता है अगर आपने मुझे बिना नोटिस तंग किया।” उसकी यह कानूनी भाषा सुनकर मोहल्ले के लोग ठहाका मारने लगे—“वाह! रमेश तो वकील से भी बड़ा वकील हो गया!” वहीं कुछ लोग गंभीर होकर सोचने लगे कि सच में किरायेदार के हक़ ज्यादा मजबूत होते हैं। शर्मा जी की आँखों में गुस्सा और हताशा साफ झलक रही थी।

लेकिन रमेश यहीं नहीं रुका। उसने मोहल्ले की औरतों और बच्चों को गवाह बनाते हुए कहा—“आप सब जानते हैं कि मैंने यहाँ कितना सहा है। सीलन वाली दीवारें, शोर करने वाला पंखा, टूटे ताले—ये सब मेरी मजबूरी है। फिर भी मैं यहाँ रह रहा हूँ क्योंकि मुझे अचानक दूसरी जगह शिफ्ट होना मुश्किल है। अदालत में मैं यही साबित कर दूँगा कि मकान मालिक अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर रहा।” शर्मा जी ने पलटकर तंज कसा—“तो फिर हर महीने नया मोबाइल और नए कपड़े कहाँ से आ जाते हैं? अदालत में यही सवाल उठाऊँगा कि अगर इतना खर्च कर सकते हो तो किराया क्यों नहीं दे सकते?” मोहल्ले में खड़े लोग अब हँसी और तालियों से इस बहस को और भी मजेदार बना रहे थे। हर कोई चाहता था कि यह मुक़ाबला लंबा चले ताकि उनका मनोरंजन होता रहे।

अंततः गली की यह बहस छोटे-से अदालती नाटक में बदल गई। रमेश कानून और वकील का नाम लेकर खुद को सुरक्षित दिखा रहा था, जबकि शर्मा जी मकान मालिक के हक़ और अपने धैर्य का हवाला दे रहे थे। दोनों की जुबानी जंग इतनी तीखी और हास्यास्पद हो गई कि लोग इसे ‘कोर्टरूम ड्रामा’ कहकर पुकारने लगे। बच्चे खेल-खेल में ‘जज बनकर’ फैसला सुनाने लगे—“रमेश अंकल को किराया देना ही होगा!” और फिर दूसरे बच्चे रमेश का पक्ष लेकर कहते—“नहीं, रमेश अंकल जीते!” मोहल्ले की यह अद्भुत स्थिति देखकर लग रहा था जैसे किसी टीवी धारावाहिक की शूटिंग हो रही हो। मगर असली सवाल अब भी वहीं खड़ा था—क्या यह मामला वाकई अदालत तक जाएगा, या फिर किसी और चालाकी से दोनों इसका नया मोड़ निकाल लेंगे? suspense गली की दीवारों में गूंज रहा था, और सभी उत्सुक थे कि अगला धमाका क्या होगा।

अदालत तक धमकी पहुँचने के बाद अब माहौल पहले से भी ज्यादा गरम हो चुका था। गली के हर कोने में सिर्फ एक ही चर्चा थी—“क्या शर्मा जी और रमेश सच में कोर्ट जाएँगे?”। इसी बीच रमेश ने सोचा कि थोड़ी नरमी दिखाकर मामला ठंडा किया जाए। एक शाम वह शर्मा जी के पास आया, हाथ जोड़कर बोला—“देखिए शर्मा जी, मैं मानता हूँ कि आप भी परेशान हो चुके हैं और मैं भी। मगर इतना पैसा एक साथ देना मेरे लिए मुश्किल है। चलिए, समझौता कर लेते हैं—आधा किराया अभी दे देता हूँ, और आधा अगले महीने चुका दूँगा।” रमेश का लहजा इस बार पहले से कहीं ज्यादा नम्र और दयनीय था। उसके चेहरे पर ऐसी मासूमियत थी जैसे वह सचमुच ईमानदारी से हल निकालना चाहता हो। मोहल्ले के लोग जो गली के कोने पर खड़े थे, तुरंत कानाफूसी करने लगे—“अरे देखो, अब रमेश खुद समझौता करने आया है।”

लेकिन शर्मा जी रमेश की इस नई पेशकश पर तनिक भी भरोसा करने को तैयार नहीं थे। उन्होंने हाथ झटकते हुए कहा—“रमेश जी, आपकी बातें अब मेरे लिए सिर्फ बहाने हैं। आज आधा दोगे, अगले महीने कहोगे नौकरी चली गई, माँ बीमार हो गई, शादी का खर्च है—कुछ न कुछ नया बहाना मिल ही जाएगा। मुझे पूरा किराया चाहिए, वरना घर खाली करना होगा।” रमेश ने फिर भी कोशिश करते हुए कहा—“नहीं शर्मा जी, इस बार मैं वादा करता हूँ। देखिए, मेरी जेब में पैसे भी हैं। आधा दे देता हूँ, ताकि आपकी नाराज़गी भी कम हो और मेरा बोझ भी थोड़ा हल्का हो जाए।” यह सुनकर आसपास खड़े लोग असमंजस में पड़ गए। कुछ कहने लगे—“बेचारे रमेश को मौका दे दीजिए, आधा ही सही, कम से कम शुरुआत तो कर रहा है।” वहीं कुछ लोग ठहाका लगाकर बोले—“ये तो वही बात हुई, दूध का उधार चुकाने के लिए पानी से गिलास भर देना।”

माहौल और गरमाता देख मोहल्ले के बुज़ुर्ग बीच में आ गए। एक बुज़ुर्ग ने कहा—“देखो भाई, रोज़-रोज़ तमाशा हो रहा है। क्यों न बीच का रास्ता निकाल लें? रमेश आधा किराया अभी दे दे और बाकी महीने भर में चुका दे। आखिर इंसानियत भी कोई चीज़ होती है।” शर्मा जी अब भी अड़े रहे—“नहीं, मैं अब और विश्वासघात नहीं चाहता।” लेकिन रमेश ने अपने पक्ष में भावनात्मक लहर खड़ी कर दी। वह सबके सामने लगभग रोने लगा—“आप सब ही सोचिए, मैं कहाँ जाऊँ? नौकरी की हालत खराब है, घर पर जिम्मेदारियाँ हैं। अगर शर्मा जी भी मुझे मौका न देंगे तो मैं कहीं का नहीं रह जाऊँगा।” उसकी इस ‘दुख भरी एक्टिंग’ ने कई लोगों का दिल पिघला दिया। औरतें कहने लगीं—“बेचारे को थोड़ा वक्त और मिल जाना चाहिए।” शर्मा जी ने चारों ओर देखा, तो समझ गए कि भीड़ अब रमेश की तरफ झुक रही है।

आख़िरकार, मोहल्ले के दबाव में शर्मा जी ने थोड़ी ढील दी, लेकिन साफ शब्दों में कहा—“ठीक है रमेश जी, अगर मोहल्ले की पंचायत यही कह रही है तो मैं मान लेता हूँ। आधा किराया अभी लीजिए और अगले महीने बाकी दीजिए। लेकिन याद रखिएगा, इस बार अगर बहाना बनाया तो आपको तुरंत मकान खाली करना पड़ेगा। कोई मोहल्ला, कोई पंचायत बीच में नहीं आएगी।” रमेश ने तुरंत जेब से पैसे निकालकर शर्मा जी के हाथ पर रख दिए और नाटकीय अंदाज़ में बोला—“धन्यवाद शर्मा जी, आपने मेरा सम्मान बचा लिया।” मोहल्ले के लोग तालियाँ बजाने लगे, जैसे किसी बड़े युद्ध का समझौता हो गया हो। लेकिन भीतर ही भीतर सब जानते थे कि रमेश की बहानेबाज़ी की आदत इतनी आसानी से खत्म नहीं होगी। गली में अब सबकी निगाहें अगले महीने की ओर टिकी थीं—क्या रमेश अपना वादा निभाएगा, या फिर कोई नया बहाना लेकर लौटेगा? यही suspense अब सबका नया मनोरंजन बनने वाला था।

१०

रमेश कई दिनों तक इधर-उधर दौड़भाग करता है। कभी दोस्त से उधार मांगता है, कभी दफ़्तर में एडवांस लेने की कोशिश करता है, कभी रिश्तेदारों को फोन लगाकर “बस थोड़े दिन की बात है” वाला डायलॉग दोहराता है। मोहल्ले वाले भी अब इस नाटक में दिलचस्पी लेने लगे थे। कोई कहता, “देखो, आज रमेश बैंक जा रहा है, शायद पैसे का इंतज़ाम हो जाए।” तो कोई हँसते हुए जोड़ देता, “अरे! ये तो पक्का फिर कोई नया बहाना बनाएगा।” लेकिन सबको चौंकाते हुए रमेश अचानक एक शाम शर्मा जी के दरवाज़े पर दस्तक देता है और पूरे किराए की गड्डी उनके हाथ में थमा देता है। शर्मा जी एक पल के लिए हैरान हो जाते हैं। उन्हें लगा था कि ये आदमी कभी पैसे नहीं देगा, लेकिन जब नोट उनके हाथ में आए तो मन ही मन उन्हें राहत मिली। उनकी आँखों के सामने मानो जीत का झंडा लहरा गया हो। उन्होंने सोचा कि अब शायद उनके दुखों का अंत हो गया है और अगले महीने से किराया समय पर मिलने लगेगा।

लेकिन कहानी का असली ट्विस्ट तो अभी बाकी था। किराया चुका देने के बाद रमेश का चेहरा एकदम संतोष से भरा हुआ था, जैसे उसने कोई बड़ी जंग जीत ली हो। उसने बड़ी चालाकी से कहा, “देखिए शर्मा जी, मैं आपका सम्मान करता हूँ, इसलिए पूरा किराया चुका दिया। लेकिन आप भी समझिए, आजकल ज़माना खराब है, पैसों की दिक्कत हर किसी को होती है।” शर्मा जी गुस्से में थे लेकिन फिलहाल कुछ नहीं बोले। उन्हें लगा कि अगर अभी बोले तो कहीं फिर बहानेबाज़ी न शुरू हो जाए। उन्होंने सोचा कि चलो, इस बार की लड़ाई यहीं खत्म हो जाए, अगले महीने देखते हैं। लेकिन रमेश के मन में तो पहले से ही नई स्क्रिप्ट तैयार थी।

अगले महीने की तारीख़ आते ही फिर वही ड्रामा शुरू हो गया। इस बार रमेश के चेहरे पर एक मासूमियत भरी चिंता थी। वह शर्मा जी के सामने बैठा और बोला, “अरे शर्मा जी, इस बार तो बड़ी आफ़त आ गई है। कंपनी से सैलरी ही लेट हो गई। अब मैं क्या करूँ? जब पैसा ही नहीं आया तो आपको किराया कैसे दूँ?” यह सुनते ही शर्मा जी का माथा ठनक गया। उन्हें लगा जैसे पूरी मेहनत और सख़्ती बेकार चली गई। लेकिन रमेश बड़ी आत्मविश्वास से बोलता चला गया, “आप ही बताइए, इंसान बिना सैलरी के कहाँ से देगा? आपको थोड़ा और इंतज़ार करना पड़ेगा।” शर्मा जी एकदम निरुत्तर हो गए। आसपास के पड़ोसी, जो यह तमाशा देखने के लिए खड़े हो गए थे, ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। किसी ने कहा, “अरे वाह! फिर से वही पुराना खेल शुरू हो गया।” किसी ने ताना मारा, “अब तो ये नाटक सीरियल की तरह रोज़ चलेगा।”

इस तरह मालिक और किरायेदार का यह अनोखा खेल बिना किसी अंत के चलता रहा। हर महीने एक नई कहानी, एक नया बहाना, और एक नया पलटवार। मोहल्ले वालों के लिए यह नाटक अब उनकी रोज़मर्रा की मनोरंजन की खुराक बन गया था। शर्मा जी भी समझ चुके थे कि रमेश से छुटकारा पाना इतना आसान नहीं है। और रमेश? उसे तो जैसे इस झगड़े में मज़ा आने लगा था। उसका आत्मविश्वास हर बार और बढ़ता चला गया। नतीजा यह हुआ कि दोनों के बीच यह जंग कभी ख़त्म ही नहीं हुई। कहानी वहीं लौट आई जहाँ से शुरू हुई थी—मालिक और किरायेदार की अंतहीन कॉमेडी, जो हर महीने नए ट्विस्ट के साथ दोहराई जाती रही।

समाप्त

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